Book Title: Vidyarthi Jain Dharm Shiksha
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Shitalprasad

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Page 295
________________ जैनधर्म और हिंदू दर्शन | [ २७५ व रक्षा करनेवाला नहीं मानता है । उसके मत में जीव अपने कर्मोके अनुसार फल भोगता है, उसमें ईश्वरका कोई सम्पर्क नहीं है । यज्ञयागादि कर्म ही सबकुछ हैं । किन्हीं के मतमें पशुलि करना, पशुओं को यज्ञमे होमना, ऐसा मत इस दर्शनका है । वे अश्वमेध यज्ञ, अजमेध यज्ञ आदिसे स्वर्गफल बताते हे । भारतमें कभी ऐसे यज्ञोंका बहुत प्रचार था । श्री महावीर भगवान व गौतमबुद्ध के समय इन यज्ञों के प्रचारको इन महान आत्माओने अपने उपदेशसे बंद कराया । यदि पूजा पाठ भक्तिमे गृहस्थलोग मनके आलम्बनको अन्नादि योग्य पदार्थोसे काम लें व शुद्धात्मापर लक्ष देकर क्रिया करें तो जीव पुन्य बाधकर स्वर्ग जाते है, यह मत जैन दर्शनका भी है। परन्तु स्वर्ग अन्तिम ध्येय नहीं है, अंतिम ध्येय मुक्ति है । (६) - उत्तर मीमांसा वेदांत दर्शन वेदांत दर्शनके प्रवर्तक महर्षि बादरायण होगये हैं, ब्रह्मसूत्रमें इसका वर्णन है। इसके चार मुख्य भेद है— -ppsg (१) अद्वैत, (२) शुद्धाद्वैत, (३) विशिष्टाद्वैत, (४) द्वैत । (६- १) अद्वैत दर्शन | अद्वैत दर्शनके प्रधान आचार्य श्री शंकराचार्य होगए है | यह दर्शन केवल एक ब्रह्मको ही सत्य मानता है, ब्रह्मके सिवाय और सब मिथ्या है। जीवको ब्रह्मसे अलग नहीं मानता 1 " जीवो ब्रह्मैव नापरः, नित्यशुद्धबुद्धमुक्तसत्यम्वभावं प्रत्यक् चैतन्यमेव आत्मतत्वम् " ( वेदांतसार ) । भा० - जीव ब्रह्म ही है । दूसरा नहीं । नित्य शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, सत्य स्वभावी, वीतराग चैतन्यरूप ही आत्मतत्व' है । "

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