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जैनधर्म और हिंदू दशन |
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मानता है । मुक्ति होनेपर भी जीव अल्पज्ञ रहता है । वह परमात्माके समान नहीं होता है ।
सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ९ में नीचे लिखे वाक्यसे आप इनका मत समझ जायगे । यह परमात्मा, जीव व प्रकृति तीन पदार्थोंको अनादि मानते हैं ।
" मुक्ति में जीव विद्यमान रहता है । जो ब्रह्म सर्वत्र पूर्ण है उसीमें मुक्त जीव विना रुकावट के विज्ञान आनन्द पूर्वक स्वतंत्र विचरता है । ( २५२ - पृष्ठ ) "जीव मुक्ति पाकर पुनः संसारमें आता है ।" (२५४-पृष्ठ) "परमात्मा हमें मुक्ति आनंद भुगाकर फिर पृथ्वीपर माता पिताके दर्शन कराता है ।"
" महाकल्पके पीछे फिर संसारमें आने है। परिमित है । जीव अनंत सुख नहीं भोग सक्ते ।"
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२६२ पृष्ठ )
" जीव अल्पज्ञ है ।" "परमेश्वर के आधार मे मुक्तिके आनंदको जीवात्मा, भोगता है । मुक्ति में आत्मा निर्मल होनेसे पूर्ण ज्ञानी होकर उसको सर्व सन्निहित पदार्थों का ज्ञान यथावत् होता है ।" ( २६७ पृष्ठ ) नोट - जैन दर्शनकी मान्यता है कि जीव स्वभावसे परमात्मारूप है । कर्मबन्ध छूटने के पीछे यह स्वयं परमात्मा होजाता है । मुक्त होनेपर विना कारणके अशुद्ध नहीं होता है ।
( २५५ पृष्ठ )
जीवकी सामर्थ्य
(२५६ पृष्ठ)
ईसाई मत ।
शिष्य - यह तो बताये कि ईसाई मतसे भी जैन दर्शनकी कुछ बातें मिलती हैं ?