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विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। ब्रह्मस्वरूपी जीव मायाके साथ होकर संसारी जीव नाम पाता हैमाहेश्वरी तु या माया तस्या निर्माणशक्तिवत् । विद्यते मोहशक्तिश्च तं जीवं मोहयत्यसो ॥ मोहादनीशतां प्राप्य मग्नो वपुषि शोचति । (पञ्चदशी)
भा०-महेश्वरकी जो माया है उसमे निर्माण होनेकी शक्ति है। उससे मोह शक्ति होती है। वह जीवको मोहित कर लेती है। मोहसे जीव ईश्वरताको भूलकर गरीरमे मग्न हो शोच करता रहता है।
अनादिमायया सुप्तो यढा जीवः प्रबुध्यते । अजमानन्द्रमस्वप्नमदत वुध्यते तदा ॥
(माक्यकारिका १-१६) भा०-अनादि मायाके कारण सोया हुआ जीव जब जागता _है तब वह जानता है कि वह स्वयं ही जन्म रहित. निद्रा रहित, स्वप्न रहित एक अद्वैत ब्रह्म वस्तु है।
मायाको भी यह दर्शन ब्रह्मकी शक्ति मानता है । कहा है___“शक्तिगक्तिमतोरभेदात् " माया और ब्रह्म अभिन्न है। क्योंकि माया ब्रह्मकी ही शक्ति है।
भ्रमसे जगत नानारूप दीखता है. संसार भ्रम मात्र है। केवल एक बल ही ब्रह्म है।
जैन दर्शन द्वैत सिद्धात है, इस अद्वैतसे नहीं मिलता है। __ शुद्ध ब्रह्मसे माया कैसे होती है व वही क्यो मायासे मिलकर जीव
होजाता है। और संसारमें कष्ट भोगता है। ब्रह्मका संसाररूप होना भी शुद्ध ब्रह्मके लिये शोभनीक नहीं होता है। ऐसी शंकाएं एक जैन दर्शनको माननेवाले के चित्तमें पैदा होती है।