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एकादशमांग-विपाकसूत्र का द्वितीय श्रुतस्कन्ध
तहेव अणगारे जाए, इरियासमिए जाव बंभयारी ॥ ३१ ॥ तएणं से सुबाहुअणगारे समणस्म भगवओ महावीरस्स तहारुवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारसअंगाई अहिजइ २ त्ता बहुहिं चउत्थछट्ठम तबो विहाणेणं अप्पाणं भाकित्ता बहुहिवासाई समणपरियागं पाउणित्ता, मातियाए सलेहणाए अप्पाणं झूसिता सर्टि भत्ताइं अणसणाई छेदित्ता आलोइय पडिकंते समाहिपत्ते कालमाप्ते कालंकिच्चा
सोहम्मकप्पे देवत्ताए उबवण्णे ॥ ३२ ॥ सेणं ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं अनगार श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामाजी के समीप रहने वाले तथारूप स्थविर के पास सामायिक आदिक इग्यारे अंगपढे, पढकर बहुत प्रकार चोथभक्त-उपवा वेला तेला आदि तपकर्मोपाधान से अपनी आत्मा को भावते बहुत वर्ष साधुपने की पर्याय का पालनकर, अन्तिम एक महिने की सलेषना से पापात्मा की झोसनाकर साठ भक्त अनशन का छेदन कर आलोचना प्रकिक्रमनाकर समाधी प्राप्त हो काल के अवसर काल कर के सौधर्म देवलोक में देवतापने उत्पन्न हुवा ॥ ३२ ॥ वह सुबाहु देव देवलोक से यहां का बन्धा आयुष्य का क्षयकर देवता का भव का क्षयकर देवता की स्थिति का क्षयकर अन्तर रहित चक्कर मनुष्यपने को प्राप्तहोगा, केवली प्रणित बोध से बोधित होगा, बोधित हो तथारूप स्थपिरपास मणित हो
सुख विपाका-पहिला अध्ययन-सुबाहुकुमार का
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