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* एकादशमांग विपार्क सूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध 48
अक्खिवेयणा, कण्णवेयणा, कंडू, उदरे. कोड्डे, ॥ ५३ ॥ तएणं से एक्काइरटुकडे सोलसहिं रोयातंकेहिं अभिभूएसमाणे कोडुचिय पुरिसेसदाइ २त्ता एवं वयासी-गच्छहणं तुब्भे देवाणुप्पिया ! विजयवद्धमाणे सिंघाडग तिय चउक्क चच्चर महापहेसु महया २ सहेणं उघोसेमाणे २ एवं वयाली-एवं खल.देवाणप्पिया! एक्काइस्ट्रकडस्स सरीरगंसि सोलसरोयंका पाउन्भूया तंजहा-सासे खासे जाव कोडेय, तंजोणं इच्छइ देवाणुप्पिया! विजोवा विज पुत्तेवा, जाणआवा, जाणपुत्तोवा, तेइच्छीयोवा, तेइच्छीय पुत्तावा,
एक्काइरट्ठकुडस्स एसिं सोलसण्हं ऐगायंकाएणं एगमविरोगायक उवसामित्तए तस्सणं १६ कोड ॥५३॥तब फिर वह एक्काइराठोड उन सोलइरोगांतक प्राणों का नाशकरे ऐसे उन से पराभवपाया हुवा, कोटुम्बिकआज्ञाकारी पुरुपका बोलाया,वोलाकर यों कहने लगा-हे देशानुभिया! तुम जाबा विजय वृद्धमानखेडमें शृगाटकपंथ में, त्रीपंथ में, चौरास्ते में, महापंथ-राज्यपंथ में महाशब्दकर उद्यापनाकरो, उद्घोशना करते हुवे ऐसा कहाकि-अहो देवानुप्रिया : एक्काइराठोड के शरीर में साले रोगांतक प्रगट उन के नाम-श्वाश खांसी यावत् कोड, इस लिये अहो देवानुपिया ! वैद्य वैद्य के पुत्र, वैद्य के जान, वैद्यक शास्त्र के जानने वाले के पुत्र, औषधीवाले, औषधीवालों के पुत्र, जोकोई इच्छताहा वह एक्काइराठोड के शरीर में के इस मोलेरोगों में का एक भी राग उपशमावेगा-गमावेगा उमको एक्काइराठोड
दुःखविपाक का पहिला अध्ययन-मृगापुत्र का 488
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