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। अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपिजी +
माणिज उदाहु सयमेवगच्छित्ता॥५०॥तए कोडुबिय पुरिसे महब्बलस्स रणो करयल जाव पडिमुणइ२त्ता पुरिमतालाओ गयराओ पांडनिक्खमइ रत्ता णाइविकटुहिं अहा हिं सहहिं पातरासेहिं जणव सालाडवी चीरपल्ली तेणेव उवागच्छइरत्ता अभग्गसेण चौरसेणावहस्स करयल जाव एवं वयामी एवं खलु देवाणुप्पिया ! पुरिमताल णयरे महब्बलस्स रण्णो उस्सुक्के जाव उदाहु सयवच्छित्ता ? ॥५१ ॥ तएणं से अभग्ग
सेणे ते काडुबिय पुरिसं एवं वयासी-अहण्णं देवाणुप्पिया ! पुरिमताले नयरे सय. स्वयंपेत्र वहाँ पधागे ॥ ५० ॥ दव फिर कौमक पुरुष महा बलराजा का वचन हाय जोड शिरसावन अंजली कर विनय महिनश्रण किया. अषण कर पुरिपताल नगर मे निकलकर धीरे २ रास्ते में सु सुख से मुकाम करता हा. जन सिराम पालू आदि करता हुवा, जहां नालाटवी चोर पल्ली थी तहां आया, आकर अभग्गन चार मेनापति का जय विजय कर बधाया, बधाकर यों कहने लगा-यों
श्रय देवानुप्रिय! परिपताल नगर में यहा बलराजाने प्रमोद उत्सव मंडा है, दश दिन दाण हांस भी बन्धकिया है, इसलिय कहीये आपको अशसादि यहां लाकर अर्पण करूं कि आपस्वयमेव वहां पधारते हो ? ॥५१॥ तब फिर वह अभगमेन चार सेनापति उस कौटुम्बिक पुरुष को यों कहने लगाहे देवानुप्रिय ! पुरिमताल नगर में मैं सयं ही अपनाबसब परिवार लेकर आताहूं. यों कहकर उस
.प्रकाशक-गजाबहादुर लाला मुखदवमहायजी ज्वाला प्रसादजी.
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