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मै कौन हूं।
सुख कैसे मिला ? प्रगट रूपसे तो यह दुःखकारक काम था।
शिष्य-मैं समझता हूं कि उस समय मैं जातिसेवाका काम मनसे कर रहा था, इससे मुझे सुख मिला था।
शिक्षक-तब उस समय क्या आपने पाचों इन्द्रियोंके भोग भोगे थे जो सुख मिला ?
शिष्य-नहीं, पांचो इन्द्रियोंके भोग नहीं भोगे थे, वहां तो भोगके साधन भी नहीं थे। अंधेरी रातमें खडे२ घूमता था, न कोई गाना था न बजाना था, न खाना था न पीना था, न सुन्दरताका देखना था, न संघना था, न किसी मित्रका समागम था।
शिक्षक-तब आपके कहनेसे ही यह बात आगई कि आपने इन्द्रियोंके भोगोंके विना भी कोई सुख पालिया जो सुख इन्द्रिय सुख नहीं है किंतु इन्द्रियसुखसे भिन्न है।
शिष्य-इसमें संदेह नहीं कि यह सुख इन्द्रियसुखसे भिन्न है तो क्या यही आत्माका स्वाभाविक सुख है ? यदि ऐसा है तो मुझे स्वयंसेवकीका कर्तव्य पालते हुए क्यों झलका तथा और समयपर क्यों नहीं मालम पड़ता 2
शिक्षक-वास्तवमें वह सुख भीतरसे उठा है वह आत्माके स्वाभाविक गुणका ही झलकाव है। स्वयंसेवकी एक परोपकारका काम है। जब आपने इस ड्यीको हाथमे लिया तब यह मंशा करली थी कि हम शरीरसे, धन घरसे, आरामसे मोह छोड़कर जो कुछ छोटीसी भी सेवा होगी उसको बजायंगे अर्थात् अपने मोहको कम किया था। और जब स्वयंसेवकी का कर्तव्य पाल रहे थे तब भी मोहको छोडे हुए वर्ताव कर रहे थे। मोहने ही