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जैनधर्म और हिंदू दर्शन।
[३७७ ___ जैसा पहले गीताके अध्यायमें कहा जाचुका है कि यदि स्वानुभवके समयकी अपेक्षा अद्वैतभाव लिया जावे तो जैन दर्शनसे अद्वैत मिल जाता है। परन्तु सत् पदार्थकी अपेक्षा नहीं मिलता है, क्योंकि जैन दर्शन छ:द्रव्य सत् मानता है। जीवोंको भिन्नर सत्तावान अनेक मानता है । परमाणुओंको अनेक भेदरूप मानता है।
(६-२) विशिष्टाद्वैत___ इस विशिष्टाद्वैतके प्रधान आचार्य रामानुजाचार्य होगए हैं । इस दर्शनने ब्रह्मका स्वरूप माना है
वासुदेवः परं ब्रह्म कल्याणगुणसंयुतः । भुवनानामुपादानं कर्ता जीव नियामकः॥
भा०-कल्याण गुणसे युक्त वासुदेव ही परब्रह्म है, वह ही सर्व भुवनोंके उपादान कर्ता है और जीवोंके नियामक है।
उसीसे सृष्टि, स्थिति व प्रलय होती है। इस दर्शनके मतमें यद्यपि ईश्वर, जीव, अजीव ये तीन पदार्थ हैं तथापि जीव व जड़ ईश्वराधीन है। ईश्वर ही भोक्ता और भोग्य ( जीव और जड़) दोनोंमें अन्तर्यामी रूपसे विराज रहे हैं।
तदेतत् कार्यावस्थस्य च कारणावस्थस्य च चिदचित् । वस्तुनः सकलस्य स्थूलस्य सूक्ष्मस्य च परब्रह्मशरीरत्वम् ॥
(२-१-१५) भाष्य । भा०-कार्यावस्थापन्न, कारणावस्थापन्न, चित् अचित् , स्थूल, सूक्ष्म सभी वस्तुएं परब्रह्मके शरीर हैं।
यह जीव परमात्माको भक्तिसे व अपनेको ईश्वरार्पण करदेनेसे