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एकादशमांग-विपाकपुत्र का प्रथम श्रुतस्कम्घ8
तुम्हं अम्हेहिंसद्धिं उराले भोग भोगाई भुंजमाणे विहरिस्सइ ॥ २७ ॥ तएणं से चिंते अलंकारिए गदिसेणस्स कुमारस्स क्यणं एयमटुं पडिसुणेइ २ ॥ २८ ॥ तएणं तस्स चित्तस्स अलंकारियस्स इमेयारूचे जाव समुप्पजिधा-जइणं ममं सिरिदामेराया एयमटुं आगमेइ, तएणं ममं णणजइ केणइ असुभेणं कुमरेणणं मारिस्सत्ति त्तिकह भीए ४, जेणेव सिरिदामेराया तेणेच उवागच्छइ २ त्ता सिरिदामरायं रहस्सिएगं करयल जाव एवं वयासी-एवं खलु सामी ! णंदिसेणकुमार रज्जेय जात्र मुच्छिए ४ इच्छइ तुम्भे जीवियाओ विवरोवित्ता सयमेव रजेसिरिं करेमाणे पालेमाणे विहरह
॥२९॥ तएणं से सिरिदामेराया चित्तस्स अलंकारीयस्स अंतिए एयमटुं सोचाणिसम्म सम्बंधी भोग भोगवते विचरेंगे।।२७॥ तब फिर उस चित्र नामक अलंकारी [नापिक ने नंदीसेन कुमार का उक्त कथन प्रपान किया ॥ २८ ॥ तब फिर वह चित्र नपिक को इस प्रकार मध्यवसाय उत्पन्न हुवा-जो श्रीदाम राजा मेरी यह बात जान जाये तो नमालुप मुझ को कित कु मृत्युकर मारें, ऐना विचार कर वह भय भ्रांत हुवा त्रास पाया, जहां श्रीदामराजा या तहां आया, आकर श्रीदामराजा को गुप्त एकान्त में हाथ जोड यावत् यों कहने लगा-यों निश्चय हे स्वामी ! नन्दीसेन कुमार राज्य में मूञ्छित हो तुमारे को 50 मारकर आप स्वयं राज्य करना चहाता है ॥ २१ ॥ तब फिर श्रीदाम राना चित्र नापिक के मुखमे उक्त
48 दुःखविपाक का-छठा अध्ययन-नंदीसन
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