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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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संधी धोतीलाल मा
घाला.
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विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा।
लेखकश्रीमान् ब्रह्मचारी सीतलप्रसादनी । [समयसार, नियमसार प्रवचनसार, पञ्चास्तिकाय सत्चभावना, गमयसार कलशा, स्यभम्तांत्रा, मनाधिगतक, इष्टोपदेश, वारणतरण प्रावकाचार आदिके टीकाकार नया गृहस्थधर्म, जैनधर्म प्रकाश, मोक्षमार्ग. प्रकाग वि०, प्राचीन जैन स्मारक वृ० जैन शनकोष, पञ्चकल्याणक. प्रतिष्ठापाठ, अनोट तत्वज्ञान आदि अन्योंके सम्पादक । ]
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प्रकाशकमूलचन्द किसनदास कापड़िया, मालिक, दि० जैनपुस्तकालय, कापड़ियाभवन-सूरत ।
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श्रीमान् दानवीर श्रीमन्त सेठ लक्ष्मीचंदजी
भेलसा नि० की ओरसे "नमित्र" के ३५ वर्षके ग्राहकोंको भेट ।
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प्रथमावृत्ति] वीर संवत २४६१ [प्रति ११००+२००
मूल्य-२० १-८-०
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"जेन विजय" प्रिन्टिंग प्रेस, खपाटिया चकला-सूरतमें
मूलचंद किसनदास कापड़ियाने मुद्रित किया।
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भूमिका।
बहुधा हाईस्कूल और कालेजके छात्रोंको धार्मिक ज्ञान नहीं होता है इसलिये वे नास्तिक भावके बन जाते है । यही दशा जैन छात्रोंकी भी है, अतएव जैन छात्रोंको सुगमतामे जैन धर्मकी रुचि करानेके लिये प्रश्नोत्तर रूपमें यह पुस्तक लिखी गई है। इसको ध्यानमे पढनेसे एक बुद्धिमान छात्रको जैन धर्मका ज्ञान होजायगा । तथा अन्य धर्मोसे जैन धर्म किन बातोंमें मिलता है यह भी जान लिया जायगा। स्कूल, कालेज और बोर्डिंगोंमें इसके प्रचारकी जरूरत है। जो विशेष जैन धर्मका ज्ञान प्राप्त करना चाहें वे नीचे लिखी हुई. पुस्तकें पढ़े:
(१) द्रव्यसंग्रह व बृहत् द्रव्यसंग्रह सार्थ 1) 1): (२) तत्वार्थसूत्र सार्थ), अर्थ प्रकाशिका, सर्वार्थसिद्ध टामा २), (३) तत्वार्थसार, (8) पुरुषार्थसिद्धयुपाय १।) (५। म्व'मा कार्तिकेयानुप्रेक्षा १), (८) गृहस्थ धर्म १५६), (९) जैनधर्म प्रमाण ॥), (१०) इष्टोपदेश १), (११) समाधिशतक - १०) (१३) पंचा स्तिकाय ३।4), (१४) प्रवचनसार ५), (१५) अष्टपाहड १||-), (१६) समयसार २॥), (१७) नियमसार २), ६१८) नयमावना २), (३०) गोम्मटसार सार्थ ५), (३१) गजवानि ३०), (३३) परमात्मप्रकाश ३), (३४) "जा गर्णच ) ३५) पंचाध्यायी ६)।
* मिलनेका पता-दिगम्बर जैन पुतिकला व
Po.
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4-4
(1) What is Jajóisin ... (2) Tha Praitial Dharma (3) Saugas Dinama ... (4) Hou-e Valer's Dharma
0-1: (5) Faith, Koledge & Coudet
1(6) Rishubnadon (7) Jaipiam, Christ10nty & Scieoe (81 Jain Penanco (9) Confluence «f oppo-l64 .. (10) Kug of knowledge .. ... 11
Con lic lind from Parishad Jain Publishing House
Bijaor U. P. (1) Dravyerangrahs
5-8 (2) Tattwartha nutra
4-8 (3) Pauchastiknya (4) Purushwith Sidliyopaid ... (5) Gowatkaru Jivakund (6) , Karmakand (7) Atmaposl14gana (8) Samaynenra
3-0 (9) Niya111817A
*** ... 3-0' (10) Paie Thoights ... ... ... Como
Can be hed from, Ceawal jain Publishing House
Ajitasrm, Lucknow U, P. Bercen, ३१ अक्टूबर १९३३.
जैन धर्मप्रेमी-त्र० सीवल।
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श्रीमान् दानवीर श्रीमन्त सेठ लक्ष्मीचंद्रजी-मेलसा। ( आप अभीतक करीब दो लाख रु. का दान कर चुके हैं)
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जीवनचरित्र
दानवीर श्रीमान्त सेठ हलक्ष्मीचंदजी।
___इस अति उपयोगी पुस्तकके प्रकाशनमें द्रव्यकी सहायता करनेवाले भेलसा (राज्य ग्वालियर) निवासी दानवीर श्रीमन्त सेट लक्ष्मीचन्दजी साहब हैं। आप बड़े उदारचित्त, धर्मात्मा व जिनधर्मके नियमोंपर चलनेवाले है । आप नित्य दर्शन पूजन स्वाध्याय करते है। आपको अभक्ष्यका त्याग है । आप विलायती डाक्टरी दवा भी काममें नहीं लेते। परवार जैन जातिके आप रत्न हैं। आपका जन्म दीवानगंज ( भोपाल ) में वि० सं० १९५१में हुआ था । आपके पिताश्रीका नाम सेठ मन्नूलालजी था। आप बाल्यावस्थामें ही पुण्यशााली थे, यह बात आपके शरीरके अंगोंसे व चेष्टासे झलकती थी।
भेलसा सेठ शितावरायजी एक प्रतिष्ठित धनिक व्यवसायी व्यापारी थे और बडे धर्मात्मा थे। शितावरायजीकी धर्मपत्नी श्रीमती शक्करबाई भी बड़ी ही धर्मात्मा, सच्चरित्रा व नारी-रलोंमें प्रधान थीं । दानधर्ममें अग्रणी थीं। कर्मोदयसे आपके कोई संतान नहीं थी। तब सं० १९५६ में उक्त सेठ साहबने धर्मपत्नीकी सम्मतिपूर्वक निकट सम्बंधी लक्ष्मीचंदजीको दत्तक लेकर अपनी सम्पत्तिका अधिकारी बनाया । उक्त लक्ष्मीचन्दजीने साधारण विद्याभ्यास किया, व धर्माचरणमें निरत रहकर अपने व्यापारको अल्पवयमें ही सम्हाल लिया।
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[6] आपके यहा सराफी, सोना चांदी, लेन देन आदिका व्यापार होता है । सं० १९८५ मे टेशनके पास माधोगंज वसनेसे सेठ सितावरायजीने एक बृहत् जैन धर्मशाला और जैन मंदिर बनवानेका विचार किया और उस कामको प्रारम्भ भी कर दिया परन्तु अचानक आयुर्मके भग्न होनेमे आपके जीवन में वह कार्य पूरा न होसका।
सेठ लक्ष्मीचंदजीने सुपुत्रकी भांति अपने पूज्य संरक्षककी हार्दिक इच्छाको बडीही उदारताके साथ पूर्ण किया और ९००००) नव्वेहजार रु० लगाकर एक विशाल धर्मशाला और जिनमंदिर तय्यार करा दिया जो भेलसामें एक दर्शनीय इमारत है।
आपके मित्र धर्मप्रेमी सेठ राजमलजी बडजात्या तथा वाबू तखतमलजी जैन वकील आपको धर्मकार्यो तथा परोपकारमें सदा ही प्रेरणा व सहाय करते रहते है। उक्त उभय सज्जनोंके प्रयत्नसे वि० सं० १९८८ वीर सं० २४५८ कार्तिक शुक्ला '५को देवाधिदेव श्री जिनेन्द्रदेवका स्थापन उक्त धर्मशालाके जिन मंदिर में किया गया ।
इसीमें आप नित्य पूजन करते है व धर्मशालामे ही एक तरफ निवास रखते है। इस जिन मंदिरमे हरएक जैनी दर्शन कर सक्ता है, विनैकवारोको भी दर्शनकी मनाई नहीं है । इस धर्मशाला व मंदिरकी शोभा व दुरुस्तीमें १०००) और खर्च करके उस इसारतको दर्शनीय बना दिया है। आपने इस इमारतका ग्वालियर राज्यमें टूष्ट मी कर दिया है। तथा २००००) की दुकानें लगादी हैं जिनकी आमदनीसे धर्मशालाका खर्च चला करे।
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..[७]
इस धर्मशालाके जिन मंदिरमें नित्य शास्त्र सभा होती है । इसी धर्मशालामें जैन पाठशाला व जैन कन्याशाला चलती है। सर्वोपयोगी वाचनालयको भी स्थान दिया गया है, जो जैन नवयुवक मण्डल भेलसा द्वारा चलता है। उक्त सेठजी वास्तवमें दानवीर है । यद्यपि आपकी आयु अभी ४० वर्षकी ही है तौभी आपने अपने जीवनमें बहुत कुछ द्रव्य उपयोगी कामोंमें दान किया है । तथा यह आशा है कि आप सदैव अपनी सम्पत्तिका सदुपयोग इसी भांति दान धर्ममें करते रहेंगे। आपके दानकी एक लंबी सूची है। हम यहा केवल उन्हीं रकमोंको प्रगट करते है जो १००) से ऊपर है११०००) भा० दि० जैन परिषदके इटारसी अधिवेशनके समय
वीर सं० २४६० में दि. जैन साहित्यके प्रकाशनार्थ श्रीयुत होरालालजी एम० ए० एल० एल० बी० प्रोफेसर एडवर्ड कालेज अमरावतीके उपदेशसे व अधिवेशनके सभापति बाबु जमनाप्रसादजी सब जज अमरावतीकी प्रेरणासे दिये । इस द्रव्यसे उक्त प्रोफेसर साहबने श्री जयधवलाके प्रकाशनका कार्य प्रारम्भ कर दिया है । इसके उपलक्षमें जैन समाजने आपको उसी समय श्रीमंत सेठकी उपाधि प्रदान की। व वाणीभूषण पं० तुलसीरामनी काव्यतीर्थने आपको पगडी
बांधी व नगरमें आपका खूब स्वागत हुआ। ५०००१) जैन हाईस्कूल भेलसाके लिये उक्त परिषदके भेलसा
अधिवेशनके समय वी० सं० २४६१ में प्रदान,
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[८] किये, तब सर्व उपस्थित जनताने आपको दानवीरका पद दिया, नगरमे स्वागत हुआ, भेलसाकी परलिकने
भी आपको वधाई दी। २५००) जैन कन्याशाला या आश्रम भेलसाके लिये इसी अधिध
शनके समय प्रदान किये, जिसमे २०००) अपनी माता शक्करबाईकी तरफसे व ७०००) अपनी धर्मपत्नी
सौ० भगवतीबाईकी तरफसे दिये । ५०१) जैन महिलाश्रम दिहलीको इटारसी अधिवेशनके समय । २५१) भा० दि० जैन परिषट भेलसा । २५०) मा० दि० जैन परिषट इटारसी अधिवेशन |
श्री देवगढ़ अतिशयक्षेत्रपर सभापति होकर आपने इस
भाति दान किया -- ५०१) कलशाभिषेकके लिये २७५) फूलमाल लेनेमे १५१) कुआ व जीर्णोद्धारमें ५०१) भा० दि० जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी, बम्बई
श्री थूवौनजी अतिशयक्षेत्रपर उसके तीसरे अधिवेगनके
समय इस प्रकार दान दिया.८०१) कलशामिपेकमे २५२) मस्तकाभिषेकमें २०५) फूलमालमें ' २०१) क्षेत्र भंडारमे
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२५२) श्री बुंदेलखण्ड प्रांतिक सभाके सभापति होकर दान
किये। ४२५) श्री सम्मेदशिखरजीमें कलशाभिषेकके लिये १०००) श्री स्याद्वाद महाविद्यालय काशीके ध्रुवफण्डमें दिये ।
वीर विद्यालय पपौरा अतिशय क्षेत्रमें२५१) विद्यालय मकान उद्घाटनके समय १००) एक विद्यार्थीके लिये दिये
आप कई छात्रोंको ५)व ३) मासिक छात्रवृत्तिये भी देते हैं।
जिस समय धर्मशाला व जिन मंदिरका उद्घाटन किया गया था, आपने १०००) जैन संस्थाओंको व ५०५) नीचे लिखी ५संस्थाओंको १०१) के हिसाबसे दान किया। इससे आपका सार्वजनिक प्रेम व हितकी भावना प्रगट होती है । (१) रामलीला, (२) गणेशोत्सव, (३) व्यायामशाला. (४) अनाथालय आर्यसमाज, (५) अन्जुमन इस्लाम । इसप्रकार आपकादान करीब १७८०००) का होजाता है । और भी फुटकर दानोंको मिलाकर आपने करीब दो लाख रुपयाका दान किया है।
__ हमारी भावना है कि आप दीर्घायु होकर जैन धर्म व जैन साहित्य व जैन समाजकी लौकिक व धार्मिक उन्नतिमें अपना तन, सन, धन अर्पण कर अपने जीवनको सफल करें।
. सूरत. वीर सं० २४६१ . मूलचन्द कसनदास कापडिया-प्रकाशक । फाल्गुन सुदी८ ,
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निवेदन । कालेज, स्कूल और बोर्डिंगोंके जैन विद्यार्थियोंमें धार्मिक ज्ञानकी अत्यन्त आवश्यक्ता है। धार्मिक शिक्षाकी यह कभी बहुत दिनसे खटक रही थी, मगर इसकी पूर्तिके लिये अभीतक किसी अच्छी पुस्तकका निर्माण नहीं हुआ था। हर्षकी बात है कि माननीय विद्वान लेखकने इस कमीकी पूर्ति करके समाजका स्थायी उपकार किया है।
इस पुस्तककी विषयसूचीसे ही ज्ञात हो सकता है कि इसमे 'गागरमें सागर' भर दिया गया है । " जैनधर्म प्रकाश" के बाद श्रीमान् ब्रह्मचारीजीकी यह कृति सर्वसाधारणके लिये अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगी। यदि, यह पुस्तक प्रत्येक जैन बोडिंगके विद्यार्थियोंको पढाई जाय और जैन,स्कूलोंमे धार्मिक शिक्षाके लिये अनिवार्य करदी जाय तो, उन्हें जैन धर्मका अच्छा ज्ञान हो सकता है । आशा है कि संचालक-वर्ग इस ओर ध्यान देंगे।
यधपि यह पुस्तक विद्यार्थियोंको लक्ष रखकर लिखी गई है. फिर भी इसे पढ़कर आबाल वृद्ध जैन धर्मका रहस्य समझ सक्ते है। " यो यन्त्र, अनभिज्ञः स तत्र बाल: " अर्थात् जो जिस विषयमें अजान है वह उस विषयमें बालक है, इस नीतिके अनुसार वे वयः प्राप्त भाई बहिन भी विद्यार्थी ही हैं जिन्हें जैन धर्मका ज्ञान नहीं है। अतः जैन धर्मके जिज्ञासु प्रत्येक व्यक्तिको इस पुस्तकका स्वाध्याय अवश्य कर लेना चाहिये। ____“जैनमित्र" के ३५ वें वर्षके ग्राहकोंको तो यह ग्रंथ उपहारमें दिया गया है, साथ ही हमने २०० प्रतियां और भी विक्रयार्थ निकाली है, अतः अवश्य ही एक प्रति आज ही मंगा लीजिये ।
सकाशक
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विषय सूची।
.... ८५
--roscarप्रथम अध्याय। निश्चय-व्यवहारनय .... ७० मैं कौन है ?
१ निर्देशादि छः अनुयोग .... ७३ जीवकी सिद्धिमें युरुपियन सत् संख्यादि ८ ,, विद्वानोंकी सम्मति .... ५ प्रमाण नय ... .... ७८ कार्माण शरीर पुण्य पाप भेद १९ नैगमादि ७ नय .....
दूसरा अध्याय। नामादि ४ निक्षेप .... ८३ मेरा कर्तव्य .... .... २५ स्याद्वाद अरहंत स्तुति, णमोकार मंत्र ३८ स्थाद्वादपर अजैन विद्वानोंके मुनिका १३ प्रकार चारित्र ४१
मत.... ९० त्यागी हो परोपकारकी रीति ४३ पांचवा अध्याय । पाक्षिक विरक्त श्रावक .... ४५ जीव तत्व .... .... ९४ गृहस्थका परोपकार .... , जीवोंके भेद व प्राण .... ,
तीसरा अध्याय। मनका स्वरूप .... .... ९६ जनोंके तत्व .... .... ४९ पर्याप्त अपर्याप्त .... ... ९८ लक्षणका स्वरूप... .... ५१ एक मुहूर्तके श्वास .... ९९ द्रव्यका लक्षण .... .... ५७ चौदह जीव समास ... ९९ शुभ व अशुभ, भाव .... ६० चौढह गुणस्थान .... ....१०० चार भावनाएं .... .... ६२ कषायोंके १६ दृष्टांत ....१०३ चार प्रकार बंध..... .... ६४ सम्यक्तीके चार लक्षण .....०५ जीवके तीन प्रकार भाव .... ६८ चौदह मार्गणायें... ....१०९ मष्टकर्मामें पाप पुण्य .... ६९ सात समुद्घात ....११६
चौथा अध्याय । जीवोंके पांच भाव ....११८ तत्वज्ञातका साधन ... ७. दैव व पुरुषार्थ, .... .......१९
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"
[१२] पाच शरीर .. ....१२१ उत्कर्षण, अपकर्ण, मक्रमण छठा अध्याय।
और उदीरणा ....१५९ अजीव तत्व .... ....१२४ आठवां अध्याय । पुद्गलके छ भेदः ... ...१२५ संवर निर्जरा मोक्ष ....१६० पाच प्रकार उपयोगी वर्गणा १२६ दशधर्म .. .... ....१६३ -परमाणुमोंके बधका हिसाब १२७ बारह भावना ... ....१६४ प्रदेशका लक्षण .... ....१२९ बाईस परीषह ... ....१६६ छः सामान्य गुण ...१३१ पाच चारित्र ... ....१६७
सातवां अध्याय । बारह तप ... .... आश्रव और बंध तत्व ... १३३ पिडस्य ध्यान ... ... १६९ आयुकर्मका बध कैसे .... , पदस्थध्यान ... ....१७१ कर्मों में स्थिति अनुभाग ....१३५ रूपस्थ ध्यान ... .. १७२ बधके पाच कारण भाव ... , रूपातीत ध्यान .... ... " पाच प्रकार मिथ्यात्व ....१३६ शुक्लध्यान ... ... " - बारह अविरति भाव ....१३८ नवमा अध्याय । पंद्रह योग ... ....१३८ श्रावकोंके माचार . १७४ जीवोंके १०८ भाव ... १४१ पाच व्रतोंकी २५ भावनाए, ,, अजीवके ११ आधार ....१४२ पाच अणुव्रत .... ...१७८ कर्मबन्धके विशेष कारण १४३ तीन गुणव्रत ... ... १८१ षोड़श कारण भावना ....१४८ चार शिक्षाबत .... ...१८२ कर्मोंके १४८ भेद ....१५० सामायिक विधि .... ....९८३ कर्मोंकी स्थिति : . .. १५४ प्रोषधोपवासके तीन भेट... १८५ अनुभाग बन्धके दृष्टात . १५५ १७ नियम .... .... " कर्मके फल देनेकी विधि... , सम्यग्दर्शनके मतीचार ...१८७ कर्मके पलटनेके उपाय ...१५९ बारह ब्रतोंके अतिचार ....१८८
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! १३] ग्यारह प्रतिमाओंका स्वरूप १९१ न्याय दर्शन .... ....२६६
दशवां अध्याय । वैशेषिक दर्शन .... ....२६८ जनोंके भेद .... . १९६ साख्य दर्शन .... ...२६९ महावीरस्वामीकी नग्न दीक्षा २०० योग दर्शन .. ...२७३ दि० श्वे० की साम्यता ...२०९ पूर्व मीमासा .... ....२७४
ग्यारहवां अध्याय। उत्तर मीमासा .... ....२७५ जैन और बौद्ध धर्म ....२२२ विशिष्टाद्वैत २७७ गौतम बुद्ध जैन मुनि .. २२२ शुद्धाद्वैत ... २७८ पिहिताश्रव पिथ गो स जेनी २२३ द्वैत .... ... .. २७९ यौद्ध प्रथोंमें मोक्षका स्वरूप २२८ थियोसोफी , आत्माका स्वरूप२२९ आर्यसमाज ... . .२८०
मोक्षमार्ग ....२३१ ईसाई मत .... ....२८१
कर्मबन्ध ....२३४ , में अहिंसा ....२८३. , महिंसा ...२३९ , में आत्म निर्वाण २८४ , मांस निषेध ....२३६ , में मांस निषेध २८७
वारहवां अध्याय । , में बलि निषेध ....२८८ भगवद्गीता और जैनधर्म २४५ पारसी धर्म ......, गीतामें भकर्तावाद व मुसलिम धर्म .... ....२९१
साख्य मत....२५६ , में दया ....२९४ , वेदांत मत ....२६० , में शाकाहार , तेरहवां अध्याय
में बलि निषेध २९९जनधर्म और हिंदू दर्शन ....२६६
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खुरवे
" १२
मिर्च
तंजस
शुद्धाशुद्धिपत्र । 'पृ० ला० अशुद्ध शुद्ध ३८ ४ दगमय
नर्गमय ७० १६ निश्रय नयसे है निश्चय नयक १०३ ११
ग्रं प
किर्मिन ११३ ५ चार
कुमति. मुश्त र १३२ २०
तेजम कार्मण विभागों त्रिभागों १३७ २१ लाभ
ग्लानि १३९ २ अनुभव अनुमय १४२ ८ अप्रवेक्षित अप्रत्यवेक्षित
द्रष्टप्रभृष्ट दुष्ट प्रभृष्ट १४३६" प्रसन्न होकर प्रसन्न न होकर १४४ २२ धर्मप्रेस धर्मप्रेम १४५ ९ कुभक्ति १४८ १९
मेट १६८ १६ १९० ९ (४) (४) अनादर (५) १९७ ६ मओ मइयो , १९ यहवतु · · यहवलु
कुयुक्ति
मेट रोगी
रागी
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[५]
अशुद्ध
- शुद्ध, उववादो
पृ० ला० २०६ १९
उवचारो
यः
२१३ १९
आत्मानुष्ठान
२१५ १५ २१८ १९.
आत्मानुष्ठाग दुपकरतरै
दुष्करतरै मोक्षो
"
बुद्धमत
मोक्षी 'बहुमत वर्णन
वर्णन न सेय्यपिदं
२२८ ५ २३० १९ २३२ २ २३३ ३
सेय्यचिदं
पायुनाति
पापुनाति अनित्य सम्फफ
नित्य
अपरी
सम्यक अयरी भाषदिमो दातत्पं परिमु
भाषद्भि दातव्यं
परिभु माधुपद
२३५ १६ २३६ १८ २४३ १७
, १९ २५३ १६ २५८ १२ २६४ १६ २७२ २ २७४ ७ , १७
साधुमद प्रवृत्ति
प्रकृति
विघ्नो
विद्यो रजोगुण
रजोकुण उप
उम
इच्छा थी
इच्छा
या
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[१३ ! पृ० ला० । अशुद्ध शुद्ध २८६ २३ पापोंम वाक्योंसे २८८ २५-२६ वी लाईन इस प्रकार हैthot shalt not bear false fitness, 19 Honour thy father and thy mother and thou shalt lose thy ntibour as thyself-21 Jesus ૨૮ ૧૨ Vatitude rectitude २५१ अत oue ૨૬૨ ૧૭
Vuin दया
दिया २९३ अंत तथा
तथापि २९५ अत
blood २९६ ६ आजकल
अन्न फल
are
Vaum
blow
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श्रीवीतरागाय नमई विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा।
সুস্থজ্ঞ ঞ্জাজ্ব ।
मैं कौन है?
प्रश्न- आपका धर्म क्या है ? उत्तर-मै जैनधर्मी कहलाता हूं। मेरे घरमे सब जैनधर्म पालते है। प्र०-क्या आप कुछ जैनधर्मको जानते हो?
उ-मैं तो कुछ भी नहीं जानता हूं। क्योकि मेरी माताने मुझे गिशुपनमे कुछ बताया नीं। पिताजीने सारी स्कूल मे भेज दिया। पिताजीने कभी शिक्षा नहीं दी, न दिलानेकी चेष्टा की।
प्र०-क्या आपकी इच्छा है कि आप जैनधर्मको जाने ?
उ०-मैं नो कालेजमे पढ । हूं। मेरे मनमे तो मुझ धर्मकी ही जरूरत नहीं मालम पडती है। मुझे किसी भी धर्मके जाननेकी ज़रूरत नहीं दीखती तब मैं जैन मैको जानकर क्या कगा।
प्र०-क्या आप बता सकेंगे कि आप कौन है ?
उ०-मैं मनुष्य हूं, विद्यार्थी है और मै अपनको जैा भी कह देता हूं।
प्र०-आप यह बतावें कि मुढें और जिन्दे मानवमे क्या फर्क है, जब दोनोंका शरीर एकसा दीखता है। मुर्दा समझता क्यो नहीं ?
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NA
२]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। उ०-मैं समझता हूं कोई कल बिगड जाती है जिससे मानव मुर्दा होजाता है तब वह नहीं समझ सक्ता ।
प्र०-आपके हाथ, पग, मुख, वाल, नख, मास, चर्बी, रुधिर आदि किस वस्तुके बने हुए है।
उ०-जो कुछ हम खात पीत हवा लेने उससे बने है।।
प्र०-आप जो हवा लेते,पानी पीन, अन्नादि खाते, दूध पीते ये चीजें किस वस्तुसे बनी है ?
उ०-ये सब चीजें जरूर किन्हीं परमाणुओं (Atoms) से बनी है।
प्र०-ये परमाणु जड हे या चेतन क्या उनमे जाननेकी शक्ति है?
उ०-मै समझता हूं परमाणु जड है। हमारे सामने बहुतसी जड वस्तुएं दीखती है जैसे वाल, कंकड, पत्थर, काठ, टीन, सोना, चादी, लोहा ये सब जड है, ये कुछ समझ नहीं सक्ते। ये सब टुकड़े करनेपर टूटकर बहुत छोटे होसक्ते है।
प्र०-आप उनके टुकडे करते चले जावें, आखरी टुकड़ेको क्या कहेंगे ?
उ०-वस उसीको परमाणु कहते है।
प्र०-तब यह शरीर व उसके आंख, कान, नाक, जिहा, त्वचा आदि जड नहीं है क्या ?
उ०-ये भी सब जड है।
प्र०-तब बनाइये क्या जड त्वचा छूकर जानती है, क्या जड़ जवान चाखकर जानती है, क्या जड नाक सुंघकर जानती है, क्या जड़ आंख देखकर जानती है, क्या जड कान सुनकर जानता है ?
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मैं कौन हूं।
[३ उ०-जड़से बनी वस्तुएं तो जान नहीं सक्ती हैं परन्तु कुछ रुधिर व मजकी ताकतसे जाना जाता होगा, आप वताइये अब क्या समनत है ? .
* शिक्षक-भाई, जब आख, नाक, कान आदि जड़ हे व भोज्य पदार्थ जड है तब इनसे बना हुआ रुधिर व मग्ज भी जड़ क्यों नहीं होगा ? जड़मे जड़ ही बन सक्ता है, जैसे गेहंसे गेहूंकी रोटी, लोहेसे लोहेकी कड़ी, सोनेसे सोनेके गहने, रुईसे रुईके कपड़े, रेशमसे रेशमके कपड़े बनते है। जब जड परमाणुओंमें जाननेकी ताकत नहीं है तब उनके बने हुए जितने भी कार्य होंगे उनमें जाननेकी ताकत
नहीं होसक्ती । विद्वानोंने कहा है जैसा कि मूल कारण होता है वैसा __उसका बना कार्य होता है । जो गुण मूलमें होते हैं वे ही उसके
बने कार्यमें झलकते है। देखो जड़ मिट्टीमें स्पर्श है, स्वाद है, गंध है, वर्ण है, तब उसके बने हुए वर्तनोंमें भी, मटकैनोंमें भी 'प्यालोंमें भी ठंडा व चिकना स्पर्श है, रस है, गंध है व वर्ण है। इस लिये जब जड़ परमाणुओंमें व उनसे बने हुए पदार्थोंमें जडपना दीखता है--उनमें जानपना नहीं दिखलाई पड़ता है, तब उनसे वने शरीरमें व शरीरके किसी अंगमे जानपना कैसे होसक्ता है। इसलिये तुमको जानना चाहिये कि जो कोई जाननेवाला है वह जड़से भिन्न कोई और है। उसीको हम लोग आत्मा, जीव, चेतन, इत्यादि नामोंसे पुकारते है। जानना जब जड़का गुण नहीं है तब किसीका तो होना ही चाहिये क्योंकि गुण किसी चीजमें ही रहते है
*-उपाठानकारणसदृशं कार्य भवति ।
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४]
विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा गुण कभी किसी चीजसे भिन्न नहीं मिल सक्त है। जैसे मीठापना शक्करमे, ईखमे, अगृरमे मिलेगा। खट्टापना नीबू . ग्वटाई, टमलीमे मिलेगा। कडआपना नीममे मिलेगा। सज्जनपना सज्जनमे. दुर्जनपना दुर्जनमे, धर्म धर्मात्मामे, अधर्म अधर्मीमे. सत्य नत्यवादीमे. क्षमा क्षमावानमे, क्रोध क्रोधी मानवमे पाया जायगा। इसीतरह ज्ञान गुण या जानपना (courciousness) किसीमे मिलना चाहिये । जिस द्रव्यमे यह गुण सदा रहता है उसे ही आत्मा कहते है। यह जड शरीर उसके रहनेका घर है। जब तक यह दारीग्मे रहता है तबतक गरीर द्वारा सब जाननेका काम हुआ करता है। जब वह शरीरसे निकल जाता है तब गरीर जड कुछ भी जान नहीं सक्ता। इसलिये उसको मुर्दा कहते है। इसलिये आपको यही विश्वास रखना चाहिये कि मै आत्मा हूं , शरीर नहीं हूं ।
प्र०-प्रिय मित्र | क्या विज्ञानवेत्ता (Sentists) आत्माको मानते है ।
उ०-यद्यपि साफ २ नहीं मानते हे तौभी बहुतसे विज्ञानवेत्ताओकी यह सम्मति होती जाती है कि मात्र जडमे ही ज्ञान. इच्छा, स्मरण आदि नहीं होसक्ता है इसलिये कोई दूसरा पदार्थ और है।
लडनमे मर ओलाइवर लाज विज्ञानके बहुत बडे विद्वान है। उनके वाक्य है "हम मग्नेके वाद विला नहीं जाते है. हम वन रहते है, हम स्वयं अपने मूल स्वभावसे कभी नहीं नष्ट होते है, हम . इस जड मासमई शरीरके जीवनसे आगे भी अविनाशो जीवनमे वने रहते है ।" सर ओलाइवर लाज अपनी पुस्तक रेमंडमे नीचे प्रमाण कहते है
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मैं कौन हूं।
शरीर और शक्तिपर स्वाधीनता रखनेवाले असरका बंद होजाना ही मृत्यु है। मरनेके बाद शारीरिक शक्तियाँ विखर जाती है । मृत्युसे मतलब जीवनका अंत नहीं है; कितु गरीग्से किमी जीवन शक्तिका भिन्न होजाना है। इसीको हम यह कह सक्ते है कि गरीरसे आत्मा भिन्न होगया।
प्रोफेसर हरमन साहब अपनी पुस्तकमे लिखने हे-"जाननवाला मन एक भिन्न पदार्थ है जिसमे स्वाधीन शक्तिये व क्रियाएं होती है। उसका मानसिक प्रवन्ध अपना ही है, वह गरीरमे स्वतंत्र अपनी मौजूदगी रखता है। दूसरे शब्दों में यही आत्मा है।"* तीसरे
Sir Oliver Lodge says " I am convinced that we ourselves are not extinguished when we die, Personality continues we ourselves in our own real essence do not decay or war out, we, continue in a permanent existence beyond the hfe of the material, fleshly organism ( appeared in Bombay Chronicle 29-11-1926)
Raymond hy Sir Oliver Lodge
Denth is the cessation of that controlling influence over matter and energy, so that thereafter the uncontrolled activity of physical and chemical forces supervene Death is not the absence of life merely, the term signifies its departure or separation, the severance of the abstract principle from the concrete residuc The term only truly applies to that which has been living.
Death, therefore, may be called & dissociation, & disolution, a separation of a controlling entity from a physicochemical organism, it can only be spoken of in general and yague terms as a separation of soul and body if the term 'soul is reduced to its lowest denomination when used in connexion with animals and plants
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विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा। पश्चिमीय विद्वान प्रॉफसर विलियम मैकडागल साहब अपनी पुस्तकमें लिखते है " हमको अवश्य मानना पडता है कि अंत करणके कार्य किमी एक पदार्थके कुछ कार्य है। वह पढार्थ मग्जका कोई भाग नहीं है न वह कोई जड़ पदार्थ है कितु वह सब तरह के जड पदाथोंसे जुदा है । हम उसे एक अमृतिक पदार्थ या जीव मानमक्त है।
इसलिये जडसे भिन्न कोई जाननेवाला पदार्थ आन्मा है एसा आपको मानना पडेगा। यह भी आपको समझना चाहिये कि यह आत्मा एक अखंड पदार्थ हमारे शरीर मे व्यापक है. फैला हुआ है। क्योंकि हमे दुख या सुखकी चंदना सर्वांग होती है। यदि पगमे चोट लगे तब सर्व गरीरभरमे द ख मालम पड़ता है। जब हमे किसी मित्रको देखकर खुशी होती है तब सुखका भान सर्वत्र होता है। जबकि शरीरमें जहा विगाड़ होता है वहीं होता है। यदि पगमें फोडा हुआ है तब वह पगमे ही विगाड है. मस्तकमे नहीं है परन्तु दुःखकी वेदना हमे सब तरफ होती है। इससे यह
* Professor T J Hudson in his book “A scientific demonstration of future life" says "The subjecuie mind is a distinct entits, possessing independent poners and funclions•baving a mental organisation of its orn, and being capable of sustaining an existence independent of the body In other words, it is the Soul
Professor William Macdongall in his book “ Physiologcal Psychology" say " we are compelled to admit that the so-called Psyachicul elements are partial afiechons of a single substance or being and since this is not any part of the brain, is not a matenal substance, but differs from all material substances We must regard it as an immatenal substance or beng. "
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। मैं कौन हूं।
बात समझनेकी है कि आत्मा तो एक अखंड सादा पदार्थ है । ( is one whole upbroken simple subatance) जबकि गरीर मकानके समान हड्डी, मांस आदि अंग उपंगोंके जुड़नेसे बना है।
शिष्य-गुरुजी, मुझे आपसे आज यह जानकर बड़ा आनंद हुआ कि मैं आत्मा हूं, और शरीर मेरे रहनेका घर है। आत्मा चेतन है, शरीर अचेतन जड़ है। क्या गरीग्के छूटने वक्त आत्माका नाम नहीं होता है ?
शिक्षक-प्रिय भाई ! आप तो बड़े विद्वान है। आपको तो मालूम है कि इस लोकमें न कुछ नया आता है न कुछ नाश ही होता है । मात्र अवस्थाएं ही बदला करती है। जो कोई वस्तु बनती है वह किसी पहली वस्तुकी दूसरी बदली हुई शकल है । जो कोई वस्तु विगड़ती है वह कोई दूसरी शकलमें बदल जाती है । कपडा रूईकी बदली हुई शकल है। कपड़ेको जलानेपर कपड़की राख कपड़ेकी बदली हुई शकल है । पानीकी बदली हुई शकल भाफ है या मेघ है। मेघोंकी बदली हुई शकल वर्षाका पानी या ओले है। कोई वस्तु नहींसे नहीं बनती है, कोई वस्तु सर्वथा नहीं बिगड़ती है । अवस्थाएं ही बनती व बिगड़ती है। जिनमें अवस्थाएं होती है वे न वनते या बिगडते हे जैसे परमाणु जड़ सदा बने रहते है उनसे अनेक वस्तुएं बनती है तथा बिगडती है। वैसे आत्मा पदार्थ भी सदा बना रहता है। न कभी जन्मता है और न कभी मरता है।
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Nothing new is created, nothing is destroyed, only modifications appeer, Nothing comes out of nothing, nothing altogether goes out of existence.
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विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। शरीरके भीतरसे जब आत्मा निकलता है तुर्त कहीं न कहीं किसी शरीरमे चला जाता है। आपका आत्मा किसी शरीरको छोड़कर ही आपकी माताके गर्भमे आया था। आत्मा अविनागी है इससे इमका कभी नाश नहीं होगा।
शिप्य-तो क्या पग्लोक है. पुनर्जन्म है ? तब यह बताइये कि इस आत्माका स्वभाव क्या है और क्यों यह कभी पशु होता है, कभी मनुष्य होता है, कभी वृक्ष होता है । जगतकी आत्माओमे भिन्नता यो है ?
शिक्षक हम आपको बता चुके ह कि जगतमे कोई भी मूल पार्थ नाम नहीं होता है तब आत्माका बने रहना मानना ही होगा। पग्लो” मानना ही होगा पुनर्जन्म मानना ही होगा। आपने अपने आग्के जाननेकी इच्छा प्रगट की है यह जानकर मुझे रडा हर्प हमा है। भाई, आन्मा प्रत्येक मरीग्मे भिन्नर है। नथापि सर्वका मृत भाव एकसा हे । कोई भी अतर नहीं है । परन्तु ये सब नारी आत्माए अशुद्ध है । इनके साथ पुण्य पापल्पी कौका सम्बन्ध है । उन कर्मोक ही फलमे कोई पशु व कोई मानवके शरीग्मे पैना रोता है तथा इनकी विचित्र अवस्थाओके होने का कारण भी पुग्ध पाप कर्मोका फल है। पहले हम आपको हरएक आन्माका मूल स्वभाव वताएगे फिर यह समझाएंगे कि यह अशुद्ध कम होता है। इसके पार व पुण्यकर्मका बंध कैसे होता है व किस तरह कर्म अपना फल देता है। आपको इन बातोंके जाननेसे बडा ही लाभ होगा। आत्माका मूल स्वभाव ज्ञानमय है,शातिमय है. आनंदमय है, अमर्तीक है, यह स्वभावसे परमात्मा है, ईश्वर है, भगवान है ।
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मैं कौन हूँ।
शिष्य-ज्या हमाग आत्मा भी स्वभावसे ईश्वर है ! कृपाकर विशेष समझाइये।
शिक्षक-यह आपको याद रखना चाहिये कि हरएक द्रव्य या पदार्थमें बहुतमे गुण और स्वभाव हुआ करने है। जैसे जड मिट्टी आदिमे चार गुण साफ प्रगट हैं स्पर्श, रम, गंध, वर्ण, वैसे आत्मामे ज्ञान. शाति, आनंद व अमूर्तीकपना मुग्न्य गुण है । यद्यपि गुण नो
और भी है परन्तु आत्माका स्वभाव समझानेके लिये आपको कुछ “समझने योग्य गुण ही हमने बतलाए है। हम आपको समझा देंगे कि ये गुण आत्मामे स्वभावमे हे या नहीं। आप दिल लगाकर सुन, आप थोडी देरके लिये और चिताएं छोडदें।
शिष्य-मुझे बडा आनन्द आरहा है। आप अच्छी तरह कहिये, मैं निश्चिन्त ।
शिक्षक-आगामें ज्ञान गुण हे यह तो आप भले प्रकार समझ गए है । वर्तमानमे हमारी और आपकी आत्मामें ज्ञान गुण मलीन है इससे हम व आप कम जानने है। मूल स्वभावमे ज्ञान -गुण उसको कहने हे जो सब जाननलायक बातोको जान सके । मृल स्वभावमें हरएक आत्मा सर्वज्ञ स्वरूप है । सब कुछ जाननेकी शक्ति इसमें है। यदि पूर्ण ज्ञानकी शक्ति हरएक आत्मामे न हो तो ज्ञानका विकाग या प्रकाश न हो । ज्ञान भीतरसे ही उन्नति करता हुआ या बढता हुआ चला जाता है। जितना २ हमारा अज्ञान पुस्तकोंके निमित्तसे व शिक्षकोंके निमित्तसे हटता जाता है उतना २ ज्ञान प्रगट होता जाता है। जैसा मैले सुवर्णमें सुवर्णकी सारी चमक है लेकिन वह मैलसे ढकी हुई है । जितना २ मैल
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विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। हटता जाता है चमक अधिकर झलकती जाती है | जब पूर्ण मैल हट जाता है, मोना अपनी असली चमकमे चमक जाता है।
यह तो आप जानते है कि जब बालक थे तब बहुत कम जानते थे अव आपका ज्ञान बहुत वढ गया है। क्या आप बताएंगे कि आपका ज्ञान कैसे बढ़ा ?
शिष्य-पढ़नेसे, सुननेसे, अनुभवमे ज्ञान बढ़ गया है।
शिक्षक-परन्तु आप मुझे यह वताइये कि आपके ज्ञानकी जो बढ़वारी हुई है सो यह अधिकता कहासे आकर मिली। क्या आपके अध्यापकोंने आपको दी, क्या पुस्तकोंने आपको दी ?
शिष्य-मै समझता हूं कि मैने ज्ञान अध्यापकोंमे तथा पुस्तकोंसे पाया है।
शिक्षक-जव अध्यापकोंने ज्ञान दिया तब जितना आपको उनसे मिला उतना ज्ञान क्या अध्यापकोंका कम होगया ? पुस्तकोंसे आपने जितना ज्ञान पाया क्या उतना ज्ञान पुस्तकोंमेसे घट गया ? क्योंकि यह नियम है कि जहा बढती होगी तो कहीं घटती भी होगी। जैसे आपको कोई सौ रुपये दे तो सौ रुपये देनेवालेके पाससे जरूर कम होजायंगे।
शिष्य-मै समझता हूं कि मेरे पढ़ानेवालोंका ज्ञान भी घटा नहीं न पुस्तकोंका ज्ञान घटा, किन्तु मेरा बढ़ जरूर गया है।
शिक्षक-तब यह वढती अवश्य किसी बाहरकी वस्तुसे आपके पास नहीं आई किन्तु आपके पास ही इस ज्ञानकी उन्नति हुई है। जितना२ अज्ञान मिटता गया आपका ज्ञान विकसित होता गया। यदि पूर्ण ज्ञानकी शक्ति न होती तो ज्ञानका प्रकाश नहीं होता।
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मैं कौन हूं।
[११ जगतमें भी यही प्रसिद्ध है कि इसने विद्यामें बहुत उन्नति की ।। उन्नति शब्द वहींपर आता है जहा शक्ति अप्रगट हो वह प्रगट हो जावे । यह रत्न चमक गया इसके अर्थ यही है कि रत्नमें चमकनेकी शक्ति थी ही. शानमें घिसनेसे ऊपरका मेंल कट गया, रत्न चमक उठा। यही बात ज्ञानके प्रकाशमे है। एक आत्माके ज्ञानकी उन्नतिकी कोई सीमा नहीं होसक्ती है। जितना२ साधन मिले उतनार इसके ज्ञानका विकाश होता जाता है। कोई२ आत्माको अल्पज्ञानी ही मानते है। जब हवाई विमान नहीं निकले थे. वेतारका तार नहीं चला था तब वे लोग यही जानते थे कि आत्माको कमी ऐसा ज्ञान हो ही नहीं सक्ता है। अब इन आविष्कारोको देखते हुए उनको मानना पड़ेगा कि वे मूलमें थे। वास्तवमें हरएक आत्मा परमात्माके समान स्वभावसे सर्वज्ञ है या पूर्ण ज्ञानकी शक्ति रखता है, विना ऐसा समझे हुए ज्ञानका प्रकाश नहीं बन सकेगा।
शिष्य-आपकी वात मेरी समझमें बहुत अच्छी तरह आगई। असलमे ज्ञानका भीतरसे ही विकाश होता है । क्योंकि इसका अमर्यादित विकाश हो सक्ता है इसलिये आत्माके भीतर पूर्णजानकी शक्ति अवश्य मानना पड़ेगी।
शिक्षक-इसीतरह आपको मानना होगा कि आत्माका स्वभाव शीतल व गांतिमय है। यह स्वभावसे क्रोधी, मानी, लोभी आदि नहीं है। क्या आप क्रोध मान माया लोभको दोष समझते है या गुण ?
शिष्य-मै क्या सारी दुनिया क्रोधादिको दोष मानती है।
शिक्षक-वास्तवमें क्रोधादि विकार है, दोष हैं, उपाधिये है। ये क्रोधादि कभी भी आत्माके स्वभाव नहीं होसक्ते हैं। हम आपको
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१२]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा।
एक मोटी पहचान बताते है । ज्ञानगुण आत्माका है, यह बात तो आपकी समझमे आगई है। इसीसे विचारिये कि ये क्रोधादि ज्ञानके शत्रु हे या मित्र हे ? आप क्या कहेंगे. बतावें ?
शिप्य जरूर यह बात ठीक है कि ये क्रोधादि ज्ञानको विकारी बना देने है, ज्ञानकी उन्नति नहीं करने देते. इससे ज्ञानके शत्रु है।
शिक्षक-बस इनके विरोधी गुण क्षमा. मृदुता, सरलता, मंतोष है। ये आत्माके गुण हे, इनहीको हम जाति या शातभावके नामसे पुकारते हे । आप विचार करिये. जब गाति होती है तब ज्ञानका विकाश होता है। शातिमे ज्ञान निर्मल रहता है. इसी कारणमे बुद्धिमान लोग एकातमे बैठकर ज्ञानाभ्यास करते है, पुस्तकोका मनन करते है. जिससे ज्ञानका लाभ लेने हुए फ्रोधादि तीन न होजावें । शातिके होते हुए ज्ञान प्रफुल्लित रहता है इसलिये गातिको आत्माके ज्ञानका मित्र मानना ही पडेगा। अर्थात् शाति भी आत्माका एक गुण है। क्रोधके आवेगमे बडे २ ज्ञानी अनुचित शब्द बोलने लगते है. मानके मढमे बडे २ विकारी बन जाते है, ज्ञानको भूल भी जाते है। मायाचारीका ज्ञान विकारी होजाता है। लोभके जोरसे बडे २ ज्ञानी भी चोरी, बेईमानी आदि करने लग जाते है। इसलिये क्रोधादि आत्माले गुण नहीं है किन्तु शात भाव आत्मावा गुण है। एक मानव थोड़ी देर क्रोध करके थक जायगा लेकिन शातभावको विना किसी , कष्टके दीर्घकाल तक रख सक्ता है। जैसे जलका स्वभाव शीतल है वैसे आत्माका स्वभाव शात है। (Peacefalness) शाति भी इस आत्माका एक गुण है, इसे कमी भी भूलना न चाहिये।
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[१३ इसी तरह आनन्द गुण भी इस आत्माका स्वभाव है। इसका मोटा प्रमाण यह है कि जब हमारे भीता शाति रहती है तो सुख, स्वयं मालूम पड़ता है और जब अगाति होती है तो क्लेश स्वयं अनुभवमें आता है इसलिये जैसे ज्ञानके साथ शांनिकी मित्रता है बैंम मुग्वकी भी मित्रता है। हमारे सुख गुणको अधिकतर मोहने विपरीत कर रक्खा है। मोहका अंवेरा ऐसा छाया हुआ है कि हम यही जानते है कि इन्द्रियोंके भोगोंये ही सुख होता है । इंद्रिय सुख ही मुख होता है। इस ( sensual pleasure ) इंद्रिय सुखके लिये हम रात दिन इन्द्रियभाग संवन्धी पदार्थको लिया करते है. छोडा करने है। उनहीके मोहमे भूले रहते है। देखो, सबेरेसे शामतक व शाममे सवरेतक ह्म शरीरकी, धनकी. कुटुम्बपरिवारकी, मित्रोकी ही चितामे, उन हीकी ताफ आकर्पित रहने है। कभी भी इस अन्ध मोहको छोड़ते नहीं है इसीमे अपने ही पास जो सच्चा सुख है उसे हम नहीं भोगरहे है।
शिष्य-यह वात मेरी समझमें नहीं आई कि इन्द्रिय सुखसे भी भिन्न कोई सुख है। हम तो यह जानते है कि जब हम स्वादिष्ट वस्तु खान है, अपने मित्रके हाथका मन करते हैं, सुगंधित फूलोंको संयने है, मुन्दर वस्तु देखते है, रसिला गाना सुनते हे तब हमे सुख होता है इसके सिवाय भी कोई सुख क्या जाननेमे आता है ?
शिक्षक-प्रिय भाई ! इन्द्रियों के द्वारा होनेवाला सुख सुखसा दीखता है परन्तु यह सुख यथार्थ नहीं है, यह तो दुःखकी कमी है जिसे सुख समझ लेते है । जब इन्द्रिय द्वारा भोगकी चाह उटती है यही दुःख है। जब यह दुःख कुछ कम होजाता है तब
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१४]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। हम उसे सुख कहते है। यह सुख इसलिये नहीं है कि इस सुखाभाससे तृप्ति नहीं होती है, उलटी चाहकी दाह बढ़ जाती है, तृप्णा अधिक होजाती है। जितनी इच्छाएं हम रखते है उतनी ही बीमारिया हमारे पास है Desires are diseases यदि कोई विमारी कुछ कम होती है. हम सुख मान लेते है। हमे पाचो इन्द्रियोंकी बहुतसी इच्छाएं रहती है जिनमे बहुतमी पूरी ही नहीं होती है । हम आपको बताएंगे कि इन्द्रिय सुखके सिवाय भी कोई सुख है। अच्छा क्या आपने कभी स्वयंसेवकी की है ?
शिष्य-मैंने एक दफे जब मेरे यहा एक जैन मेला था तब स्वयंसेवकीका काम किया है।
शिक्षक-क्या उस कर्तव्यको पालन करते हुए कभी आपत्तियां या कष्ट तो नहीं आए थे ?
शिष्य-एक रातको मेरी ड्यूटी यह वाधी गई थी कि मैं डेरोंके आसपास पहरादू । कारणवश उस रातको पानी खूब वरसा। मैं पानी हीमें छतरी लगाकर अंधेरी रातमे लालटेन लिये घूमा किया। 'एक पहरेदारके समान सब कर्तव्य पाला।
शिक्षक-अच्छा बताओ। ऐसा कष्ट सहते हुए तुम्हें मनमें दुःखका अनुभव हुआ था या सुखका ?
शिष्य-क्या कहूं? मुझे तो बड़ा सुख मालूम पड़ा था।
शिक्षक-ऐसा क्यों मालूम पडा ? यदि आप घरमे आरामसे बैठे हों और कोई आज्ञा करे कि रातको पानी वरसतेमे घूमो तो आप इस आज्ञाको नहीं मानोगे; क्योंकि यह जानते हों कि पानीमे घूमेगे तो कष्ट होगा फिर इस स्वयंसेवकीका कर्तव्य पालते हुए
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[१५
मै कौन हूं।
सुख कैसे मिला ? प्रगट रूपसे तो यह दुःखकारक काम था।
शिष्य-मैं समझता हूं कि उस समय मैं जातिसेवाका काम मनसे कर रहा था, इससे मुझे सुख मिला था।
शिक्षक-तब उस समय क्या आपने पाचों इन्द्रियोंके भोग भोगे थे जो सुख मिला ?
शिष्य-नहीं, पांचो इन्द्रियोंके भोग नहीं भोगे थे, वहां तो भोगके साधन भी नहीं थे। अंधेरी रातमें खडे२ घूमता था, न कोई गाना था न बजाना था, न खाना था न पीना था, न सुन्दरताका देखना था, न संघना था, न किसी मित्रका समागम था।
शिक्षक-तब आपके कहनेसे ही यह बात आगई कि आपने इन्द्रियोंके भोगोंके विना भी कोई सुख पालिया जो सुख इन्द्रिय सुख नहीं है किंतु इन्द्रियसुखसे भिन्न है।
शिष्य-इसमें संदेह नहीं कि यह सुख इन्द्रियसुखसे भिन्न है तो क्या यही आत्माका स्वाभाविक सुख है ? यदि ऐसा है तो मुझे स्वयंसेवकीका कर्तव्य पालते हुए क्यों झलका तथा और समयपर क्यों नहीं मालम पड़ता 2
शिक्षक-वास्तवमें वह सुख भीतरसे उठा है वह आत्माके स्वाभाविक गुणका ही झलकाव है। स्वयंसेवकी एक परोपकारका काम है। जब आपने इस ड्यीको हाथमे लिया तब यह मंशा करली थी कि हम शरीरसे, धन घरसे, आरामसे मोह छोड़कर जो कुछ छोटीसी भी सेवा होगी उसको बजायंगे अर्थात् अपने मोहको कम किया था। और जब स्वयंसेवकी का कर्तव्य पाल रहे थे तब भी मोहको छोडे हुए वर्ताव कर रहे थे। मोहने ही
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१६]
विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा। आत्माके सुख गुणको ढक रक्खा था । जितना अंग आपका मोह हटा था उतना अंग उन अतरंगके सच्चे सुखका कुछ स्वाद आपको आगया। यदि आत्मामे सुख गण नहीं होता तो कभी भी परोपकार करते हुए सुख नहीं भासता। यदि कोई एक क्षणके लिये बिलकुल मोह छोड दे और आत्माकी ओर प्रेमी होजावे तो वह यह अनुभव करेगा कि वह परम सुखी है। इसलिये आपको यह निश्चय करना चाहिये कि आत्माका एक गुण आनन्द है।।
शिष्य-गुरूजी | आज तो आपने मुझे बडी ही कामकी बात बता दी, मै तो बहुत अंधेरेमे था। मै विषयभागको ही सुख जानता था। आज मैने निश्चय करलिया और खूब समझ लिया कि सच्चा सुख मेरे आत्माका स्वभाव है । इन्द्रिय सुख अतृप्तिकारी है व चाहकी दाहको बढानेवाला है। वास्तवमे द खकी कुछ कमीको ही इन्द्रिय सुख कहते है।
शिक्षक-इसी तरह यः आत्मा अमूर्तीक है. इसमे जड Matt..के गुण जो स्पर्श, रस, गंध, वर्ण है मो नहीं है इसीसे हम आत्माको हाथोसे छूका, जवानसे चाखकर नाकसे लंबकर व आखये देखकर नहीं जान सक्ते है। वह जड परमाणुओंमे बना नहीं है वह तो एक अखड अग पदार्थ है इसीसे वह अमूतीक imust.hul है।
शिष्य-इस आत्माका कुछ आकार है या नहीं।
शिक्षक-हरएक वस्तु जो इस जगतमे है कुछ न कुछ आकाशको घेरती है, क्योकि आकाश सबका आधार है। जैसे कोई कहे कि घड़ी कहा है ? जवाब मिलेगा वहा है। फिर वह पूछे कि
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[१७'
मै कोन हूं। . वहां कितनी जगहको घेरे हुए है। जवाब होगा कि वह घड़ी जितनी जगह बरे हुए है वही उस घड़ीका आकार है। इसी तरह हम जितनी जगह घेरे है वह हमारा आकार है । आप जितनी जगह घेरे हुए हो वह आपका आकार है। तथा हम ज्ञानका काम व सुख दुःखका जानना सर्व शरीरभरसे कर सक्ते है, शरीरसे बाहरकी चीजको जो हमसे नही छरही है उसके स्पर्शको हम मालम नहीं करसक्ते न उसके बिगाड़ सुधारका कोई दुःख सुख हमें सहन होता है। यदि एक ही समयमें हमारे सारे शरीर भरमें सुइयां चुभादी जावें तो हमें सारे शरीरभरमें एक साथ दुःखका अनुभव होगा। यदि हमारे शरीरसे एक इंच दूर हवामे सुइया हिलाई जावे या भोकी जावें तौ हमे उसका कुछ भी दुःख नहीं मालूम होगा। इससे यह जाना जाता है कि हरएक संसारी आत्माआ आकार उसके शरीर भरके बराबर है। आत्मा अपने शरीररूपी घरमें फैला रहता है।
शिप्य-परन्तु शरीर तो छोटेसे बडा होता है, कभी बीमारीमे बड़ेमे कुछ छोटा होजाता है। बालकावस्थामे शरीर जरासा था युवानीमे बडा होगया, तव क्या आत्मा भी छोटेसे बडा व बड़ेसे छोटा होता है ?
शिक्षक-वास्तवमें यही बात है, जैसे एक दीपकका उजाला एक बड़ेमें घडेभरमे ही फैलेगा, वही उजाला एक कोठरीमें कोठरीभरमे फैलेगा, वही एक कमरेमें कमरेभर में फैलेगा, वही मैदानमे और भी अधिक फैलेगा। जैसे दीपकके प्रकाशमें फैलनेकी व सकुड़नेकी शक्ति स्थान व पात्रके आधारसे है वैसे इस संसारी आत्मामें शरीरके आधारसे फैलने सकुड़नेकी शक्ति है। यही कारण है कि एक
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१८]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा मानवका जीव मरनेके बाद एक गायके गर्भ में जाकर छोटा उसी बछडेके आकार होजाता है या एक हाथीका जीव मरनेके वाद यदि चींटी जन्मे तो चींटीके आकार होजाता है। यह बात प्रत्यक्ष प्रगट है, हम व आप सब अनुभव कर सक्त है।
शिष्य-तब यह तो बताइये कि इस आत्मामें कहांतक फैलनेकी शक्ति है ।
शिक्षक-इस आत्माका आकार निश्चयसे या असलमे इतना बड़ा है जितना बडा यह जगत है। किसी समय यह सब जगतमें भी व्याप जाता है।
शिष्य-फिर इसको निराकार क्यों कहते है ?
शिक्षक--जडमई आकार आत्माका ऐसा नहीं है जिसे हम देख सकें या छूसकें, इसलिये इसे निराकार कहते है । यह अमूर्तीकके ही अर्थमे है। कोई भी आकार आत्माका नहीं है, यह अर्थ निराकारके नहीं है।
शिष्य-अच्छा! अपने यह बताया था कि सब आत्माएं स्वभावसे बराबर है, संबका मूल स्वभाव एकसा है। सो मैं आपके समझानेसे समझ गया कि हरएक आत्मा स्वभावसे सब कुछ जाननेकी शक्ति रखता है, परम गातिमय है, परमानन्दमय है व अमृर्तिक है अर्थात् हरएक आत्मा स्वभावमे परमात्मा या ईश्वर है। अब यह बताइये कि फिर यह अशुद्ध क्यों है तथा यह विचित्रता जगतकी आत्माओंमें क्यों मालूम पडती है ? क्यों एक पशु है; क्यों एक पक्षी है, क्यों एक मानव है, क्यों एक स्त्री है, क्यों एक पुरुष है, क्यों सनी सिता है गो. नी
.'.
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मैं कौन है। "
[१९ है, क्यों एक निर्बल हैं, क्यों एक धनवान हैं, क्यों एक निर्धेन है, क्यों एक जल्दी मरता है, क्यों एक दीर्घकालं जीती है, क्यों एक शांत स्वभावी है, क्यों एक क्रोध स्वभावी हैं, क्यों एक चतुर है, क्यों एक मुखे है। ___शिक्षक-आपकी प्रश्न बहुत उपयोगी है और अच्छी तरह समझने लायक है। पहले हम आपको एक दृष्टांत देकर बतविंगें। यदि हमने रुईके बने कपड़ेसे ५० कुरते बनवाए और हमने 'पचासों कुरतोंको पचास किस्मकें रंगोंमें घोल करके रंगीन कर दिया। अब वे कुरते एक रुई जातिके सफेद होनेपर भी विचित्र दीख रहें हैं। इसका कारण मिन्न२ प्रकारके रंगका संयोग है। इसी तरह इस आत्माके साथ किसी ऐसे जड पदार्थका सम्बन्ध है जो नाना प्रकारका है। इसी कारण जगतके संसारी जीवोंमें भिन्नता दिख रही है। पहला सम्बन्ध तो इस दिखनेवाले मोटे शरीरसे ही है। सबका शरीर एकसा नहीं है, परन्तु यह तो छूटता है व फिर दुसरी मिलती है। एक ऐसा महीन जड़ पदार्थ इस संसारी आत्माके सार्थ रहता है जिसके असरसे इसकी दशा भीतरी व बाहरी तरहरकी होती है। इस सूक्ष्म जड़ पदार्थको कार्मण शरीर (Karmio-bodya या कारण शरीर कहते हैं। इस स्थूल शरीरके छूटनेपर भी वह साथ रहता है। उसीके असरसे पशु, पक्षी, पुरुष, स्त्री, गाय, भैंस, हिरण, मक्खी, चींटी, लटं, वृक्ष आदि रूपधारी होता है। उसीके असरसे भीतरी व बाहरी देशी जीवोंकी होती है। यह कार्मण शरीर सूक्ष्म जड़ कंघोसे बनती है जिनको कार्मर्णवर्गणा (Barmig molecules ) कहते हैं। हम सब संसारी जीव जब कुछ भी अपने मनसे, वचनसे
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२०]
विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा। या कायसे अच्छा या बुरा काम करते है तब हमारे भीतर हरकत पैदा होती है उसी समय ये कर्मके स्कंध खिंचकर आजाते है और हमारे. कार्मण शरीरमें बन्ध जाते है। जैसे गर्मीका निमित्त पाकर पानी स्वयं भाफरूप होनाता है, वैसे हमारे अच्छे या बुरे भावोके निमितसे वे स्कंध स्वयं आकर मिल जाते है तब इन्हीको पुण्य पापकर्म कहते है, भाग्य कहते है, किस्मत कहते है, फेट (fate) कहते है, अदृष्ट कहते है प्रकृति कहते है, माया कहते है।
शिष्य-पुण्य पापमे क्या भेद है ?
शिक्षक-जब हमारे भाव अच्छे कार्योंकी तरफ होते है तक हम जिन कौको बाधते है उनको पुण्य कर्म कहते है। जब भाव बुरे कार्योंकी तरफ होते है तब हम जिन कर्मोको बाधते है उनको पाप कर्म कहते है।
शिष्य-कृपा कर अच्छे या बुरे भावोंके नमूने बताइये ।।
शिक्षक-जब हम जीवदया, परोपकार, दान, सत्य वचन, सत्य व्यवहार, ईमानदारी, संतोष, ब्रह्मचर्य पालन, क्षमा, विनय, सरलता, शुचिता, इन्द्रियनिग्रह, मननिग्रह, वैराग्य, परमात्मभक्ति, उत्तम शास्त्र पढ़न, सच्चे गुरूकी सेवा, आदि प्रसन्नताके भाव करते है तब पुण्यकर्म बंधते है। जब हम हिसा, परपीडा, असत्य वचन, चोरी, कुशील, अति लोलुपता, इंद्रिय लम्पटता, क्रोध, मान, माया, लोभ, काम विकार, कुटिलता, अविनय, ईर्षा, घृणा, हंसी, शोक, चुगली, परका बुरा, जुआ खेलना, मांस खाना, शराब पीना, शिकार खेलना, वेश्या प्रसंग, परस्त्री प्रसंग आदि खोटे भाव करते है तब पापकर्म बंधते है। ये पुण्य वा पापकर्म बंधनके पीछे जब काल पाकर .
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मैं कौन है।
[२१ पकने है तब अच्छा या बुरा फल देते है । जैसे हम शरीरमें हवा, पानी, भोजन लेते है। ये सब भीतर पक कर अपना फल स्वयं खून, चरबी, मास, हड्डी व वीर्यमें पलटते हैं । वीर्यकी शक्तिसे हम लोग चलते फिरने, देखते सुनते, दौड़ते बैठते आदि जीवनके काम करते है । वैसे ही इस सूक्ष्म कार्मण देहमें मंचय किये हुए पुण्य या पापकर्म अपने अवसरपर पककर अच्छा या बुरा फल दिखाने हैं। जो कर्म सूक्ष्म शरीरमें बंधते हैं उनके मूल आठ भेद है
(१) ज्ञानावरण कर्म--जो ज्ञान स्वभावको ढकता है। (२) दर्शनावरण कर्म-जो देखनेके स्वभावको ढकता है ।
(३) मोहनीय कर्म--जो मदिराके समान भ्रममें डालता है, रागद्वेष मोह पैदा करता है, शांतभाव व सच्चे विश्वासको भ्रष्ट करता है।
(४) अंतराय कर्म-जो आत्मबलको रोकता है। (५) अयु कर्म-जो किसी शरीरमें कैद रखता है। (६) नाम कर्म-जो शरीरकी रचना बनाता है।
(७) गोत्र कर्म-जो माननीय व निन्दनीय कुलमें जन्म कराता है तथा जिसके असरसे हम जगतमें ऊंच व नीच कहलाते है।
(८) वेदनीय कर्म-जो सुख दुखकी सामग्रीका सम्बंध मिलाफर सुख दुःख भोगनेमें कारण होता है । इनमेंसे ऊपरके चार कर्माको घातिया ( destructive) कहते हैं क्योंकि ये चार कर्म
आत्माके स्वभावको बिगाड़ते हैं । बाकीके चार कर्मोंको अघातीय ( non-destructive) कहते हैं क्योंकि ये केवल बाहरी सम्बन्ध मिलाते हैं।
जितना ज्ञानावरण, दर्शनावरण कर्मका जोर हटा हुआ है
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२२]
विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा उतना ज्ञान व ढर्शन गुण हमारा प्रगट है,। जितना ज्ञान व दर्शन ढका हुआ है वह ज्ञानावरण दर्शनावरणका असर है। जितना अंतराय कर्म हटा हुआ है उतना आत्मवल प्रगट है । जित्तना आत्मवल ढका हुआ है वह अंतरायकर्मका असर है। एक बात यह भी समझलो कि जितना गुण आत्माका प्रगट है उसे पुरुषार्थ कहते है। जितनी कौके असरसे मलीनता है या कर्मोका बाहरी फल होता है उसे दैव कहते है।
शिष्य-जरा कृपा करके दैव और पुरुषार्थको ठीक ठीक वताइये । मै इस बातको अच्छी तरह जानना चाहता हूं।
शिक्षक-ऊपर हमने बताया है कि चार घातीय कर्म आत्माके गुणोंको विगाड़ते है। इनमेसे तीनके टवनेसे जितना ज्ञान, दर्शन, आत्मवल प्रगट है. वही वह शक्ति है जिससे हम विचारपूर्वक किसी कामका उद्यम कर सक्ते है । यह दैव व कर्मसे उल्टी वस्तु है, इसे ही पुरुषार्थ या उद्योग कहते हैं। यह हमारा शस्त्र जगतमे काम करनेके लिये है। चौथा मोहनीय कर्म है जब वह कुछ दवता है तब जितनी शाति प्रगट होती है वह भी पुरुषार्थमें गर्मित होजाती है। वह शांति भी हमारे उद्योगमे सहायक होती है। हरएक मानवको उचित है कि वह इस पुरुषार्थसे विचारपूर्वक लौकिक या पारमार्थिक काम करे। यदि कभी कर्मका उदव प्रतिकूल होगा तो काम सिद्ध न होगा, यदि अनुकूल होगा तो काम सिद्ध होजायगा । बहुधा हमारी उत्तम बुद्धि द्वारा विचार किये हुए काम सफल होजाया करते हैं। जैसे हम किसी व्यापारको वुद्धिसे विचारकर अपने आत्मबलके अनुकूल करें, यदि साता वेदनीय कर्म
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मैं कौन हूं।
२३ अनुकूल होगा व अंतराय कर्म वाधक न होगा तो हमारे मनके अनुकूल कार्य सिद्ध होजायगा। व्यापारमें लाभ होगा। यदि कर्म प्रतिकूल होगा तो हानि होगी। हमने विचारपूर्वक किसी गाड़ी घोड़ेकी सवारी की और मार्गमें जाने लगे, यदि कर्म प्रतिकूल होगा तो हमारी गाड़ी लड़खड़ायेगी और हमें चोट लगजायेगी । जगतमें पुरुषार्थ और दैव दोनोंकी आवश्यकता है। एक दूसरेसे विरुद्ध है । जो प्रबल होता है उसकी विजय होजाया करती है। ____ अब आप यह समझ गये होंगे कि यह आत्मा कर्म जड़के संयोगके कारण अशुद्ध है जब कि स्वभाव इसका शुद्ध है । जैसे मैला पानी मैलके संयोगसे अशुद्ध है, पानीका स्वभाव शुद्ध है। मैला कपडा मैलके संयोगसे अशुद्ध है, स्वभावसे सफेद रुईका है। मैला सुवर्ण कालिमाके संयोगसे मैला है, स्वभावसे शुद्ध है । इसी तरह आत्मा स्वभावसे शुद्ध है, मात्र जड़ कर्मके संयोगसे अशुद्ध है।
अब आपसे कोई पूछे कि आप कौन है तो आप क्या उत्तर देंगे ?
शिष्य-अब तो मैं बहुत अच्छी तरह समझ गया हूं। मैं यही कहूंगा कि स्वभावसे मैं शुद्ध आत्मा हूं जिसमें पूर्ण ज्ञान है, पूर्ण शांति है, पूर्ण आनन्द है, स्वभावसे मैं अमूर्तीक हूं, कर्मके संयोगसे मैं अशुद्ध हूं। मेरेमें जो वर्तमान अवस्था होरही है वह कर्मोंका असर है।
शिक्षक-वास्तवमें आप समझ गए है कि आप कौन है। जब आप अपनेको समझ गए है तब क्या आपने दूसरेको नहीं समझा है ?
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२४]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। शिष्य-मैंने सर्व ही चेतन शरीरधारी प्राणियोंको अपने समान समझ लिया है। सर्व ही शरीरधारी प्राणियोंमें स्वभावसे आत्मा शुद्ध है, कर्मसंयोगसे अशुद्ध है।
शिक्षक-एक बात ध्यानमें रखखो कि यह संसार एक नाटक'घर है जिसमे यह जीव जड़की संगतिसे नाना प्रकार पशु, पक्षी, कीट, वृक्ष, मनुष्य आदिके रूप बनाकर वर्तन किया करता है। स्वभावसे सब ही शुद्ध आत्मा है।
शिष्य-अब यह वताइये कि मेरा कर्तव्य क्या है। शिक्षक-कल इसी समय मिलेंगे तब वतावेंगे।
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मेरा कर्तव्य।
[२५ दूसरा अध्याय।
मेरा कर्तव्य। शिक्षक-आपने कल प्रश्न किया था कि मेरा कर्तव्य क्या है, मैं आपको बतानेकी कोशिस करूंगा। आप भीतरसे क्या चाहते हैं।
शिष्य-हम यही चाहते हैं कि सुखशांतिसे जीवन वितावें व जगतकी कुछ सेवा बने तो कर जावे। मैं समझता हूं कि हरएक बुद्धिमान मानव ऐसा ही चाहता है। कोई भी दुःख व अशांतिको नहीं चाहता है।
शिक्षक-आपका विचार बहुत ही ठीक है। मानव जीवनके दो ही मुख्य उद्देश्य हैं-एक सुग्वशांतिका लाभ, दूसरा परोपकार । मानव सबसे बड़ा प्राणी है ऐसा यह आनेको समझता भी है। इसलिये जो बड़ा होता है उसका काम यही होता है कि अपनेसे छोटोंकी रक्षा करे व सेवा करे । उनका उपकार करे। बराबरवालोंका भी भला करे व उनसे प्रेम सखे । इसलिये मानवका कर्तव्य है कि यदि त्यागी हो तो जगतका उपकार करे, सबको समानभावसे देखकर उत्तम उपदेश देवे, मार्ग बतावे। यदि गृहस्थ हो तो अपने मुख्य सम्बंधी स्त्री पुत्रादिका सच्चा उपकार करे, आने वुटुम्बियोंकी सच्ची भलाई करे, अपनी जातिकी सेवा करे, धर्मकी सेवा करे, नगर व प्र.मकी सेवा करे, स्वदेशकी सेवा करे, जगतके मानवोंकी सेवा करे, पशु समाजकी सेवा करे, वृक्षादि क्षुद्रसे क्षुद्र प्रारियोंकी सेवा करे, जितना अधिक व जितना विस्तारसे हो सके करे । परोपकारसे ही मानवका मनुष्यपना सफल होता है।
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२६ ]
विद्यार्थी जैनधर्मशिक्षा शिष्य-कृपाकर यह बताइये कि सुखशांतिका लाम कैसे हो !
शिक्षक-यह बात हम आपको बहुत अच्छी तरह बताएंगे, आप ध्यान देकर सुनें । यह तो आप भले प्रकार जान चुके हैं कि सुख व शांति ये दोनो आत्माके स्वाभाविक गुण है। जो आत्मा शुद्ध होता है उसको परमात्मा कहते हैं, उसके भीतर तो सर्वे आत्मीक गुण पूर्णपने शुद्धतासे प्रकाशमान होजाते है । हम संसारी आत्माएं अशुद्ध है तथापि हमारी आत्मामे भी ये गुण है। हम किसतरह इन गुणोंका स्वाद लें यही बात समझनेयोग्य है । हम आपसे पूछते है कि आपको मीठी नारंगीका स्वाद कैसे आता है ?
शिष्य-जब हम नारगीका गृदा जवानपर रखकर चाखते हैं। तब उसका मीठा स्वाद आता है ।
शिक्षक-यदि नारंगी खाते वक्त आपका मन व्याकुल हो, कहीं जानेकी आकुलता हो तो आपको स्वाद आयेगा या नहीं ?
विष्य-मै समझता हूं कि जब हम स्थिरतासे चाखेंगे तन ही हमको स्वाद आयगा । घबड़ाहटमें स्वाद नहीं आयगा ।
शिक्षक-आपका कहना ठीक है। असल बात यह है कि स्वादको जाननेवाला हमारा ज्ञान है जो जीभके द्वारा काम करहा है। जब हमारा ज्ञान बिलकुल उस नारंगीकी ओर एकाग्र होगा अर्थात् उसी तरफ़ जम जायगा तब ही नारंगीका स्वाद आयगा । यदि डावांडोल ज्ञान होगा-उस नारंगीके स्वाद जाननेमें थिर न होगा तो कभी भी उसका स्वाद न आयगा । इसी दृष्टांतसे आपको मालूम हो कि जब सुख शाति अपने आत्मामें है तब अपनी आत्माकी ओर एकाग्र होकर स्थिर होनेसे अर्थात् आत्मामें जानको
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मेरा कर्तव्य ।
[२७. रोकनेसे या आत्मध्यानसे सुख शांतिका लाभ होगा। इसलिये यदि आपको सुखशांतिका लाभ करना है तो आत्मध्यान करनेको अभ्यास करना चाहिये।
शिष्य- गुरुजी ! हम आत्माका ध्यान कैसे करें ।
शिक्षक-आप विद्यार्थी है। आप ध्यानका थोडासा अभ्यास कुछ देर प्रारम्भ कर दीजिये। मैं आपको आत्मध्यानका उपाय बताता हूं। लोग कहते हैं बहुत कठिन है परन्तु आत्माको अभ्यास करनेसे सुगम मालम होगा.। आत्मध्यान एक तरहका व्यायाम है। जैसे शारीरिक व्यायाम करनेसे शरीर पुष्ट होता है वैसे आत्मिक व्यायाम करनेसे आत्मा बलवान होता है। जैसे शरीरकी कसरत शुरू करते हुए कठिन मालूम होती है लेकिन एक दफे शुरू कर दी गई और कुछ दिन जारी राखी गई तो फिर सुगम होजाती है वही हाल आत्मीक व्यायामका है। आप सवेरे सूर्यके उदयके कुछ पहले जब आकाशमें लाली छारही हो, बिछौना छोड़कर व हाथ पग धोकर यदि कुछ मनमें ग्लानि हो तो बदन पोछकर व कपड़े बदलकर एक आसन या पाटा विछाकर अलग एकांतमें बैठ जावे । ५, १०, १.५ जितने मिन्ट आप दे सकें उतनी देरके लिये आप यह इरादा करलें कि इतनी देर के लिये मैंने दुनियांके सब कामोंसे छुट्टी लेली है। मैं इनी देर सिर्फ अपने आपसे बातें करूंगा। अपनी ही तरफ़ देखंगा। किसी और वस्तुकी तरफ दिल न लगाऊंगा। ऐसा दृढ़ संकल्प करके आप बैठ जाइये और अपना आसन.पद्मासन या अर्ध पद्मासन जना लीजिये।
दोनों पर जांघपर रखकर बाएं हाथपर दाहना हाथ रखकर
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२८ ]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। सीधे बैठनेको पद्मासन कहने है । आपने कभी जैन मंदिरमे मनिको देखा होगा, मूर्तिका आसन जो वैठे हुए मिलता है वह ऐसा ही पद्मासन होता है। जिसमे एक पग जांघके ऊपर हो एक पग जाधके नीचे हो वह अर्ध पद्मासन है। हाथ दोनों वैसे ही रहते है। आसन लगानेसे गरीर निश्चल होजाता है। ऐसा दृढ़ होजाता है कि तेज पवन भी नहीं हिला सक्ता है। आसनसे वैठकर अपने भीतर देखो कि निर्मल जलके समान आत्मा भरा हुआ है। जैसे निर्मल जल शुद्ध, शीतल व मीठा होता है वैसे यह आत्मा शुद्ध ज्ञान पूर्ण, गातिमय व आनंदमई है। इस जल समान आत्मामे अपने मनको डुबाने। उसी तरह डबाटो जैसे नदीमे नहाते हुए पानीमें डुबकी लेते है, जब मन हटे तव नीचे लिखे मंत्रोमेसे कोई धीरे धीरे पढ़ते रहो, कभी मंत्र पढ़ना बंदकर आत्माके ज्ञान, शाति व आनंदके गुणोंको विचार लो फिर उसी जल स्वरूप आत्म.में मन हुवाओ। इस त ह तीन वातोंको बदलते हुए अभ्यास करो। (१) मनको आत्मामे अवाना, (२) मंत्र पढना. (३) गुणोंका विचार । __ मंत्र वई है पर थोडेमे तुम्हें बताता हूं
(१) ॐ, (२) अरहंत. (३) सिद्ध. (४) अरहंत सिद्ध, (५) सोऽहम्. (६) ॐ ह्रीं, (७) अई, (८) णो अरदंताण, (९) णनो सिद्धाण।
इनमेसे कोई भी मंत्र पढ़ सक्ते हो। इस तरह जितनी देरका नियम हो उतनी देर अभ्यास करो। यदि मनमें दूसरे विचार आवे तो उसकी तरफ दिल न लगाओ, उनको तुर्त हटादो-यह कहदो कि इस समय तुम्हारा काम नहीं है फिर आना। जैसे हम किसी जरूरी
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मेरा कर्तव्य। .
[२९ हिसाबको कर रहे हो उस समय कोई बात करनेको आता है तो हम कह देते है कि फिर आना, इसी तरह जो दूसरे विचार आवें उनकी. तरफ यही उदासीन (indifference ) भाव रखना चाहिये ।
आप देखेंगे कि ५-१० दिनके अभ्याससे ही आपको सुख गाति मिलने लगेगी व आपकी आत्मामें कुछ बल भी बढ़ेगा, जो आपके कालेजके पाठके स्मरणमें सहाई होगा !
शिष्य-आपने यह कहा था कि यह आत्मा अमूर्तीक है फिर इसको जलके समान कैसे मान सक्ते है ?
शिक्षक-आपका कहना ठीक है कि आत्मा अमूर्तीक है, परन्तु हमारे ज्ञानमें अमूर्तीकका ध्यान एकदमसे होना कठिन है। इसलिये हमें उस आत्माकी स्थापना ( representation) किसी वस्तुमे करके मनको स्थिर करनेका अभ्यास करना चाहिये । अभ्यास करते करते कभी ऐसा समय आयगा कि जलके देखनेकी जरूरत न पडेगी । आत्मा स्वयं अपने ध्यानमे आजायगा ।
शिष्य-मैं तो कलसे ही ऐसा अभ्यास शुरू कर दूंगा। क्या ध्यानकी सिद्धिके लिये और कुछ भी काम जरूरी है ?
शिक्षक- बहुत अच्छा प्रश्न तुमने किया। प्रिय मित्र ! ध्यानका अभ्यास वास्तवमें एक चित्रका खींचना है। जैसे चित्रके खींचनेका अभ्यास चार बातोंसे होता है, वैसे ध्यानका अभ्यास चार बातोंसे होता है।
वे चार बाते है-(१) चित्रका नकशा देखना (२) नकशा खींचना किसी शिक्षकसे सीखना (३) चित्रविद्याकी पुस्तकें पढ़ना (४) कागज व पेन्सिल लेकर चित्र खींचनेका अभ्यास करना, इसी.
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विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। तरह आत्मध्यानके लिये चार बातोंकी जरूरत है। (१) आत्मध्यानमें लीन आदर्श मितिका देखना व उसको देखते देखते आमाके गुणोंका विचार करना व गुणसूचक पाठको पढना (२) आत्मज्ञानी गुस्से समझना (३) आत्मज्ञानवर्द्धक शास्त्रोको पढना (४) ज्यानका अभ्यास एकातमें बैठकर करना।
शिष्य-क्या मूर्ति द्वारा भक्ति लाभकारी है सो किस तरह '
शिक्षक-हम लोगोंका मन चंचल है इसलिये मूर्तिके द्वारा देर तक गुणोंके विचारमे लग सक्ता है । आखोंकी दृष्टि जिस मूर्ति पर पड़ती है वैसा ही चित्तका भाव होजाता है। यदि हमारे सामने लोकमान्य तिलककी मूर्ति आवे तो उसको देखते ही तिलकके गुण स्मृतिमें आजाने है, देशभक्ति पैदा होजाती है। यदि हमारे सामने किसी सुन्दर स्त्रीकी मूर्ति आती है तो रागभाव पैदा कर देती है। यदि किसी पहलवान योद्धाकी मूर्ति आती है तो वीर भाव पैदा कर देती है। इसी तरह वैराग्यपूर्ण शांत ध्यानमय मूर्ति शुद्ध आत्माका स्मरण करा देती है। मूर्ति मात्र मूर्तिमानके भावोंको दर्शानेका एक चित्र है। फोटो देखकर यह हम जान सक्ते है कि जिसका फोटो है वह किस विचारमें फोटो लेते वक्त था-क्रोधमें था, लोममे था, मानमें था, मायामें था, भयमें था, कामभावमें था, जिस किसी भावमें मानवको मन जमता है, वैसी ही छाया उसके मुखपेर' चमकती है फोटोमें वही छाया आती है। इसलिये फोटोका चित्र उसी चित्रकी दशाको बताता है, जो उस मानवमें उस समय था जब उसका फोटो लिया गया था। मूर्तिका सम्मान व निरादर उसीको सम्मान च निरीदरं समझा जाता है जिसकी मूर्ति है। यदि हम स्वामी दया
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मेरा कर्तव्य। नन्दके चित्रके सामने झुककरं नमें तो स्वामीका ही सन्मान किया गया ऐसा समझा जायगा । इसी तरह यदि हम स्वामी दयानन्दके चित्रका अंविनय करें-कदाचित् उसे पगके नीच दवा ले-या उसको मुंहसे चिढ़ा तो स्वामी दयानन्दका निरादर समझा जायगा। आपने क्या नगरमें देखा नहीं है कई स्थानोंपर महापुरुषोंकी मूर्तियां खड़ी हैं। कहीपर कीन विकटोरियाकी मूर्ति है। ये सब क्यों खड़ी कीगई है। वे ईसीलिये हैं कि उनको देखते ही देखनेवालों के दिलों में उनके गुणं याद आवें जिनकी वे मूर्तिये है। यदि कहीपर पं० मदनमोहन मालवीयाकी मूर्ति या फोटो हो और हम देरतक देखते रहें तो हमारा मन उनके जीवनके कार्योपर चला जायगा कि देखो. यह वही मालवीयाजी हैं जिन्होंने हिन्दू विश्वविद्यालयको कागीमें बड़े परिश्रमसे स्थापित कराया, जो हिन्दू धर्मके कट्टर माननेवाले व नियमरूपसे पूजापाठ जप तप करनेवाले व बड़ा ही चित्ताकर्षक व्याख्यान देनेवाले हैं। यदि कोई मालवीयाजीके गुणोंका भक्त उस मूर्तिके सामने उनकी गुणीवलीको कहनेवाला पाठ पढ डाले तो वह पाठ मालवीयाजीके लिये पढ़ी गया ऐसा समझा जायगा। क्योंकि यद्यपि वह आंखोंसे मालवीयाकी मूर्तिको देखें रहा है परन्तु उसका ध्यान पाठ पढ़ते हुए मालवीयाँजीके गुणोंकी ही तरफ है । यह पाठ पढ़ना उस पढनेवालोंके मनमें यह असर' भी पैदा करेगा या वह इस उत्साहको अपने भीतर पैर्दी कर लेगा कि मुझे भी कुछ थोडेसे भी गुण मालवीयजीके अपने जीवन में जागृतं करने चाहिये। इसी तरह यदि कोई श्री महावीर तीर्थकरकी मूर्तिक सामने जाकर वैट कावे व उनकी ध्यानमई मूर्तिको चारवार देखें और महावीर मंगवान के गुणानुवाद गावे व भक्तिसे
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३२)
विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा । . भर करके मस्तक झुकावें तो वह सब भक्ति व गुणानुवाद महावीर भगवानका ही समझा जायगा और उस भक्तके मनके भीतर यही असर पैदा होगा कि मुझे भी कुछ गुण श्री महावीर भगवानके समान अपनेमे जगाना चाहिये । यहतो आप जानते है कि महावीर भगवान गौतमवुद्धके समकालीन जैनियोंके चौवीस व अंतिम तीर्थंकर या महान धर्मप्रचारक थे और उन्होंने आत्मध्यानसे आत्माको पवित्र किया था, परमात्म पद पाया था। जैन लोग उनकी ध्यानमय मर्ति उसी आदर्शकी बनाते है जब वे अर्हत पदमे जीवन्मुक्त परमात्मा थे। उस समय उनका आत्मध्यान व आत्मामे एकाग्रता भाव. नमुनेदार होता है। वास्तवमे ध्यानमय मूर्ति द्वारा दोन, भजन, मनन या पूजन आत्मध्यान जगानेका व बनानेका एक प्रबल साधन है। और यह साधन वहा तक आवश्यक है जहातक ध्यानकी पूरी मिद्धि न होजावे जैसे-चित्र खींचनेवालेको सामने चित्रको बारबार देखते रहनेकी उस समय तक जरूरत है जहातक चित्र पूरा न खिच जावे।
शिष्य-आपने बहुत अच्छा समझा दिया कि वैराग्यमई ध्यानका चित्र आत्मध्यानमे सहायक है । परन्तु यदि कोई मूतिका सम्बन्ध न करें तो क्या उसको ध्यानकी सिद्धि न होगी ?
शिक्षक-प्रिय भाई ! मुख्य बात तो यह है कि हमारा मन आत्माके स्वरूपमे एकाग्र होजावे । यह बात सेबेरे या शाम थोड़ी देर अभ्यास करनेसे पैदा होगी। इस अभ्यासमे दूसरी तीनों बातें सहकारी हैं, इन्हींमे मूर्ति द्वारा पूज्यकी भक्ति भी है । यदि किसीको विना मूर्ति देखे,व मूर्तिद्वारा भक्ति किये ध्यान सिद्ध होजावे तो कोई बाधा नहीं है परन्तु गृहस्थोंका ध्यान बहुत कम देर होसक्ता है
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मेरा कर्तव्यं । थोड़ी देरमें दिल घबड़ा जाता है । परन्तु मूर्ति द्वारा भक्ति घंटा दो घंटा होसक्ती है क्योंकि उसमें कमी मूर्तिका दर्शन है कभी पाठ पढ़ना है, कभी गुण विचारना है, कभी चढ़ानेकी सामग्री उठाना व धरना है। नाना प्रकार के आलम्बन होनेसे मन परमात्माके गुणोकी तरफ लगातार लगता जाता है। सबेरे या शामको मात्र आत्मध्यानमें मन बहुत कम देर लगता है। मूर्ति द्वारा भक्ति,हमारे आत्मध्यान में माधक हैबाधक नहीं है । तथापि यदि किसीको ऐसा सम्बन्ध न मिले तौभी गुरुके उपदेगसे व शास्त्रकी सहायतासे आत्मध्यानकी सिद्ध होसक्ती है। जैसे कोई-चित्रकारको किसी ऐसे चित्रको खींचने के लिये कहा जाये जिसका पहलेका चित्र नहीं है तो वह चित्रकार कहनेवालेके मुखसे उस मानवके शरीरका सब हाल सुनेगा जिसका चित्र खींचना है और मुनकर पहले एक चित्र उस कथनके अनुसार दिलमे बना
F लेगा, फिर पैसा चिन्न खा न सकेगा। इसमे एक बात यह होगी कि टीक वैसा ही चित्र न. आसकेगा जैसा रस मानवका खास मुख भारमा कुच कटिरता होगी। 4. नि स मागा तो चित्रकारका चित्र खींचनमे बड़ी सुगमता होगी। इसी तरह मर्तिके द्वारा भक्ति बिना भी आत्मध्यान होमकेगा,, परन्तु कुछ देर में व कुछ कठिनतासे होगा।
शिव्य-हमने सुना है कि जैनोंमें एक ऐसा फिरका है जो 'मूर्तिको स्थापन नहीं करता है, तो क्या उस फिरकेवाले ध्यान नहीं कर सक्ते ? - "
शिक्षक-यदि गुरू बतावें तो इस फिरकेवाले भी आत्मध्यान कर सक्ते हैं । परन्तु एक साधन जो ध्यान में सहायक होता उसको
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३४]
विधा निर्म भिका। न माननेसे अवश्य कुछ कठिनता होगी तथा देवभक्तिमे जो आत्मध्यान होकर सुखशाति मिरती है उस लाभसे उनको वंचित सहना पड़ेगा।
शिष्य-यदि ऐसे लोग मात्र गुणानुवाद गावें तो क्या भाव 'निर्मल न होगा?
शिक्षक-अवश्य भाव निर्मल होगा परन्तुध्यानमय मूर्तिके द्वारा जो चित्रकी एकाग्रतामें सहायता मिलती उसकी कमी अवश्य रहेगी।
शिष्य-तो ऐसे फिरकेवाले मूर्ति स्थापनका प्रचार क्यों नहीं करते हैं ?
शिक्षक-जगतका ऐसा नियम है कि चली आई प्रथाको बदलना बडा दुर्लभ काम है । यदि कोई इतना प्रबल सुधारक हो जो अपना असर उस फिरकेके भाई बहनोंपर पूरे तौरसे कर सके 'तम ही एक प्रथा बदलकर दूसरी चल सक्ती है अन्यथा नहीं। उस फिरकेवालोंमें जो यथार्थ विचार करनेवाले है वह अवश्य वीर पूजाके (Hexo worship) समान मूर्तिपूजाको समझते है परन्तु पिछली प्रथाको बदलना कठिन होता है । तथापि हमको उन लोगोंके साथ एकता ब प्रेम रखनेमे कोई कमी न करनी चाहिये। उनका भी असली भाव वही है जो हमारा है कि आत्मध्यानसे आत्माको लाभ होगा, सुखशांति मिलेगी, आत्मोन्नति होगी। तब उसके साधनोंमें यदि हम तीन साधन बताते है व वे दो ही बताते है इतनेसे बाहरी फर्कके कारण जैनत्वके नातेसे अप्रेम न करना चाहिये। जो विशेष ज्ञानी हैं उनके विचारों में अवश्य एकता होसक्ती है। विशेष ज्ञानी सब जैनी परस्पर एक भावपर पहुंच सक्ते है। भिन्नर फिरकोंके भाई यदि
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मेरा कर्तव्य।
[३५ परसर ,एकता करना चाहे तो उनको एक दू-रेक शास्त्रोंको शांतिसे पढ़कर मनन करना चाहिये, तब विचारवानके दिलोंमें जो कुछ यथार्थ तत्व है सो स्वयं झलक जायगा। हमें बाहरी साधनों के संबंवमें परस्पर विवाद न करना चाहिये न एक दूसरेसे अप्रेम करना चाहिये, स्वयं अपनी बुद्धिसे विचारना चाहिये। असली सुख शांतिके साधनमें हम सबको एकमत रखना चाहिये। बाहरी साधनोंके सम्बन्धमें मतभेद होनेपर भी बुद्धिसे निर्णय कर लेना चाहिये ।
शिष्य-जब ध्यानमय मूर्ति वैराग्य दर्शानेवाली होती है तब ऐसी मूर्तिको जैनीके कोई फिरकेवाले आभूषणोंसे अलंकृत क्यों करते हैं ? मुकुटादि क्यों पहनाते हैं ?
शिक्षक-हमारी रायमें तो वीतरागताके भावको दिखलानेवाली मूर्तिको आभूषणोंसे शृंगारित न करना चाहिये। ऐसा करनेसे अवश्य वीतरागताके दृश्यमें अंतर पड़ेगा। परन्तु वे लोग भक्तिवश ऐसा करते है। यदि वे शांतिसे लाभ हानिपर विचार करें तो हमारी रायमें वे ऐसा न करें। हमने सीलोन तथा ब्रह्मदेशमें बौद्धोंकी ध्यानमय मूर्तियाँ बहुत देखी हैं। वे मूर्तियां शृंगारित नहीं की जाती, हां वस्त्रका चिह उनपर होता है । गौतम बुद्ध धोती या चादर पहनते थे उन्हींका चिह मूर्तिपर होता है । वीतरागता व शांति तो बहुत अच्छी तरह झलकती है।
शिष्य-जो जैनी मूर्तियोंको वस्त्र रहित बनाते हैं उनका क्या अभिप्राय है ?
शिक्षक-वे लोग ऐसा मानते है कि वस्त्रादिको त्यागे विना साधुपद नहीं होसक्ता, इसलिये वस्त्रादि रहित मूर्ति बनाते हैं। जो
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विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। मूर्तियोंपर वस्त्रादिका चिह्न करते है वे ऐसा मानते है कि वन्त्र सहित भी माधु होसक्ता है। किंतु सभी बौद्ध व सर्व ही जैनी आत्मध्यानसे उन्नति मानते है। उस आत्मध्यानमें एक सहायक माधन ध्यानमय मुर्ति है। . शिष्य-क्या जैन और बौद्ध मतमे साम्यता है ? . शिक्षक - जैन मत और बौद्ध मतमे बहुत कुछ साम्यता है सो हम फिर आपको बताएंगे। अभी तो आपको यह समझाना था कि ध्यानमय मूर्तिके द्वारा गुणानुवाद भी आत्मव्यानमे एक सहकारी साधन है। अब हम दूसरे साधनकी जरूरत बताते है कि आत्मज्ञानी व आत्मध्यानी गुरुसे आत्मध्यानको समझा जावे। विना गुरुले ज्ञान ठीक नहीं होता। जैसे कालेजमे जो बातें सीखनी है उनको बतानेवाली युस्तकें तो सब होती ही है। परन्तु यदि सम्झानेवाले प्रोफेसर या अध्यापकं न हों तो उनको टीक २-भाव शिष्योंवी समं मे न आयगा इसी तरह आत्मध्यानका उपाय जैन शास्त्रोंमे तो लिखा है परन्तु आत्मध्यानी गुरुके विना ठीक २ समझमे नहीं आयगा। इसीले गुरु भक्ति या गुरु नेवावी भी आउदयक्ता है।
शिष्य मैने तो आपसे बहुतसा ज्ञान सीखा है। मैं तो आपको ज्ञानदाता गुरू मानता हूं।
क्षिक-भई, मैं भी एक श्रावक हूं । सचे अनुभवी गुरु साधुजन होते है जो गत दिन आत्मध्यानका अभ्यास करते है। यदि ऐसे गुरु मिल जावें तो उनसे ध्यानके मार्गका ज्ञान बहुत अच्छी तरह होसक्ता है। यदि ऐसा समागम दुर्लभ हो तो जो श्रावक कुछ आत्मध्यानके अभ्यासी हो उन हीसे लाभ लेना चाहिये।
तीसरा साधन आत्मज्ञानवर्द्धक शास्त्रोंका पढ़ना नित्य जरूरी है।
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मेरा कर्तव्य --- -शास्त्रको ध्यान से पढ़नेसे मन के -विकार शांत होनाते हैं व आत्माका स्वभार और भी साफ झलकता है, ज्ञानकी हड़ता होती जाती है।
शिप्य-कृपाकर बताइये कि मैं कौनसा मात्र देखा करूं ?
शिक्षा-मैं आपको इटोदेयके देखनेकी सम्मति ढुंगा व उसके पीछे आर आत्मधर्म फिर समाधिशतककोटेख जाई। ये तीनों अन्य दिगम्बर जैन पुस्तकालय, कापडियाभवन-सूरतसे हिन्दी भाषामें मिलगे, आर खूर समझ सकेंगे।
चोये साचनको मैं आपको पहले बता चुका है इसलिये जीवनमें सच्चे सुख व सच्ची गाति पाने का उपाय एक आत्मालपान है। जिनका मुख आय आत्मभ्यान है उसके सायनके लिये अपतीन साधा हैं। - आर कालेज के विद्यार्यो है, आरको समय ययपि कम है तथापि यदि आप अनही अत्मोन्ननिके मागमें न लोंगे तो गृहत्य जीवनमें जाकर तो आप और भी बहु पन्धी हो जायेंगे, आपको फुरपत ही न मिरेगी, परन्तु जो विद्यार्थी अपस्या अभ्यास जम जायगा तो जन्म. 'पर्यंत कभी न छूटेगा। और जीवन आनन्दमय होता चला जायगा।
शिन्य-मैं आपके उपदेशको मस्तकार चढ़ाता हूं। मेरे वोर्डिगर्म जितमंदिर है। मैं रोग प्रतिमाके सामने कुछ भक्ति कर लिया फरूंगा। आप कोई स्तुति बता दीजिये जो छोटीसी हो। मैं इयोपदेश मंगाकर कुछ मिनट पढ़ भी लिया करूंगा। आपसे तो मैं रोज मिलकर कुछ देर बातें करूंगा तथा बड़े सबेरे १० मिनट मैं आत्मध्यानका अभ्यास भी शुरू कर दूंगा। मैंने समझ लिया है कि यह मेरा साधन मेरे चित्तको निर्मल करेगा जिससे मुझे मेरे कालेजकी पढ़ाई में भी सुभीता मिलेगा। ...
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३८]
विद्यार्थी निधर्म विक्षा। शिक्षक नीचे लिखी छोटीसी स्तुति आप पढ़ लिया करें।
छ श्रग्विणी। जय चिदानन्द आनन्दरूपी जिनं,
झा-मय दर्शमय वार्यमय मलहनं । राग नहि द्वेष नहि क्रोध नहि मन ना,
मोह ना शांक ना भाव अज्ञान ना ॥१॥ है कपट कोई ना लोभ ना काम ना.
पंच इन्द्रिय मई सौख्यका धाम ना। जन्म ना मर्ण न, खेद ना दोष ना
कोई सन्ताप ना कोई पर रोष ना ।।२।। की भागे हने शुद्ध आपी भये.
आपने आपों आप जानन भये । नाह है वर्ण रस मंध अरु फर्ग ना,
जड़ मई मूर्ति ना जड़ मई दर्गना ॥ ३ ॥ भ.प तो ज्ञान मय आप ध्याता वली
आपने सर्व वाघा जगतकी दली। भार ही पूज्य हो आप ही सिद्ध हो. । आपको देखते आप सम रिद्ध हो ॥४॥ आदिनाथं तुम्ही शान्तिनाथं तुम्हीं,
नेमिनाथं तुम्हीं पार्थनार्थ तुम्हीं। हो महावीर सन्मति परम गिव मई.
सुक्खस.गर तुम्हीं, देख समता भई ।। ५॥
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मेरा कर्तव्य ।
[३९ भक्ति करते समय आपको जैनियों का परमपूज्य महामंत्र भी पढ़ लेना चाहिये । मैं आपको अर्थ सहित बताए देता है।
शिष्य-जरूर बताइये-मैं उसे भी कंट कग्लंगा।
शिक्षक -इस महामंत्रमें सब अक्षर ३५ पतीस हैं। इमे शुद्ध पढ़ना चाहिये ।
महा मंत्र। १ णो अरहताणं अक्षर ७ २-णनो सिद्धाणं ३-णो आइ.रयाण ४-ण उवझायाणं ५-णको लं.ए सबसहूगा " - -
अर्थ-हा लोकमें सर्व अहनोंको नमस्कार को. इस लोक में सर्व सिद्धोंको नमस्कार हो, इस लोकमें सर्व आचार्यो मे नस्कार हो, हम लोगमें मर्व च्यायोंको नमस्कार हो, इम लोरमें सर्व साधुको नमस्कार हो।
नोट-यहां लोर और सब ये दो शन्द पांचों ही पदों के लिये हैं। सर्व गद भृत, भविन्य, वर्तमानकालको झलकाता है। इसलिये हम मंत्रमें अनंत शुद्धात्माओंको नमस्कार है । इस ही लियं इसको महामंत्र कहते हैं।
इस जगतमें जितने बड़े पद हैं, इन्द्र, धणेन्द्र, चक्रवर्ती, महाराजा आदि सर्व जिनको नमस्कार करते हैं, ऐसे ये पांच पद (offices) हैं।
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४]]
विद्यार्थी जैन धर्म: शिक्षा है जो आत्मध्यानके अभ्याससे चार घातीया कमेको नाश करके अनंत ज्ञान, अनंत, दर्शन, अनंत, सुख व अनंत ग्ल हा चार विशेष गुणोंको प्रकाश करके आयु पर्यत जीवन्मुक्त परमात्मा इरीर सहित होते है, को देश देने है, विहार करते है उनको अहंत कहते हैं। ये ही अहंत जब शेष अघातीया चार कोको भी नाश कर देते हैं
और शरीर रहित मात्र आत्मा रह जाते है, वे सर्व अपने गगोंका प्रकाश धारते हुए नित्य ज्ञानानन्दमें मगन रहते है तब उनको सिद्ध कहते हैं। जो साधुओंमें प्रधान व प्रभावशाली होते हैं, अन्य साोंमें शामन कर सकते है उनको साचार्य कहते हैं। जो साधुओंमे शासज्ञानमे प्रधान तो हैं. और अन्य मधुश्रको शास्त्रज्ञान देते है उनको उपाध्याय बने हैं। जो मात्र मक्षिक साधन करते है उनको साधु कहते है। अन्तक तीनो ही पद साधुओंके है। मात्र कार्यका अन्तर है। ये सत्र साधु नेम्ह प्रकार चारित्र पालते हैं।
पांच महानत. पांच समि त.शीन गुति। .. हमको गुणोफा आदर करना चाहिये । जो कोई आत्माएं इन पाच पनों के योग्य गुण पाती है व रीत, सिद्ध. आचार्थ, आध्याय वा साधु कहलाती है। जिन मंदिरोमे मतिं आहतोकी मुख्यतास विराजमान की जाती है उनकी परमवीतगगत का व्य मूर्तिमे रहता है। इस मंत्र के पढ़नेसे अनंत आत्माओं की भक्ति हो जाती है। ____ आप आत्मध्यानके समय भी इस मंत्रको पढ़कर जप सक्ते है व गुणोंका विचार कर सक्ते है। '' शिष्य-कृपा करके महाव्रत, समिति, गुप्तिको भी समझ दीजिये।
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मेरा कर्तव्य।
[४१ . ., शिक्षक-पांच महावत-या महान प्रतिज्ञाएं है जिनको साधु 'पालते हैं -
1. १-अहिंसा महाव्रत-सर्व प्राणीमात्रकी रक्षा करना, किसीको कष्ट न देना, सर्वपर प्रेमभाव या साम्यभाव रखना।
, २, सत्य महात्रत-आत्महितकारक सत्य प्रिय वचन मर्यादा'पूर्वक कहना।।
- ३-अचोय महावत-विना दी हुई कोई वस्तु लेना नहीं। स्वयं फलादि व जल भी नहीं लेना। गृहस्थ जो भक्तिमे दे उसे ही स्वीकार करना।
४ चमचर्य महानत-मन वचन कायसे शीर व्रत पालना। परिणामोंको काम विका से शुद्ध रखना। • ५ पमिह महारत-क्षेत्र, मकान, धन, धान्यादि सामानको त्यागकर ममनारहित निग्रंथ होताना। इन्हीं पांच महाव्रतोंकी रक्षाके हेतु पांच ममिति पालना चालिये।
पांच समिति पांच बातोका ठीकर वर्ताव ।
१ ईर्या समिति-दिनमें रौंदी हुई भूमिपर चार हाथ जमीन भागे देखते हुए पग रखना।
२. भापा समिति कोमल, मिष्ठ, अल्प, वचन वोलना।
३- एपणा समिति जिस भोजनपानको गृहस्थने अपने कुटुम्बके लिये तैयार किया हो उसी का कुछ भाग भिक्षावृत्तिसे भक्तिपूर्वक दिये जानेपर लेना।
४- आदाननिक्षेपण समिति- अपने शरीरको व शास्त्रको वापीछी कमंडलादिको देखकर रखना व उठाना।
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४२]
विधा पनि ५.प्रतिसापना समिति- मल मूत्रादि निर्मनु भूमिपर देखकर करना। पांचो महान्तोंमें सावधान रहने के लिये तीन गुप्ति पालना चाहिये।
तीन गुप्ति-तीत वस्तुओं को अपने आधीन रखना। ।
१-मनांगुप्ति-मनको वश •ख .I, आत्मविचार व साम्क __ भादमें लगाए रखना।
२-वचनप्ति वचनोंको वश रखना. मौन रहना, काम पड. नेपर ही अल्प कहना।
३-कायगुप्ति-शरीरके आ उपंगोंको वश रखना, आसनसे ही बैठना, लेटना. प्रमाद रूप न रहना ।
शिय-वास्तग्में ये तेरह प्रकार चारित्र बहुत ही सुन्दर है। मैंने आपसे बहुत उपयोगी बातें जानीं । मैं आपकी कही हुई बातोंको याद ग्क्लूंगा और जिन चार साधनोंको आपने बताया है, कालेजकी पढ़ाई करता हुआ भी साधन करूगा । मुझे समद में आगया कि मैं आत्माहूं। मुझे आत्माकी उन्नतिका हर समय ध्यान रखना चाहिये। सची सुखशांति इसीमे मिलेगी।
आपने मेरे वर्तव्यमे दो बातें बताई थीं। एक सुखशांतिका लाभ, दुमग परोपकार । पहली बातको मैं अच्छी तरह समझ गया हूं । परोपकारके सम्बन्धमें मैं पूछना चाहता हूं कि मुझे त्यागः . जीवन विताना चाहिये या गृहस्थका जीवन । अभी मेरी शादी नहीं हुई है। आप बत वें कि मुझे क्या करना चाहिये।
क्षिक-आपका प्रश्न बहुत ही उत्तम है। इसमें संदेह नहीं जितना परोपकार त्याग जीवन में होसत्ता है उतना गृहस्थमे नहीं।
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मेरा कर्तव्य।
[४३
रुक्ता है । गृहस्थको घरवी चिन्ताएं बहुतसी रहती हैं। उसे समय भी कम मिलता है, तथापि यह आप स्वयं विचार सक्ते हैं कि आप कौनमा जीवन पालनेकी शक्ति रखते हैं। परोपकार दोनों में शेसका है, एक्में अधिक एक्में कम ।
शिष्य-पति त्याग जीवनमें रहकर परोपकार किया जावे तो परोपका की क्या गति होगी।
शिक्षक विवाह न करके त्याग जीवनको पालनेका वही अधिकारी है जो ब्रह्मचर्यको भले प्रकार पाल सक्ता हो। जिसने पांचो इन्द्रियोंर अपना पका स्वामित्व प्राप्त कर लिया हो. ो जबानका लोलुपी न हो. सुगंका आमक्त नो, सुन्दरताका प्रेमी न हो तथा ताल, स्वर गानका गगीन हो. जिसको सच्ची सुग्वशांतिकी गाढ़ रुचि हो. आत्मध्यानका अभ्यासी हो व परोपकारके लिये जीवनता अपंग करनमें कुछ भी संकोच न रखता हो । परोपकारी त्यागी नवयुवकों के लिये अभी तेरह प्रकार चारित्र लेकर साधु होने की जरूरत नहीं है। क्योंकि साधुकी प्रतिज्ञाओंमें रहते हुए स्वदेश परदेश गम,में बहुत बाधाएं पड़ेंगी व खानपानकी बहुन कठिनताएं होंगी। यह साधुका पद उसीके लिये योग्य है जो बिलकुल विक्त हो। जिमका मुख्य ध्येय मात्र आत्मसाधन हो, परोपकारकी मुख्यता न हो. आत्मपाधन यथार्थ वरते हुए जितना परोपकार संभव हो उतनाही साधन किया नासक्ता है। आजकल जैन समाजमें ऐसे त्यागियोंकी जरूरत है जो मनमे विरक्त हों, वीर हों, धैर्यवान हों, विद्वान हों, परिश्रमी हों, दुःखोंके सहनेवाले हों, अपमान व मानको एक समान जानते हों, कष्टोंके पड़नेपर भी परोपकारको न त्यागनेवाले हों, सत्यके अनुयायी
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५
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा 1. हों, निर्भीक हों, धनवानों के मुंह ताकनेवाले न हों, वे बाहरी चारित्र खानपानादिको उतना ही पाले जितने पालनेसे वे हर देशमें जीवननिर्वाह कर सकें, सवारीपर जासकें, जहन व रेलपर सफर कर सकें। चे मदिरा व नगा न पीवें, मांस न खावें, अन्यायपूर्वक किसीको सतावें नहीं. अन्यायरूप झूठ न बोलें, चोरी न करें. जरूरी वस्त्रादि व पैसा व नौकर आदि रखमके, ब्रह्मचर्यको अच्छी तन्ह पालें। उनको रेलपर, जहानपर विकता हुआ खान पान लेने का परहेज न हो, केवल मद्य माममे जरूर बवे । ऐसे त्यागियोंकी बहु संख्यामें, इसलिये जरून्त है कि वे भारतमें सर्वत्र जाकर आत्मकल्याणका, च. सुख शांनिका मार्ग बनासके तया भाग्न के चाहा सीलोन, ब्रह्मा . यूरोप, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, आफ्रिका आदि स्थानों पर भी जायके;
और सत्यका प्रचार करसके, सच्चा मुख गातिका आय व परो. पकारका मार्ग बनागरे, प्राणियोंको मांसाहारसे छुडाम के, जीवदया का प्रचार करसके । इस समय जैन व्यागरी व जैन कर्मचारी, ब्रह्मन्गमें, श्याममें, जापान्में, ची-मे, यूरूपमें, आफ्रिकामें प्रायः हर, जगह फैल गये हैं, उनको भी उपदेशकी जरूरत है, नहीं तो वे . बिगड़कर मांसाहारी आदि होजायंगे व जैनधर्मको भूल जायगे । जैन साधु पैदल चलने वाले व भिक्षासे भोजन करनेवाले वहां पहुंच नहीं सक्ते है । जगतमें सत्यका प्रचार करना बहुत जरूरी है। शिष्य-ऐसे विरक्तोंके लिये भोजनपानादि खर्चका क्या प्रबन्ध होगा , . शिक्षक-जो घरसे धनसम्पन्न है उनको इतना धन कहीं जमा करके त्यागी होना चाहिये जिसके व्याजसे वे अपना सर्व खर्च चला सकें । हां ! ऐसे त्यागियोंको यह छुट्टी सच्चे व मानरहित
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- मेरा कर्तव्य । भावसे रखनी चाहिये कि यदि कोई भक्तिके साथ निमंत्रण दें, भोजन करावें तो कर लेना चाहिये। यदि कोई यात्रा खर्च व अन्य. कार्यके लिये द्रव्य दें तो उसे स्वीकार कर लेना चाहिये व उसे परोपकारमें लगाना चाहिये। . ___ इसके सिवाय जो धनरहित महोदय त्यागी होकर परोकार करना चाहें उनके लिये एक धर्मप्रवारक संस्था रहनी चाहिये जिसमें योग्य भण्डार रहना चाहिये, जिससे कछ नियमित संख्याके त्यागियोंका सखर्व जो उनके द्वारा धर्मप्रचारमें हो उसे देना चाहिये। वह संस्था उन धनरहित लागियों के जीवन निर्वाहकी जिम्मेदार होगी । वास्तवमें इस जमानेमें ऐसे ही त्यागी ईनाई पादरियों की तरह बहुत कुछ जगतका हित र सक्ते हैं । इसको हम पाक्षिक विरक्त. श्रावक कह सकेंगे।
जो महागय इन्द्रविनय करनेको असमर्थ है उनको किसी 'योग्य गृहिणीके साथ विवाद करके रहना चाहिये। ऐसे विवाहित युगल की पारी निकते है। दोनों युगल मा रहने हुए धर्म, समाज व जगतकी सेवा करें। यदि वे धनसम्पन्न हो तो धनकी आमदसे सब खर्च चलावें। यदि वे धनवान न हों और दम्पति परोपकारमें अपनी शक्ति लगाना चाहें तो धर्मप्रचारक संस्थाको व अन्य किसी परोपकारिणी संस्थाको उचित है कि दम्पतिके प्रतिष्ठासहित सादगीमे निर्वाहका सर्व खर्च देना स्वीकार करके उनकी जीवनपर्यंत सेवा स्वीकार करें। वे युगल बहुत अधिक- धनोपार्जनकी योग्यता रखते हुए भी थोड़े खर्च में संतोष करें। आवश्यक खर्च ही लेकर सेवा करें। संस्थाओंके प्रबन्धक, अधिष्ठाता, शिक्षक, सुपरिन्टे
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४६]
विद्यार्थी जैन धर्म नि। न्डेन्ट, सरक्षक, प्रचारक आदि कार्य वे परोपकारभावसे करे सक्त है। अन्य जो गृहस्य जीवन में रहकर धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों पुरुषार्थ सिद्ध करना चाहें उनको उचित है कि न्यायपूर्वक आजीविकासे धन कमावे व न्यायपूर्वक इन्द्रियोंके भोग करें, इन्द्रियोंके दास न बने किन्तु इन्द्रियोंपर स्वामित्व रखते हुए नियमित इंन्द्रिय भोग करें जिससे कभी शरीरमें निर्बलता न हो वीरता, साहस बना रहे, कोई बीमारी पास न आवे तथा आत्मध्यानके लिये जो साधन अभी हम आपको बता चुके है उनको करते रहे तथा परोपकारके लिये तन, मन, धन खर्च करनेका उत्साह रखें । वे गार्हस्थ जीवनमे रहते हुए समाजका सुधार करें। बाल विवाह, वृद्ध विवाह, अनमेल विवाह, कन्या विक्रय, पुत्र विक्रय, मरणमें बिरादरीका भोज, आतशबाजी, वेश्या नृत्य आदि बुराइयोंको दूर करावें । व्यर्थ व्ययको मिटावे । व्याहादिके खचर्चाको बहुत कम करावें । जनताका धन अधिकतर शिक्षा प्रचारमें खर्च करावें । अनाथ व विधवाओंकी रक्षा करावे,
औषधालय, पशुशाला, आदिका प्रचार करें । गुरुकुलोंको स्थापित करावे, समय निकालकर साहित्यकी सेवा करें । अच्छे पत्र निकालें, पुस्तकें लिखें, इन गृहस्थोंको भी दिनमे घंटा दो घण्टा समय परोपकारके लिये अवश्य निकाल लेना चाहिये । मानवोंका कर्तव्य है कि वे अन्य मानवोंको शिक्षित, स्वास्थ्ययुक्त, न्यायमार्गी व आत्मज्ञानी बनावें--उनको सताकर अपना स्वार्थ साधन न करें किंतु यथाशक्ति उनके साथ भलाई करे, उनके कष्टोंको मेटें । भूखेको अन्नपान, रोगीको. दुवाई, अज्ञानीको विद्या, तथा निराश्रय व भयमीतको आश्रय देकर भय रहित करें।
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मेरा कर्तव्य ।
पशुओं, पक्षियों व जलचरोंकी हत्या शिकार के लिये, देवताओंपर बलि देंनके लिये व मांसाहारके लिये न करें । खानपान वस्त्रव्यवहाग्में यह ध्यान रखें कि जितनी कम हिंसासे काम चले पैसा वर्ताव करें । पशु समाजपर भी दया पालें वृथा वे सताएं, न जावें, इसपर ध्यान रखें। जो पशु हमारे उपयोगमें आसक्ते है, उनको पालकर हम उनसे दूध ले, उनसे हल चलावें, उनपर बोझा ढोवें, उनपर सवारी करें परन्तु उनसे उतनी ही मिहनत लेवें जितनी वे आराममें देसकें । उनको हमें अन्नपान समयपर देना चाहिये । चमडेका व्यवहार हम बहुत अल्प करें क्योंकि इस चमड़ेके लिये बहुत पशु मारे जाते हैं। हमें छोटे२ जंतुओंपर भी दया रखनी चाहिये। पानी भलेप्रकार छान कर पीना चाहिये इससे हमारी भीरक्षा है व हमारे मुखमें कीट व तृणादि नहीं जा सकेंगे । देशकालके अनुसार यथाशक्ति पानी छानकर पीनेका एक साधारण गृहस्थको अभ्यास रखना चाहिये तथा यह भी अभ्यास करना चाहिये कि भोजन दिवसमें किया जावे। इससे रात्रिको उड़नेवाले जंतुओंके प्राण चचते हैं व अपने भी मुखमें उन जंतुओंके कलेवर नहीं जाते हैं तथा दिवसका किया हुआ भोजन पचता भी अच्छी तरह है। अपने देशकालके अनुसार जिसमें किसी आवश्यक काममें बाधा नहीं आवे इस रात्रि आहार त्यागका अभ्यास करना चाहिये । गृहस्थोंको उचित है कि वे भलेप्रकार अपनी ही विवाहिता स्त्रीमें संतोष रक्खें तथा वे सम्पत्तिकी एक मर्यादा करले कि इतना धन 'पैदा कर लेनेपर हम संतोषसे रह कर नीवन बिताएंगे। व्याप्पारादि द्वारा धन पैदा करनेका काम अपने पुत्रोंको सौंप देंगे।
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विद्यार्थी जैनधर्म शिशो। इससे लाभ यह होता है कि तृष्णा अपने वश होती है व अंतिम जीवनसा समय भलेप्रकार परोपकारमें विताया जा सका है। हरएक गृहस्थ अपनी इच्छानुसार संमत्तिका प्रमाण कर सक्ता हैं। जैसे दसहजार, पचासहजार, एक लाख, दोलाख, दगलाख, एक करोड, दश करोड इत्यादि।
गृहस्थोंको योग्य है कि जब पुत्रादि समर्थ हों व गृहीजीवनसे मन भरगया हो तो वे त्यागका जीवन विता सक्ते है । जिस तरह त्यागके जीवनका वर्णन हम ऊपर कर चुके है, वैसा जीवन विताया जासत्ता है। यदि परिगामोंने वैराग्य अधिक हो तो तेरह प्रकार चारित्र पालकर साधुका जीवन विताया जासक्ता है।
प्रिय भाई ! आमोजति व परोकार करना यही हमारा मुख्य कर्तव्य है। अप मन.जीवनका मर्य ध्येय र
शिष्य-मैं बहुत अच्छी तरह समझ गया है। अब कल मैं आपसे यह जानना चाहता हूं कि जैन धर्मके तत्व क्या है
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नैनोंके तत्त्व । .
___ [४९ तीसरा अध्याय।
जैनोंके तत्व। शिष्य-तत्त्व किसे कहते है ?
शिक्षक-किसी वस्तुके भावको तत्त्व कहते है। तत् यह सर्वनाम (pronoun) है। तत्का भाव सो तत्त्व है। जो पदार्थ जैसा है उसका वैसा होना भाव है।
शिप्य-जैनोंके तत्व इससे क्या मतलब है ?
शिक्षक-जिन त.वोंको जैन सिद्धांतमें आत्माका हितकारी बताया गया है उनको जैनोंका तत्व कहा गया है। हम पहले बता चुके है कि आत्माका सच्चा हित सुख शांतिकी प्राप्ति है । और यह भी समझा चुके है कि सुख व शाति आत्माका स्वभाव है तथा यह भी बता चुके है कि आत्माका असली स्वभाव शुद्ध है परन्तु संसार अवस्थामे पाप पुण्य रूपी कर्मोसे मैला है। जैन तीर्थकरोंने तथा जैनाचार्योने आत्माका पूर्ण हित स्वाधीनताका लाभ बताया है, जिसमें आत्माके स्वाभाविक सर्व गुण प्रकाशित होजावें, सर्व कर्मके मैलसे आत्मा छुट जावे। इसहीको मोक्ष या मुक्ति भी कहते है.। जब आत्मा पूर्ण मुक्त होजाता है तब इसको परमात्मा कहते है। उसहीको सिद्ध कहते है। मुक्त अवस्थामें परमात्मा सदा अपने स्वभावमे मग्न होकर निजानन्दका भोग करता है। इस ही मुख्य उद्देश्यको ध्यानमे रखकर तत्वोंका कथन जैनाचार्योंने किया है। इन तत्वोंमे यह बताया है कि यह आत्मा वास्तवमे तो शुद्ध है परन्तु जड़ कर्मोके संयोगसे
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५०] .....
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा अशुद्ध होरहा है। इन कर्मोंका किस तरह संयोग होता है और किस तरह इन कोमे वियोग होता है इतनी ही बात जैन तत्वों बताई है। जैसे रोगी रोगसे पीड़ित हो जब वैद्यके पास जाता है तब वैद्य रोगीकी परीक्षा करके यह बताता है कि. तु अमल में तो रोगी नहीं है परन्तु तेरे साथ रोग इस समय लगा हुआ है। तब वह रोग होनेका कारण बताता है, रोग न बढ़ने पावे इसका परहेज बताता है तथा रोग दूर करनेकी औषधि बताता है। जिससे यह रोगसे छूट जावे। अथवा एक मलीन कपडेको साफ करनेके लिये हमें कपडेका और भैलका अलगर स्वभाव जानना होगा । मैल किस तरह चिपटा है, किस तरह मैल अधिक न बढ़े व किस तरह मौजूद मैलको हटा दिया जावे व मैल हटनेपर यह शुद्ध होजावेगा। जो इस बातों को जानता है की मैनको धोकर कपड़ेको साफ कर देता है। हरएक मलीन वस्तुको शुद्ध करनेका यही तरीका है। इसी स्वाभाविक जानने योग्य बातको जैनाचार्योंने जैन तत्वोंमें बताया है । इनका जानना बहुत ही जरूरी है। इनको जाननेसे ही हम अपने आत्माको शुद्ध करनेका उपाय कर सक्ते है।
शिष्य -जैनोंके तत्त्व कितने हैं ?
शिक्षक-मुख्य तत्व सात हैं, इनमें दो और जोड़नेसे नौ तत्व या पदार्थ होजाते है।
शिष्य-इनको पदार्थ क्यों कहते है ?
शिक्षक-पदसे समझने लायक अर्थको पदार्थ कहते है, अक्षरोंके समूहको पद कहते है। जिसका निश्चय करना जरूरी है या जो निश्चय किया जासके उसे अर्थ कहते है। ये नौ निश्चय करने
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जैनोंके तत्त्व । लायक बातें हैं जो नौ भित्रर पदोंके द्वारा जानी जाती है । इललिये.नौ तत्वोंको नौ पदार्थ कहते हैं। -
शिष्य-सात तत्त्व या नौ तत्त्वोंके नाम बताइये। .''
शिक्षक-वे सात तत्त्व हैं-१ जीव, २ अनीव, ३ आस्रव, ४ बंध, ५ संवर, ६ निर्जरा, ७ मोक्ष ।* इनमें पुण्य तथा पाप जोड़नेसे नौ तत्व या नौ पदार्थ हो जाते हैं।
शिन्य इनका कुछ स्वरूप बना दीजिये। ' शिक्षक-जो अपने चेतना ( conscionsness ) लक्षण (differeuti) को रखते हुए सदा जीता रहे उसे जीव कहते हैं। चेतनाको उपयोग भी कहने है !x . शिष्य लक्षण किसे कहते हैं ?
शिक्षा-जिस चिह या गुणके द्वारा एक पदार्थको दूसरोंसे जुदा पहचान सकें उसे लक्षग कहते हैं। जैसे निमक व शक्कर दोनों सफेद सफेद दिखते है। निमकका लक्षण खारापना है व शकरका लक्षण मीठापना है। जबान पर दोनों को रखनेसे हम निमकको शकरसे अलग पहचान सकेंगे। निर्दोष लक्षण उसको कहते हैं जिसमें तीन दोप न हों-अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असंभव । जो लक्षण या पहचान पदार्थके एक हिस्से में पाया जावे, सबमें न पाया जावे वह लक्षण अव्याप्ति दोष सहित है। जो सब पदार्थमें न हो उसे ही अव्याप्ति कहते हैं। जैसे कोई कहे कि जानवर उसको कहते है जिसके सींग हो। इस लक्षणमें अव्याप्ति दोष है, क्योंकि
*जीवाजीवास्त्रत्रबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्वं ॥४१॥ त. सू.. x उपयोगो'लक्षणं ॥ ८॥५॥ त. सू.
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विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा। सींगके विना भी जानवर मिलते है। या कोई कहे जीवका लक्षण। क्रोध करना है, इसमें भी अव्याप्ति टोप है। क्योंकि हर समय जीवमें क्रोध नहीं मिलता। क्रोध विना भी जीव मिलते हे। लक्षण उमे ही कहते है जो सदा पाया जावे। ___ अतिव्याप्ति दोष उसे कहते है जो उस पदार्थमें भी रहे जिसका लक्षण करते है और उसके सिवाय अन्य पदार्थोंमें भी पाया जावे। जैसे गौका लक्षण सींग करना। क्योंकि सींग भैस. हिरन, वकरे आदिमे भी पाए जाते है, इसलिए इस रक्षणमे अतिव्याप्ति दोष है। क्योंकि यह लक्षण उस पदार्थकी हदके वाहर चला गया। इससे गौकी पहचान नहीं होसकती। या यह कहना कि जीव उसे कहते है जो अमूर्तिक ( Immaterial) हो । इसमें भी अतिव्याप्ति दोष है क्योंकि अमूर्तिक तो आकाश भी है। इससे जीवकी पहचान न होसकेगी, कोई आकाशको ही जीव मान लेगा। असंभव दोष उसको कहते है जो साफ साफ न होतासा दीख पडे। जैसे कहना शक्कर उसे कहते है जो मीटर्टी न हो। जीव उसको कहते है जो जड़ हो।
शिप्य-आपने जीवका लक्षण चेतना या समझना बताया। क्या इसमें तीनों दोष नहीं आते है ? समझा दीजिये।
शिक्षक-चेतनामे अव्याप्ति दोष इसलिये नहीं है कि जितने जीव हैं सबमें कुछ न कुछ समझ पाई जाती है। कीटमे, चींटीमे, मक्खीमें, मोरमें, कबुतरमे, मानवमे, सबमें चेतना है। जितने सजीव प्राणी है वे चेतना रखते है तब ही जीव सहित कहलाते है । जब चेतना निकल जाती है तब उनको अचेतन, जड़ मुर्दा कहते है।
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जनक तत्व ।
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वृक्षोंमें भी चेतना है। वे इच्छा करके भूख मिटानेकों कमती या ज्यादा हवा लेते हैं, पानी व मिट्टीको खींचते है। अतिव्याति दोष इसलिये नहीं है कि कोई ऐसा और पदार्थ जगतमें नहीं है जो जीव न हो और उसमें चेतना पाई जावे। असंभव दोष इसलिये नहीं है कि यह हमारे अनुभवमे या जाननेमें बराबर आरहा है कि मैं समझ रहा हूं, जान रहा हूं. यह बात साफर सबको प्रगट है। इसलिये जीवका लक्षण चेतना निर्दोष है । चेतना रक्षग जिसमें हो वही जीव तत्व है। संसारमें सर्व जीव आठ कर्मोंके संयोगमें हैं इसलिये संसारी जीवोंको अशुद्ध कहते है । जो कर्मों के बंधनसे छूट जाते हैं उनको शुद्धं, मुक्त व सिद्ध जीव कहते हैं। - शिष्य-अजीर तत्व किसे कहते हैं ?
शिक्षक जिसमें जीवका लक्षण चेतना न हो उसको अजीव कहते है। अजीव इस लोक्में पांच हैं-पुगठ, आकाश, काल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय ।
शिप्य-पुदल किसे कहते हैं ?
शिक्षक-पुद्गलका लक्षण स्पर्श, रस, गंध, वर्ण है । जिसमें ये चार गुण पाए जावें उसको पुद्गल कहते हैं। जो छुआ जासके, जिसमें कुछ स्वाद हो. जिसमें कोई गंध हो, जिसमें कोई वर्ण हो वह सब पुद्गल है। इसीलिये पुद्गलको मूर्तीक (materul) कहते हैं। पुद्गलका उल्था इंग्रेजीमें ( matter) मैटर किया जाता है। पुद्रलमें ही परस्पर मिलकर एक स्कंध या समूहरूप पिंड होजानेकी व स्कंध या पिंडका बिगड़कर विछुड़ जानेकी शक्ति है । मिलना व -
*-स्पर्शरसगधवर्णवन्तः पुद्गलाः ॥ २३।५ त० सू० ।।
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विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा krinimum विछुडना एगल्मे ही होता है। देखिये, हमारे सामने शकर रखी है, इसको हम इसक्ते, इसका स्वाद लेसक्ते, इसको सूंघ सक्ते, इसको देख सक्ते हे । इसलिये इसमे स्पर्श, 'ग्स, गंध, वर्ण है, इसीलिये यह शक्कर पुद्गल है । इम शक्करको घोलकर एक शक्करका गोला बना संक्ते है। फिर चूरा करके एक एक दाना अलग कर सक्ते है। . हमारी पांचों इन्द्रियोंसे जो ग्रह्य में आता है सब पुद्गल है। स्पर्शन इन्द्रिय या त्वचा या चर्मसे हम ढंडा गरम सश जानते हैं। रसना इन्द्रियसे हम रसको जानते है। नाक इन्द्रियसे गंधको जानते है । आंखसे वर्णको जानते है। कानसे शब्दको जानते हैं। शब्द भी पुद्गल है, हम उसे देख नहीं सक्ते है परन्तु उसका कठोरपना या नम्रपना मालम करते हैं । यह लोक पुद्गलसे भरा हुआ है। सबसे छोटे पुद्गलको जिसका दूसरा भाग नहीं होसक्ता परमाणु (particle) कहते है। दो परमाणुओंके बने हुए पिंडको लेकर कितनी भी संख्याके परमाणुओंके बने हुए पिंडको स्कंध ( molecule) कहते है ।* हमारी किसी भी इन्द्रियमे शक्ति नहीं है जो हम परमाणुओंको जान सकें। स्कंधोको हम इन्द्रियोंसे जान सक्ते है तो भी बहुतसे ऐसे स्कंध हैं जिनको हम इन्द्रियोंसे नहीं जान सक्ते है कितु उनका अनुमान उनके कार्योंसे करते है। ऐसे सूक्ष्म स्कंधोंमें ही कार्मण वर्गणाएं (Karmio molecules) है जिनसे कार्मण या शरीर या पुण्य पापका संचित शरीर बनता है, जैसा हम आपको पहले बता चुके हैं। पुदलका लक्षण हम मूर्तिमय या मूर्तीक (material) भी करसक्ते है। क्योंकि मूर्तीकपना (materiality)
* 'अणवः स्कन्धाश्र-1-२५०+ --सु
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जैनोंके तत्व। पुद्गलके सिवाय और किसीमें नहीं पाया जाता है। जैसे जीव अमूतक है वैमे आकाश, काल, धर्मास्तिकाय व अधर्मास्तिकाय भी अमूर्तीक हैं। .
शिव्य-मैं भलेप्रकार समझ गया कि यह अपना कर्मरूप सूक्ष्म शरीर, यह स्थूल दिखनेवाला शरीर, यह मेरे शरीरके कपड़े कलम, दावात, कागज, वर्तन आदि सब पुद्गल हैं तथा मैं जाननेवाला जीव हूं। अब चार अजीवोंका लक्षण और बताइये ।
शिक्षक-आकाश एक अखंड अनंत सर्वव्यापक द्रव्य है जो और सब द्रव्योंको अवकाश देता है या जगह देता है । हम माकाशमें ही चलते, बैठते, खडे होते, हाथ पग फैलाते हैं। पक्षी आकाशमें उड़ते हैं। आकाश (space)के दो विभाग हैं । अनंत आकाशके मध्यमें जहांतक जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय तथा अधर्मास्तिकाय पाए जावें वह लोक (universe) है। जहां चारों तरफ मात्र आकाश ही है उसे अलोक (non-universe) कहते है।
काल द्रव्य वह है जिसके निमित्तसे सब पदार्थों में अवस्थाएं बदलती हैं। द्रव्यको पुराना करनेवाला कालद्रव्य है। हमारा कपड़ा कुछ दिनोंमें पुराना पड़जाता है क्योंकि कालद्रव्यकी सहायतासे वह हर समय हालतोंको बदलता है । हम बालकसे युवान तथा युवानसे वृद्ध होजाते है। हमारे शरीरको पुराना होने में निमित्त काल (time) है। जगत परिवर्तनशील है, हर क्षणमें बदलता है। कोई वस्तु एक ही दशामें नहीं रहती है-बदलानेवाला काल है। मिनट, घड़ी, घण्टा,
* आकाशस्यावगाहः॥ १८-५ ॥ त० सू० । ४ वर्तनापरिणामक्रिया परत्वा परत्वे च कालस्य२२५.स. सू..
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विद्यार्थी जैनधर्मे शिक्षा। दिन, रात, सप्ताह, मास आदि व्यवहार काल है जो काल द्रव्यको अवस्थाएं है। काल द्रव्यकी पर्याय सबसे कम काल एक समय (Instant) है। समयोंसे मिनट आदि वनने है। इस व्यवहार कालका जानपना तीन तरहसे होता है।
(१) अवस्याओंके बदलनेसे, जैसे चावलका भात बना। जितना समय भात बननेमे लगा वह व्यवहार काल है।
(२) एक स्यानसे दूसरे स्थानमे जानेसे, जैसे हम कलकत्तेसे दिहली गए, जितना समय लगा वह व्यवहार काल है।
(३) कई आदमी एक प्रकारके कामको करें व कहींपर जावें इसमें सबको एकसा समय न लगेगा कम व अधिक लगेगा, यही व्यवहारकाल है। असली या निश्वर कालद्रय कालाणु (cme utors) है जो सर्व लोक्में भिन्नर रत्नोंके ढेग्के समान फैले हुए है । ये ही कालाणु उसी तरह अपने पासके पदार्थों के बदलने में कारण है जैसे गाडीके पहियके पलटानेमे कारण धुरी होती है।
धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय दोनों अलगर अमूर्तीक अखंड द्रव्य है । हरएक लोकव्यापी है । धर्मास्तिकाय (midrum of nction) जीव और पुद्गलोंको गमन करते हुए उसी तरह मदद देता है जैसे पानी मछलीको चलनेमे मदद देता है। अधर्मास्तिकाय (midium of rest) जीव और पुद्गलोको ठहरनेमें मदद देता है जैसे छाया पथिकको ठहरनेमे मदद देती है। ये दोनों चलाने या ठहरानेमें प्रेरक नहीं है* इन दोनों द्रव्योंका जहांतक फैलावा है वहीं. तक जीव पुद्गल जासक्ते हैं और फिर ठहर जाते है। इन ही दोनों
*-गतिस्थित्युपग्रहो धर्माधर्मयोरुपकारः ॥ १७५ त० सू० ॥
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नैनीक तत्व द्रव्योंके कारण लोक अपनी मर्यादामें स्थिर है, नहीं तो अनंत आंकाशमें जीव पुद्गल चले जाते-सर्व लोक विखर जाता।
शिप्य-इनको आपने द्रव्य क्यों कहा? . शिक्षक- जो अपने ही गुणोंमें अवस्था किया करे उसे द्रव्य कहते हैं। जीव और अजीव तत्त्वोंमें छः द्रव्य गर्भित हैं। एक जीव द्रव्य, पांच अजीव द्रव्य। ये छहों पदार्थ कूटस्थ नहीं हैं, अपने२ स्वमावोंमें रहते हुए कुछ काम किया करते हैं इसीलिये इनको द्रव्य (subs' ance) कहते हैं। छः द्रव्योंके सिवाय जगतमें कुछ नहीं है, इन ही की सारी रचना है। छः द्रव्योंमें काम करनेवाले (artors) संसारी अशुद्ध जीव और पुद्गल हैं। ये चार काम करते रहते हैंचलना, ठहरना, जगह पाना तथा बदलना । इनके इन चरों कामोंसें क्रमसे सहायता देनेवाले चार द्रव्य हैं--धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय शाकाश और काल । यह नियम है कि हरएक कार्यके लिये दो कारणोंकी जरुरत है-एक उपादान या मूल कारण (root ar primay cause ) दुसग निमित्त या सहायक कारण (auxiliary onus9) जैसे रईसे तागे बने । उपादान कारण रुई है, निमित्त कारण' चरखा व चरखा चलानेवाला आदि है। रोटीका उपादान कारण गेहूं है, निमित्त कारण चक्की, चकला, आग व बनानेवाली है।
शिष्य-द्रव्यका भी कोई लक्षण है ?
शिक्षक-जो सदा बना रहे; न कभी पैदा हो न कभी नाश हो उसकी द्रव्य कहते हैं। दूसरा लक्षण यह हैं कि उसमें हर समय तीन बातें पाई जावे-उत्पति, व्यय तथा स्थिरपना (rise, decay
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विद्यार्थी जैन धर्म मिला। and Continnity) अवस्थाको बदलने हुए पुगनी अवस्थाका व्यय"या नाश होता है, नवी आस्थाकी उत्पत्ति या पैदाइश होती है तौभी मूल द्रव्य अपने गुणों के साथ बना रहता है । जैसे सोनेकी डलीकी अंगूठी बनाई गई तब डलीकी दशाका व्यय हुआ, अंगूठीकी दशाकी उत्पत्ति हुई, सुवर्ण द्रव्य बना हुआ है । चनेका दाना हमारे हाथमें है उसको उंगलीसे मल डाला तब चनेकी दशा विगड़ी। चूरेकी दशा प्रगट हुई तो भी जो कुछ चनेमें था, सो ही चूरेमें हैं। क्रोधभाव किसी जीवमें था, वह जब मिटा तब शांतभाव प्रगट हुआ तथापि जिसमें भाव पलटा वह जीव वही है। यह लक्षण यदि द्रव्यमें न हो तो द्रव्यसे कोई काम न हो। कोई वाजारसे चांदी खरीद करके लाता है, यदि चांदीका गहना न बने अवस्था नबदले तो चांदी खरीद करके न लावे तथा चांदी अपनी हरएक दशामे बनी न रहे-नाश हो जावे तो भी कोई चांदीको न खरीदे । द्रव्यका एक लक्षण गुण पर्यायवान पना है । जिसमें गुण तथा पर्याय सदा पाए जावे । गुण द्रव्य के साथ सदा रहता है-पर्याय बदलती रहती है। जैसे चादी पुद्गलमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण गुण है, उसकी हालत कुछ न कुछ बदलती रहती है, यही पर्याय है। कोई द्रव्य, गुण तथा पर्यायके विना नहीं मिल सकता है।
हम जीव है, चेतना आदि हमारे गुण है, हमारी अवस्था जो कुछ है, या होगी सो पर्याय है ।*
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-सत् द्रव्यलक्षणम् ॥२९॥ उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्॥३०॥ गुणपर्ययवत् द्रव्यम् ।। ३८१५ ॥ त० सू०।
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vNP
जैनोंके तत्व।
आप समझ गए होंगे कि ये छहों द्रव्य बहुत ज़रूरी है। ये छहों ही द्रव्य जीव अजीव तत्त्रमें गर्भित हैं ।
शिष्य- हम इन दो तत्वोंको तो समझ गए हैं, अब तीसरें तत्वको समझाइये।
शिक्षक-शुभ या अशुभ कर्मों के बंधने लायक कार्मणवर्गणाओंके आनेके द्वार या कारणको तथा उन कर्म-पिडोंके आत्माके निकट आनेको आस्रव कहते है। जो कर्मपिंडके आनेके द्वार या कारण हैं उसको भावासत्र कहते हैं और कर्मपिंडके आजानेको द्रव्याखव कहते है। जैसे नाचमें छेद होनेपर पानी आजाता है, छेद पानी आनेका द्वार है। इसी तरह मावासन छेदके समान है और द्रव्याखव नावमें पानी आनेके समान है।
हमारे पास तीन कारण अच्छे या बुरे काम करनेके हैं। वे है-मन, वचन, काय । मनसे हम सोचते है, इरादा करते हैं। वचनसे बात करते हैं। शरीरसे क्रिया करते है। ___हमारा आत्मा शरीरमात्रमें फैला हुआ है। इसलिये मन या वचन या कायकी कुछ भी क्रिया जब होती है तब आत्मामें हलनचलन होजाता है, इसीको योग कहते है । जो संयोग करावे उसे योग कहते हैं। यही योग कर्मवर्गणाओंको खींच लेता है। यही कर्मपिंडीके आनेका द्वार है। इसलिये इसीको भावासव या आस्रव कहते हैं ।*
जब मन वचन कायकी क्रिया शुभ भावोंसे या इरादेसे की जाती है तब उसको शुभ योग कहते हैं और जब मन, वचन, *कायवाड्मनः कर्मयोगः ॥११६ त.सू.॥ स मास्त्रवः ॥२६॥ त.सु..
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विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा। कायकी क्रिया अशुभ भावोंसे या बुरे इरादेसे की जाती है तब उसे अशुभ योग कहते है । शुभ योगसे मुख्यतासे पुण्य कर्म बंधनेलायक कर्मपिंड आते है। अशुन योगसे पाप कर्म बंधनेलायक कर्मपिंड आते है !x
शिप्य-शुभ भाव तथा अशुम भावोंके कुछ नमूने बता दीजिये। शिक्षक-शुभ भावोंके नमूने इस तरह होसक्ते है
जीवदया, सत्य वचन बोलनेका भाव, ईमानदारीसे पैसा कमानेका भाव, संतोष भाव, ब्रह्मचर्य पालनेका भाव, देवपूजा, गुरु-सेवा, शास्त्र स्वाध्याय, संयम, तर या दानके भाव, भूमि देखकर चलनेका भाव, परोपकार भाष, स्वार्थत्याग भाव, दुख पटनेपर समतासे सहलेनेका भाव, सुख होनेपर उन्मत्त न होनेका भाव, क्षमा, विनय, सरलता, शुचिभाव, ममताकी कमी, प्राणीमात्रपर मैत्री, गुणवानोवो देखकर आनंदभाव, अपनेसे विरुद्ध जो हो उनपर माध्यस्थ भाव या क्षोभ रहित भाव ।
अशुभ भावोंके नमूने ये होसक्ते है
हिंसक भाव, असत्य वचन बोलनेका भाव, चोरीका भाव, कुशीलका भाव, तीव्र ममता, मिथ्यादेव, मिथ्यागुरु, मिथ्या शास्त्र, व मिथ्या धर्मकी भक्ति, प्रतिज्ञा या व्रत भंग करनेका भाव. दष्ट या दुर्जनताका भाव, हिसाके उपकरण बनानेका भाव, दूसरोंको संतापित या दुःखित व शोकित करनेका भाव, प्राण लेनेका भाव, रागी होकर रमणीक रूप देखनेका भाव, रागी होकर रमणीक स्त्री आदिके स्पर्शनेका भाव, शास्त्राज्ञा यथार्थ होनेपर भी निरादरका भाव, परि--
x शुभः पुण्यस्याशुभ: पापस्य ॥३॥६॥ त. सू.
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जैनोंके तत्व। ग्रह बढ़ानेका भाव, तीन क्रोध, तीव्र मान, ती माया, तीव्र लोभ, जिह्वा आदि इन्द्रियोंकी लम्पटता. शिकार खेलनेका भाव, मदिरा पीनेका भाव, अभक्ष्य भोजनकी लालसा, वेश्याप्रसंग व परस्त्री प्रसंगके भाव आदि।
शिष्य-इन अशुभ भावोंके होनेके मूल कारण क्या हैं ?
शिक्षक-मिथ्याज्ञान इन्द्रियोंकी इच्छाएं और क्रोधादि कषाय है। मिथ्याज्ञान उस ज्ञानको कहते है जो असत्यको सत्य समझे। मैं पहले बता चुका हूं कि हमारा आत्मा स्वभावसे पूर्ण ज्ञानमय, पूर्ण शांनिमय तथा पूर्णानन्दमय है। जो ऐसा न समझकर यह माने कि आत्मा रागी द्वेषी है, शरीरकी अपेक्षा आत्मा ही पशु. पक्षी, मानव. कीटादि है, जो शरीरको और आत्माको, पापपुण्यमई कर्मको
और आत्माको भिन्नर न जाने, जो संसारके क्षणभंगुर सुखको सच्चा मुख माने, जो आत्मीक आनंदको न जाने, जो संसारके नाशवंत धनादि व पुत्रादिको अपना ही जान मोह करे-उनके मोहमे अपने आत्माके गुणोंकों भुलादे, यह सब मिथ्या ज्ञान है। इसे अविद्या, अज्ञान, माह भी कहते हैं । संसारके जालमे फंसानेका यही मूल है । जिसके भीतर यह मिथ्याज्ञान रहता है वही अपनी स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु
और श्रोत्र इन्द्रियोंसे जिन जिन विषयोंको या पदार्थोंको जानता है उनमें रागद्वेष कर लेता है। यदि अच्छे मालम होते है तो राग करता है, बुरे मालूम होते है तो द्वेष कर लेता है। जिनको अच्छे जानते है, प्यारे जानते है उनके लेनेके लिये या पानेके लिये लोभ कषाय तथा माया कपाय करता है । जब वे मिल जाते हैं तब मान कषाय करके दूसरोंको छोटा बड़ा देखता है। जिनको बुरा समझता है
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-६२-1 - - - विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। उनसे क्रोध करता है। इस तरह अविद्या के कारणसे इन्द्रियों के विषयोंमें लम्पटता होती है। और इन्द्रय विषयोंकी लम्पटतासे क्रोधादि कषायोंमें फंसता है। बस, कपायोंमें उल्झकर अपना स्वार्थ साधनेको यह हिंसा करता है, झूठ बोलना है, चोरी करता है, परन्त्रीमें रत होजाता है, धन दि परिग्रहमे तीव्र ममता करके उनको बढाता है। ऊपर कहे हुए सत्र नमूने विषय कपायमे फंजनके कारणसे है।
शिष्य-शुभ भावोके होनेमें मूल कारण क्या है ?
शिक्षक-मिथ्या ज्ञानकी जगह सम्यग्ज्ञानका होना मूल कारण है । तब सम्यग्ज्ञानी इन्द्रिय भोगोंकी तृप्णा नहीं रखता है। पाचों इन्द्रियोंसे जानकर जिन विषयोंके सेवनसे आत्मोन्नतिमें बाधा नहीं पड़े उनको मन्द रागसे सेवन करता है । उसके क्रोधादि चारों कृषाय मन्द होते है । वह जानता है कि मेरे आत्माका सञ्चाहित आत्मीक सुखशांतिको पाना व आत्माको शुद्ध करना है। वह जानता है कि इन्द्रियोंके भोगोंसे तृप्ति नहीं होसक्ती है। सच्चा ज्ञानी जगतको एक नाटक समझता है । यदि सुखकी , सामग्री मिलती है तब उसमें उन्मत्त नहीं होता है । यदि दुखकी सामग्री मिलती है तब उसमे घबडाता नहीं है। सुख व दःखको समता भावसे भोग लेता है। दोनोंको धूप व छायाके समान नाशवंत जानता है। इसीसे सम्यम्ज्ञानी न्यायमार्गी होजाता है। वह अपने कष्टोंके समान दूसरोंके कष्टोंको समझता है इसीलिये उसके मनमे चार भावनाएं रहती है । 1 शिष्य-कृपा करके चार भावनाएं समझा दीजिये । 4 शिक्षक-मैत्री भावना-सर्व प्राणी मात्रपर प्रेम रखना कि मुझसे यदि उनका कुछ हित हो तो ठीक है ।
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अनोंके तत्त्व ।
प्रमोद भावना-गुणवानोंको, सज्जनोंको, धर्मात्माओंको देखकर मनमें प्रसन्न होजाना।
करुणा भाव-दुःखितोंको देखकर व जानकर द्रयामांव रखना, उनके कष्टोंको दूर करने का यथाशक्ति उद्यम करना ।
मध्यस्थ भाव-जो अपनी सम्मतिसे विरुद्ध हैं उनपर न रागन द्वेष रखना, उनपर उदासीन भाव (indifference ) रखना। ' ' सम्यग्ज्ञानी जीवके शुभ मन, वचन, कायोंका वर्तन ऊपर प्रमाण होता है ।
मिप्य-मिथ्याज्ञानीके भी जगतमें शुभ मन, वचन, कायका वर्तन देखा जाता है वो कैसे?
भिक्षक-मिथ्य ज्ञानी भी जीव दया पालते हैं, सत्य बोलते हैं, चोरी नहीं करते हैं, अपनी स्त्रीमें संतोप रखते हैं, लाभमें संतोष रखते हैं, परोपकार करते हैं, दान देते है परन्तु उनका भीतरी आशय आत्मशुद्धि व सुख शंति लाभ नहीं होता है किंतु कुछ
और ही होता है । जैसे हमें पुण्य कर्म बन्धेगा तो संसारका सुख होगा अथवा हमारा जगतमें यश होगा । अथवा समाजमें हम प्रतिठित माने जावेंगे। इस तरह किसी भीतरी लौकिक आशयसे बड़े २ पुण्यके कर्म करते हैं।
आपको हमने संक्षेपसे यह बता दिया है कि हम अपने ही भावोंसे कर्मपिंडको खींचते है, यही आस्रव तत्त्व है। - शिष्य-अच्छा ! अब कृपा करके बंध तत्त्वको समझाइये।
शिक्षक-जैसे नावमें पानी आकर नावमें भर जाता है तब नाव पानीसे भारी होजाती है, उसी तरह जो कर्मपिंड आता है वह
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विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा आत्माके कार्मण शरीरके साथ मिलकर ठहर जाता है, इसीको वंद कहते है । बंध चार तरहका होता है-प्रकृति वंध, प्रदेश बंध, स्थिति बंध, अनुभाग बंध । यह बंध वास्तबमें मन, वचन, काय योगोंसे तथा क्रोध, मान. माया, लोभ कपायोंके कारण होता है, वधके कारणोंको भाव बंध कहते हैं। कोके बंधनेको व्य बंध कहते है । जब कर्म बंधता है तब जैसी मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति होती है उसीके अनुसार उन कर्मपिंडोंमे जो बंधने है प्रकृति या स्वभाव पड जाता है व उसीके अनुसार कर्मपिंडोंकी संख्या नियमित होती है कि इतना कर्मपिड इस इस प्रकृतिका बंधा उसे प्रदेश बंध कहते है। ये दोनों प्रकृति और प्रदेश बंध योगोंसे होते है, कर्मपिंड तब बंधता है जब उसमें कालकी मर्यादा पड़ती है कि ये कर्मपिड इतने कालतक बंध रहेंगे व इस कालके पीछे न रहेंगे। इस कालकी मर्यादाको स्थिति बंध कहते है । कयायकी तीव्रता व मंदताके कारण कर्मोमे स्थिति अधिक या कम पड़ती है। इसी समय उन कर्मपिडोंमे तीन या मन्द फल-दानकी शक्ति पडती है उसको अनुभाग बंध कहते है। यह बंध भी कपायके अनुसार अधिक या कम होता है। स्थितिबंध और अनुभागबंध कषायोंके अनुसार होते है। ____ वास्तवमे मन, वचन, काय और कषाय ही बंधके कारण है। जैसे हम भीतमे लाल रंग पोत दें तो लाल रंगका भीतके साथ वन्ध होजायगा, उसमे भी चार भेद मालम पडेंगे । उस रंगका स्वभाव तो प्रकृति वंध है, कितना रंग चिपटा सो प्रदेश बन्ध, है, कितने कालतक चिपटा रहेगा वह स्थितिबन्ध है, उसकी
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नोके तत्व। तीव्रता या मन्दता अनुभाग वन्ध है । कर्मोकी प्रकृति यह आठ तरहकी होती है जानावरण आदि, यह हम आपको बता चुके है। कर्म बंधनेके पीछे उसी तरह पकते रहते है जैसे खेतमे वीज बोनेपर वृक्ष पकता है। वे ही कर्म अपनी मर्यादाके भीतर फल देकर झड़ते भी जाते है। जैसे हम इस दिखनेवाले शरीरमें हवा, पानी, भोजन खाते है वे ही हमारे भीतर स्वभावसे पककर खून आदि बन जाते है उन हीका वीर्य बनता है, वीर्यसे ही हम चलते फिरते व काम करते है, हमारे अंग उपंगमें शक्ति रहती है, वैसे ही हम इस सूक्ष्म शरीरमें आप ही पुण्य व पाप कर्म बांधते है व आप ही उसका अच्छा या बुरा फल भोगते है । आस्रव और बंध तत्त्वोंसे हमें यह ज्ञान होता है कि हम किस तरह हर समय कर्मोको बांधकर अशुद्ध होते रहते हैं। आप समझ गए होगे कि वे दोनों तत्त्व कितने जरूरी है।
शिष्य-वास्तवमें बहुत जरूरी हैं। अच्छा कृपाकर आफ पांचवें संवर तत्त्वको बताइये ।
शिक्षक-आस्रवका विरोधी संबर है। कर्मपिंडके आनेका रुक जाना सो संवर है। जिन भावोंसे कर्म रुकते हैं उनको भावसंवर कहते हैं, कर्मोके रुक जानेको द्रव्य संवर कहते है ।+
हम पहले बता चुके है कि मन, वचन, कायकी क्रियाओंसे कर्म पिडोंका आस्रव होता है। अशुभ मन, वचन, कायसे पापकर्म
x सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्ते स बन्धः । प्रकृतिस्थित्यनुभाग प्रदेशास्तद्विधयः ॥ २,३1८ त. स.
+ आश्रवनिरोधः संवरः ॥ ११९ त. सू.
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विद्यार्थी जन धर्म शिक्षा । तथा शुभ मन, वचन, कायसे पुण्य कर्म आता है। यदि हम चाहते है कि पाप कर्म न आने पावे तो हमे चाहिये कि हम अशुभ मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिको बन्द करदें । जैसे हमको जुए खेलनेकी आदत हो तो जुएको त्यागर्ने । किसीको सतानेकी व किसीके प्राण घात करनेकी आदत हो तो हम मताना व प्राणघात करना छोडढे। झूठ वचन बोलनेकी आदत हो तो हम अट वचन बोलना छोडडे, चोरी करनेकी आदत हो तो हम चोरी करना छोडदें, मदिरा पीनेकी आदत हो तो हम मदिरा पीना छोडडे, भांग पीनेकी आदत हो तो हम भांग पीना छोडडे, वेश्या प्रसंग व परस्त्री प्रसंगकी आदत हो तो हम वेश्या या परस्त्री प्रसंग छोडढे । अपने मन, वचन, कायको पापके द्वारोंसे बचानेके लिये हमको सच्चे भावसे उनके त्यागकी प्रतिज्ञा लेलेनी चाहिये फिर उस प्रतिज्ञाको दृढ़तासे पालनी चाहिये । मानवोंकी बुरी आदतोंको सुधारनेके लिये प्रतिज्ञा वडी आवश्यक बात है। __ हम यह भी बता चुके है कि अशुभ भावों के मूलकारण मिथ्या ज्ञान, इन्द्रियोंकी इच्छाएं तथा क्रोधादि कपाय है। अशुभ भावोंसे बचनेके लिये हमें सम्यग्जान, इन्द्रियोंका निरोध (control of senses) व कपायोंका वश करना या शात रखना ( peacefulness ) आवश्यक है। हमको यह सच्चा ज्ञान रखना चाहिये कि हम आत्मा है। हमारा असली स्वभाव कर्मबन्ध, रागद्वेषादि व शरीरादिसे भिन्न है। सच्चा सुख व सच्ची शांति हमारे ही आत्मामे है । हमें दुःख पड़नेपर आकुलित व संसारके सुख होनेपर उन्मत्त न होना चाहिये । शरीरको एक दिन छूटनेवाला समझकर इस शरीरके रहते हुए आत्मोन्नति व परोपकार करलेना चाहिये । स्त्री, पुत्र, मित्रादिको मात्र
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जैनांके तत्व।
[६७ शरीरका थोड़े दिनका साथी मानना चाहिये । आत्मा अकेला ही शरीरमें आता है व अकेला ही मरता है । अकेला अपने कर्मोका 'फल भोगता है। ऐसा समझकर मोहमें पडकर अपने आत्माको पापोंमें नहीं फंसाना चाहिये । धर्म व नीतिसे चलकर जगतके नेहमें अपनेको न उलझाना चाहिये । इन्द्रियोंको अपने आधीन रखना चाहिये। उनके वगमें पड़कर अनुचित काम नहीं करना चाहिये । क्रोध, मान, माया, लोभको अपने आधीन रखकर गांत भाव, कोमल भाव, सरल भाव तथा संतोष भाव रखना चाहिये ।
जीवोंके भाव तीन तरहके होते हे-अशुभ उपयोग, शुभ उपयोग, शुद्ध उपयोग | bad thought-activity, good thoughtactivity. pure thought-sctivity. अशुभ उपयोगसे पाप कम वंधता है, शुभ उपयोगसे पुण्य कमें बंधता है, शुद्ध उपयोगसे कर्माका नाश होता है।
पापकर्मसे बचनेके लिये हमें अशुभ उपयोग छोडना चाहिये। शुभ उपयोगमें वर्तना चाहिये । जब हमको शुद्ध उपयोगका लाभ होगा तब पुण्य कर्मका आना भी बंद हो जायगा । आत्माको सर्वे कर्मबंधसे बचानेका उपाय शुद्ध उपयोग है।
शिष्य-कृपाकर निर्जरातत्वको बताइये ।
शिक्षक-कर्म अपने समयपर फल दिखला करके झड़ते है। इसको सविपाक निर्जरा कहते हैं। आत्मध्यानको लिए हुए- तपकरनेसे व इच्छाओंको निरोध करनेसे जब भावोंमे वीतरागता होती है तब बांधे हुए कर्म अपने पकनेके समयके पहले ही विना फल दिये
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६८]
विद्यार्थी जनधर्म शिक्षा हुए झडनाते है । इसको अविराक निर्जरा कहते हैं। जैसे नावके. भीतर भरे हुए पानीको धीरे धीरे निकाल दिया जाये और नवे पानीके आनेका छेद बन्द कर दिया जावे तो वह नाव चलने लायक होकर सीधी अपने स्थानपर चली जायगी, इसी तरह सवरके द्वारा जब नए कर्मोको रोक दिया जाता है और आत्मध्यानके द्वारा धीरे २ स्मोकी निर्जरा की जाती है तो बंधे हुए कर्म दूर किये जाने है तब आत्मा कभी न कभी कर्मोसे खाली या मुक्त होजाता है।
शिप्य-मोक्ष तत्व किसे कहते है।।
शिक्षक-आत्माका सर्व कमोसे छूट जानेको व नवीन कर्म बंक होनेके कारणोके मिट जानेको मोक्ष तत्त्व कहते है । मोक्ष होजानेपर आत्मा शुद्ध होजाता है। इसी शुद्ध आत्माको सिद्ध कहते है।
इन सात तत्त्वोंसे यह मलेप्रकार जानलिया जाता है कि आत्मा अशुद्ध कैसे होता है व शुद्ध कैसे होसक्ता है। इसी लिये इनका जान लेना जरूरी है।
शिष्य-पुण्य पापका क्या स्वरूप है ?
शिक्षक-पुण्य कर्मको पुण्य व पाप कर्मको पाप कहते है। सात तत्वोंके भीतर इनका स्वरूप गर्मित है। आस्रव तत्व और बंध तत्वमें ये दोनों आजाते है।
शिष्य-फिर इनको अलग कहनेका क्या प्रयोजन है ? शिक्षक-क्योंकि जगतमे पुण्य व पाप प्रसिद्ध है, इसीलिये * तपसा निर्जरा च ॥ ३९ बंधहेत्वमावनिर्जराम्या कृत्लकर्म विप्रमोक्षो मोक्षः ॥२॥१०॥ त०
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जैनोंके तत्त्व । इनको कहा गया है कि जगतके प्राणी समझ सकें कि पुण्य कर्मका व पाप कर्मका बन्ध कैसे होता है। तथा उनका फल क्या होता है।
शिष्य-आठ कर्मोमें कौन पाप है कौन पुण्य है ?
शिक्षक-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय तथा अंतराय ये चार पातीय कर्म तो पाप रूप ही है, गंप चार अघातीयमें पाप पुण्य दो भेद है। शुभ आयु, शुभ नाम, उच्च गोत्र व सातावेदनीय पुण्य कर्म हे तथा अशुभ आयु, अशुभ नाम, नीच गोत्र तथा असाता चेदनीय पाप कर्म है।
इन नौ तत्व या पदार्थोका विशेप स्वरूप आगे वताएंगे।
शिष्य-मुझ जैन तत्वोंको जानकर बड़ा ही आनन्द हुआ । मैं गेज एक घंटा आपको दंगा। अब कल आऊंगा, आप कुछ और, विशेष बात बतावें।
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विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा । चौथा अध्याय। तत्वज्ञानका साधन ।
शिप्य-कृपाकर यह वताइये कि इन सात तत्वक जानने के उपाय जैन शास्त्रमे क्या २ क है ? ___ शिक्षक-यह प्रश्न बहुत ही जरूरी है । वहुतमे उपाय कहे है। मै जरूरी २ आपको बताऊंगा।
हम अपने वचनोंसे किसी भी पदार्थको सर्वाग एक साथ नहीं कह सक्ते है। जिस दृष्टि या अपक्षासे एक अर्मा कयन किया जाता है उसको नय (Standpoint) कहते है। जैन सिद्धातमें दो नय वहुतजरूरी है-एक निश्चयनय या द्रव्यार्थिक नय (Real or substantial point of View) दूसरा व्यवहार नय या पर्यायार्थिक नय (practical or point of moaification).
जो नय असली, मूल, शुद्ध स्वभावको बताये उसको निश्चयनय कहते है। जो मूल स्वभावको न बताकर शुद्ध या अशुद्ध अवस्थाओंको या भेदोंको बतावें सो व्यवहारनय है। जगतके साधारण प्राणी व्यवहारनयका ज्ञान तो रखते है परन्तु निश्चयनयसे है । जानकार नहीं है। इसीलिये उनको मूल तत्व हाथ नहीं लगता। अशुद्ध वस्तुकोशुद्ध करनेका यही उपाय है कि हम उस वस्तुको दो दृष्टियोंसे जाने । एक रुईका बना सफेद कपडा मैलके संयोगसे मैला है। इसको निश्चयनयसे हम रुईका बना सफेद देखेंगे तथा व्यवहारनयसे इसको मैलसे मिला मैला देखेंगे। तब हमारी यह बुद्धि पैदा होगी कि मैल
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[७१ कपड़ेसे अलग है. इसको दूर किया जासक्ता है। तब हम मसाला लेकर कपडेको घोडालेंगे। यदि हम एक ही दृष्टि से देखें तो कपड़ा कभी साफ नहीं होसक्ता है। यदि हम मैले कपड़ेको मैला ही देखें या हम उसे सफेद ही देखें तब हम कभी उसे साफ नहीं कर सक्ते है। इसीतरह हम आत्माको निश्चयनयसे शुद्ध व व्यवहारनयसे कर्म मैलसे मिला अशुद्ध जानेंगे तब ही यह बुद्धि हमारेमें पैदा होगी कि हम इस कर्म मैलको जो अशुद्ध है दूर कर सक्ते है। एक मिट्टीका घड़ा हमारे सामने है यह निश्चयनयसे पुद्गल द्रव्य है, व्यवहारसे मिट्टीका घडा है। एक वृक्षको हम व्यवहारनयसे वृक्ष कहते है, निश्चयनयसे देखेंगे तो उस वृक्षमें जितना पुद्गल है उसको पुद्गल देखेंगे । और उसके सिवाय जो शुद्ध जीव है उसे शुद्ध जीव देखेंगे। इन दोनों नयोंसे जाननेकी रीति ही हमारे मोहको या रागद्वेषको घटा सक्ती है। हमारे कुटुम्बमें स्त्री पुत्रादि है। हम व्यवहारनयसे उनको शरीरसे हमारा सम्बन्ध होनेके कारणसे स्त्री, पुत्रादि कहेंगे परन्तु निश्चयनयसे वे सब हमे जीव और पुद्गल दो रूप दिखलाई पड़ेंगे। उनमे चेतनालक्षणधारी जीव अलग एक शुद्ध स्वभावमें दीख पडेगा। शेप स्थूल व सूक्ष्म शरीर सब पुद्गल दीख पड़ेगा। हम स्त्री पुत्रादिको व्यवहार में ऐसा कहते हुए भी यह जानेंगे कि ये मूलमें हमारे स्त्री पुत्रादि नहीं है। ये तो सब शुद्ध आत्मा है। जैसा निश्चयनयसे मेरा आत्मा शुद्ध है वैसा इनका आत्मा शुद्ध है। हम सब एकरूप है, यह ज्ञान हमारे भीतर समताभाव पैदा कर देगा, रागद्वेषको मिटा देगा। निश्चयनयसे देखते हुए जगतमें न कोई मित्र या बंध दिखलाई पड़ेगा और न कोई शत्रु दीख
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विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा। पडेगा। सब एकम्प दीख पडेंगे। आत्मध्यानके समय इसी निश्रयनयसे देखनेका अभ्यास करना चाहिये । व्यवहारनयको बंद कर देना चाहिये । जब आत्मध्यान न हो और व्यवहार में चलना हो तब व्यवहारनयसे देखकर यथायोग्य परस्पर काम करना चाहिये । यद्यपि व्यवहारनयसे देखने हुए रागहेप होगा तथापि भीतरसे मोहरूप न होगा। प्रयोजन मात्र ही होगा, क्योंकि वह जानता है कि ये सब जीव मेरेसे भिन्न है, अपनेर कोको बाधकर यहां आए है और कर्मोको वाधकर अपनी२ भिन्न गतिमे चले जायंग, इनसे मेरा नाता कुछ नहीं है । व्यवहारनयमे जब भेषोंका ज्ञान होता है तब निश्राय नयसे मूल पदार्थोका ज्ञान होता है।
भेप बढलते रहते हे टसीमे इनको पर्याय या अवस्था करने है। मूल द्रव्य कभी विगडता नहीं उसीमे उसको नित्य कहते है* इन दोनों नयोंके द्वारा जबतक तत्वोंको न समझा जायगा तबतक सच्चा जान नहीं होगा। और जिनवाणीके उपदेगका फल प्राप्त न होगा। कितु उनको समझनेसे पूरा फल प्राप्त होसकेगा।
शिष्य-मैं इन दो नयोंको तो समझ गया। क्या कोई और भी उपाय है? शिक्षक-एक उपाय यह है कि हम पर्यायोंके सम्बन्धमे नीचे
*निश्चयमिह भूतार्थ व्यवहार वर्णयन्त्यभूतार्थम् । भूतार्थबोधविमुखः प्रायः सर्वोपि ससारः ॥५॥ व्यवहारनिश्चयो यः प्रबुध्य तत्वेन भवति मध्यस्थः । प्राप्नोति देशनायाः स एव फलमविकलं शिष्यः ॥६॥ पु.सि.
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तत्वज्ञानका साधन।
{ ७३ लिखी छः बातें समझं तथा दूसरोंको बतानेके लिये इन्हें समझावें । वे छः बातेx ये है--
१ निर्देश, या स्वरूप कहना (definition) २ स्वामित्व या मालिक बताना ( ownership ), ३ साधन या उसकी उत्पत्तिका कारण बताना (cause), ४ अधिकरण या आधार (support) बताना, ५ स्थिति या कालकी मर्यादा (duration) बताना, ६ विधान या भेद (kinds) बताना । तत्वोंके जाननेका यह एक अच्छा कायदा है। किसी भी विषयपर व्याख्यान करना हो तो हम इन छ• वातोंको सोचकर व्याख्यान ठीकर बनासक्ते है। जैसे अहिंसा पर कहना हो तो हम पहले निर्देश करें कि प्रमाद सहित मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति रोककर जहां पूर्ण शातभाव हो वह अहिंसा है। अहिसाका स्वामी विचारवान मानव होता है। अहिसाका साधन देखकर चलना, रखना, उठाना, काम करना आदि है। अहिंसाका आधार सब जगहपर है, जहापर भी हम काम कर, हमें दयाभावसे काम करना चाहिये । अहिंसाकी स्थिति यह है कि हमें हरवक्त अहिंसाका ध्यान जबतक हम कोई काम करते हों रखना चाहिये । अहिमाके मेंढ दो हे--एक स्वअहिंसा, एक परअहिसा। अपने आपको क्रोधादिसे बचाना स्वअहिसा है। परकी रक्षा करना परअहिंसा है। इसीतरह हम यदि सम्यग्दर्शनके ऊपर समझा। तो कहेंगे कि तत्वोंका श्रद्धान करना निर्देश है, सम्यग्दर्शनके स्वामी सब ही मन सहित पंचेन्द्रिय जीव होसक्ते है, सम्यग्दर्शनका साधन तत्वोंका मनन व उसके रोकनेवाले कर्मोका हटना है। सम्यग्दर्शनका आधार वह
४ निर्देषस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानतः ॥७१॥ त.सू.
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७४ ]
विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा। सब जगह है जहा२ पाच इन्द्रिय मनवाले जीव पैदा होते है। सम्यग्दर्शनकी स्थिति थोडी भी हे ब अनंतकाल है। सम्यग्दर्शनके भेद तीन है--औपशमिक क्षायोपशमिक, व क्षायिक । जो वाधक कर्मोके उपशमसे हो वह औपशमिक है। यह करीब ४८ मिनटसे ज्यादा नहीं रहता है। इस समयको अंतर्मुहर्त कहते हैं। जो वाधक कर्मोके क्षयसे, उपशमसे या कुछ उदय या असरसे हो वह क्षयोपगमिक है। इसकी स्थिति अधिकसे अधिक व्यासठ सागर ( असंग्व्य चोका होता है) जो बाधक कर्मोंके नागसे हो वह क्षायिक है। यह कभी छूटता नहीं, अनंत कालतक रहता है।
शिष्य-यह तरीका तो बहुत अच्छा है। इसमे हम हरएक विषयपर लेख बना सक्त है।
शिक्षक-किसी विषयपर लेख लिखने हुए छ से कममे भी काम चल सक्ता है । जिस किसीमे छहो बातें हम कह देंगे वहा पूरा वर्णन हो जायगा । अच्छा, आपके पास यह कोट है इसका वर्णन कर जाओ।
शिष्य-कोट वह है जिससे शरीरको शरदी, गर्मी व हवासे बचाया जाता है, यह निर्देश है। कोटका स्वामी मै हूं. यह स्वामित्व है। यह कोट कपड़ेसे व दरजीसे बना है, यह साधन है। कोट मेरे शरीर पर रहता है या कमरेमे टंगा रहता है या गठरीमें बंधा रहता है यह आधार है। कोट दो वर्षसे ज्यादा चलता नहीं मालूम होता। यह इसकी स्थिति है। कोटके भेद दो कह सक्ते है--मैला या उजला। उजला साफ दिखता है, मैला बुरा मालम होता है।
शिक्षक-अच्छा, आप मनुष्य है इसीपर भाषण कर जाइये।
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तत्वज्ञानका साधन ।
[७५ शिष्य-हम मनुष्य है, हमारा काम विचारपूर्वक हरएक काम करनेका है यह निर्देश है । हमारे स्वामी हम है या हमारे पिता माता है। हमारा साधन-या हमारी उत्पत्तिका कारण हमारा बाधा कर्म है तथा हमारे माता पिता है। हमारा आधार यह नगर है जहां हम पैदा हुए या वह कुल स्थान है जहा हम जासक्ते है ।।. हमारी स्थिति हमारी उम्र है जबतक हम जीवेंगे। हमारे भेद बालकपन, युवापन, वृद्धपन होसक्ते है। या विद्यार्थी व गृहस्थ, आदि होसक्ते है। मैं समझ गया । और कोई उपाय है ?
शिक्षक-तत्वोंके समझनेका एक और उपाय है। सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव, अल्पबहुत्व । इन आठ बातोंसे भी हम वर्णन कर सक्ते है ।*
(१) किसी वस्तुको सिद्ध करना कि वह है यह सत् (existence ) है।
(२) उसकी गिनती बचाना व उसके भेदोको बताना संख्या ( number) है।
(३) वर्तमानकालमे उसके रहनेका ठिकाना बताना-क्षेत्र ( present place) है।
(४) कहांतक वह वस्तु स्पर्श कर सक्ती है या जासक्ती है। बताना स्पर्शन (extent of going) है।
(५) उस वस्तु के ठहरनेकी मर्यादा बताना काल (duration) है। * सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहुत्वैश्च ॥ १ ॥
त० सु०
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विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। (६) एक अवस्थासे दूसरी अवस्था हानेपर फिर उमी अपस्थामे आनेतक जो वीचकी जुदाईका काल है उसे बताना सो अन्तर (Intorval) है।
(७) उस वस्तुका स्वभाव बताना मो भाव (nature) है ।
(८) उस वस्तुकी प्राप्ति स्म कहा व कहानी है. अधिक कहा वक्व होती है यह बताना अल्पवहुत्व comparative quantilsil
जैसे जीव द्रव्यका व्याग्न्यान करना हो तो हम टन तरह आट बातोंसे बता सक्ते है
(१) जीव है क्योंकि चेतनालक्षण प्रगट है. हम देखने जानने हे जडमे यह बात नहीं मिलनी है। यह सन् है।
(२) जीवोंके भेद मुख्य मंसारी और मिद्ध है. व इन्द्रियानी अपेक्षा पाच मंद है। सख्या अनंत है, यह संख्या है।
(३) जीवका वर्तमान निवास अपने२ नेहमें है व अग्नीर गतिमे है व जहा वह पाया जाये वहा है यह क्षेत्र है।
(४) जो जीव जहातक जासत्ता है वह उसका सहन है। जन. हम पैदा तो बम्बईमे हुए है परन्तु जहातक जहाज, रेल या हवाई विमान द्वारा जानेका मार्ग है वहातक जासक्ते है. यह स्वर्शन हे । (५) जिस जीवकी जो उम्र जिस गरीरमे है वही उसका काल है।
(६) एक जीव मानव था, मरकर घोडा हुआ फिर मानव हुआ। वीचमे जो ४० वर्ष चीते वह विरहकाल या अंतर है।
(७) जीवका भाव ज्ञान दर्शन, शुद्ध अशुद्ध, अनेक प्रकारका है, यह भाव है।
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तत्वज्ञानका साधन।
[७७, (८) जीव कहीं थोड़े व कहीं अधिक पाए जाते है । जैसे बम्बईमें बहुत मानव हैं-दिहलीमें कम है।
क्या आप अजीवपर आठ बातें कह सकोगे ? शिष्य-मैं कोशिश करता हूं
(१) अजीव है क्योंकि यह कलम या दावात, कागज सब । अजीव है। इनमें जीवपना नहीं है, हम देख रहे है। यह सत् है।
(२) अजीवके भेद पाच है, पुदल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल, यह संख्या है।
(३) अजीवोंका क्षेत्र सर्वलोक है, विशेष करके इस दाबातका वह क्षेत्र है जहां यह इस वक्त है। यह क्षेत्र है।।
(४) अजीवोंका स्पर्शन आकाशकी अपेक्षा अनंत है। विशेष करके यह दावात जहांतक हम लेजावे वहांतक जासक्ती है, इसका यह स्पर्शन है। मेघ जहां बने वह तो उनका क्षेत्र है। जहांतक के उडके जासक्त है वहांतक उनका स्पर्शन है।
(५) अजीवोंका काल सामान्यसे अनंत है। विशेषसे एक चौकी जहांतक टूटे नहीं वहांतक उसका काल है। एक मकान जहांतक गिरे नहीं वहांतक उसका काल है ।
(६) अजीवोंमें विशेषकी अपेक्षा ऐसा जानना कि यह नगर पहले वसा था फिर उजाड़ हुआ बादमें बस गया, वीचमें ५०० वर्षे लगे यह अंतर है।
(७) अजीवोंके गुणोंको बताना भाव है, जैसे पुद्गल उसे कहते है जहां स्पर्श, रस, गंध, वर्ण पाए जावें। -
(८) अजीवोंमें विशेष करके किसी जगह काठ भरा है सो
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.७८]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। बहुत है, दूसरी जगह काठ थोडा है। यह अल्पवहुत्व है। वास्तवमे यह भी अच्छी रीति है । इससे हम किसी विषयका ठीक वर्णन कर सक्ते है। क्या और भी कोई रीति पदार्थों के जाननेकी है ?
शिक्षक-प्रमाण और नयोंसे भी पदार्थोका ज्ञान होता है।x शिष्य-प्रमाण नयका स्वरूप समझाइये ।
शिक्षक-जिस ज्ञानसे पदार्थको पूरा जान सकें वह प्रमाण है व जिससे कुछ अंश जान सकें वह नय है। जैसे यह नारंगी है ऐसा जानना प्रमाणसे हुआ। यह लाल है ऐसा जानना नयसे हुआ।
प्रमाण ज्ञानके पाच भेद हे-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन पर्यय ज्ञान और केवलज्ञान ।* जो ज्ञान पाच इन्द्रिय व मनके द्वारा सीधा पदार्थको जान सके वह मतिज्ञान mental .knowledge है। जैसे स्पर्शन इन्द्रियसे छूकर जानना कि यह चिकना पत्थर है, यह गर्म लोहा है, यह ठंडी चद्दर है। रसना इन्द्रियसे स्वाद लेकर जानना कि यह नींबू खट्टा है । यह नारंगी मीठी है। यह इमली खट्टी है । प्राण इन्द्रियसे सूंघकर जानना, कि यह गुलाब सुगंधित है, यह हवा दुर्गधमय है। चक्षुइंद्रियसे देखकर जानना कि यह आदमी गोरा है, यह काला है, यह मकान सुन्दर है, यह कपडा गन्दा है। कान इन्द्रियसे सुनकर जानना कि यह शब्द घोड़ाका है यह वृषभका है। श्रुतज्ञान (soriptural knowledge) वह है जो मतिज्ञानसे जाने हए पदार्थके सम्बन्धसे दसरे पदार्थको जाने। जैसे कानसे शब्द सुनकर उसके अर्थका ज्ञान कर लेना । जीव शब्द सुनकर
x प्रमाणनयैरधिगमः ॥६॥१॥ त. सू. * मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम् ॥ ९-१ त० सू० ।
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[७९ चेतनालक्षण जीवको जान लेना । ठंडी हवाको मालूम कर यह रोगकारक होगी ऐसा जानना श्रुतज्ञान है। शास्त्रोंको पढ़कर या सुनकर अर्थ समझना श्रुतज्ञान है।
जो ज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी मर्यादा लिये हुए विना इन्द्रिय और मनकी सहायताके पुदल द्रव्यका तथा संसारी आत्माओंका हाल जान सके वह अवधिज्ञान Visual Knowledge है जैसे अपने या दूसरे पूर्व जन्म व आगेके जन्मका हाल जान लेना। कितने मोटे या महीन पदार्थको जाने वह द्रव्यका ज्ञान है, कितनी दूर तकके भीतरकी बात जाने वह क्षेत्रका ज्ञान है। कितने समय आगेकी व पीछेकी वात जाने वह कालका ज्ञान है। कितने गुणोंको व स्वभावोंको जाने वह भावका ज्ञान है। बहुतसे साधु योगबलसे इम ज्ञानको पालेते है तब उनसे कोई पूछे कि हमारे पूर्व जन्मोंका हाल कहिये तो वह उस ज्ञानसे उसी तरह सब हाल देखकर जानते है जैसे किसी चित्रसे सब हाल जाना जासके। अवधिज्ञानवालेको अपनी मर्यादाके भीतरके पदार्थ प्रत्यक्षके समान दीख जाते है जैसे किसीको चार कोस तकका ज्ञान है तो वह यहां बैठा हुआ कोस तकका सब हाल जान सक्ता है। ___मनःपर्यय ज्ञान Mental Knowledge उसे कहते हैं जो अवधिज्ञानकी तरह द्रव्य, क्षेत्र, क ल, भावकी मर्यादा लिये हुए दूसरोंके मनमें विचार किये जानेवाले पुद्गल व संसारी जीवोंको विना इन्द्रिय व मनकी सहायताके आप ही जान ले । यह ज्ञान योगियोंको योग बलसे होता है। एक आदमी १००० मीलकी दूरीपर किसी गणितके प्रशका विचार कर रहा है। मनःपर्यय ज्ञानवाला साधु
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८.]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। उस बातको जान जायगा । जो ज्ञान सर्व पदार्थोके सर्व गुणोंको व सर्व पर्यायोको एकसाथ विना किसी आलम्बनके जान सके वह केवलज्ञान Perfect Knowledge है। इसीको सर्वज्ञपना कहते है।
नयोंके दो भेद हम बता चुके हे--निश्चयनय और व्यवहारनय। अब दूसरे जरूरी भेद बताते है । नयींके सात भेद जरूरी है। नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, सममिरूढ़, एवंभृत; इनमेसे पहली तीन नयोंको द्रव्यार्थिक कहते है क्योंकि वह द्रव्य या सामान्यको जानती है। पिछली चार नयोंको पर्यायार्थिक कहते हैं क्योंकि वे पर्याय या अवस्था--विशेषको जानती है। इन नयोंको जाननेकी आवश्यक्ता इसलिये है कि जगतमें व्यवहार तरह के वाक्योंसे होता है, वे वचन किस अपेक्षासे सत्य है, इस बातको जाना जासके, तथा कहनेवाला झूठा न कहलावे ।।
नैगमनय-जिस नयसे एक निश्चित वातपर न जाकर विकल्प उठाया जावे। या संकल्प किया जावे और उसी संकल्पका ग्रहण हो सो नैगमनय है। इसके तीन भेद है
(१) अतीतनैगमनय-भूतकालकी बातमें वर्तमानकालका संकल्प जिससे हो, जैसे कहना कि आज बादशाहका जन्मदिवस है। यह कथन इस नयसे ठीक है क्योंकि हमने आनके दिन यह मान लिया कि बादशाहका जन्म हुआ, यद्यपि जन्म तो वास्तवमें ६० वर्ष पहले हुआ था। या यह कहना कि आज श्री महावीर भगवान मोक्ष गए हैआज उनका निर्वाणदिन है, ऐसा दीवालीके दिनको कहते है सो कहना इस अतीतनैगमनयसे ठीक है, वास्तवमें ठीक नहीं है क्योंकि जन्मको तो करीब २५०० वर्ष हुए।
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[८१ (२) भाविनगमनय-जो बात आगे होनेवाली है उसको वर्तमानमें होगई ऐसा संकल्प करना । जैसे-कोई दफ्तरमे उम्मेदवारी करता है, अभी नियत नहीं हुआ है तौभी यह समझकर यह अब जरूर नियत होजायगा, ऐसा कहना कि आप तो नियत होचुके हो क्यों घबड़ाते हो, ऐसा वचन इस नयने ठीक है।
(३) वर्तमान नगमनय-जो बात वर्तमानमे प्रारम्भ की हो व प्रारम्भ करनेका संकल्प हो व उसका प्रबन्ध करता हो तो भी कहना कि वह होरही है, वह होगई है, सो ऐसा संकल्प इस नयसे टीक माना जाता है। जैसे कोई आदमी लकडी चीर रहा है उसके मनमे यह संकल्प है कि कुरसी बनाऊगा। उससे कोई पूछता है भाई क्या कर रहे हो तो वह कह देता है कुरसी बना रहा हूं। वास्तवमे देखा जावे तो वह लकडी काट रहा है। कुरसीका कुछ भी काम नहीं कर रहा है। परन्तु लकडी काटना कुरसीका एक प्राररिभक काम है, इसलिये यह वचन ठीक है।
(२) संग्रहनय-वह नय जो एक जातिके पदार्थोको एक साथ ग्रहण करे संग्रहनय है। जैसे कहना कि यह उपवन हराभरा है। यहा उपवन शब्द बहुतसे वृक्षोको बताता है। या कहना कि जीव चेतना लक्षणधारी होता है, यहा जीवसे सर्व जीव जातिका ग्रहण हे ये दोनो बात संग्रहनयसे ठीक है।
(३) व्यवहारनय-संग्रहनयसे ग्रहण किये हुए पदार्थको जो मंत करके जाने सो व्यवहारनय है। जैसे कहना कि इस उपवनमे आम, केला, नारंगी, अंगूर, अनारके वृक्ष है। या कहना जीवके दो भेद है--
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८२]
विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा। संसारी और मुक्त। या संमारी जीवोंके पाच भेद है-केंद्रिय, द्वेन्द्रिय. तेंद्रिय चौन्द्रिय. पंचन्द्रिय।।
(2)ऋजुमूत्रनय-जो पदार्थकी वर्तमान पर्यायको या अवस्थाको ग्रहण करे सो ऋजुमूत्रनय है। जमे कहना कि यह आदमी बृढा है यह लड़की रोगी है यह आम पक गया है. आनका मौनम ठण्डा है।
(५) गन्दनय-जो गकरण व साहित्यके नियमके अनुसार शब्दोंका व्यवहार करे वह गन्दनय है। कहींपर एकवचनमें बहुवचन. बहुवचनमे एकवचन वीलिंगमे पुल्पलिंग। वर्तमानकालमें भृतकाल आदिका व्यवहार गन्नामे हो तो वह गन्दनयसे ठीक माना जायगा । जैसे एक मानवको देखकर कहना आप नो कभी कभी आने है, यहा एकको बहुत कहना गहनयमे टीक है । या रावण रामसे युद्ध करनेको मेना एकत्र कर रहे है। यहा मृतकालमे वनमानकी क्रिया है मो गन्दनयमे टीक है। संस्कृतमे वीके लिये दारा पुंलिंग गळका व्यवहार करते है, गन्दनयमे यह ठीक है।
(६) सममिल्टनय--गब्दोंके अनेक अर्थ होनेपर भी एक किसी पदार्थमें उस शडके एक अर्थका व्यवहार करना जिससे हो वह समभिरूढ़ नय है। जैसे गौको गो कहना. गो शन्दके अर्थ पृथ्वी. जल, वाणी. चलनेवाले अनेक है. उनमेमे चलनेवाली अर्थ लेकर गौको गोकान्ड कहना, सोती हुई दशामे भी उसे गौ ही कहेंगे। यह वात समभिरुड़नयसे ठीक है। या जैसे किसीको बढ़ई या मुहार कहके पुकारना चाहे वह रोटी खाता हो व शयन करता हो ।
(७) एवंभूतनय-जिस शळका जो अर्थ हो उसीके समान क्रिया करते हुए पदार्थको जो जाने या ग्रहण करे सो एवंभृतन्य है।
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जैसे जब बढ़ई बढ़ईका काम करता हो तब ही बढ़ई कहना, डाक्टर जब डाक्टरी करता हो तब ही उसे डाक्टर कहना । ___ इन पिछले तीन नयोंको शब्दनय भी कहते हैं, क्योंकि इन तीनोंमें गन्दकी मुग्न्यता है। मैं समझता हूं कि आप प्रमाण और नयका मतलब समझ गए होंगे।
शिष्य-मैंने आपके कथनको लिख लिया है। अभी तो मैं समझ गया हूं, मैं इसपर और विचार करूंगा।
क्या और भी कोई तरीका समझनेका है।
शिक्षक-पदार्थोके सम्बन्धमे चार प्रकारका लोकमें व्यवहार होता है । उनको निक्षेप कहते हैं । इनको भी समझ लीजिये
(१) नाम निक्षेप-लोकमें पदार्थको पहचाननेके लिये ऐसा नाम रखना जिसके गुण पदार्थमें न हों, जैसे किसी बालकका नाम महावीर रख दिया या देवसिंह या पार्श्वनाथ या पन्नालाल रख दिया। यह नाम लिखने पढ़ने बुलानेमे बहुत जरूरी है, नामके विना किसीके सम्बन्धमें वर्णन करना कठिन है। इसीसे जगतमे हरएकका नाम रखा जाता है।
(२) स्थापना निक्षेप-काष्ट, मिट्टी, पाषाण आदिमें किसीकी स्थापना करके यह भाव करना कि यह वही है सो स्थापना निक्षेप है। इसके दो भेद है--तदाकार स्थापना, अतदाकार स्थापना। जैसी जिसकी सूरत हो वैसी ही उसकी मूर्ति या चित्र बनाकर मानना कि यह वही है यह तदाकार स्थापना है। जैसे लाला लाजपतरायका पुतला या लोकमान्य तिलकका पुतला बनाकर मानना यह वे ही हैं या श्री महावीर भगवानकी मूर्ति बनाकर मानना कि यह श्री महावीर
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८४]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा है। इस मूर्तिका सम्मान या अपमान उसीका मन्मान या अपमान समझा जाता है जिसकी वह मूर्ति है।
किसी भी वस्तुमे विना वैसे आकारके किसीका मानना अनादाकार स्थापना है। जैसे भूगोलमे कलकनेक नकामे कलकी को गंगा नदी मान लेना। किसी दूसरी लकीरको रेलगाडीका मार्ग मान लेना। किसी तीसरी लकीरको हरिसन रोड मान लेना । जगतमें इन दोनों प्रकारकी स्थापनाकी जरूरत पड़ती है। मकान बनानेके पहले नकसा खींचना पड़ता है। मृतक प्राणियोंके चित्रों ने उनकी यादगार बनी रहती है।
(३) द्रव्य निक्षेप-जो अवस्था भूतकालमे श्री व भविप्यमें होनेवाली है उसको वर्तमानमे उस पढार्थमे व्यवहार करना मो द्रव्य निक्षेप है । जैसे कोई जज था अब जजी नहीं करता है. पेन्गनपर है. तौभी उसको जज कहना या कोई मॅजिस्ट्रेट होनेवाला तो भी पहलेसे ही उस मजिस्ट्रेट कहना।
(४) भाव निक्षेप-वर्तमान अवस्था जिस पदार्थकी जैसी हो उसको वैसा कहना । जैसे राज्य करते हुएको राजा कहना, वैद्यकका काम करते हुयेको वैद्य कहना।
शिप्य- वास्तवमे ये निक्षेप भी बहुत जरी मालम पडने है । कृपा करके बताइये कि निरंप और नयमे क्या अंतर है।
शिक्षक-नय तो उस ज्ञानको कहते हैं जो पढार्थके एक अंगी स्वरूपको जानता है । निक्षेप उस पदार्थको कहते है जिसको नयमे जाना जाता है। जैसे एवंभूत च नसूत्र नयमे भाव निक्षेपक्षी जानेंगे नैगमनबसे न्यनिक्षेपको जानेंग। समभिल्ढ़ नयसे
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{ ८५ नाम निक्षेपको जानेंगे। नय देखनेवाली है निक्षेप देखने योग्य है।
शिष्य-स्या और कोई वात ऐसी जरूरी है जिससे पढाथोंका व तत्वोका ठीक २ ज्ञान हो।
शिक्षक-नियोमे प्रसिद्ध स्याद्वाद (manysided doctrine) मिद्धात है या सप्तभंगी नय है, उसको जानना जरूरी है।
गिप्य- जरूर समझाइये।
शिक्षक-एक पदार्थमें बहुतसे आपेक्षिक स्वभाव पाए जाते है। जिनमें एक दूसरेका विरोध दीखता है, स्याद्वाद उनको भिन्न २ अपेक्षा (staurlprint ) से ठीक ठीक बता देता है। सर्व विरोध मिट जाता है । म्याद्वादका अर्थ है स्याद्--किमी अपेक्षासे (hou FOut point of view ) बाद--कहना (to des-cribe )। किसी अपेक्षासे किसी बातको जो बतावे यह स्याद्वाद है।
एक मानव पचास वर्षका है। वह अपने भीतर अनेक सम्बन्ध रखता है। वह अपने पिताका पुत्र है। अपने पुत्रका पिता है। अपने चाचाका भतीजा है, अपने मामाका भानजा है। अपने भाईंका भाई है इत्यादि । परन्तु इन सबको एक ही साथ हम शब्दोंसे कह नहीं सक्ते। जब हम एक संबंधको कहते हुए स्यात् शब्द पहले लगा देंगे तो समझनेवाला जानेगा कि इसमें और भी संबंध है।
जैसे हमने कहा स्याद पिता-किसी अपेक्षासे यह पिता है, तब सुननेवाला समझ जायगा कि इसमे और भी सम्बन्ध है।
स्याद पुत्र-किसी अपेक्षाने पुत्र है।
हराएक पदार्थ जगतमे नित्य भी है अनित्य भी है, एक रूप भी है अनेक रूप भी है; भाव रूप भी है अभावरूप भी है।
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विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा । ये तीन जोडे विरोधी स्वभावोंके है तथापि ये भिन्न २ अपक्षामे पाये जाते है, इसमे कोई विरोध नहीं रहता है।
इनमेंसे नित्य, अनित्य इन दो स्वभावोंको पदार्थमे बताते हुए. सात भंग कैसे बनते है उनको हम बताते है। हरएक पदार्थ मन्रूप है. अविनाशी है. इससे तो वह नित्य है। वहीं पढार्थ अवस्थाकी उत्पत्ति व व्ययकी अपेक्षासे अनित्य है। द्रव्यका लक्षण हम पहिले वता चुके है कि जो उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप हो वह द्रव्य है। दूसरे शब्दोंमे जो अनित्य व नित्यरूप हो वह द्रव्य है। यदि ये दोनों स्वभाव एक ही समयमे किसी भी द्रव्यमे न पाए जावे तो उन द्रव्यसे कुछ भी काम नहीं लिया जासक्ता।
हम सुवर्णका दृष्टात लेते है। यदि सुवर्ण नित्य ही हो तो उसमें कोई अवस्था नहीं होसक्ती है। वह सदा एकसा बना रहेगा तव उसको कोई बुद्धिमान न खरीदेगा । क्योंकि उसमे आभूपणकी अवस्था तो वनेगी ही नहीं । यदि सुवर्णको अनित्य ही मानले तौभी उसे कोई खरीदेगा नहीं क्योंकि वह तो क्षणभरमे विलकुल न रहेगा। सो ऐसा सुवर्णका स्वभाव नहीं है । सुवर्ण सुवर्णरूपसे रहता हुआ भी अपनी अवस्थाओंको बदल सक्ता है। सुवर्णकी डलीमे बाली, वाली तोड़कर अंगूठी. अंगूटी तोड़कर कंठी वनजाती है। यदि नित्य अनित्य उभयरूप सुवर्ण न हो तो सुवर्णसे कोई काम नहीं होसक्ता । इसी तरह जीव द्रव्य भी मूल द्रव्यकी अपेक्षा नित्य है परन्तु अवस्थाओंके बदलनेकी अपेक्षा अनित्य है। एक जीव क्रोधी दीख रहा है। वही कुछ काल पीछे शांत होजाता है । उसकी अवस्था पलटी तब भी जिसमे अवस्था पलटी वह द्रव्य तो वहीं है।
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[८७ जो क्रोधी था ही गांत है। जीवमें भी नित्य अनित्य दोनों स्वभावोंको मानना होगा तब ही वह संसारीसे सिद्ध होसकेगा । अवस्था बदलेगी परन्तु जीव वही संसारी था, वही सिद्ध होजाता है। किसी शिप्यको समझानेके लिये उसको सात तरहसे समझाएंगे
१-स्यात् नित्यं-किसी अपेक्षासे अर्थात मूल द्रव्यकी अपेक्षामे पदार्थ नित्य है।
२-स्यात् अनित्य-किसी अपेक्षासे अर्थात् अवस्थाके बदलंनकी अपेक्षासे पदार्थ अनित्य है।
३-स्यात अवक्तव्यं-किमी अपेक्षासे पदार्थ बचनसे एक साथ नहीं कहने योग्य है । पदार्थमे नित्य अनिल्य दो स्वभाव एक ही. समय हे परन्तु हम अपने मुखसे एकके पीछे दूसरा कहेंगे, एक साथ दोनोंको एक ही समय नहीं कह सक्ते, इसलिये वस्तु अवक्तव्य भी है।
तीन स्वभावोंसे सात भंग बन जाते है। जैसे हमारे पास लाल, पीला, काला रंग हो इनके भेद सात ही बनेंगे कम व अधिक नहीं। वे इस तरहपर (२) लाल (२) पीला (३) काला (४) लाल पीला (५) लाल काला (६) पीला काला (७) लाल पीला काला । इसी तरह ऊपर कहे तीन स्वभावोंके सात भंग बनेंगे। तीन तो अलग २ कह चुके हैं, चार इस प्रकार होंगे---
(४) स्यात् नित्यं अनित्यं यदि दोनों धर्मोको हम बतावें तो एसा कहेंगे कि दोनोंको कहनेकी अपेक्षासे द्रव्य नित्य भी है अनित्य भी है।
(५) स्यात् नित्यं अवक्तव्य च-किसी अपेक्षासे द्रव्य नित्य भी है अवक्तव्य भी है। यदि एक समयमें दोनों स्वभावोंको कहें
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विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा। तो वस्तु अवक्तव्य है तथापि मूलद्रव्यकी अपेक्षा नो नित्य अवश्य है।
(६) स्यात अनित्यं अवक्तव्यं च-किनी अपक्षासे द्रव्य अनित्य भी है अवक्तव्य भी है। यदि एक समयमे दोनों स्वभावोंको कहने लगे तो वस्तु अवक्तव्य है तथापि अबम्धारे बदलनेकी अपेक्षा वस्तु अनित्य अवश्य है।
(७) स्यात् नित्यं अनित्यं अवतन्यं च-किसी अपेक्षाने वस्तु नित्य भी है अनित्य भी है और अवक्तव्य भी है। यदि दानों स्वभावोंको एक साथ कहना चाहे तो वस्नु अवक्तव्य है। यदि क्रममे कहेंग नो वह नित्य भी है अनित्य भी है। इस तरह सात मंगामे नित्य अनित्य म्वभावोंका पाया जाना एकही समयमे सिद्ध किया गया।
वस्तु अनेक गुण व पर्यायांका पिंड है इसलिये एक रूप है। भिन्न २ गुणोंकी व पर्यायोंकी अपेक्षा ग्रही अनेक रूप है। एक आमका फल है वह एक पिंडकी अपेक्षा एक रूप है तब ही सर्गकी अपेक्षा पाल्प रसकी अपेक्षा ग्मरूप गंधकी अपेक्षा गंधरूप वर्णकी अपना वर्णम्प है। इसलिये आम अनेकम्प है। ये दोनों ही स्वभाव आममे एक ही समयमे है। इन दोनों स्वभावको समझानेके लिये -भी मात भंग ऊपर प्रमाण बनेंगे।
(१) स्यात् एकं (२) स्यात् अनेक (३) स्यात् अवक्तव्यं (2) स्यात् एकं अनेकं (५) स्यात् एकं अवक्तव्यं च (६) स्यात् अनेकं अवक्तव्यं च (७) म्यात् एकं अनेक अवक्तव्यं च ।। ___पदार्थ अपने स्वरूपकी अपेक्षा भावरूप है तब ही परके स्वपकी अपेक्षा अभावल्प है । एक रामचंद्र मनुप्य है उसमे रामचन्द्रका स्वरूप नो है परन्तु उसमे उसके सिवाय अन्य पदार्थोका
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[८९ स्वरूप नहीं है वह रामचंद्र है, लक्ष्मणसिह नहीं है दुर्गासिह नहीं है। चौकी नहीं है । कुरसी नहीं है, आकाश नहीं है। इसलिये पदार्थ भाव अभाव दोनों रूप है। जीवमें जीवपना है पुद्गलपना नहीं, आकागपना नहीं; पुद्गलमें पुद्गलपना है जीवपना नहीं, आकागपना नहीं । इन भाव अभाव म्वभावोंके भी नीचे प्रमाण सात भंग होंगे
(१) स्यात् भाव (२) स्यात् अभाव (३) म्यात् अवक्तव्य. (४) स्यात् भावः अभाव (५) स्यात् भाव. अवक्तव्यः (६) स्यात् अभाव. अवक्तव्य. (७) स्यात् भाव. अभाव अवक्तव्यः । ___ यह संसारी आत्मा शुद्ध भी है अशुद्ध भी है। यदि मूल स्वभावकी अपक्षासे विचार किया जाये तब तो यह शुद्ध है, किन्तु कर्मोके बंध व रागद्वेषादि भावांकी अपेक्षा विचार किया जाय तो यह अशुद्ध है। यदि एकातमे एक ही बात माने तो कभी भी जीव शुद्ध नहीं होसक्ता। यह वात हम पहले भी मैले कपडाका दृष्टात देकर बता चुके है। इसीको सात भंगरूप कहेंगे जिसमे गिप्य समझ जावे ।
(१) स्यात् शुद्धः (२) रयात् अशुद्ध. (३) स्यात् अवक्तव्यः (४) रयात् शुद्ध अशुद्धः (५) स्थात् शुद्धः अवक्तव्य. (६) स्यात् अशुद्ध अवक्तव्यः (७) स्यात् शुद्ध अशुद्ध. अवक्तव्यः ।
शिप्य-बहुत ही बढ़िया तरीका है। मैने एक दफे किसी अपने सहपाठीको कहते सुना था कि शंकराचार्यने जैनियोंके स्याद्वादका खूब खंडन किया है।
शिक्षक-मैं समझता हूं कि शंकराचार्यजीने या तो अच्छी तरह समझनेका उद्यम न किया होगा या उस समयकी पद्धतिके अनुसार जानबूझकर दोष बताया होगा। क्योंकि उस समयमे जैनोंके साथ
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विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा
९०] अन्य मनोंका बहुत कुछ वैमनस्य था। एक दूसरेका खंडन किया जाता था। आजकलके अजैन विद्वानाने स्याद्वादको समझकर इसकी बहुत प्रशंसा लिखी है। मै कुछ मत ऐसे विद्वानोक बताता हूं। डाक्टर भंडारकर बम्बई कहते है
There are two ways of looking at things--one called Dravyarthiānaya and the other Paryayarthanaya The production of a jar is the production of something, not pre viously existing, if we take the latter point of view, 1 e as Paryaya or modification, rhile it is not the production of something not previously existing, when we look at it from the former point of vier, L. e as a Drarya or substance.
So then soul becomes through his merits or dements, a god, a man or a denizen of hell, from the first point of wew, the being is the same, but from the second he is not the same, i e, different in each case So that you can confirm or deny something of a thing at one and the same time,
This Leads to the celebrated Sapta Bhangi Naya or the seven modes of assertion.
You can confirm existence of a thing from one point of Few (Syad Asti), deny it from another (Syad Nasli, and affirm both existence and non-existence wih' reference to it at different times (Sayd Astinasti , If you should think of affirming both exstence and non-existence at the same time from the same point of view, you must say that thing can not be spoken of (Syad Araltarya) .. It is not mesnt by these modes as there is no certainty or that ye have to deal with probabilities only, as some scholars have thought. All that is implied is that erery assertion which is true is true only under certain conditions of space, time etc
भावाथ-पदार्थोके विचार करनेके दो मार्ग है-एक द्रव्यार्थिक नय, दूसग पर्यायार्थिक नय । जैसे मिट्टीका घड़ा बना, तक,
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[९१ जो पहले न था सो चना ऐसा कहेंगे। यह बात हम पर्याय या अवस्थाकी अपेक्षा कहेंगे। तथा जब हम उसे द्रव्य दृष्टि से विचारेंगे तो कहेंगे कि यह पहले न था सो नहीं है किन्तु वही मिट्टी है। इसी तरह जब कोई जीव अपने पुण्य, पापके कारण देव, मनुष्य, या नारकी होता है तब द्रव्यकी दृष्टिसे वही है कितु पर्यायकी दृष्टिसे भिन्न भिन्न है । इस तरह आप एक ही समयमें किसी वस्तुमें विधि निषेध सिद्ध करसक्ते है। इसीको समझानेके लिये सप्तभंगी नय है या कहनेके सात मार्ग है । आप किसी अपेक्षासे किसी वस्तुकी सत्ता कह सकते है, यह स्यादस्ति है। विधि निषेध दोनों क्रमसे कह सकते हो यह स्यादस्तिनास्ति है। यदि दोनों अस्ति नास्तिको एक साथ एक समयमे कहना चाहो तो नहीं कह सक्ते हो यह स्यादवक्तव्य है. । इन भंगोके कहनेका मतलब यह नहीं है कि इनमें निश्चिति नहीं है या हम मात्र संभवित कल्पनाएं करते है, जैसा कुछ विद्वानोंने समझा है।
इस सबका यह प्रयोजन है कि जो कुछ कहा जाता है वह किसी द्रव्य, क्षेत्र, कालादिकी अपेक्षासे सत्य है। (देखो जैनधर्मकी माहिती हीराचंद नेमचंदकृत छपी १९११ पृष्ठ ५९)
(२) जर्मनीके विद्वान तत्वज्ञानी डाक्टर हर्मन जैकोबी साहब कहते है "इस स्याद्वादसे सर्व सत्य विचारोंका द्वार खुल जाता है।" (देखो जैनदर्शन गुजराती जैनपत्र भावनगर सं० १९७० पृष्ठ १३३).
(३) प्रोफेसर फणिभूषण अधिकारी एम०ए० हिन्दू विश्वविद्यालय वनारस अपने ता० २६ अप्रैल १९२५के भाषणमे कहते है
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९२]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। It is this intellectual attitude of impartiality, without which no scientific or philosophical researches can be successful, is that Syadvad stands for
Even learned Shankaracharya is not free from the charge of injustice that he lias done to the doctrine It emphasis the fact that no single vict of the universe or of any part of it would be complete by itself
There will always remain the possiblities of viewing it from other stand-points
भावार्थ-स्याबाट एक निष्पक्ष बुद्धिवाद है। इसके विना कोई वैज्ञानिक या सैद्धातिक खोजे पूर्ण नहीं होसक्ती हे । विद्वान शंकराचार्य भी उस अन्यायके दोपसे मुक्त नहीं है जो उन्होंने दम सिद्धातके साथ किया है। यह स्याद्वान इस बातपर जोर देता है कि विश्वकी या इसके किमी भागकी एक ही दृष्टि अपनेसे पूर्ण नहीं है। उस पदार्थमे दूसरी अपेक्षाओसे देखनेकी संभावनाग सदा रहेगी।
(४) श्रीयुत एस० राधाकृष्णन प्रोफेसर करकत्ता यूनिवर्सिटी अपनी पुस्तक Indinu pilosoplay vol 1 मे लिखते है
___It is a logical corollary of the anekantavada, the doctrine of the manyness of reality (P. 304)
भावार्थ-यह न्याययुक्त सिद्धात अनेकातवाढका है, जिससे बहुतसे मत्योंका ज्ञान होता है ।
शिप्य-मैने अपने किसी मित्रसे कभी सुना था कि जैनियोंने इस स्याद्वादके सिद्धातको दूसरे मतोके खण्डन करनेके लिये बना लिया है । यह कोई असली पुराना सिद्धात नहीं है ।
शिक्षक-आपके मित्रकी समझ ठीक नहीं है । यह स्याद्वाद
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[९३ तुका स्वरूप है। यह तो जैन - . 'ना' है !* इसीको अनेकातवाढ कहते है । यह सिद्धांत ही हमको अपने जीव द्रव्यका सच्चा ज्ञान कगता है । हमारे जीवमे हमारे जीवपनेका भाव है उसी समय गरे जीव सिवाय अन्य सबका मेरेमे अभाव है । मेरा जीव अपने शुद्ध द्रव्यरूप व गुणरूप आप अकेला है। इसमें दुसरे कोई जीव नहीं है न इसमे पुद्गल आदि कोई पाच द्रव्य अजीव है । न इसमे राग, द्वेषादि है । इन सबका जीवमे अभाव है। मेरा जीव भावरूप भी है, अभावरूप भी है । इसीके सात भंग बन जायंगे।
आत्माके आनंदका भोग करनेके लिये आत्माके शुद्ध स्वरूपका सञ्चा ज्ञान होना उचित है । वह भाव अभावरूप स्वभावो व धर्मोके ज्ञानसे ही होगा। हरएक वस्तु नित्य अनित्य दोनों रूप है यह हम आपको बता चुके है। इन्हीं वस्तु-स्वभावोंको समझानेवाला स्याद्वाद है। इसका संकेत संवत विक्रम इक्यासी ८१मे प्रसिद्ध श्री उमास्वामी महाराजने तत्वार्थसूत्रमे इस सूत्रसे किया है" अर्पितानर्पितसिद्धेः" अर्थात् जब नित्य व अनित्य दोनो स्वभाव
व्यमे हों और उनको सिद्ध करके बताना हो तब एकको मुख्य करके समझाओ तब दूसरेको गौण करदो।
शिष्य-मैं समझ गया। अच्छा अब कल हाजिर होऊंगा। 'परमागमस्य बीज निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधान | सकलनयविलसिताना विरोधमयन नमाम्यनेकान्तम् ॥ २ ॥
भा०-यह अनेकात परमागमका बीज है, एक २ अंगको हाथी माननेवालोंके विरोधको मेटनेवाला है, सर्व अपेक्षाओंके परस्पर अनमेलको हटानेवाला है। इसको नमस्कार हो ।
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.
.९४]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। पाँचवा अध्याय ।
जीव तत्व । __शिष्य-जीवतत्वके सम्बन्धमें कुछ और जरूरी बाते हों तो बताइये ।
शिक्षक-जीवोंके प्राण पाए जाते है जिनसे ये जीते थे, जीते है, व जीते रहेंगे निश्चयनयसे या मूलद्रव्यके स्वभावमे तो इस जीवका एक चेतना (consciousness) प्राण है तो कभी छूटनेवाला नहीं है। व्यवहारनयसे संसारी जीवके मूल चार प्राण पाए जाते है-इंद्रिय. बल, आयु, श्वासोश्वास जिनके द्वारा हम स्पर्श रस गंध वर्ण शब्द जान सकें उनको इद्रिय कहते है वे पाच हैस्पर्शन इंद्रिय, रसना इंद्रिय, घ्राण इंद्रिय, चक्षु इंद्रिय, कर्ण इंद्रिय ।
जिनसे हम शक्तिपूर्वक कुछ काम कर सकें उसको बल कहने है वे तीन प्रकार है-कायवल जिससे चलते, उठते, उठाते. धरते है । वचनवल जिससे जब्द निकालते या बात करते । मनवल जिससे हित अहितका ब कारण कार्यका विचार करते है। जिसके असरसे हम एक स्थूल शरीरमे बने रहते है वह आयु है। जिससे हमारे शरीरमे रक्त आदिका संचार होता है ऐसी हवाको लेना व निकालना सो श्वासोछ्वास है। इन चार प्राणों (Vitalities ) के दश भेद होजाते है। ___ संसारी जीवोंके मूल दो भेद है-स्थावर, त्रस । एक स्पर्शन इन्द्रियके द्वारा स्पर्शको जाननेवाले स्थावर होते है। वे पाच प्रकारके हे
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जीव तत्व।
[९५ १-पृथ्वीकायिक-जीव सहित पृथ्वी-जैसे खेतकी वखानकी। २-जलकाविक-जीव सहित जल-जैसे कूपका, नदीका । ३-अग्निकायिक-जीव सहित आग-जैसे अग्निकी लौ। ४-वायुकायिक-जीव सहित पवन-जैसे ठंडी समुद्रकी हवा ।
५-वनस्पतिकायिक-जीवसहित वृक्ष, फूल, फल, शाखा, पत्ते आदि।
इन पाच तरहके एकेन्द्रिय जीवोंके चार प्राण होने है। स्पर्शन इन्द्रिय, कायबल, आयु, श्वासोछ्वास ।
दो इन्द्रिय जीवसे लेकर पांच इन्द्रिय तक जीवोंको त्रम कहने हैं । त्रसोंके पांच भेद नीचे प्रकार होंगे
(१) द्वेन्द्रिय जीव-जिनके स्पर्शन और रसना ऐसी दो इंद्रिया पाई जाती है । जैसे-लट, शंख, सीप, केचुआ आदि । इनके छः 'प्राण पाए जाते है।
स्पर्गन इंद्रिय, रसना इंद्रिय, काय बल, वचन बल, आयु, श्वासोश्वास ।
शिष्य-इनके वचन बल होता है तो क्या ये शब्द करने हे?
शिक्षक-जिनके बल होता है उनके शब्द करनेकी शक्ति होती है। कोई २ वोलते मालूम पडने है जैसे समुद्रके शंख व सीप ।
(२) तेन्द्रिय जीव-जिनके स्पर्शन, रसना, घ्राण तीन इंद्रियें होती है जैसे चींटी, खटमल, जं, विच्छू, कुंथु आदि ।
इनके सात प्राण होते है। तीन इन्द्रिय, काय बल, वचन बल, आयु, शासोछ्वास।
(३) चौन्द्रिय जीव-जिनके स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु चार
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विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा इन्द्रियें होती है जैसे-मच्छर, मक्खी, भौरा, भिंड, आदि इनके आठ प्राण होते है-चार इन्द्रिय, दो बल आयु, श्वासोझ्वाम ।
(४) पंचेन्द्रिय जीव असैनी (मन विना) जिनसे पाची इन्द्रियें होती है कान भी होते है जैसे कोई २ पानीमे उपजनेवाले साप । इनके मन बल विना नौ प्राण होत हे।
(५) पचेन्द्रिय सैनी-(मनसहित) जिसमे पाचो इन्द्रिय मन सहित होती है ऐसे जीव तिर्यच गतिमे तीन प्रकारके होने है
(१) थलचर-जैसे हिरण, गाय, भैंस बकरी, सिह, कुत्ता. बिल्ली, घोडा, हाथी, ऊंट आदि ।
(२) जलचर-जैसे मगरमच्छ. मच्छ, कच्छय, मछली आदि।
(३) नभचर जैसे कबूतर, मार, मुरगा, तोता, मैना, तीतर. काक, चील आदि ।
मनुष्य गतिमे सर्व ही मानव, नरकगतिमे सर्व नारकी. देव गतिमे सर्व देव । इन सबके दश प्राण होते है।
शिप्य-मन किसको कहते है ?
शिक्षक-एक कमलके आकार सूक्ष्म चिह्न पुगलोंका बना हुआ हृदयमे होता है इसके बलसे कारण कार्यका तर्क बुद्धि के साथ विचार किया जाता है।
शिष्य-इन प्राणाके जाननेका क्या प्रयोजन है ।।
शिक्षक-हिसा तथा अहिंसाको समझनेके लिये इनका जानना जरूरी है। आपको हम बता चुके है कि जीव स्वभावाने अविकारी है उसका मरण नहीं होता। शरीर तो जड ही है। इसीलिये प्राणोकी हिसाको हिसा कहते है। प्राणोकी रक्षाको अहिंसा या दया कहते
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जीव तल।
[९७ है। हरएक प्राणीके पास जितने प्राण है वे उसके लिये बड़े कामकी, चीजें है। इन हीके द्वारा वे प्राणी इस स्थल उरी में रहते हए अपना अपना काम करते है। यदि हम उनको मार डालेंगे, हमने उनके प्राणोंको नाशकर उनके काममें विघ्न डाला यही अराध किया।
जितने अधिक व जितने मूल्यवान प्राणोंका घात किया जायगा व उनके विगाड़से प्राणीको कष्ट दिया जायगा उतना ही अधिक अपगध होगा। जितने कम व कम मूल्यवान प्राणोंका घात किया जायगा व उनके विगाड़से प्राणीको कष्ट दिया जायगा उतना ही कम अपराध होगा। सबसे कम अपराध स्थावरोंके घातका है, उससे बहुत अधिक द्वेन्द्रियोंके घातका, उससे बहुत अधिक नेन्द्रियों के घातका, उसमे बहुत अधिक चौन्द्रियोंके घातका, उससे बहुत अधिक पंचेंद्रिय असैनीके घातका, उससे बहुत अधिक पंवेन्द्रियसैनीके घातका, उनमें पशुके घातसे मानवके घतका अधिक पाप, मानवोंमें भी साधुके घातका. परोपकारीके घातका साधारण मानवकी अपेक्षा अधिक दोष है। पशुओंमें भी इसी तरह उपयोगिताके विचारसे कम व अधिक अपराध है। इसीलिये यह उपदेश है कि दयावान प्राणीको दया तो सबपर रखना चाहिये। अपने जरूरी कामोंके लिये जितनी कम हिसासे काम चले वैसा बर्ताव करना चाहिये । स्थावरोंके भीतर दो प्रकारके भेद हैं-सूक्ष्म तथा बादर । त्रस सब बादर होते है ।
जो किसी भी इन्द्रियसे न मालूम पडे व जो इतने महीन हों कि बादरोंसे उनका घात न हो न वे परस्पर घात कर सके उनको सूक्ष्म स्थावर कहते हैं। ऐसे पांचों तरहके स्थावर सर्व लोकमे भरे
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विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। है। वादर रुक भी जात हे व घाते भी जान है व परम्पर भी वे घात करते है।
इस तरह आपको यह मालम होना चाहिये कि इस सर्व लोकमे सात तरहके संसारी जीव हे-एकेन्द्रिय सक्षम, एकेन्द्रिय बादर, द्वेन्द्रिय, तेन्द्रिय, चौन्द्रिय, पंचेंद्रिय अपैनी, पचेन्द्रिय सैनी । इनके भीतर दो २ भेद होते हे-पर्याप्त developable अपर्याप्त pon-developable
शिष्य-पर्याप्त अपर्याप्तको समझा दीजिये ।
शिक्षक-पर्याप्त उनको कहते है जो गरीरादि बननेकी शक्तिको पूर्ण करते है। अपर्याप्त उनको कहते है जो शरीरादि बननेकी शक्तिको विना पूर्ण किये ही एक श्वासके अठारहवें भाग समयमे अवश्य मरजाते है। यहा श्वास एक तन्दुरुस्त मानवकी नाडी चलनेको कहते है। ४८ मिनट या एक मुहूतेमें ऐसे ३७७३ श्वास होते है। जब कोई जीव कहीं जन्मता है तब जो पुद्गल स्थूल शरीरके बननेके लिये ग्रहण करता है उनमें शरीरादि बननेकी शक्ति पडती है। जैसे बीज खेतमे डालनेपर जो बीज जम जाता है उसमे वृक्ष होनेकी शक्ति बन गई ऐसा मानना होगा। ऐसी पर्याप्तिया छ• होती है-आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोछवास, भाषा व मन । एकेन्द्रियोंके पहली चार. द्वेन्द्रियसे पंचेन्द्रिय असैनीतक भाषाको लेकर पाच, सैनी पंचेन्द्रियोंके छहों पर्याप्ति होती है। जो पुद्गल शरीर बननेके लिये लेता है उसको स्थूल व तरलरूप करनेकी शक्तिकी प्राप्तिको आहारपर्याप्ति कहते है, इसी तरह और पाचोंको भी समझ लेना चाहिये। जैसे शरीररूप करनेकी शक्तिकी प्राप्ति शरीरपर्याप्ति है।
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जीव तत्व।
[९९ सातों प्रकारके प्राणी यातो पर्याप्त होते है या अपर्याप्त। बहुतसे पापी प्राणी जन्मते ही मर जाते है। यदि हम जगतके सर्व प्राणियोंके भिन्नर समूह करें तो चौदह होंगे। अर्थात् चौदह जगह , उनको बांटकर ढेर कर सकेंगे । इन समूहोंको जैन सिद्धातमें चौदह जीव समास (Soul classes) कहते है। क्या आप चौदह समूहोंके नाम लेसकेंगे?
शिष्य-मैं समझ गया, चौदह जीव समास इस तरह कहेंगे१-एकेन्द्रिय सूक्ष्म अपर्याप्त, २-एकेन्द्रिय सूक्ष्म पर्याप्त, ३-एकेन्द्रिय बादर अपर्याप्त, ४-एकेद्रिय बादर पर्याप्त, ५-द्वेद्रिय अप
र्याप्त, ६-द्वेद्रिय पर्याप्त, ७-तेंद्रिय अपर्याप्त, ८-तेंद्रिय पर्याप्त, ९-चौंद्रिय अपर्याप्त, १०-चौद्रिय पर्याप्त, ११-पंचेद्रिय असैनी , अपर्याप्त, १२-पंचेंद्रिय असैनी पर्याप्त, १३-पंचेद्रिय सैनी अपर्याप्त, , १४-पंचेद्रियसैनी पर्याप्त ।
शिष्य-जीव तत्वके सम्बन्धमे और कोई जरूरी बात है ?
शिक्षक-जीव सब अपनी उन्नति व अवनति के लिये आप ही स्वतंत्र है। ये जीव आप ही पाप पुण्यकर्म बाधते है व आप ही उनका फल सुख दुःख भोगते है। ये स्वयं कर्ता है व स्वयं भोक्ता हैं। निश्चयनयसे ये जीव अपने शुद्ध भावोंके करनेवाले है व अपने शुद्ध आत्मीक आनन्दके भोगनेवाले हैं परन्तु कर्मसहित अवस्थामें अशुद्ध निश्चयनयसे ये जीव रागद्वेषादि भावोंके कर्ता है व मैं सुखी व मैं दुःखी इस भावके भोक्ता हैं; क्योंकि ये भाव ज्ञान शक्तिधारी जीवके ही हैं। ये भाव स्वाभाविक नहीं है, अशुद्ध हैं, इसलिये अशुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षासे ये जीवके हैं। शुद्ध निश्चयनयसे ये जीवके
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१००]
विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा। नहीं है, क्योंकि यदि जीवके स्वभावका विचार करें तो ये भाव नहीं मिलेंगे।
व्यवहार नयसे यह जीव कर्मोको बाधनेवाले व घटपट मकानादिके करनेवाले है व कर्मोके फलको भोगनेवाले है। निश्चयसे जीव अपने भावोंके ही करनेवाले है। क्योंकि उन भावोंके निमित्तसे कर्म आप ही बंध जाते है या हाथ पैर आदि चलकर घटपट मकानादि बन जाते हैं इसलिये व्यवहारसे कर्ता कहलाते है । या जीव निश्चयसे अपने भावोंको ही भोगते है क्योंकि सुख या दुखरूप भाव कर्मोके फलसे या बाहरी कारणसे होता है। इसलिये व्यवहार नयसे ही जीव इनके भोक्ता है ऐसा कहनेमें आता है ।
जीवोंकी उन्नति करनेके लिये चौदह श्रेणियां है इनको गुणस्थान (epiritual stages) कहते है । इन श्रेणियोंको पार करके जीव परमात्मा होता है।
शिष्य--क्या आप इनको नहीं समझाएंगे ?
शिक्षक--यदि आप ध्यान देके सुनेंगे तो हम जरूर बताएंगे। क्योंकि इनका जानना बहुत जरूरी है, ये हमारी उन्नतिके मार्ग है।
शिष्य--मैं आपके वचनोंपर बहुत ध्यान देरहा हूं, आप अवश्य बतावें।
शिक्षक--पहले इनके नाम समझ लो व लिखलो--१--मिथ्यात्व गुणस्थान, २--सासादन गु०, ३--मिश्र गु०, ४--अविरत सम्यग्दृष्टि गु०, ५-देशविरत, ६-प्रमत्तविरत, ७--अप्रमत्तविरत, ८-- अपूर्वकरण, ९.-अनिवृत्तिकरण, १०--सूक्ष्मसापराय, ११--उपशात
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जीव तत्व।
[१०१ मोह, १२ -क्षीणमोह, १३--सयोगकेवली, १४--अयोगकेवली !*
मानव जीवनकी उन्नतिकी तीन अवस्थाएं होती हैं--१--गृहस्थ, २. साधु, ३--अरहंत (पूज्य)।
इन चौदह गुणस्थानों से पहलेसे लेकर देशविरत गुणस्थान तक अर्थात पांच गुणस्थान गृहोंके होते है। प्रमत्तविरत छठेसे लेकर क्षीणमोह बारहवें गुणस्थानतक सात गुणस्थान साधुओंके होते है। दो अंतके गुणस्थान अर्हतोंके होते है। इन गुणस्थानोंका सम्बन्ध मोहनीयकर्म तथा योगोंसे है। मोह और मन, वचन, कायके योग ही संसारके मूल है। जितना जितना मोहका असर घटता जाता है उतना उतना गुणस्थानका दरजा बढ़ता जाता है। जब ये दोनों मोह
और योग बिलकुल नहीं रहते है तब आत्मा परमात्मा, मुक्त मा सिद्ध होजाता है । मोहनीय कर्म आठी कोंमें बडा ही बलवान है, इस कर्मके अट्ठाइस (२८) भेद समझनेकी जरूरत है, आप लिखलें।
शिप्य-आप कहिये मै बराबर लिखता जारहा हूं।
शिक्षक-मोहनीय कर्मके मूल दो भेद हे-(१) दर्शन मोहनीय जो आत्माके सम्यग्दर्शन गुणको या आत्म प्रतीतिको बिगाडे । (२) चारित्र मोहनीय जो आत्माके गांत भावको या वीतरागता रूप चारित्र गुणको विगाड़े।
दर्शन मोहनीयके तीन भेद है-(१) मिथ्यात्व कर्म । जिसके *-मिध्याहक्सासनो मिश्रो संयतो देशसयतः ।
प्रमत्तइतरोऽपूर्वानिवृत्तिकरणों तथा ॥ १६ ॥ सूक्ष्मोपशातसंक्षीणकषाया योग्ययोगिनौ । गुणस्थानविकल्पाः स्युरितिसर्वे चतुर्दश ॥१७॥२॥त. सार ।
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विद्यार्थी जैन धम शिक्षा। उदय या असरसे सच्चा श्रद्धान बिलकुल न हो। (२) सम्यक्त मिथ्यात्व कर्म-जिसके उदयसे सच्चा झूठा मिला हुआ मिश्र श्रद्धान 'हो जैसे दही गुडका मिला स्वाद आवे । सम्यक्त कर्म-जिसके उदयसे सन्यग्दर्शन या सच्चे विश्वासमें कुछ मल या दोष लगे-निर्मल सम्यक्त न हो। चारित्र मोहनीयके पच्चीस भेद हे-सोलह कपाय और नौ नोकपाय या ईषत् कपाय या हलके कपाय।।
४-अनंतानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ जो मिथ्यात्वको मदद दे, जिसके उदयसे सम्यग्दर्शन और स्वरूपाचरणचारित्र (आत्मलीनतारूप भाव) न हो ।
४-अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ । जिसके उदयसे अप्रत्याख्यान अर्थात् थोडा त्याग या श्रावकके व्रत न होसकें--जो देशविरतको रोके ।
४--प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ । जिसके उदयसे पूर्णत्याग या मुनिके व्रत न होसकें, जो मुनिके महाव्रतोंको रोकें।
४--संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ । जिसके उदयसे यथाख्यात चारित्र या पूर्ण वीतरागता न हो। जो यथार्थ व नमूनेदार चारित्रको रोकें।
९.नोकषाय--हास्य, रति. अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुवेद, नपुंसकवेद (तीन प्रकारका कामभाव)।
इसप्रकार २५ कषाय हुए। - ऊपरके कथनसे आपने जाना होगा कि क्रोध, मान, माया, लोम चार चार प्रकारका होता है। अर्थात अनं० क्रोध, अप्र० क्रोध, प्रत्या० क्रोध, संज्व० क्रोध । इत्यादि।
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जीव तत्व।
चार प्रकारके क्रोधके दृष्टांत है--१.-पत्थरकी रेखाके समान बहुत कालमें मिटे, २. पृथ्वीकी रेखाके समान कुछ कालमें मिटे, ३--धूलमें रेखाके ममान जल्दी मिटे, ४--जलमें रेखाके समान तुर्न मिटे।
चार प्रकार मानके दृष्टात है--१.-पत्थरके खंभेके समान जो न नमें, २-हड्डीके समान कठिनतासे नमे, ३. काठके समान जल्दी नमे. ४..वेतके समान तुर्त नम जावे।
चार प्रकार मायाके दृष्टात है..१ वांसकी जडके समान टेढापन, निसका सीधा होना कठिन हो । २--मेढ़ेके सींगके समान कठिनतासे सीधा हो । ३ -गोमूत्रके समान टंढापन जल्दी मिटे । ४--खुरवेके समान तुर्त मिटे।
चार प्रकार लोभके दृष्टांत है १ मिर्च के रंग समान न मिटनेवाला। २. रथके पहियेके रंग समान कठिनतासे मिटे । ३.-शरीरके मलके समान जल्दी मिटे । ४. हल्दीके रंगके समान तुर्न उड़ जाय।
अब आप गुणस्थानोका स्वरूप जल्दी समझ जायेंगे ।
१-मिथ्यात्व गुणस्थान-जिस दरजेमे रहते हुए जीवको अपने आत्माका विश्वास न हो कि यह असलमें परमात्माके समान शुद्ध है । इसका स्वभाव ज्ञातादृष्टा अविनाशी वीतराग व परमानंद मय है। न आत्मीक आनंदकी श्रद्धा हो। इन्द्रिय सुखको ही सुख जाने। सच्चे देव, शास्त्र, गुरु व धर्मपर व सात तत्वोपर श्रद्धान न हो। इस दरजेमें मिथ्यात्व कर्म और चार अनंतानुबन्धी कपायका उदय रहता है | सर्व संसारी प्राणी इसी दरजेमें पड़े हैं।
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१०४]
विद्यार्थी जनधर्म शिक्षा। इस श्रेणीवाला मन सहित पंचेंद्रिय जब गुरु व शास्त्र द्वारा सात तत्वोंपर विश्वास लाता है-आत्माको यथार्थ जानता है, बारवार आत्माका मनन करता है तब इसके ये पाचों ही कर्म मिथ्यात्व
और अनतानुबंधी कपाय उपशम होजाने है. अंतर्महर्नके लिये दब जाते हे तब उपशम सम्यग्दर्शन पैदा होजाता है । ४८ मिनटमे कमको अतर्मुहूर्त कहने हे । तब पहले गुणस्थानसे इकटम चौथ अविरत सम्यग्दर्शनमे आजाता है । यहा आकर मिथ्यात्व कर्मके तीन विभाग होजाते है। मिथ्यात्व, सम्यक्तमिथ्यात्व या मिश्र और सम्यक्त प्रकृति कर्म । अतर्मुहर्त पीछे यदि अनतानुबंधी कपायका उदय आजाता है तो दूसरे गणस्थानमे गिर पडता है। यदि मिश्रका उदय आजाता है तो चौथेसे तीसरेमें आजाता है। यदि तीसरे सम्यक्त कर्मका उदय होजाता है तो उपशममे क्षयोपशम नम्यदर्शन होजाता है। जो कुछ मलीन होता है तब गुणस्थान चौथा ही बना रहता है।
२--सासादन--यह गुणस्थान चौथेने गिरकरके ही बहुत थोडे कालके लिये होता है। जैसे वृक्षसे फल भृमिपर गिरे। वीचमें बहुत थोडा काल लगता है। जिसको आंधकामे अधिक छ आवली कहते है। यहांसे तुर्त नियमसे पहले गुणस्थानमे आजाता है। यहा मिथ्यात्वका उदय नहीं होता है किन्तु अनतानुबंधी कपायका उदय होता है। इस दरजेसे कोई ऊपर नहीं चढ़ सक्ता है।
३--मिश्र--यहा मिश्र दर्शनमोहनीयका उदय होता है, अनंतानुबंधी कषायका उदय नहीं होता है। यहा सच्चे झूठे मिले हुए श्रद्धान होते है।
४--अविरत सम्यग्दर्शन--यहा सच्चा तत्वोंका श्रद्धान, सच्चे
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जीव तत्व।
[१०५ देव, गाल, गुरु धर्मका श्रद्धान होता है। यहां आत्माकी सच्ची प्रतीति होती है। इस दरजेमे जीव स्वाधीनताका प्रेमी होजाता है। आत्मीक आनन्दका रोचक होजाता है । संसारका सुख विरस दीखता है । यद्यपि यह अहिंसादि पाच अणुव्रतोंको नहीं स्वीकारता है उससे अविरत है तथापि इसके भावोंमें चार गुण पैदा हो जाने हैं। (१) प्रशम- शांतभाव, (२) मंवेग -धर्मानुराग व संसारसे वैराग, (३) अनुकम्पा--प्राणी मात्रपर ढया, (४) आरितक्य -नास्तिकताका अभाव, परलोकमे श्रद्धा । यहागे मोक्षमार्गका चलनवाला होनाता है। यहांसे धर्मध्यानका प्रारम्भ होजाता है। यहासे तत्वज्ञानी, अंतरात्मा या महात्मा कहाने योग्य होजाता है । यह तत्वज्ञानी सुखदःख पडनेपर समभाव रखता है। स्वार्थ त्याग करके जगतकी मेवा करता है। यह गृहस्थके योग्य सर्व लौकिक काम कर सक्ता है। राज्यप्रबन्ध, मेनाप्रबन्ध, देशरक्षार्थ युद्ध, व्यापार, शिल्पकार्य आदि। देशपरदेश भ्रमणादि। उपगम सम्यग्दर्शनधारी अंतर्मुहर्न व क्षयोपगम सम्यग्दर्शनधारी दीर्घकालतक ठहर सक्ता है । यदि कोई दर्शनमोहनीयके तीनों कर्मोको और चार अनंतानुवधी कपायाको सर्वथा क्षय कर डाले तो वह इस दरजेमें क्षायिक सम्यक्तीधारी होनाता है जो फिर कभी छूटता नहीं, मोक्षावस्थामें भी रहता है। __५ देशविरत--जब श्रावकके एक देश त्यागको रोकनेवाले अप्रत्याख्यानावरण कपार्योंका उपशम होजाता है तब पांचमा दर्जा प्रारम्भ होता है। यहां श्रावकका चारित्र शुरू होजाता है। हिसा, असत्य, चोरी, कुशील, परिग्रह इन पांच पापोंको त्यागकर अहिंसादि पांच अणुव्रत धार लेता है और साधुके चारित्रकी योग्यता बढ़ानेके
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१०६]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। लिये ग्यारह श्रावककी श्रेणियोमे चारित्रको बढाता चला जाता है।
यहा जब आत्मानुभवके अभ्याससे प्रत्याख्यानावरण कपायोंका भी उपशम होजाता है तब यह सर्व परिग्रह त्यागकर माधु होजाता है। ध्यानमें बैठ जाता है तब पाचवेसे सातमा गुणस्थान अप्रमत्तविरत होजाता है। इसका काल अंतहत है। इसके पीछे वह गिरकर प्रमत्तविरत छंट गुणस्थानमे आता है। इसका काल भी अंतर्मुहर्त है। साधु पुन. पुन छठं सातवेमे आवागमन करता रहता है, जबतक आगेके गुणस्थानमे न चढे ।
६--प्रमत्तविरत-यहां मात्र संज्वलन चार कपाय और नौ नोकपायोंका तीव्र उदय रहता है। इस दरजेमे साधुजन आहार, विहार, उपदेश, शास्त्र पठन आदि व्यवहार काम करते है। यदि इन कार्योंके करने में अंतर्मुहूर्तसे अधिक समय लगे तो बीच बीचमें सातमा गुणस्थान कुछ देरके लिये होजाया करता है। चाहे एक मिनट के लिये क्यों न हो। यहांतक कुछ आत्मध्यानमे प्रमाद या आलस्य रहता है। इसलिये इस गुणस्थानको प्रमत्तविरत कहते है । नीचेके पाच पांच गुणस्थानोंमे भी प्रमाद रहता है। नीचे२ अधिक प्रमाद होता है ।
७--अप्रमत्तविरत-यहा प्रमाढ नहीं होता है। ध्यानमम अवस्था रहती है। यहा चार संज्वलन व नौ नोकपायोंका मंद उदय है। यहासे आगे दो श्रेणिया हे -एक उपशम श्रेणी जहा चारित्र मोहनीयको उपशम किया जाता है। दूसरी क्षपक श्रेणी जहा उसका क्षय किया जाता है। उपशम श्रेणीके ८, ९, १०, ११ चार गुणस्थान हैं। क्षपकश्रेणीके ८, ९, १०, १२ चार गुणस्थान है। आठवेसे बारहवें तक हरएक गुणस्थानका काल अंतर्मुहूर्त है। ये सब
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जीव तत्व।
[१०७ ध्यानमय गुणस्थान है। ग्यारहवेसे लौटकर पीछे क्रम क्रमसे नीचे आता है । ग्यारहवेसे वारहवेमे नहीं जासक्ता है।
८.-अपूर्वकरण--यहां उन चार कपाय व नौ नोकपायोंका अतिमंद उदय होजाता है । यहां बड़े निर्मल भाव होते है।
९-अनिवृत्तिकरण-यहां साधुके और भी बड़े शुद्ध भाव हैं। यहा ध्यानके प्रतापसे नौ नोकपाय और क्रोध, मान, माया इन तीन कपायोंको उपशम श्रेणीवाला उपशम कर देता है व क्षपकश्रेणीवाला क्षय कर देता है।
१०-मुक्ष्मसांपराय-यहां साधुके मात्र सूक्ष्म लोभका उदया रहता है।
११-उपशांत मोह-यहां साधका सर्व चारित्र मोहकर्म उपशम होगया है, वीतरागभावमें रहता है |
१२--क्षीणमोह--ग्रहां साधुके सर्व मोहनीयकर्म पूर्णपने नाश होगया है। यथार्थ वीतरागता प्रगट होजाती है। यहां ध्यानके वलसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय कर्मोको नाश करके तेरहवें गुणस्थानमें जाता है।
१३--सयोगकेवली--यहां अहंत परमात्मा होजाता है। चारों घातीय कर्म क्षय होजाते है । अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख, अनंतबल ये चार मुख्य गुण प्रगट होजाते है। इस दशामे अहतका उपदेश व विहार उनकी आयु पर्यंत हुआ करता है। कुछ काल आयुके शेप रहनेपर चौदहवां गुणस्थान होता है।
१४--अयोगकेवली-यहां मन, वचन, कायका कोई हलनचलन नहीं होता है। आयुके अंतमें वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र इन
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१०८]
विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा चारों अघातीय कर्मोका भी नाश होजाता है तब आत्मा बिलकुल शुद्ध होकर जड पुद्गलमे रहित सिद्ध परमात्मा होजाता है। अब कोई शरीर नहीं रहता है ! क्या आप समझ गए ।
शिप्य-मै अच्छी तरह समझ गया. वास्तवमे ये गुणस्थान बडे ही उपयोगी है।
शिक्षक--अब मैं आपको चौदह मार्गणाएं बताता हूं। संसारा जीवोंको जहा तलाश किया जावे व जिन अवस्थाआमे ये पाप जावे उनको मार्गणा ( soul quert ) कहते है।
ये मार्गणाएं चौदह है.-१- गति, २--इन्द्रिय, ३- काय. ४-योग, ५--वेद ६-कषाय,७-ज्ञान, ८ -संयम... दर्गन, १०-- लेश्या, ११. भव्य, १२--सम्यक्त. १३--सैनी, १४..आहारक 17
- गति चार होती हे-नरक, तिर्यच (पशु) मनुष्य, देव । सर्व संसारी जीव इन चार गतियोमेसे किसी एक गतिमे पाए जाने है। वृक्षादि एकेन्द्रियसे चौद्री तक सत्र तिर्यंच गतिमे होते हैं। पंचेंद्रिय चारों ही गतियोंमे होते है।
२--इंद्रिय पाच होती है । स्पर्गन. रसना, प्राण. चक्षु, कर्ण । सर्व ससारी जीव कोई एकेन्द्रियवाले कोई दो इन्द्रियबाले, कोई तीन इन्द्रियवाले, कोई चार इन्द्रियवाले, कोई पाच इन्द्रियवाले मिलेंगे।
३- काय छ. होती है। पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, सकायिक । सर्व एकेद्रिय *-गत्यक्षकाययोगेषु वेदक्रोधादिवित्तिषु, वृत्तदर्शनलेश्यासु भव्यसम्यक्त्वसज्ञिषु । आहारके च जीवाना मार्गणाः स्युश्चतुर्दशः ॥३७१ त. सार।।
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जीव तत्व।
[१०९ जीव पांच स्थावर पृथ्वी आदिमें तथा द्वेन्द्रियमे पंचंद्रिय तक सब, त्रसकायमें मिलेंगे।
४--योग तीन होते है मन, वचन, काय । एकेंद्रियोंके काय योग होता है, द्वेन्द्रियोंसे लेकर असैनी पंचेंद्रिय तक वचन और काय दो योग होते है, पंचेंद्रिय सैनीके तीनों योग होते है।
५-वेद- (कामभाव,--स्त्री वेद, पुरुष वेद, नपुंसक वेद । चार इन्द्रिय तक सबके नपुंसक वेद होता है, पंचेंद्रियोंके सबके तीनों वेद होते है । परन्तु नारकियोंके मात्र नपुंसक वेद होता है । देवोंके स्त्री व पुरुष दो ही वेद होते है।
६-कपाय-चार--क्रोध, मान, माया, लोभ । ये चारों कषाय सर्व संसारी जीवोंके नौमे गुणस्थानतक पाई जाती है। लोभ दसवें गुणस्थानतक रहता है।
७--ज्ञान-आठ-मति, श्रुत, अवधि, मन.पर्यय, केवल, कुमति, कुश्रुत, कुअवधि । सर्व मिथ्यादृष्टि जीवोंके कुमति व कुश्रुतज्ञान दो ज्ञान होते है परन्तु नारकी और देवोंके कुअवधिज्ञान भी मिथ्याष्टि अवस्थामें होता है। सम्यक्ष्टि सर्व जीवोंके मति व श्रुत दो ज्ञान होते है। ऐसे मनुष्य व तिर्यचोंके किन्हींरके अवधिज्ञान भी होता है। देव नारकी सम्यग्दृष्टियोंको भी अवधिज्ञान होता है। साधुओंके मति, श्रुत, अवधि व मनःपर्ययज्ञानतक होते है। अहंतोंके एक केवलज्ञान ही होता है।
८-संयम-सात प्रकार--असंयम, देशसंयम, सामायिक, छेदोपरथापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसापराय, यथाख्यातचारित्र । पहले चार गुणस्थानोंतक असंयम होता है व्रत नहीं होते है। पांचमे गुण
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विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। स्थानमे देशसंयम होता है। छंट सातवेमे साधुओके सामायिक, छेटोपस्थाना. परिहार वि० नीन संयम होने है। आठवे नौमे गुणस्थानोंमे मामायिक व छेटोपस्थापना दो संयम होने है । सामसापराय ढसर्व गुणस्थानमे । फिर ग्यारहसे चौदह गुरू नक यथारख्यान चारित्र होता है।
९. दर्शन--चार । चक्षु, अचक्षु, अवधि, केवल । अचक्षुदर्शन ( आखके सिवाय और इन्द्रियोंसे सामान्य जानना ) यह पाचों इन्द्रियवालोंके होता है । चक्षुदर्शन चौइंद्री और पंचेंद्रियोंके होता है। अवधिदर्शन अवधि ज्ञानियोंके व केवलदर्शन केवलज्ञानियोंके होता है।
१०-लेश्या--छ---कृष्ण, नील. कापोत, पीत, पद्म, शुक्र । संसारी जीवोंकी जो मन वचन कायकी प्रवृत्ति कपाय सहित होती है उसको लेश्या ( thouglt point ) कहते है । पहली तीन अशुभ है । कृष्ण अशुभतम (worst), नील अशुभतर (Forse) कापोत अशुभ ( bad ); तीन शुभ है पीत-शुभ (good ) पद्मशुभतर ( bettri, शुक्ल शुभतम ( test ) इन भावोंके अनुसार पाप पुण्य वंधता है । चौइन्द्री तकके जीवोंके सर्व नारकियोंके तीन अशुभ लेश्याएं होती है। पंचेंद्री असैनीके पीततक चार लेग्याऐं होती है। पंचेंद्रियोंके चौथे गुणस्थान तक छहों लेश्याएं होती है। पांचवेंसे सातवें गुणस्थान तक तीन शुभ लेश्याएं होती है। आठवेंसे तेरहवें तक शुक्ललेल्या होती है । यद्यपि ११,१२,१३ मे गुणस्थानमे कषायें नहीं होती है तथापि मन, वचन, काय योग है इससे शुक्ललेश्या होती है।
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[१११
११--भव्य-दो प्रकार--भव्य, अभव्य। जिनमें आत्मज्ञान प्राप्तिकी योग्यता है वे भव्य जीव हैं। जिनमें सम्यकूदर्शन या आत्मप्रतीति होनेकी योग्यता नहीं है वे अभव्य है।
१२--सम्यकदशन--इस मार्गणाके छः भेद है--उपगम सम्यक्त, क्षायिक सम्यक्त, क्षयोपशम सम्यक्त, मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र । यहां तीन पहले गुणस्थानोंको भी इसलिये लिया गया है कि श्रद्धानकी ये तीन अशुद्ध जातियां है। इन छहोंमेंसे संसारी जीवके कोई न कोई एक वक्त पाया जायगा।
१३-सैनी-दो। सैनी तथा असैनी। मनसहित सैनी है, मनरहित असैनी होते है।
१४--आहारक-दो प्रकार--आहारक, अनाहारक । स्थूल शरीर बनने योग्य पुद्गल । जो ग्रहण करें ये आहारक है, जो न ग्रहण करें वे अनाहारक हैं । जब जीव एक शरारको छोडकर दूसरे शरी
के लिये जाता है तब यह टेढ़ा विदिशाओंमें नहीं जाता है किन्तु सीधा पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, ऊपर, नीच इन छ. दिशाओंके द्वारा जाता है। एक दफे मुडनेमे एक समय, दो दफे मुडनेमें दो, तीन दफे मुड़नेमें तीन समय लगते है । समय इतना सूक्ष्म है कि पलक मारनेमें बहुतसे समय बीत जाते है। कोई जीव कहीं भी जावे उसको तीन समयसे अधिक समय बीचमे न लगेगा। बीचकी अवस्थाको विग्रहगति कहते है। जितने समय बीचमे लगते है उतने समयतक
अनाहारक कहलाता है फिर आहारक होजाता है। यदि कोई किसी स्थानमें विना मोडा लिये सीधा जाता है तो वह अनाहारक नहीं होगा क्योंकि बीचमें कोई समय नहीं लगा। एक कोनेसे दूसरे कोनेमें
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११२ ]
जानेमें बीचमे एक मोडा होगा।
मोडा लगेगा | चौदहवें अयोग गुणस्थानमे भी जीव अनाहारक होताहै । वहा किसी पुद्गल को नही ग्रहण करता है क्योंकि वहा खींचनेवाला योग नहीं है ।
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा
(१) गति - तिर्येच गति । (२) इन्द्रिय-पंचेद्रिय ।
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इस शकलमें अको एक
सर्व संसारी जीवोंके इन चौदह मार्गणाओंमेंसे कोई न कोई मार्गणा अवश्य होती है। जबकि चौदह गुणस्थानोमेंसे एक ही गुणस्थान एक जीवके एक समयमे होता है। जैसे एक मिथ्यादृष्टि कुत्तेके ऊपर विचार करें जो हमारे सामने बैठा हुआ रोटी खारहा है । तो नीचे प्रकार चौदह मार्गणाएं होंगी
(३) काय - त्रस काय |
(४) योग - मन, वचन, काय तीनों योग
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(५) वेद - तीनों संभव है. यद्यपि वह बाहर से पुल्लिंग है परन्तु उसके भावोंमे तीनों प्रकार के भाव होसते है । एक दफे एक प्रकारका कामभाव होगा। नपुंसकवेद दोनोंका मिश्रित कामभाव होता है। (६) कषाय--कोचादि चारो होसक्ती है । एक समयमे एक कोई होगी ।
(७) ज्ञान -- कुमति, कुश्रुत दो ज्ञान है । यह अज्ञानी है। एक समयमे एक ज्ञान होगा |
(८) संयम - असंयम है क्योंकि अहिंसादि व्रत नहीं है ! (९) दशन--अचक्षु, चक्षु दो दर्शन है । एक दफे एक होगा।
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जीव तत्व।
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(१०) लेश्या- छ हो होसक्ती हैं। एक दफे एक होगी। (११) भव्य--भव्य, अभव्य दोमेंसे एक होमक्ता है।
(१२) सम्यक्त-मिथ्यात्व एक प्रकारका शृद्धान है। यदि कभी सम्यक्त होजावे तो क्षायिकके सिवाय पांचों मार्गणाओंमें एक समयमें एक होगी, तब ज्ञान मति, श्रुत, अवधि, कुअवधि चार भी. संभव है।
(१३) सनी-सैनी मनसहित है ।
(१४ आहारक-आहारक हैं क्योंकि पुद्गलको समय२ ग्रहण करता है।
शिष्य-आपने बहुत उपयोगी बात बताई । अच्छा बताईये कुत्तेके गुणस्थान कितने हैं ?
शिक्षक-कुत्ता पशुगतिमे है । पशुओंमें पहले पाच गुणस्थान होसक्तं हे । गुणस्थान एक समयमें एक ही होगा । इस कुत्तेके तो पहला गुणस्थान है। अच्छा, अब आप वृक्षकी चौदह मार्गणाएं कह जायें।
शिष्य -वृक्षकी चौदह मार्गणाएं नीचे प्रकार होंगी--- (१) गति-तिर्यच गति । (२' इन्द्रिय-एकेन्द्रि। (३) काय-वनस्पति काय! (४) योग-काययोग एक । (५) वेद-नपुंसक वेद । (६) कपाय-चारों कपाय (७) ज्ञान-कुमति, कुश्रुत :
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११४]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा । (८) संयम-असंयम ।
(९) दर्शन-अचक्षुदर्शन क्योंकि यह स्पर्शन इन्द्रियसे ही सामान्यपने जानता है।
(१०) लेश्या-तीन होसक्ती है-कृष्ण, नील, कापोत । (११) भव्य-भव्य, अभव्य दोमेंसे एक होसक्ता है । (१२) सम्यक्त-मिथ्यात्व है। (१३) सनी-असैनी है। (१४) आहारक-आहारक है, स्थूल पुद्गलोंको लेरहा है।
शिष्य-बहुत ठीक बताया। अच्छा, एक व्रती श्रावकके जो देशविरत गुणस्थानमे है चौदह मार्गणाएं कह जावें ।
शिक्षक-मैं कहता हूं(१) गति-मनुष्य गति। (२) इंद्रिय-पचेंद्रिय । (३ काय-त्रसकाय । (४) योग-तीनों। (५) वेद-तीनों भावोंकी अपेक्षा । (६) कषाय-चारो कषाय । (७) ज्ञान-मति, श्रुत, अवधि तीनों संभव है। (८) सयम--देश संयम एक । (९) दशन-चक्षु, अचक्षु अवधि तीनों संभव है। (१०) लेश्या-तीन शुभ होंगी। (११) भव्य-भव्य जीव है, अभव्य देशव्रती नहीं होसक्ता है।
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जीव तत्व।
[ ११५ (१२) सम्यक्त-उपशम,क्षयोपशम, क्षायिक x तीनोंमेंसे एक (१३) सनी-सैनी। (१४) आहारक-आहारक । यह तो मै समझ गया । कुछ और समझाइये ?
शिक्षक-आपको हम यह बता चुके है कि यह जीव अपने शरीरके आकार रहता है, यद्यपि इसका मूल आकार लोकाकाश प्रमाण असंख्यात प्रदेशी हे अर्थात् लोकाकाशमें व्यापक होसकता है परन्तु इसमें नाम कर्मके उदयसे संकोच विस्तार होता है । इस्लिये जैसा शरीर पाता है, उसी प्रमाण रहता है। यदि शरीर फैलता है तो जीवका आकार भी फैलता है । शरीरके प्रमाण आकार रखते हुए भी समुदघातके समय यह जीव अपने मूल शरीरसे फैलकर कुछ दूर बाहर जाता है फिर गरीर प्रमाण होजाता है । ___ मुल शरीरको न छोडकर तैजस कार्मणरूप दो सूक्ष्म शरीरों के साथ जीवके प्रदेशोंका शरीरसे बाहर निकलना उसको समुद्धात कहते है । वे समुद्घात सात हैंवेदना, कषाय, वैक्रियिक, मारणांतिक, तैजस, आहारक, केवली।
शिष्य-क्या इनका स्वरूप समझायेंगे ? ___x केवली, श्रुतकेवलीके निकट क्षायिक सम्यक्त पैदा होता है। इसलिये इस कालमें नहीं होता है। दो होसकते है।
+ मूल शरीरम छंडिय, उत्तर देहस्य जीव पिडस्स | णिग्गमण देहादो होटि समुग्घाद णामतु ॥ ६६७॥ वेयणा कसाय वे गुन्धि योय मग्णति यो समुग्ध दो। तेजाहारो छटो सत्तममओ केवलीण तु ॥ ६६६ ॥ गो. जी.
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११६]
विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा। शिक्षक-अवश्य, ये बडे कामकी बातें है ।
(१) वेदना या शरीरमे कष्ट होनेपर आत्माके प्रदेगोका कुछ दूर बाहर निकलना, वेदना समुद्घात है ।
(२) क्रोधादि कषायोंकी तीवतामे आत्माका कुछ दूर फैलकर निकलना कपाय समुद्घात है।
(३) जिनको गरीर बढ़ानेकी व एक शरीरके अनेक गरीर बनानेकी शक्ति है उनके आत्माके प्रदेश नाना प्रकारके बने हुए गरीरोंमें फैल जाते है. इसको वैक्रियिक समुद्घात कहते है । जितने देव हैं वे कभी मूल शरीरसे कहीं नहीं जाते है, वे दूसरे शरीर एक साथ एक व कई बना सक्ते है, उनमे आत्माके प्रदेश फैला सक्ते हे. उन ही शरीरोको भेजकर काम लेसक्त है। देव अनेक तरहके पशु पक्षी आदिका शरीर भी बनासक्ते है। उनके शरीरके पुद्गल ऐसे होते है जिनमे नाना रूपमे बदलनेकी शक्ति होती है। नारकी भी अपने गरीरको भिन्न २ रूपोंमें बदल सक्ते है। वे अनेक गरीर नहीं बना सक्ते है। साधुओंको भी योगाभ्यासमे अपने शरीरको बढ़ाने घटाने व बदलनेकी शक्ति होती है।
(४) कोई कोई जीव मरनेके अंतर्मुहूर्त पहले जहा उनको मर कर जन्म लेना है उस योनिस्थानको फैलकर स्पर्श कर आते हे फिर मरते है इसे मारणातिक समुद्घात कहते है।
(५) योगाभ्याससे जिनको ऋद्धिय सिद्ध होजाती है वे साधु शुभ या अशुभ तैजस समुद्घात करते है । किसी साधुको रोग व दुर्भिक्ष आदिका प्रचार देखकर दया आजाती है। तब उसके दाहने कंधेसे तैजस शरीर (electric body) के साथ आत्माके प्रदेश
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जीव तत्व।
[११७ फैलते है और संकटके कारणको मेट देते है। यह शुभ तेजस समुद्घात है।
किमी साधुको किसीके द्वारा दुर्वचन सुननेपर व प्रहारादि कष्ट दिये जानेपर क्रोध आजाता है और वह वशमें नहीं रहसत्ता है तब साधुके बाएं कन्धसे अशुभ तैजस गरीरके साथ आत्माके प्रदेश फैलकर निकलते है जिससे क्रोधका लक्ष्य फैलकर भस्म कर दिया जाता है और साधु भी उससे भस्म होकर दुर्गति पाते है।
(६) आहारक समुद्घात किसी ऋद्धिधारी साधुके मस्तकमे पुरुषाकार एक मृटम पुतला आत्माके प्रदेशोंके साथ केवली या श्रुत केवलीके निकट जाकर उनके दर्शन करके तुर्त लौट आता है। जिससे कभी माधुको कोई शंका होती है वह दूर होजाती है।
(७) केवली समुद्धात-उसको कहते है कि जब किसी अर्हतकी आयु कम हो व अन्य कर्मोकी स्थिति अधिक हो तो उसके आत्माले प्रदेश तीन लोकमे फैल जाते है और फिर शरीराकार होजाने हैं जिससे सर्व कर्मोकी स्थिति आयु कर्मके बराबर होजाती है।
शिक्षक--क्या इनमेंसे किसी बातकी परीक्षा की गई है ?
शिष्य--इस समय परीक्षा होना बहुत ही दुर्लभ है; क्योंकि महान योगीश्वर नहीं मिलते है। परन्तु ये सब बातें संभव प्रतीन होती हैं, क्योंकि आत्मामें अनंत बल है व ध्यानसे बड़ी बड़ी योग्यताएं झलक जाती हैं। यह तो आपको मालूम होगा कि विजलीकी शक्ति आजकल बडा बड़ा अपूर्व काम करती है। कई हजार मीलपर बजनेवाला बामा या गाना यहां सुनाई देसक्ता है । विना तारके सम्बन्धके विजलीके जोरसे ही फौरन शब्द दूर दूर फैल जाता है।
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११८]
विद्यार्थी जैन धम शिक्षा। शिष्य--जीवतत्वके सम्बन्धमें कुछ और जाननेकी जरूरत है।
शिक्षक--जीवोंके भाव पाच तरहके होते है--औपगमिक, शायिक, क्षयोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक ।
शिष्य-क्या इनका स्वरूप समझाएंगे।
शिक्षक-इनका स्वरूप जानना बहुत जरूरी है। आत्मा और कौका सम्बन्ध प्रवाहकी अपेक्षा अनादिकालसे चला आरहा है। कर्मोका असर आत्माके भावोंपर पड़ता है और आत्माके अशुद्ध भावोंसे कर्मोका बंध होता है। हम आपको बता चुके है कि आठ कर्मोका बंध इस जीवके साथ है उनके कारणसे जैसे जैसे भाव जीवके होते है उनको बतानेके लिये पाच भेद जीवोंके भावोंक प्रसिद्ध है। इनको समझनेके लिये एक दृष्टात जान लेना चाहिये । जैसे पानीमें मिट्टी मिली हो तब यदि हम निर्मली फल डाल दें तो मिट्टी पानीके नीचे बैठ जायगी, ऊपर पानी साफ दिखलाई पड़ेगा। परन्तु जरा हिलनेसे फिर मिट्टी ऊपर आजायगी। इस पानीकी दशाको उपशम पानी कहेंगे अर्थात् ऐसा पानी जिसमे मिट्टी ढवी हुई है. दूर नहीं हुई है।
यदि मिट्टीको जो नीचे बैठ गई है उससे पानीको अलग कर दूसरे बर्तन में लेलें तो वह पानी विलकुल साफ दीखेगा. उसमे मिट्टीका सम्बन्ध बिलकुल नहीं रहा, इससे यह पानी हिलानेसे भी मैला नहीं होगा। इसे क्षायिक पानी कहेंगे। यह ऐसा पानी है जिसमेसे मिट्टी बिलकुल दूर होगई है। यदि मिट्टी मिले पानीमेसे नीचे बैठी हुई कुछ मिट्टीको निकाल फेंक दें, कुछ मिट्टीको नीचे बैठे रहने दे व हिलानेसे कुछ मिट्टी पानीमे घुलीगई भी हो ऐसे कुछ मलीन पानीको क्षयोपशम पानी कहेंगे।
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जीव तत्व।
[११९ जिस पानीमें मिट्टी विलकुल मिली हुई है उस पानीको औदयिक पानी कहेंगे क्योकि मिट्टीके असरसे पानी मैला होरहा है । इसीतरह पहले चार भावोंको आप समझ लीजिये ।।
(१) कर्मोके उपशम या दवनेसे जो भाव प्रगट हों उनको औपशमिक भाव कहते है।
(२) कर्मोके नाशसे जो भाव प्रगट हो उनको क्षायिक भाव कहते है।
(३) कर्मोके कुछ क्षय कुछ उपशम कुछ उदय या असरसे जो भाव हों उनको क्षयोपशियक भाव कहते है।
(४) कर्मोके उदयसे या असरसे जो मलीन भाव हो उसको औदयिक भाव कहते हैं । इन चारोंके चार दृष्टात समझलीजिये(१) उपशम सम्यग्दर्शन-यह आत्मप्रतीति भाव मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी कपायके उपगमसे प्रगट होता है। (२)क्षायिकसम्यग्दर्शन-यह शुद्ध आत्म प्रतीति रूप भावदर्शन मोहकी तीन प्रकृति
और चार अनंतानुबन्धी कपायके क्षयसे होता है । (३) मतिज्ञानयह क्षयोपशम भाव है। मतिज्ञानावरण कर्मोके क्षय या उपशमसे तथा उसीके कुछ उदयसे मतिज्ञान पैदा होता है। (४) क्रोधभाव-यह क्रोधके उदयसे होता है। (५)पांचवा पारिणामिक भाव किसी खास कर्मकी अपेक्षासे नहीं है, इसको स्वाभाविक भाव भी कहते है।
दैव व पुरुषार्थ-हम इस सम्बन्धमें पहिले बता भी चुके है। यहा यह समझलेना चाहिये कि जितना आत्माका गुण, कर्मोके उपशम, क्षय या क्षयोपशमसे प्रगट होता है उसको पुरुषार्थ कहते हैं। कोंके उदयको दैव कहते हैं।
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१२०]
विधार्थी जैनधर्म शिक्षा। आठ कोमेसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अंतरायका सदा ही क्षयोपशम रहता है, कभी इनमे बिलकुल उपशम नहीं होता है न कभी इनका सर्वथा उदय होता है। इनका क्षय होकर केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनत बल प्रगट होता है । क्षयोपगम होते हुए जितना उदय है वह उदय भी होता है । अर्थात् क्षय, उपशमके साथ उदय होता है, अकेला उदय नहीं होता है। इसलिये इन तीन काँके सम्बन्धसे क्षयोपशयिक और क्षायिक दो ही प्रकारके जीवके भाव होते है। उदयकी अपेक्षा औदयिक भी लेसक्ते है परन्तु औपगमिक भाव इनमे न होगा।
मोहनीय कर्ममे उपशम, क्षयोपशम, क्षायिक व औदयिक चारों भाव होंगे। ___आयु, नाम, गोत्र, वेदनीय इन चार अघातीय कोमे दो ही भाव होंगे-औदयिक और क्षायिक । इनमे औपशमिक और क्षयोपशिक भाव नहीं होते है । ये कर्म उदय होकर फल देते है या नाश कर दिये जाते है।
चार अघातीय कर्मोके उदयको दैव कहते है। इसी तरह चार घातीय कर्मोका जितना उदय है उसको भी दैव कहते है । जितना घातीय कर्मोके उपशम, क्षय या क्षयोपशमसे आत्माका गण 'प्रगट होगा उसको पुरुषार्थ कहते है। यह पुरुषार्थ प्राणीमात्रमे कम
या अधिक पाया जाता है। इसीके सहारेसे सर्व प्राणी अपने कामके लिये उद्यम किया करते है। वृक्ष भी इसी पुरुषार्थसे पानी व मिट्टी खींचता है। प्राणियोंकी उन्नति व अवनतिके जिम्मेदार प्राणी होते है। उनको अपने ज्ञान दर्शन व आत्मबलसे विचार करके हरएक
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जीव तला
. [१२१ लौकिक या पारलौकिक काम करना चाहिये । कमोंका उदय कैसा होनेवाला है, उसे हम नहीं जान सक्ते है अतएव हमें अपने पुरुषार्थसे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों पुरुषार्थोंका साधन करना चाहिये। विन्न होनेपर अपने दैवको दोप देना चाहिये । दैवके मेटनेका भी पुरुषार्थ हमें धर्म सेवन द्वारा करना चाहिये। इससे हम भविष्यमे उदय आनेवाले पापोंको घटा सत्ते है व पुण्यको बढ़ा सक्ते है। गांतिमय व ज्ञानमय भावोंसे आत्मवल लगाकर यदि हम धर्मको पाले-आत्मध्यानादि करें तो पापको घटा करके पुण्यको बढ़ा सक्ते है।
इन आठ कर्मोमेसे सबसे प्रबल कर्म मोहनीय है जिसकी अट्ठाईस प्रकृतियोंको हम बता चुके है। हमें उचित है कि हम अपने ज्ञान व आत्मबलके पुरुषार्थसे इस कर्मको जीतनेका सदा उद्यम करें। इसको जितना जितना जीतेंगे उतना उतना माग भाव निर्मल होता जायगा व हमारा गुणस्थान (दर्जा) बढ़ता चला जायगा । सारे कर्मोको बांधनेवाला मोह है, मोहके क्षय होते ही सर्व कर्म क्षय हो जाते है।
शिष्य- यह तो मैं समझ गया, कुछ और भी जरूरी बात जाननेकी है।
शिक्षक--अब मैं यह आपको बताता हूं कि संसारी प्राणियोंके मूल गरीर कितने प्रकारके होते है।
गरीर पांच तरहके होते है- (१) औदारिक, (२) वैक्रियक, (३) आहारक, (४) तैजस, (५) कार्मण। इनमें से तैजस शरीर सर्व संसारी जीवोंके सदा पाए जाने है। जब कोई मरता है तब ये दो शरीर साथ२ जाने है ये बहुत ही सूक्ष्म हैं, इन्द्रियोंसे जाननेमें नहीं आते। कार्मण शरीर तो आठ कर्मरूप है। यह शरीर कार्मण वर्गणाओंसे
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१२२]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। बनता है यह बात हम बता चुके है। तेजस शरीर एक प्रकारकी बिजलीका शरीरे है। जो तैजस वर्गणाओं (electric molecules) से बनता है । शेष तीन शरीर प्राप्त होते है तथा छूटते है । औदारिक शरीर वह स्थूल शरीर है जो मनुष्य गति व तियेच गतिवालोंके होता है। एकेन्द्रियसे पंचेन्द्रिय पर्यंत सर्व जीवोंके यह स्थूल शरीर होता है । इसीके मिलनेको जन्म व इसके छूटनेको मरण कहते है। वैक्रियिक गरीर ऐसे पुद्गलोंसे बनता है जिसमें रूप बदलनेकी शक्ति होती है। यह स्थूल शरीर देवा और नारकियोंको होता है । आहारक शरीर एक विशेष शरीर है जो आहारक समुद्घातके समय किसी विशेष मुनिके पुरुषाकार मस्तकसे निकलता है। हमारे पास इस समय तीन शरीर है-औदारिक, तैजस, कार्मण । वृक्षोंके भी ये ही तीन शरीर है। कीटोंके व पशु पक्षियोंके भी ये ही तीन शरीर है। पुद्गलोके अनेक भेद होते है इसलिये इन शरीरोंकी रचनामें अनेक भेद है।
जीव तत्वके सम्बन्धमें यह बात खास ध्यानमे रखनेकी है कि निश्चय नयसे या मूल द्रव्य स्वरूपकी अपेक्षा यह जीव बिलकुल शुद्ध है । सिद्ध भगवानके समान है। इसमें कोई भी सासारिक अवस्थाएं नहीं होती है। हमे उचित है कि हम अपने आत्माको आत्मारूप देखा करें । व्यवहारनयसे या अवस्थाकी दृष्टिसे कर्मोके सम्बन्धके कारण जीवोंमें चौदह गुणस्यान व चौदह मार्गणाएं चौदह जीव समास, पाच प्रकारके शरीर, रागादिक अशुभ भाव ये सब बातें पाई जाती है। बहिरात्मा अज्ञानी इन कर्मोके सम्बन्धसे होनेवाली अवस्थाओंको ही आत्माका मूल स्वभाव मान लेता है। जब कि अंतरात्मा ज्ञानी या
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जीव तत्व।
[ १२३ सम्यक्दृष्टि जीव मुल आत्माके स्वभावको शुद्ध जानता है और कर्मोके संयोगसे होनेवाली अवस्थाओको वैसा ही जानता है। परमात्मा बिलकुल शुद्ध कर्म रहित आत्माको कहते है। हमको योग्य है कि हम वहिरात्मापना छोड़कर अंतरात्मा होजावें तथा परमात्मा होनेका पुरुषार्थ करें।
MPLEASE
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१२४]
विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा। छठा अध्याय ।
अजीव तत्व। शिक्षक-हम आपको बता चुके ह कि अजीव तत्वमे पाच गर्मित हे--पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल।
पुद्गलका कुछ स्वरूप और जानना जरूरी है।
हम पुद्गलके विशेष गुण बता चुके है कि उनमे स्पर्श, रस, गंध, वर्ण चार गुण होने हैं। इनके वीम भेद जानने चाहिये।
८ प्रकार स्पर्श- नरम, कठोर, भारी, हलका, गीत. उप्ण. चिकना, रूग्वा।
५ प्रकार रस-कडआ, खट्टा. तीग्वा, मीठा. कयायला। २ प्रकार गंध--मुगध दुगंध। ५ प्रकार वर्ण-काला, नीला, पीला. लाल. सफेठ । २० गुण
पुद्गलोंके दो भेद हे--परमाणु और स्कंध । जिसका दूसरा भाग न हो उसको परमाणु कहते है। परमाणुओंसे बने हुए पिडको स्कंध कहते है। परमाणुमें एक साथ ऊपर कहे हुए वीस गुणोंमेसे पाच गुण पाए जायगे, आठ स्पर्शमेसे दो स्पर्श, उप्ण. गीतमेसे एक कोई तथा चीकने रुखमेसे एक कोई ।
एक कोई रस, एक कोई गंध व एक कोई वर्ण होगा. इस तरह पांच गुण होंगे। जब कि स्कंधमें एक साथ सात गुण पाए जायगे।
आठ स्पर्शमेसे चार स्पर्श। उप्ण गीतमेसे एक, चीकने रूखेमेसे "एक, नर्म कठोरमेसे एक, हलके भारीमेमे एक ।
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अजीव तत्व।
[१२५. एक कोई रस, एक कोई गंध व एक कोई वर्ण इस तरह सातः, गुण होंगे। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु सब परमाणुओंके बने स्कंध है। ये आपसमें बदल भी जाते हैं जैसे--सीपके भीतर जल मोनी पृथ्वी रूप बन जाता है, दो प्रकारको वायु मिलकर जल होजाता है ।
शिष्य-पुद्गलके पिंड या स्कंध कितने प्रकारके होते है ?
शिक्षक-इनके भेद अनेक तरहसे है। अति प्रसिद्ध छ: मंद है उन्हें अब ध्यानमें ले लीजिये उनमे सब तरहके, स्कंध या पिड गर्भित है-वे छ भद हैं
१-स्थूल स्थूल (solid things) कठोर वस्तुएँ जिनके दो इकड़े किये जानेपर वे आप अपनेसे न मिलें जैसे--कागज, लकडी, पत्थर, आदि।
(२) स्थूल ( lipuid things) बहनेवाली चीज जैसेपानी, दुध, गरवत आदि । ये अपनेसे मिलजाती हैं।
(३) स्थूल सूक्ष्म (solhd fine things) जो देखनेसे मोटी मालम हो परन्तु हाथोंसे पकड़ी न जासकें जैसे--प्रकाश, धूप, छाया।
(१) सूक्ष्म स्थूल ( fine solid things) जो देखनेमे न आ ऐसी सूक्ष्म हों परन्तु भारी काम कर सकें जैसे हवा, शब्द, आदि।
(५) सूक्ष्म ( fine matter) जो पुद्गल पिड़ इतने सूक्ष्म हो कि वे किसी भी इन्द्रियसे न ग्रहण होसके जैसे कार्मणवर्गणाएं।
(६) म्यूक्ष्म सूक्षा (very fine matter) दो परमाणुओका स्कंध या एक परमाणु ।
सूक्ष्म स्कंधोंके बहुतसे भेद हे । उनमें पाच सूक्ष्म स्कंध संसारी जीवोंके लिये बहुत उपयोगी है।
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१२६
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा । ___(१)आहार वर्गणा ( assimilative molecules ) इनमे औदारिक, वैक्रियिक, तथा आहारक तीन गरीर बनने है ।
(२) तेजस वर्गणा (eletrne molecules) विनलीके पिंट इनसे तैजस शरीर बनता है जो सब संसारी जीवाफे सदा पाया जाता है। __(३) भापा वर्गणा ( voes! n olecules ) इनमे गन्न बनते है।
(४) मनो वर्गणा (mind molecules) इनसे हृदयस्थानमें आठ पत्तोंका कमलाकार मन बनता है।
(५) कार्मण वर्गणा (karmae molecules) इनसे मृक्ष्म कार्मण शरीर बनता है, जो सब संसारी जीवोंके सदा पाया जाता है।
आहारक वर्गणाके भीतर जितने परमाणु हे उनके बहुत अधिक तैजस वर्गणामें, तैजससे बहुत अधिक भाषा वर्गणामे, भाषामे बहुत अधिक मनो वर्गणामे, मनसे बहुत अधिक कार्मण वर्गणामे हे इसीसे हरएककी शक्ति अपने पहलेसे बहुत अधिक है। सर्वसे अधिक बलिष्ट कार्मण वर्गणा है ।
ये पाचों ही प्रकारकी वर्गणाएं सर्वत्र फैली हुई है । कोई जगह इनसे खाली नहीं है । ये वर्गणाए. परमाणुओंके विछुडनेसे बिगडती है व उनके मिलनेसे बनती रहती है।
शिष्य-क्या परमाणुओंके मिलनेका कोई नियम बताया गया है ?
शिक्षक-परमाणुओंके बन्ध होनेके साधक चिकना व रूखापना है। चिकनेपनेके व रूखेपनेके अंश अनेक होते है । जैसे बकरीके दूधसे अधिक चिकनई, गौके दूधमे, गौके दूधसे अधिक चिकनई भैसके दूधमे होती है, भैसके दृधसे अधिक चिकनई ऊंटनीके दूधमें व धसे
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अजीव तत्व।
[१२७ घीमें अधिक चिकनई होती है वैसे परमाणुओंके भीतर चिकनईके अनेक भेद होते है, कोई कम चिकना कोई अधिक चिकना होता है। इसी तरह जैसे धूल, वाल, व कंकडमें रूखापना अधिकर है, वैसे परमाणुओंमे रूखापना किसीमे कम व किमीमें अधिक होता है। नियम यह है- मखा परमाणु रुखसे व चिकना चिकनेसे तथा रूखा चिकनेसे बन्ध सक्ता है, यदि परस्पर दो अंगका अंतर हो। इससे कम व अधिक अंतर होनेपर वन्ध न होगा इसी तरह जिस परमाणुमे सबसे कम चीकनापना या रूखापना होगा वह परमाणु किसीमे ही बंधेगा परन्तु बाहरी निमित्तोंसे यदि उसीमें अंश बढ़ जायेंगे तो वह बन्ध हो सकेगा। जैसे एक परमाणुमें ५० अंश चिकनाई है तो वह ५२ अंशवाले चिकने, या रूखे परमाणुसे ही बंधेगा। ५३ अंशवाले या ५२ अंगवालेसे नहीं बंवेगा । एक परमाणु से रूखापना ५५ अंग है तो वह ५७ अंगवाले चिकने या रूग्वे परमाणुसे वन्ध जायगा। ५४ या ५८ अंशवालेसे नहीं बन्धेगे । जब परमाणु परस्पर बन्धकर एक पिंड या स्कंध बन जाते है तब जिस परमाणुमें अधिक अंश होंगे वह कम अंशवालेको अपने रूप कर लेगा। जैसे १५ अंशवाला परमाणु चिकना है तथा १७ अंशवाला परमाणु रूखा है तब दोनोंका बना हुआ पिंड रूखा होजायगा। इनमें ऐसी शक्ति है कि अधिक अंशवाला अपने रूप दूसरे परमाणुको कर लेता है।
शिष्य-क्या इसका प्रयोग करके आजकल किसीने देखा है ?
शिक्षक-यह जिन शास्त्रकी लिखित बात है। जहातक हमें मालम है अभीतक किमीने प्रयोग करके नहीं देखा है। जो जैन छात्र विज्ञानके ऊंचे ज्ञाता हों उनको इसका प्रयोग करके जांचना चाहिये।
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१२८ ]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा । शिष्य-यदि स्कंध स्कंधसे मिलकर एक पिंड बने नौभी क्या यही नियम होगा।
शिक्षक-मैं समझता है कि ऐसा ही नियम स्कंधके लिये भी होना चाहिये । यदि किसी स्कंधमे ५०० अंश चिकनई होगी व दूसरे स्कंधमे ५०२ अंश चिकनई या रूखापन होगा तो वे दो स्कंध भी मिलकर एक पिड हो जायगे यद्यपि इस बातका अधिक विस्तार मुझे जैन शास्त्रमे देखनेको नहीं मिला । कठिनता तो यह है कि चिकने व नवपनके अंगोंकी जाच कैसे की जावे। इसहीके लिये आजकलके वैज्ञानिकोको खूब विचारना चाहिये ।
शिष्य-बात बहुत जरूरी है। मैंने ध्यानमे लेली है, किन्हीं वैज्ञानिक प्रोफेसरोसे बान करेगा। पुदलके सम्बन्धमे और कोई वात जाननेकी है।
शिक्षक-जो जरुरी २ बातें था वे आपको बता दी है । इस सर्व जगतकी रचना पुद्गलोके द्वाग होती रहती है व बिगड़ती रहती है। आजकल ( science) सायंस (विज्ञान ) जो कुछ भी खोज कर रहा है वह सब पुगलकी अपूर्व शक्तिके कारणसे है। तथा जहातक मेरा अनुमान है मै कहसक्ता हूं कि यदि वह मायंसकी खोज सत्य होगी तो उसका मिलान जैन सिद्वातसे होजायगा।
शिष्य-आपने कहा था कि आकागके दो भेद है- लोकाकाश तथा अलोकाकाग इनका कुछ विशेष बताईये ।।
शिक्षक-आकाग एक अखण्ड अनंत द्रव्य है । इसकी सीमा नहीं है । इसीके मध्यमे जितने आकाशके भागमे जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय तथा काल पाए जाते है उसको
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अजीव तल।
[१२९ लोकाकाश कहते है। लोकाकाग एक मर्यादाके भीतर है इस मर्यादा कारण धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय है । ये दोनों द्रव्य लोकाकाश व्यापी है। जहांतक धर्म द्रव्य है वहांतक ही जीव तथा पुनलोंका गमन हो सकता है व वहींतक पदार्थ ठहर सक्ते है । इस जगतमें कोई भी स्थान नहीं है जहां पाचो द्रव्य न पाए जावें ।। पुल परमाणु तथा स्कन्ध रूपसे सर्वत्र भरे है, सूक्ष्म जातिके एकेन्द्रिय जीव भी सर्वत्र भरे है, बादर जीव कहीं कहीं है । धर्म और अधर्म द्रव्य व्यापक है ही, कालाणु भी सर्व तरफ रत्नोंके ढरके समान फैल हे । उनकी गणना असंख्यात है क्योंकि लोकाकाशके प्रदेश भी असंख्यात है। हरएक प्रदेशपर एक एक कालाणु व्यापक है।
शिप्य-प्रदेशका मतलब बताइये तथा असंख्यातसे क्या मतलब है।
शिक्षक -जितने आकागके सष्टम भागको वह परमाणु जिसका भाग नहीं होसकता है रोकता है उसको प्रदेश (poin ) या (epatitl unit ) कहते हे | जैनसिद्धांतमें तीन प्रकारकी गणना. बताई गई है--संख्यात, असंख्यात और अनंत ।
हम मानवोंकी समझमे जहातक गिनति आसके वह सख्यात है। उससे अधिक असंख्यात है। उससे भी बहुत अधिक अनंत है। प्रदेश एक तरहका गज है जिससे द्रव्योंके आकारको मापा जाता है । यदि लोकाकागको इस प्रदेश रूपी गजसे मापा जावे
तो उसके असंग्च्यात प्रदेश होंगे। इतने ही प्रदेश धर्मास्तिकायके ___ वरतने हा अधर्मास्तिकायके होंगे । व इतने ही प्रदेश एक जीवके
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विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। भीतर भी असलमे होते है क्योंकि एकजीव लोकाकाश भरमे फैल -सक्ता है । कालाणु भिन्न २ एक एक प्रदेशपर है इसलिये काला'णुओंकी गणना असंख्यात है । आकाश अनन्त है इससे उसके
अनन्त प्रदेश कहलाएंगे । पुद्गल यद्यपि तीन लोकमें परमाणु व स्कंथके रूपमे फैले हे तथापि परमाणुओंके मिलनेस जो स्कंध बनने है वे तीन प्रकारके होते है--किन्हीं स्कंधोंकी रचना संख्यात परमाणुओंसे होती है, किन्हींकी असंख्यात परमाणुओंसे तथा किन्हींकी उनसे भी अनंत परमाणुओंसे होती है । इसलिये पुद्गलके स्कंधोंके प्रदेश संख्यात, असख्यात तथा अनंत ऐसे तीन तरहके कहलाते है। न्यहा प्रदेशसे मतलब परमाणुका लेना चाहिये । ____ कालाणु असंख्यात है वे कभी एक दूसरेसे मिलते नहीं है, वे अलग २ एक एक ही प्रदेशको घेरते है । शेष पाच द्रव्य एक प्रदेशसे अधिक स्थान घेरते है । इसलिये जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय तथा आकाशको अस्ति काय या पंचास्तिकाय कहते है।
शिष्य-परन्तु पुद्गलका एक परमाणु तो एक ही प्रदेश घेरता है उसको काय तो नहीं कहना चाहिये ।
शिक्षक-यद्यपि परमाणु एक ही प्रदेश घेरता है परन्तु उसमें परस्पर मिलनेकी शक्ति है जब कि कालाणुमे परस्पर मिलनेकी शक्ति नहीं है इसलिये परमाणुको शक्तिकी अपेक्षा काय कहते है।
एक बात और जानना चाहिये कि छहों द्रव्यमे दो प्रकारके गुण होते है--सामान्य (geveral ) विशेष (special )-विशेष गुण तो हम बता चुके है, सामान्य गुणोंको समझ लीजिये।
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अजीव तत्व।
[१३१ शिष्य--कृपा करके छहों द्रव्योंके विशेष गुण फिर बता दिजिये ।
शिक्षक-जीव द्रव्यके विशेष गुण ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य. सम्यक्त, चारित्र आदि है, पुद्गलके विशेष गुण स्पर्श, रस, गंध, वर्ण है, धर्मास्तिकायका विशेष गुण जीव व पुद्गलको गमनमें सहाय करना है, अधर्मास्तिकायका विशेष गुण जीव व पुद्गलको, ठहरनेमें सहाय करना है, आकाशका विशेष गुण, सर्वको जगह देना है, कालका विशेष गुण सर्वकी अवस्थाओंको पलटनेमें सहायता देना है।
सामान्य गुण छहों द्रव्योंमें पाए जाते है। जबकि विशेष गुण खास अपने अपनेमें पाए जाने हैं। सामान्य गुण छ: बहुत ही आवश्यक है।
(१) अस्तित्व गुण-जिस शक्तिके निमित्तसे द्रव्यका कभी नाग न हो, द्रव्य सदा बना रहे ।
(२) वस्तुत्व गुण-जिस शक्तिके निमित्तसे द्रव्य कुछ काम करे व्यर्थ न रहे।
(३) द्रव्यत्व गुण-जिस शक्तिके निमित्तसे द्रव्यमें एकसी व मिन्न प्रकारकी अवस्थाऐं बदला करें।
(४) अगुरुलघुत्व-जिस शक्तिके निमित्तसे द्रव्य अपनी मर्यादामें रहे कभी कम या अधिक न हो न वह बदल कर दूसरा द्रव्य होसके न इसका कोई गुण अन्य गुणरूप बदल सके । जिस द्रव्यमें जितने गुण हों वे उसमें बने रहें। कोई नया गुण उसमे आकर न मिले।
(५) प्रदेशत्व गुण-जिस शक्तिके निमित्तमे द्रव्यका कुछ न कुछ आकार अवश्य हो।
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१३२ ]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। (६) प्रमेयत्व गुण-जिस शक्तिके निमित्तसे द्रव्य किसी न किसीके जानका विषय हो ।
अनीव तत्वके सम्बन्धमे जो जरूरी जानने योग्य बातें थीं उनका कथन मैंने कर दिया है। आप इनपर विचार करेंगे तो आपको मालूम होगा कि धर्म, अधर्म. आकाग, काल ये चार द्रव्य सदा स्वभावमे रहते है । इनमे हलन चलन क्रिया नहीं होती है । संसारी जीव और पुद्गल हलन चलन क्रिया करते है। इन्दीकी रचना यह दृश्य रूप जगत है । इनकी अवस्थाएं नाना प्रकार वनती विगडती दिखलाई पड़ती है । यह लोक छ मूल द्रव्योका समुदाय है । ये सदासे है व सदा बने रहेंगे इसलिये यह लोक नित्य है। अवस्थाओंके बदलनेकी अपेक्षा यह जगत अनित्य है । यह लोक, कभी नया बना नहीं न कभी विलकुल लोप होगा । अवस्थासे अवस्थातर हुआ करेगा।
ज्ञानीको उचित है कि वह क्षणिक जगतकी अवस्थाओंमे मोह न करे, मूल द्रव्यपर दृष्टि रखे। छ हों द्रव्योंमे एक निज आत्म द्रव्य ही सार है। उसपर दृष्टि रखके व उसीका ध्यान करके हमे मात्मानन्द प्राप्त करना चाहिये।
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आस्रव और बंध तत्व।
सातवां अध्याय।
आस्रव और बंध तत्व। शिक्षक-हम आपको सात तत्वोंमे आस्रव व बन्ध तात्वोंका कुछ मस्वरूप बना चुके है, आज कुछ विशेष बातें बताएंगे___आम्रव और बंध कर्मोका एक साथ होता है। आना और बंधना दो भिन्न २ क्रियाके कारणसे इनके दो नाम हुए है। असलमें अशुद्धताकी दृष्टि से दोनों बातें एक है । इन दोनोंके कारण भाव आत्रव और भाव बंध एक ही हैं। जिन भावोंमे कर्म वर्गणाएं आती है उनही भावोंसे उनका बंध भी होता है। दोनोंका समय या आस्रव व बंध श्रण भी एक ही है। ____ यह हम आपको बता चुके है कि कर्मोके आठ मूल प्रकृति भेद हे इनमेसे सात मूल कर्मोका सदा ही बंध नौमे गुणस्थान तक हुआ करता है। आयु कर्मका बंध सदा नहीं होता है। जैनसिद्धांत में यह कायदा बताया है कि एक जीवनमें आठ टफे आयुके आठ विभागोमे बंधका अवसर आता हैं। यदि आठ त्रिभागोंमें आयुका बंध नहीं हुआ तो मरणके अंतर्मुहूर्त पहले परलोकके लिये आयु कर्मका बंध अवश्य होगा। जैसे किसीकी आयु ८१ वर्षकी है तब पहला त्रिभाग ५४ वर्ष बीतनेपर अंतर्मुहूर्तके लिये आयगा । दूसरा त्रिभाग २७मेसे १८ वर्ष बीतनेपर ९ वर्षकी शेष आयुमें अंतर्मुहूर्त के लिये आयगा। इसी तरह तीसरा त्रिभाग ३ वर्ष आयुके शेप रहनेपर आयगा। चौथा एक वर्ष बाकी रहनेपर आयगा। पांचवा त्रिभाग १
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१३४]
विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा मास वाकी रहनेपर छठा त्रिभाग ४० दिन बाकी रहनेपर. सातवा त्रिभाग १३ दिन ८ घंटे बाकी रहनेपर.आठवा त्रिभाग ४ दिन १० घंटे ४० मिनट बाकी रहनेपर आयगा। इनमेसे किसी त्रिभागमें आयु बंध जायगी। जब एक दफे बंध जायगी तब आगेके त्रिभागोंमें भावोंके अनुसार उनकी स्थितिमे कम व अधिकपना होसक्ता है। आयुका बंध सातवें गणस्थान तक ही होता है इसलिये सातवें गणस्थान तकके जीवोंके आयु बंधके समय आठो कर्मोका बंध होगा। जब आयुकर्म नहीं बधेगा तब सात कर्मोका बंध होगा। दसवें गुणस्थानमें मोहनीय कर्मको छोडकर छ. कर्मोका ही बंध होगा। ११. १२ व १३मे गुणस्थानमें केवल एक साता वेदनीय कर्मका ही बध होगा।
शिष्य-आपने बताया कि शुभ उपयोगसे पुण्य बंध होता है, अशुभ उपयोगसे पाप बंध होता है, ज्ञानावरणादि चार घातीय कर्म पाप है यह भी आप बता चुके है तब शुभ उपयोगसे पापकर्म कैसे बंधेगा ?
शिक्षक--यह बात ध्यानमे लेलीजिये कि चार घातीयकर्मोका बन्ध शुभ या अशुभ दोनों उपयोगोंमे होता है। अघातीय कर्मोमेसे जब शुभ उपयोग होता है, सातावेदनीय, शुभ नाम. उच्चगोत्र तथा शुभ आयुका बन्ध होता है और जब अशुभ उपयोग होता है तब असाता वेदनीय, अशुभ नाम, नीच गोत्र, अशुभ आयुका बन्ध होता है। क्योंकि शुभ या अशुभ दोनों ही उपयोग अशुद्ध है, कषाय सहित है, आत्माके स्वाभाविक ज्ञानदर्शन आत्मबल व शातभावके बाधक है इसलिये चारों घातीयकर्मोका बन्ध' अवश्य होगा। शुभ भावोंमें भी कषाय है जो आत्मगुणोंका घांत करता है। यह हम बता चुके है कि बन्ध चार प्रकारका होता है, उनमेंसे स्थिति व अनु
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आस्रव और बंध तत्व।
। [१३५ भागबंध कपायोंके द्वारा कम या अधिक होता है। इसमे विशेष बात' जाननेकी यह है कि जब कषाय तीव्र होती है तब आयुको छोड़कर सर्व कर्मोंमें स्थिति अधिक पड़ती है और जब कयाय मंद होती है तब सातों कर्मों में स्थिति कम पड़ती है। आयु कर्मका हिसाब यह. है कि जब कषाय तीव्र होती है तब नरकायुकी स्थिति अधिक का तीर्यच, मनुष्य व देवायुकी स्थिति कम पडती है और जब कषायः मंद होता है तब नरंकायुमें स्थिति थोड़ी व तीर्यच मनुष्य व देव आयुमें स्थिति अधिक पड़ती है।
अनुभाग बन्धका नियम यह है कि तीव्र कषायोंसे सर्व पाप काँमें अनुभाग अधिक व पुण्य कर्मों में कम पड़ेगा तथा मंद कपायोंसे पुण्यकर्ममें अनुभाग अधिक व पाप कर्मों में अनुभाग कम पड़ेगा। आयुकर्ममें मात्र नरक आयु ही अशुभ या पापरूप कहलाती है । इस कथनसे आप समझ गए होंगे कि जब किसीके मंद कषायरूप शुभ उपयोग होगा तब घातीय कर्मों में स्थिति भी कम पडेगी व अनुभाग भी कम पड़ेगा तथा अघातीय पुण्य प्रकृतियोंमें भी स्थिति कम पडेगी परन्तु अनुभाग ज्यादा पड़ेगा। जिसका फल यह होगा कि जव उन घातीय कोका उदय होगा तब फल मंद होंगा परन्तु यदि पुण्यरूप अघातीय कर्मोका उदय होगा तो फल तीव्र होगा । सुखकी सामग्री अच्छी प्राप्त होगी। ___कर्मोंके आने व बंधनेमे कारणरूप भाव सामान्यसे पाच है(१) मिथ्यादर्शन, (२) अबिरति, (३) प्रमाद, (४) कषाय, (५) योग ।*
*-मिथ्यादर्शनाविरति प्रमादकषाययोगा बंधहेतवः ।।१४८त.सू.॥
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१३६]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। शिष्य-कृपा करके इनका कुछ विशेष बताइये?
शिक्षक-सात तत्वोंके शृद्धान न करनेको या सच्चे देव, शास्त्र, गुरुके शृद्धान न करनेको या अपने आत्माको यथार्थ रूपसे श्रृद्धान न करनेको व आत्मीक अतीन्द्रिय आनंदका शृद्धान न करनेको मिथ्यादर्शनभाव कहते है। इस मिथ्यादर्शनके पांच भेद है
(१) एकांत मिथ्यादर्शन-वस्तुमे अनेक स्वभाव होते हुए उनको न मानकर एक ही या कुछ ही स्वभावोंके रहनेका हठ करना एकात मिथ्यादर्शन है। जैसे कोई पुरुष अपने पिताकी अपेक्षा पुत्र है, पुत्रकी अपेक्षा पिता है, भाईकी अपेक्षा भाई है, भानजेकी अपेक्षा मामा है, ये सव सम्बन्ध उस पुरुषमे एक ही साथ है। यदि कोई उस पुरुषको पुत्र ही माने, पिता न माने तो वह एकातको माननेवाला मिथ्या दृष्टि होगा।
हरएक वस्तु अपने मूल स्वभावकी अपेक्षा नित्य है। अवस्थाके बदलनेकी अपेक्षा अनित्य है। दोनों स्वभावोंको एक साथ मानना यथार्थ है सत्य है । यदि इनमेंसे एक ही स्वभावको माना जाये कि वस्तु नित्य ही है या अनित्य ही है तो यह मानना एकात मिथ्यादर्शन होगा इससे वस्तुके स्वरूपका सच्चा ज्ञान न होगा।
(२) विपरीत मिथ्यादर्शन-जो धर्म नहीं होसकता है उसको धर्म मानलेना, जो देव नहीं होसक्ता है उसको देव' मानलेना, जो गुरू नहीं होसकता है उसको गुरु मानलेना विपरीत मिथ्यादर्शन है । जैसे पशुओंकी बलि करनेसे धर्म मानना, रागी, द्वेषी देवोंको देव मानना, परिग्रहधारी संसारासक्त गरुको गह मानना ।
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_आस्रव और बंध तत्व।
[१३७ (३) संशय मिथ्यादर्शन-धर्मके निर्णयमे एक मत न होकर संशय रखना जैसे-आत्मा है या नहीं, परलोक है या नहीं, मोक्ष है या नहीं, कर्मबन्ध है या नहीं।
(४) वैनयिक मिथ्या दर्शन-भोलेपनसे सर्व प्रकारके एकात व अनेकात धर्मोको धर्म मान लेना, सरागी वीतरागी सर्व देवोंको देव मान लेना, सग्रंथ निग्रंथ सर्व प्रकारके साधुओंको साधु मान लेना । यह भाव रखना कि हम तो संसारी है लोग कुछ समझ कर ही देव धर्म गुरुको मानते है, सर्वकी भक्ति करनेसे किसीसे कुछ किसीसे कुछ लाभ होजायगा। ऐसा मिथ्यात्वी विवेक रहित सत्य व असत्य सर्वको धर्म मानके श्रद्धान करता है।।
(५) अज्ञान मिथ्या दर्शन-अपने हित व अहितकी परीक्षा किये विना व परीक्षा करनेकी शक्तिके विना पर्याय बुद्धि बने रहना, शरीरको ही आत्मा मान लेना, इंद्रियोंके सुखको ही सुख मान लेना, धर्मके जाननेकी कुछ इच्छा न करना, जैसी रीति चली आई है उसीको सत्य धर्म मानकर बैठे रहना, निर्णय करनेका प्रयत्न नहीं करना ।
इनमें से किसी भी मिथ्यादर्शनमें फंसा हुआ प्राणी निर्मल __ सम्यकुदर्शनको नहीं प्राप्त कर सकता है। सत्यधर्मकी शृद्धा नहीं कर पाता
है, मानवजन्मको वृथा ही खो बैठता है, मिथ्यादर्शनके कारण प्राणी इन्द्रियोंके विषयोंका मोही होता हुआ रातदिन विषयवासनाकी तृप्तिके लिये तृष्णामें फंसा रहता है। इसीके कारण सर्व तरहका अन्याय करता है व अभक्ष्य भोजन करता, है। हिंसादि पापोंके करनेसे लाभ नहीं कर पाता है।
अविरति भाव १२ प्रकारका भी है, ५ प्रकारका भी है।
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१३८]
विद्यार्थी जैन कम शिक्षा। पाच इन्द्रिय तथा मनको वश न रखना तथा पृथ्वीकायिक, जलकायिक. अग्निकायिक, वायुकायिक तथा वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक प्राणियोकी दया न पालना। जो चाहे सो विचारे विना इन्द्रिय भोग करना व जैसे चाहे वैसे वर्ताव करना, प्राणियोंकी ढयाकी तरफसे बेखबर रहना, यह बारह प्रकार अविरति है।
हिसा, असत्य, चोरी, कुगील. व परिग्रह इन पाच पापोंकी ममतामें फंसे रहना भी अविरति है।
प्रमाद-आत्माके ध्यान व शुद्ध भावोंकी प्राप्तिमे अनादर क असावधानी रखना। देखकर चलनेमें, शुद्ध वचन बोलनेमे, शुद्ध भोजन करनेमें, देखकर रखने उठानेमें, मल मूत्र करनेमे प्रमाद सहित असावधानीसे वर्तना प्रमाद है। मन वचन कायको धर्ममार्गमे चलानेमें आलस्य रखना, उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम सत्य, उत्तम शौच, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग. उत्तम आकिंचन्य, उत्तम ब्रह्मचर्य इन दश प्रकार धर्मोके पालनमें प्रमाद रखना। स्त्री कथा, भोजन कथा, देश कथा, राजा कथामे समय वृथा गमाना । ____ कषाय-क्रोध, मान, माया, लोभ १६ प्रकार क. नौ कषाय ऐसे २५ प्रकार कषाय है। जिनके नाम हम पहले मोहनीय कर्मके भेदोंमे बता चुके है।
* योग-मन, वचन, कायका हलन चलन तीन प्रकार है इसीके पन्द्रह भेद है
चार मनयोग-सत्य, असत्य, उभय, अनुभय । चार वचन योग-सत्य, असत्य, उभय. अनुभय । सत्य, असत्य मिले हुए विचार व वचनको उभय मन क कचन
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[१३९
आस्रव और बंध तत्व। कहते हैं । जिसको सत्य व असत्य कुछ भी कहा जासके ऐसे विचार व वचनको अनुभव मन या वचन कहते है।
सात काययोग-कायकी क्रियाके निमित्तसे आत्माके प्रदेगोंका हलन चलन काय योग है । सात प्रकारकी कायकी क्रिया होती है वे सात काय है
(१) औदारिक काय योग (२) औदारिक मिश्र काय योग, (३) वैक्रियिक काय योग, (४) वैक्रियिक मिश्र काययोग, (५) आहारक काय योग, (६) आहारक मिश्रकाय योग, (७) कार्मण काय योग। ___मनुष्य तथा तीर्यचोंके पर्याप्त अवस्थामें औदारिक काययोग होता है। अपर्याप्त अवस्थामें औदारिक मिश्रकाय योग होता है। औदारिक कायका कार्मण कायसे मिश्रण होता है। देव तथा नारकियोंके पर्याप्त अवस्थामें क्रियिक काययोग होता है । अपर्याप्त अवस्थामें वैक्रियिक मिश्र काययोग होता है । वक्रियिक काय और कार्मणकायका मिश्रण होता है। ___आहारक समुद्घातके समय आहारक शरीर बनता है, उसके बनते हुए आहारक मिश्र काययोग होता है, बन जानेपर आहारक काययोग होता है।
विग्रह गतिमें कार्मण काययोग होता है। जब एक शरीरसे दूसरे शरीरमें जीव जाता है, तब बीचमें तैजस कार्मण दो सूक्ष्म शरीर सहित जीव जाता है। उनमें से कार्मणकायके निमित्तसे आत्माका हलनचलन होता है, इससे वहां कार्मण काययोग होता है। कर्मोके आत्रक और बन्धके कारण पांचों भाव पहले गुणस्थानसे लेकर तेरहवें गुण
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१४०]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। स्थानतक यथासभव पाए जाते है। चौदहवें अयोग गुणस्थानमें योग भी नहीं रहते है, इससे वहा कर्मोंका आव व बंध बिलकुल नहीं होता है।
पहले गुणस्थान मियादर्शनमे मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कपाय और योग पाचों ही कर्मोके आमव और बंधके कारण मौजूद है । दूसरे तीसरे चौथे गुणस्थानोंमे मिथ्यात्व छूट गया। नीसरे चौथेमे अनतानुबधी कपाय भी टूट गया। पाचवें देश संयत गुणस्थानमे एक देश अविरति भाव टल गया। अप्रत्याग्वानावरण कपाय भी नहीं रहीं।
___ छठं प्रमत्त विग्तमे प्रमाद, कपाय व योग तीन कारण है। यहा प्रत्याख्यानावरण कपाय भी नहीं रही।
अप्रमत्त सातवें गुणस्थानमें प्रमाद भी छूट गया, मात्र कपाय और योग है। नौमे गुणस्थान तक सर्व कपाय चली गई मात्र सूक्ष्म लोभ रह गया। दसवें तक कपाय व योग है फिर ११मे १३ तक मात्र योग ही रह गया। ... जैसे २ गुणस्थान बढता जाता है वैसे २ आसव बंधके कारण भी घटते जाते है।
शिष्य-आपने बहुत ही उपयोगी बात बताई। आसव बंधके संबंधमे कुछ और विशेष जानना जरूरी है।
शिक्षक-आपको यह जान लेना जरूरी है कि संसारी जीव कोई भी अच्छा या बुरा काम करते है उनमे जीवके भाव भी लगते है तथा शरीर व बाहरी अजीव पदार्थोका भी सम्बन्ध होता है-जैसे हमने किसी पशुको लाठी मारी इसमे जीवका क्रोधभाव कारण है।
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आस्रव और बंध तत्व।
[१४१ तथा गरीर, लाठी अजीव पुद्गलका सम्बन्ध भी है। इसलिये आलक व बंधके दो अधिकरण बताए गए है--एक जीवाधिकरण दूसग अजीवा-- धिकरण । जीवाधिकरण या जीवरूपी आधारके एकसो आठ भेद है----
शिष्य-क्या आप १०८ भेद बताएंगे ? ।
शिक्षक हरएक कामके करनेका इरादा किया जाता है।' इसको संरम्भ कहते है, फिर उस कामके करनेका प्रबंध किया जाता है इसको समारम्भ कहते है। फिर उस कामको शुरू किया जाता है इसको आरम्भ कहते है । जैसे दान देनेका भाव या इरादा करना संरम्भ है। दानके लिये चीजका लाना समारम्भ है । दान पात्रको देना सो आरम्भ है । इस हराएकके लिये मन, वचन, काय तीनाका प्रयोग जीव द्वारा होसक्ता है । जैसे-मनसे इरादा करना, वचनसे उसे कहना, कायके अंगसे उसको प्रकाश करना, तब संरम्भ समारम्भ, आरम्भको मन, वचन, कायसे गुणनेसे नौ भेद होंगे।
कोई काम स्वयं किया जाता है, कोई कराया जाता है, किसी कामकी अनुमोदना कीजाती है । जैसे-स्वयं करनेका विचार करना आदि, किसीसे करानेका विचार करना आदि, किसीने कोई काम कियाहै उसपर प्रसन्नताका भाव मनमें करना, वचनसे कहना, कायसे वताना तथा प्रसन्नताका इरादा करना, प्रसन्नतावतानेका प्रबंध करना, प्रसन्नता बता देना । इस तरह नौको कृतकारित व अनुमोदनासे गुणा करनेसे सत्ताईस २७ भेद होते है। अच्छे या बुरे किसी भी काम करनेके लिये कपायकी प्रेरणा होती है। कोई काम, क्रोधवश, कोई मानवा, कोई मायाचारीसे व कोई लोभवश किया जाता है। इस तरह २७ को ४ से गुणा करनेपर १०८ भाव जीवके होसक्ते है
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"१४२]
विद्यार्थी जनधर्म शिक्षा । जिनसे पाप या पुण्य किया जाता है। जैसे समरम्भादि ३xमन, वचन. काय ३xकृत आदि ३४कपाय ४%१०८ जीवाधिकरणके भंट है। - अजीवकरणके ११ ग्यारह भेद है---
१-मूल गुण निर्वर्तना-शरीर, वचन. मन, वामाच्यामका बनना।
२-उत्तर गुण निर्वर्तना--काठकी चौकी. मिट्टीके वर्तन, चित्रकर्म आदि काम गरीरके अंगोंसे बनाना ।
३-अप्रवेक्षित निक्षेप--विना देखे हुए पदार्थको रखना। ४- दुष्टप्रभृष्ट निक्षेप-दुष्टतासे क्रोधमे आकर रखना । ५-सहसा निक्षेप-जल्दीसे यकायक जहातहा पटक देना।
६--अनाभाग निक्षेप--जहासे वस्तुको उठाना वहां न रखकर कहीं और रख देना।
७-भक्तपान संयोग रागवश भोजनमें पीनेकी वस्तु मिलाना।
८--उपकरण संयोग-टंडे वर्तनमे गर्म वस्त, गर्म वर्ननमें ठंडी वस्तु रखना आदि।
९ काय निसर्ग-कायका हिलाना। १० वचन निसर्ग--वचनोंका कहना । ११ मनोनिसंग-मनका हिलाना ।।
नोट-यहा मनसे मतलब द्रव्य मनसे है जो हृदयस्थानमें आठ पत्तेके कमलके आकार है । यह हम पहले बता चुके हैं कि साधारण रीतिसे एक साथ सातों कर्म व कभी आठो कर्म बंधने है। तौ भी जिस कर्मके कारण भाव विशेष तरहके होते है उस कर्मका विशेष अनुभाग वन्धता है।
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आरव और बंध तत्व।
[१४३ शिष्य -क्या हरएक कर्मके बन्धके लिये विशेष भाव भी होत है ? कृपाकर उनको बता दीजिए।
शिक्षक-इनका जानना भी जरूरी है । (१)-ज्ञानावरण दर्शनावरणके वन्धक विशेष भाव
१-प्रदोष-किसीने सच्चे तत्वोंका उपदेश किया हो नौ भी मनमें प्रसन्न होकर दुष्टभाव या ईर्पाभाव रखना।
२-निन्हव-अपनेको किसी वातका ज्ञान होनेपर भी आलस्ट आदि कारणसे दुसरेके पूछनेपर कहना कि हम नहीं जानते है । अपने ज्ञानको छिपाना तथा अपने ज्ञानदाता गुरुका नाम छियाना।
३-मासय ईपीभावसे दुसरेको नहीं बताना । यह भाव रखना कि यदि यह जान जायगा, तो हमारी प्रतिष्ठा घट जायगी।
४-अन्तराय--ज्ञानकी उन्नतिके कारणोंमे विन्न करना। ५.-आसादन-ज्ञानको प्रकाश करनेसे किसीको मना करना । ६. उपघात--सच्चे ज्ञानको भी खोटी युक्तिसे ग्वंडन करना । शिप्य-ज्ञानावरण व दर्शनावरणके कारण एक क्यों है ?
शिक्षक-दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है। इसलिये दोनोंके वाधक कारण एकसे ही कहे गए है।
(२) असाता वेदनीय कर्मक विशेष वंधके भाव ।
(१) दुःख पीडा रूपी परिणाम, (२) शोक-इष्ट क्तुके वियोगपर मलीन चित्त होना. (३) ताप--निदा आदिके निमित्तसे तीव्र पछतावेके दुःखित परिणाम या किसी वस्तु के न मिलने पर पछतावा (४) आकंदन--आसु निकालते हुए क्लेग भावकी नीनासे रुदन, करना, (५) वध- आयु इन्द्रिय बल श्वासोछ्वास प्राणोंका
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१४४]
विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा। वियोंग करना. प्राण लेलेना, (६) परिदेवन-संक्लेश भावसे ऐसा रुदन करना जिससे दूसरोंके दिलमे दया पैदा होजावे ।
इन छ बातोको स्वय करनेसे व दूसरोंके भीतर पैदा करदेनेसे व आप व दूसरोंमे दोनोंके भीतर पैदा करा देनेसे असाता वेदनीयका विशेष बन्ध होता है।
शिष्य--यदि कोई वैराग्यवान होकर घर छोड कर साधु होजावे और इस कारणसे उसके घरवाले कष्ट पावें तो घर छोडनेवालेको असाता वेदनीयका बन्ध होगा या नहीं ।
शिक्षक-क्योंकि घर छोडनेवालोंके परिणाम घरवालोको कष्ट देनेके नहीं है कितु आत्म कल्याण करनेके है। घरवाले अपने स्वार्थवश मोहसे दुखी होते है । इस लिये उसे असाता वेदनीयका बन्ध न होगा। जहा भीतरसे परिणाम दुखित करनेके होंगे व अपना ऐसा स्वार्थ साधन करनेके होंगे जिससे दूसरोंको कष्ट पहुच जावे तो असाता वेदनीयके बंधका वह भागी होगा।
(३) साता वेदनीय कर्मके विशेष वंधके भाव ।
(१) भूतानुकम्पा--सर्व प्राणी मात्रपर करुणाभाव (२) वृत्यनुकम्पा-व्रती श्रावक व मुनियोके लिये विशेष दयाभाव कि वे किसी तरह कष्ट न पावें (३) दान- उपकार विचार कर आहार,
औषधि, अभय व विद्यादानका देना धर्मके पात्रोंको भक्तिपूर्वक देना दु खित प्राणियोंको दयाभावसे देना । (४) सराग संयम--धर्मके अनुराग सहित मुनिका चारित्र पालना (५) संयमासंयम--श्रावकका चारित्र धर्मप्रेससे पालना (६) अकाम निर्जरा-समताभावसे कर्मोके फलको भोग लेना (७) बाल तप--आत्मज्ञान रहित मंद कषा
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आस्रव और बंध तत्व।
[१४५ यमे तप करना (८) योग- समाधि या ध्यानमें प्रेमी होना (९) शान्ति--क्रोधको जीतकर क्षमाभाव रखना। (१०) शौच-लोभको मन्द करके संतोष रखना।
इत्यादि परहितकारी कार्योंसे साता वेदनीय कर्मका विशेष बन्ध होता है।
(४) दर्शन मोहनीय कर्मके बन्धके विशेष भावः
(१) केवलि अवर्णवाद-केवली अरहन्त भगवानकी निंदा करके मिथ्या दोष लगाना, (२) श्रुतअवर्णवाद-अर्हत भगवान प्रणीत आगमकी कुभक्तिसे निन्दा करना, (३) संघ अवर्णवादमुनि संघको मिथ्या दोष लगाना, ( ४ ) धर्म अवर्णवाद-रत्नत्रयमई मोक्षमार्ग रूप सच्चे धर्मकी मिथ्या निदा करना, (५) देव अवर्णवाद-देवगतिके जीवोंको मिथ्या दोष लगाना जैसे कहना कि देव शराब पीते है या मांस खाते है।
(५) चरित्र मोहनीयके वन्धके विशेप भाव-कषायोंके उदयसे जो तीव्र कषायरूप भाव होते हे उनसे चारित्रमोहनीयका बन्ध होता है। जैसे--अपने भीतर व दूसरोके भीतर कपाय पैदा करना, तपस्वी जनोंके चारित्रमें झूठा टोप लगाना,दुखी होकर साधु होजाना व व्रत धारना। नौ नो कपायोंके बन्धके विशेप भाव नोच प्रकार है--(१) दीनोंकी व सत्य धर्मकी हंसी उडाना, वहुत बकवाद सहित हंसी करनेका स्वभाव रखना, हास्यके बन्धका कारण है, (२) बहुत खेल कृदमें रति करना व गील व व्रतोंसे अरुचि करना, रतिके बन्धका कारण है, (३) दुसरेको अरति पैदा कर देना, पापोंमे
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१४६]
विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा रति करना, कुसंगति करना, अरतिके बंधका कारण है, (४) अपने
आप शोक करना व दूसरोंको शोकित देखकर प्रसन्न होना शोकके बंधका कारण है । (५) स्वयं भयभीत रहना व दूसरोंमें भय पैदा करदेना भयके बंधका कारण है । (६) शुभ कामोंसे घृणा करना जुगुप्साके बंधका कारण है । (७) असत्य भाषण, दूसरों को ठगना, दूसरोंके छिद्र देखना, कामभावकी वृद्धि रखना स्त्रीवेदके बंधका कारण है । (८) अल्प क्रोध रखना, घमड न करना, स्व स्त्रीमे संतोष रखना पुरुष वेदके बंधका कारण है । (९) तीन राग रखना, गुप्त इंद्रियको छेदना, 'परस्त्रीसे आलिंगन आदि नपुंसक वेदके बंधका कारण है ।
(६) नरकायुके बंधके विशेष भाव
(१) बहु आरंभ-न्यायको छोडकर अन्यायसे प्राणियोंको पीडाकारी व्यापार व अन्य आरंभ करना। (२) बहु परिग्रह-न्यायको छोडकर अन्यायसे भी परिग्रहको एकत्र करनेका तीन राग रखना। इन दोनों हेतुओंसे हिंसादि दुष्ट कार्योमे शीघ्र प्रवर्तना, परधन हर लेना, पाचों इंद्रियोंके भोगोंकी अति गृद्धता रखना, कृष्ण लेश्या सम्बन्धी हिंसानंदी, मृषानंदी, चौर्यानंदी, परिग्रहानंदी रौद्रध्यान करना तथा रौद्रध्यानसे मरना ।।
(७) तिर्यंच आयुके बंधके विशेष भाव
मायाचार करना, मिथ्यात्व सहित धर्मका उपदेश देना, शील व्रत न पालना, दूसरोंके ठानेमे राग भाव, नील कपोत लेल्या सम्बन्धी आर्तध्यान करना व आर्तध्यानसे मरना।
(८) मनुष्य आयुके बंधके विशेष भाव(१) अल्पारंभ-न्याय सहित व संतोष सहित व्यापारादि
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आस्रव और बंध तत्व।
[१४७ आरम्भ करना । (२) अल्ल परिग्रह-न्यायसे परिग्रहको एकत्र करनेमे संतोप रखना । (३) विनयरूप स्वभाव रखना। (४) स्वभावसे भद्र होना । (५) सरलतासे व्यवहार करना । (६) मंदकपायसे संक्लेश भाव रहित मरण करना।।
(९) देव आयु बंधके विशेष भाव
(१) सराग संयम-मुनिका चारित्र पालना, (२) संयमासंयम-श्रावकके बारह व्रत पालना । (३) अकाम निर्जरा-समताभावसे बन्धनका, भूख प्यासका, रोगादिका दुःख सहन करना। (४) चालतप-मिथ्या दर्शन सहित आत्मानुभव रहित कायक्लेश करते हुए बहुत तर करना । (५) सम्यक दर्शन-आत्मतत्व आदि सात तत्वोंमें दृढ़ श्रद्धान रखना । नोट-त्रा रहिन भी सम्यग्दृष्टी स्वर्गमें जाने लायक देवायुका बन्ध करता है । जो सम्यकदर्शनसे रहित हो और बाहरी वन मंयम पाले तो वह भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिपी देवोंमें भी पैदा होसता है व फार नौग्रैवेयिक तक भी जासक्ता है।
(१०) अशुभ नाम कर्मके बंधके विशेष भाव-(१) योगवक्रता-मन वचन कायको वक्र या कुटिल रखना, मायाचार सहित वर्तना, दूसरोंको चिड़ाना, नकल करना, (२) विसम्बाद--जो कोई शुभ कामों को करता हो उसको झगडा करते हुए मना करना व परस्पर बकवाद व गाली देते हुए लडना, (३) मिथ्यादर्शन, (४) पैशून्य चुगली करना, (५) अस्थिर चित्तता--मनकी चंचलता, (६) ऋट मान तुला काना-झूठे बांट गन रखना (७) परनिंदा, (८) आत्म प्रशंसा।
(११) शुभ नाम कके वन्य विगेपभाव --(१, योग
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१४८]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। सरलता-मन, वचन, कायको सरलतासे कपट रहित वर्ताना, (२) अविसम्बाढ-धर्म कार्यसे न रोकना, परस्पर झगडा न करना, (३) धार्मिक प्रेम, (४) संसारसे भय, (५) प्रमाढ न करना ।
(१२) तीर्थकर नाम कर्मके वन्धके विशेष भाव-पोड़ा कारण भावनाओंका वारवार विचारना । वे सोला भाव नीचे प्रकार है
(१) दर्शनविशुद्धि-मोक्षमार्गकी श्रद्धाको विशेप पालना। (२) विनयसंपन्नता-धर्म तथा धर्मात्माओका विनय करना।
(३) शीलवतेप्वनतिचार-अहिसादि व्रतोंके पालनमें व क्रोधादि रहित स्वभावमे दोष न लगाना ।
(४) अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग-शास्त्रके विचारमे व तत्वज्ञानमें नित्य चित्त जोड़ना।
(५) संवेग -संसारके दुःखोंसे वैराग्य करना, धर्ममें प्रेम रखना।
(६) शक्तितस्त्याग--शक्तिको न छिपाकर आहार, औषधि, अभय व विद्यादान देना। . (७) शक्तितस्तप-शक्तिको न छिपाकर शास्त्रानुसार तप करना।
(८) साधु समाधि-साधुओंपर उपसर्ग या कष्ट पडनेपर
उसे दूर करना।
(९) वैय्यामृत्य-धर्मात्मा व गुणवानोका दु ख या कटके समयमें निर्दोष उपायसे सेवा करके भेट देना।
(१०) अर्हत्भक्ति-श्री अरहंत भगवानकी पूजा, भक्ति, स्तुति करना।
(११) आचार्य भक्ति-आचार्य गुरुकी शुद्ध भावसे भक्ति करना। (१२) बहुश्रुत भक्ति--उपाध्याय व बहुव्रती साधुकी भक्ति करना।
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आस्रव और बंध तत्व।
[१४९ (१३) प्रवचन भक्ति-जिनशास्त्रोंके पठन पाठनका विशेष अनुराग रखना।
(१४) आवश्यकापरिहाणि-नित्यके छः कर्मोको न छोड़नारोज पालना। साधुके छ. कर्म है-सामायिक, वंदना, स्तुति, प्रतिक्रमण (पिछला दोप हटाना), प्रत्याख्यान ( आगामी दोष न करनेकी प्रतिज्ञा), कायोत्सर्ग (ध्यान ) । गृहस्थके छः कर्म है:देवपूजा, गुरुभक्ति, स्वाध्याय, संयम, तप ( सामायिक ) तथा दान।
(१५) मार्ग प्रभावना--ज्ञानप्रचार, विशेष तप, जिनपूजा, आदिके द्वारा धर्मका प्रकाश करके प्रभाव जमाना ।
(१६) प्रवचन वत्सलत्व-धर्मात्माओंके प्रति गौवत्सके समान प्रेम रखना।
(१३) नीच गोत्रके वन्धके विशेष भावः
(१) परनिंदा-परके दोष कहनेकी इच्छा करना, (२) आत्म प्रशंसा-अपने गुणोंकी- प्रशंसा करना, (३) परसद्गुणोच्छादनदुसरोंमें पाए जानेवाले गुणोंको छिपाना, (४) आत्मअसद्गुणोद्भावन--अपनेमें न होते हुए गुणोंका प्रकाश करना-शेखी मारना।
(१४) ऊंच गोत्रके बंधके विशेष भाव-(१) आत्मनिन्दा, (२) पर प्रशंसा, (३) आत्म सद्गुणोच्छादन--अपने गुणोंका ढकना, (४) पर सद्गुणोदभावन-दूसरेके गुणोंको प्रगट करना, (५) नीचेदृत्ति-विनयसे वर्ताव करना, (६) अनुत्सेक-विद्या, धन
आदिमें महान होनेपर भी अहंकार न करना । (१५) अन्तराय कर्मके बंधके विशेष भाव
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१५०]
विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा । (१) किसीको दान देते हुए विघ्न करना दानातरायके बंधका कारण है।
(२) किसीके लाभ होनेमे विन्न करना, लाभांतरायके वंधका कारण है।
(३) किसीके भोगोंमें विघ्न करना, भोगातरायके बन्धका कारण है।
(४) किसीके उपभोगोंमे विघ्न करना, उपभोगातरायके बंधका कारण है।
(५) किसीके उत्साहको भंग कर देना, वीर्योतरायके वंधका कारण है।
शिष्य-कर्मोके आठ भेद आपने वताएं है, इन आठ प्रकृतियोके भेद भी है ?
शिक्षक-कर्म प्रकृतियोंके एकसौ अडतालीस भेद है, आपको थै बताता हूं आप ध्यानमें लेलें।
(१) ज्ञानावरण कर्मके पांच भेद
मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय तथा केवल। इन पाचों ज्ञानोंको आवरण करनेवाले पांच कर्म है।
(१) मतिज्ञानावरण, (२) श्रुतज्ञानावरण, (३) अवधि ज्ञानावरण, (४) मन पर्ययज्ञानावरण, (५) केवलज्ञानावरण ।
(२) दर्शनावरण कर्मके नौ भेद(६) चक्षु दर्शनावरण-चक्षु दर्शनको रोकनेवाला ।
(७) अचक्षु दर्शनावरण-अचक्षु दर्शन, (आखके सिवाय और इन्द्रिय तथा मनसे होनेवाले दर्शनोको रोकनेवाला ।
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आस्रव और बंध तत्व।
[१५१ (८) अवधि दर्शनावरण-अवधिज्ञानक पहले होनेवाले अवधि दर्शनको रोकनेवाला।
केवल दर्शनावरण-केवल दर्शन (अनंत दर्शन)को रोकनेवाला।
(१०) निद्रा-जिसके उदयसे नींद आवे, (११)निद्रानिद्राजिसके उदयसे गाढ़ निद्रा आवे, (१२) प्रचला--जिससे ऊंघ आवे (१३) प्रचलाप्रचला-जिससे वारवार ऊंघ आवे । (१४) स्त्यानगृद्धि-ऐसी नींद जिसमें स्वममें कुछ काम करले फिर सो जावे।
(३) वेदनी कर्मके दो भेद(१५) सातावेदनीय-जिससे सुखका लाभ होसके । (१६) असातावेदनीय--जिसके फलसे अनेक प्रकार दुःख हों।।
(४) मोहनीयके अहाइस भेद--हम पहले गिना चुके है। तीन दर्शनमोहके, (१७) मिथ्यात्व, (१८) सम्यक्त्व, (१९) सम्यक्प्रकृति।
पचीस चारित्रमोहके (२० )से (२४) अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ । (२५)से (२८) अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ । (२९) से (३२) प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ । (३३) से (३६) संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ । (३७), से (४५) हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसकवेद।
(५) आयु कर्मके चार भेद- .
(४६) नारक आयु, (४७) तिर्यच आयु, (४८) मानुष आयु, (४९) देव आयु।
(६) नाम कर्मके ९३ भेद -जिनके फलसे शरीर बने ।
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१५२]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। चार गति (१९) नरक गति, (५०) नियेचगति, (५१) देवगति, (५२) मनुष्य गति। पांच जाति (५३) एकेंद्रिय, (५४) द्वंद्रिय, (५५) तेंद्रिय, (५६) चौद्रिय, (५७ ) पंचेंद्रिय । पांच गरीर (५८) औदारिक, (५१.) वैक्रियिक, (६०) आहारक, (६१) नेजस (६२) कार्मण । तीन अंगोपांग तीन गरीर हीमें अंग व उमंग बनते है । (६३) औदारिक, (६४) वैक्रियिक, (६५) आहारक, (६६) निर्माण-जिससे अंग उपंगका स्थान व प्रमाण बने । बंधन "पांच प्रकार (६७) औदारिक वं०, (६८) वैक्रियिक वं०,(६९)
आहारक व०, (७०) तैजस वं०, (७१) कार्मण बंधन । संघात पांच प्रकार-एकमेक होकर पुद्गलका मिल जाना। (७२) औठारिक सं०, (७३) वैक्रियिक सं०, (७४) आहारक सं०, (७५) तैजस सं०, (७६) कार्मण सं०। छः संस्थान (गरीरोंके आकार) (७७) समचतुरस्र संस्थान-सुडौल गरीर, (७८) न्यग्रोध परिमंडल सं०-वटवृक्षके समान ऊपर बडा नीचे छोटा, (७१) स्वाति सं० ऊपर छोटा नीचे बडा, (८०) कुजक सं०-कूबडा, (८१) वामन सं०--बौना, (८२) हुंडक सं०--बेडौल । छः संहनन (८३) वज्रपम नाराच संहनन--वज्रके समान मजबूत नोंके जाल कीले व हड्डी (८४) वज्र नाराच सं०- वज्रके समान कीले व हड्डी, (८५) नाराच सं०- दोनों तरफ कीलेदार हड्डी. (८६) अर्धनाराच सं०--एक तरफ कीलेदार हड्डी, (८७) कीलक सं०- हड्डी हड्डीसे कीलित हो, (८८) असम्प्राशासपाटिका सं०-हड्डी माससे मिली हो । आठ स्पर्श-८९) कर्कश, (९०) नम्र, (९१) गुरु--भारी, (९१) लघु--हलका, '९३) स्निग्ध-चिकना, (९४) रक्ष--रूखा, (१५) उप्ण, (९६) शीत ।
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NA
आरव और बंध तत्व।
[१५३ पांच रस--(९७) तिक्त- तीखा,(९८) कटुक--कडवा, (९९) कपायकषायला, (१००)आम्ल--खट्टा, (१०१) मधुर। दो गंध, (१०२) "सुगंध (१०३) दुर्गंध, वर्ण पांच, (१०४) शुक्ल, (१०५) कृष्ण, .(१०६) नील, (१०७) रक्त, (१०८) पीत । आनुपूर्वी चार--जिससे विग्रह गतिमें पूर्व शरीरके आकार आत्मा रहे, जबतक दूसरे शरीरमें न पहुंचे । ( १०९ ) नरकगत्यानुपूर्वी-नरक गति जाते हुए पूर्वका आकार, ( ११०) तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, ( १११) मनुष्यगत्यानुपूर्वी, •
(११२) देवगत्यानुपूर्वी, (११३) अगुरुलघु--न बहुत भारी न __ हलका, (११४) उपघात--जिससे अपनेसे अपना घात करे (११५) 'परघात-जिससे परका घात हो, ( ११६ ) आतप--धूप जो परको ताप करे, (११७) उद्योत--प्रकाश, (११८) उच्छ्वास, (११९) प्रशस्त विहायोगति--शुभ चाल, (१२०) अप्रशस्तविहायोगति -अशुभ चाल, (१२१) प्रत्येक शरीर--एक
शरीरका एक स्वामी, (१२२) साधारण शरीर- एक शरीरके अनेक “स्वामी, (१२३ ) त्रस-द्वेन्द्रियादि, (१२४ ) स्थावर--एकेन्द्रिय, (१२५) सुभग--परको प्रीतिकारी, (१२६) दुर्भग--परको अप्रीतिकारी, (१२७) सुस्वर (१२८) दुस्वर, (१२९) शुभ- सुन्दर,
(१३०) अशुभ--असुन्दर, (१३१) मूक्ष्म--अबाधाकारी, (१३२) __ वादर--बाधाकारी, (१३३) पर्याप्ति -आहारादि पर्याप्ति पूर्ण हो,
(१३४) अपर्याप्ति, (१३५) स्थिर, (१३६) अस्थिर, (१३७) आदेय-प्रभावान शरीर, (१३८ ) अनादेय-प्रभारहित शरीर, (१३९) यश कीर्ति, (१४०) अयश कीर्ति, (१४१) तीर्थकर ।
(७) गोत्रकर्म दो प्रकार--(१४२) उच्चैर्गोत्र-जिससे लोक
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१५४]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। पूजित कुलमे जन्म हो. (१४३) नीचैर्गोत्र--जिसमे निंदित कुलमें जन्म हो।
(८) अंतराय कर्म पांच प्रकार--(१४५) दानांतराय-दानमें विघ्न करे, (१४५) लाभांतराय, (१४६) भोगांतराय, (१४७) उपभोगांतराय, (१४८) वीयांतराय--आत्मबल घाने ।
__ यह हम आपको बता चुके है कि बंध होने समय कमोमें • स्थिति पड़ती है। यदि कपाय अधिक होती है, तो अधिक कपाय. कषाय कम होती है तो कम । आयु कर्मका विशेष भी बता चुके है । आठों कर्मोंकी उत्कृष्ट व जघन्य स्थिति हम बताते है, मध्यमके अनगिनती भेद है।
स्थिति भेट। कर्मनाम उत्कृष्ट
जघन्य (१) ज्ञानावरण-- तीस कोडाकोडी सागर - अन्तर्मुहुर्त (२) दर्शनावरण-- (३) वेदनीय
-बारह मर्त (४) मोहनीय- सत्तर .,
--अंतरर्मुहूर्त (५) आयु - तेतीस सागर
.. " (६) नाम- वीस कोडाकोडी सागर .-आठ मुहूर्त (७) गोत्र(८) अन्तराय-- तीस , ___.अंतर्मुहूर्त
नोट-एक सागर अनगिनती वर्षोंका होता है। कोड़को कोड़से गुणा करनेसे कोडाकोडी होता है। ४८ मिनटका एक मुहूर्त होता है । उससे कम अन्तर्मुहर्न होता है।
"
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आस्रव और बंध तत्व।
[१५५ अनुभाग बंधका कुछ विशेष हाल यह है कि घातीय कर्मोमें कपायोंकी तीव्रता या मंदतासे चार प्रकारका रस या फल दान बल पड़ता है। लता (वेल) के समान कोमल, २ दारु (काठ)के समान कटोर, ३ अस्थि (हड्डी) के समान कठोर, ४ पाषाण (पत्थर) के समान अति कठोर। .
अघातीय कर्मोकी पुण्य प्रकृतियोंमें चार प्रकारका रस या फल दान बल पड़ता है । १-गुड़के समान कम मीठा, २-खांडके समान अधिक मीठा, ३-शर्करा (मिश्री)के समान बहुत मीठा, ४-अमृतके समान बहुत मीठा।
अघातीय कर्मोकी पाप प्रकृतियोंमे चार प्रकारका रस या फल दान बल पड़ता है। १-नीमके समान कडुवा, २-कांजीरके समान कडवा, ३-विषके समान खुरा, ४-हालाहल विषके समान बहुत बुरा।
प्रदेश बंधमें इतना जानना चाहिये कि हरसमय योगोंके अनुसार कर्मवर्गणाएं खिंचकर आती है। और वे उस समय बंधनेवाले कमोंमें यथासंभव बंट जाती हैं। यदि योगशक्ति तेज चलती है तो अधिक कर्म पुद्गल आते हैं। यदि मंद चलती है तो कम कर्म पुद्गल आते हैं।
शिष्य-कर्मके फल देनेकी कोई विशेष विधि है ?
शिक्षक-कर्म कैसे फल देते है, इसका कुछ हाल आपको बता देना जरूरी है। जब कर्म बन्धते हैं तब उनके लिये कुछ
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१५६]
विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा। काल पकनेको लगता है। इस बीचके कालको आवाधा काल कहतं है। इसका दृष्टात ऐसा ही समझ लिया आवे जैसे-रवेतमें बोए हा आमको कुछ काल पकनेमे लगता है । इस आवाधा कालका हिमात्र यह है कि यदि एक कोडाकोडी मागरकी स्थिति पडे तो आवाधाकाल १०० वर्षका होता है । सत्तर कोडा कोडी सागरकी स्थिति हो तो ७००० वर्ष आवाधा काल होगा । इसीका औसत हिसाब निकाला जाय तो एक करोड सागरकी स्थितिके लिये आवाधा काल मात्र एक अन्तर्मुहर्त के लिये ही होगा । इसके आप यह बात जान सक्ते है कि जितने कम स्थितिके कर्म बन्धेगे वे जल्दी फल देनेको तैयार होजायगे । इससे यह बात आप समझ लेवें कि कर्म इम जन्मके बांये हुए भी इस जन्ममे उदय आने लगते है।
दूसरी बात यह जाननी चाहिये कि आवाधा कालको निकाल कर जितने कर्मोकी जितनी स्थिति वाकी रहती है, उसमे कर्मपुद्गल प्रति समयके हिसावसे बंट जाने हे। पहले२ अधिक कर्म अडते है फिर कम कम होते हुए अतिम समयमे सबसे कम अडने है ।
इस अधिक व कम कर्मोके झडनेका एक दृष्टान्त आपको देते है जिससे आप समझ लेंगे।
जैसे किसी जीवने ६३०० कर्म ४९ समयकी स्थितिवाले बाधे और १ समय उसका आवाधाकाल रक्खा जाये तो ४८ समयमे वे किस तरह अडेंगे उसका हिसाव नीचेके नकोसे समझमे आयगा । इसका विशेष खुलासा श्री गोमटसार कर्मकाउसे जानना योग्य है
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आस्रव और बंध तत्व।
[१५७
६
-
१४४
*
सष्टम सप्तम षष्ठम
१६०
३५२
पंचम
३८४ ४१६
चतुर्थ तृतीय द्वितीय प्रथम
१७६ १९२ २०८ १०४ २२४ २४० १२० २५६ / १२८
४४८ ४८० ५१२
११२
* *
-
-
जोड़.... ३२०० १६०० ८००, ४००, २००, १००
इस नकोसे विदित होगा कि ४८ समयोंके आठ आठ समयोंके छः विभाग किये गये है। पहले भागमें पहले समयमें ५१२ कर्म' झडेंगे, फिर ३२, ३२ कम होने है । आठवेंमें २८ झडेंगे, दूसरे भागके पहले समयमे २५६, आठवमें १४४ इस तरह छठे भागके आठवें समयमे केवल ९. ही अडेगे। इस भागको गुणहानि कहते है। उसके कालको गुणहानि आयाम कहते है। यह हिसाब आयु कर्मके विना सात कर्मों के लिये है। आयु कर्मकी आबाधा बन्धनेके पीछे जहांतक मरे नहीं वहां तक है, फिर उस आयु कर्मका बटवारा उस आयुके समयोंमें होजाता है और कर्म समय२ झड़ते हैं। ____कर्म बन्धनेके पीछे आबाधा काल पीछे झडने लगते है । अहंत समय यदि निमित्त अनुकूल होता है तो फल दिखाकर अडते है नहीं तो विना फल दिखाए अडते हैं। जैसे चारों कपायोंका बन्ध एक साथ किया था व उनकी स्थिति भी बराबर पड़ी थी तब
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'१५८ ]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा |
I
चारों कषायोंके कर्म अबाधा कालके पीछे झडना शुरू होंगे उनमेसे एक कोई कपायके कर्म तो फल देके अंगे बाकीके तीन कषायके कर्म विना फल दिये झडेंगे, क्योंकि एक समय एक ही कषाय भावोंमे होती है । क्रोध, मान, माया, लोभ चारोंका एक साथ झलकाव नहीं होता है । अथवा जैसे कोई मानव एकात में बैठकर शास्त्रका पाठ बडे प्रेमसे आध घंटानक कर रहा है उस समय उसके धर्मका लोभ है इससे लोभ कपाय कर्म तो फल देकर झड रहे है, शेष तीन कपायके कर्म विना फल द्विये झड रहे है । कर्मका फल होनेमे बाहरी निमित्त बहुत आवश्यक हैं । जैसे किसी मानवके कामभाव जागृत करनेवाला वेद नोकपाय कर्म हरसमय झड़ रहा है परन्तु वह मानव एक पवित्र साधुके आश्रनमे रातदिन स्वाध्याय व ध्यान करता हुआ व धर्मचर्चा करता हुआ रहता है, वहां कोई स्त्रीका सम्बन्ध नहीं है न वहा कोई काम भावकी चर्चा है तब जबतक ऐसा सम्बन्ध बना रहेगा उसके भावमे काम भाव जागृत न होगा । यदि कदाचित् उसको कहीं सुंदर स्त्रीका दर्शन होजाय तो निमित्त होनेसे उसके वेदका उदय फलढाई हो जायगा । इसलिये यह उचित है कि हम लोग अपने आत्मबलमे हरएक काम विचारपूर्वक करें, खोटे निमित्तोंको बचायें तो हम बहुतसे अशुभ कर्मके उदयके फलसे बच सक्ते है । इसी तरह यदि हम धन कमानेका कोई निमित्त न बनावें तो धनागमका सहकारी पुण्य भी विना फल दिये झड जायगा -- निमित्त होनेसे फलदायी होजायगा । कभी कोई पाप या पुण्य कर्म अति तीव्र होता है तो उनका फल अवश्य होजाता है वैसा निमित्त मिलजाता है। जैसे कोई सम्हाल कर
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आस्रव और बंध तत्व
[१५९ किसी अच्छी गाडीपर जारहा है । मार्गमे गाडी उलटनेसे चोट लग जाती है, यहा तीव्र असाताका उदय समझना चाहिये। या कोई मानव किमी गरीब कुटुम्बमे पैदा हुआ और वह कुछ उम्र बीतनेपर किसी धनवानके घर गोद चला जाता है और धनवान होजाता है। उस समय उसके नीत्र पुण्य का उदय समझना चाहिये ।
शिष्य- मैं इस बातको समझ गया कि किस तरह कर्म अपना फल देते है । जैसा कोई कर्म बांधता है वैसा ही उसका फल होता है या उसमे कुछ तबदीली या परिवर्तन होसकता है।
शिक्षक-कर्म बन्धनेके पीछे नीचे लिखी हालतें होसक्ती है। जीवोंके परिणामोंके निमित्तसे परिवर्तन होजाता है ?
(१) उत्कर्पण-जीवोंके भावोके निमित्तसे पहले बाधे हुए कर्मोकी स्थिति या उनके अनुभागका बढजाना ।
(२) अपकर्षण-जीवोंके भावोंके निमित्तसे पहले बधि हए कर्मोकी स्थिति व अनुभागका घट जाना।
(३) संक्रमण-जीवोंके भावोंके निमित्तसे पापका पुण्यमें या पुण्यका पापमे बदल जाना।
(४) उदीर्णा-किन्हीं क्मों को किसी निमित्तके वश अपनी ठीक स्थितिके पहले ही उदयमे ल कर आड देना । जैसे हम किसी भोजन या औषधिको खाचुके है, फिर कोई और औषधि या भोजन खालें तो उस पहले भोजन या अपधिकी शक्तिको बढ़ा सक्त है या बुरे भोजनका असर अच्छा कर सक्ते है। यही वात कर्मके बंधके सम्बन्धमें भी जानना चाहिये । कभी कोई औषध खाकर भोजनको
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१६० ]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा ।
जल्दी पका सक्ते है | जैसे स्थूल शरीर में भिन्न २ क्रियाएं होती हैं
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वैने मौके बने हुए सूक्ष्म शरीरमे जानना चाहिये ।
कर्मो के आसव और बन्धके सबंध में जो जो जरूरी बातें जानने लायक थीं सो आपको बता दीगई है ।
आठवां अध्याय ।
संवर, निर्जरा और मोक्ष ।
शिक्षक - अब हम आपको सवरके सम्बन्धमें कुछ विशेष बताना चाहते है ।
आस्रवका विरोधी संवर है । जिन भावोंसे कर्म आते हैं इनको रोक देना संवर है । क्या आप बताएंगे कि आसव भाव क्या क्या है ?
शिष्य - पहले आप बता चुके है कि कर्मोके आनेके भाव अर्थात भावास्रुव मिथ्यात्व, अविरत. प्रमाद कषाय, योग है । शिक्षक- उन हीके विरोधी सन्यकूदर्शन. त्रन, अप्रमाद, निष्कपाय तथा योगरहितपना है ।
मिथ्यात्वके दूर करने के लिये हमे सम्यकुदर्शन प्राप्त करना चाहिये | निश्चय सम्यक्दर्शन अपने आत्माके असली स्वरूपका विश्वास है कि यह आत्मा पूर्ण ज्ञातादृष्टा आनन्दमई वीतराग व अमृतक है । यह भावकर्म रागद्वेषादि, द्रव्यकर्म ज्ञानावरणादि, नोकर्म शरीरादिसे भिन्न है । इस निश्रय सम्यक्दर्शन के लिये व्यव
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[१६१ वहार सम्यक्दर्शनकी जरूरत है। सच्चे देव, शास्त्र, गुरुमें विश्वासा करना तथा सात तत्वोंमे विश्वास करना व्यवहार सम्यकदर्शन है। ____ हम दूसरे अध्यायमें णमोकार मंत्रका अर्थ समझाते हुए बता चुके हैं कि अरहंत व सिद्ध देव है। आचार्य, उपाध्याय साधु गुरु है। उनके रचित ग्रन्थ शास्त्र है।
सात तत्वोंका संक्षेप स्वरूप भी हम बता चुके हैं। जब कोई श्री जिनेन्द्रदेवकी भक्ति करता रहेगा, शास्त्रोंका अभ्यास करता रहेगा, धर्मज्ञाता गुरुसे समझता रहेगा व एकांतमें नित्य बैठकर मनन करेगा कि आत्माका स्वभाव भिन्न है व कर्मादि भिन्न है तब अभ्यास करते करने कभी ऐसा अवसर आसक्ता है जब सम्यक्दर्शनके रोकनेवाले कर्म दर्शनमोह तथा अनन्तानुबंधी कषाय उपशम होजाते है और उपशम सम्यक्दर्शन पैदा होजाता है । तब मिथ्यात्व
और अनंतानुबंधी कपायोंके कारण जो कर्म आते थे उनका आना बन्द होनाता है।
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा परिग्रह त्याग इन पांच व्रतोंको पूर्ण पालनेसे अविरत भाव विलकुल छूट जाता है व इन्हींको, थोड़ा पाल लेनेसे जैसा गृहस्थोंके संभव है कुछ अविरत भाव दूर होता है। प्रमादके दूर करनेके लिये अप्रमाद भाव प्राप्त करना चाहिये । धर्म कार्योंमें कभी आलस्य न करना चाहिये । कषायोंके दूर करनेके लिये वीतराग भाव बढाना चाहिये। योगोंकी प्रवृत्ति मिटानेको मन वचन कायको वश रखना चाहिये । साधारण उपाय कर्मोके आसवोंके रोकनेका यह है कि जिस जिस बातकी अपनी . आदत पड़ी हो उसको त्याग देना चाहिये । जैसे किसीको जुआ
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विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा। खेलनेकी आदत हो उसे जूआ त्याग देना चाहिये । तब जूएके भावसे जो कर्म आते थे वे रुक जाते है। भावोंको निर्मल रखनेके लिये व कर्मों के आगमनको रोकनेके लिये संवरके उपाय इस प्रकार जैन शास्त्रोंमे बताए हे
(१) गुप्ति, (२) समिति, (३) धर्म, (2) अनुप्रेक्षा, (५) परीपह जय, (६) चारित्र, (७) तप तपमे कांकी निर्जरा भी होती है । तपसे बहुतसे कर्म विना फल दिये हुए झड जाते है । इसको अविपाक निर्जरा कहते है। जो कर्म फल देकर झड़ने है उसको सविपाक निर्जरा कहते है।
शिष्य-इनका कुछ स्वरूप बतादीजिये ।
शिक्षक-हमें बहुत संक्षेपसे बताना है । क्योंकि आप बुद्धिमान है जल्द समझ जावेंगे।
(१) गुप्ति-मन, वचन, कायके हलन चलनको गेमकर ध्यानमग्न रहनेसे व आत्माका अनुभव करनेसे बहुत कर्मोंका आना रुकता है। यह गुप्ति संवरका सनसे प्रवल उपाय है। जो कोई तीनोको रोककर हर समय ध्यान न कर सके उसके लिये पाच समिति बताई है कि वह सम्हाल कर वर्ने जिससे पापोका आना न हो।
(२) समिति-भले प्रकार वर्तनेको समिति कहते है । ये पाच है। (१) ईर्या-चार हाथ भूमि देखकर दिनमे जंतु रहित हुए मार्ग पर चलना । (२) भाषा--शुद्ध सरल मीठी वाणी कहना । (३) एपणा--गृहस्थका दिया हुआ शुद्ध भोजन लेना। (४) आदान* स गुप्तिममितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजय चारित्रै. ॥२॥
तपसा निर्जरा च ।। ३०९॥ त० सू०
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[१६३ निक्षेपण--किसी वस्तुको देखकर रखना उठाना । (५) उत्सर्ग या प्रतिष्ठापन--मल मूत्र जंतु रहित भूमिमे करना।
पाच प्रकार समितिको पालते हुए प्रमाद व कषायको जीतनेके लिये ढग विध धर्मका भाव रखना चाहिये।
(३) दश धर्म-(२) उत्तम क्षमा-कष्ट पाने व हानि किये जानेपर भी क्रोध न करके क्षमा रखना। परिणामों को मलीन न करना उत्तम क्षमा है।
(२) उत्तम मार्दव-अधिक तपस्वी व विद्वान होनेपर भी व आमान पानेपर भी कभी मानभाव न लाकर कोमल भाव व विनीत भाव रखना उत्तम मार्दव है।
(३) उत्तम आजिव--अनेक कष्ट होनेपर भी मायाचार करके स्वार्थको सिद्ध करनेकी भावना न करनी । सरलतासे मन, वचन, कायको धर्म लाभार्थ माया रहित वतांना उत्तम आर्जव हे |
(2) उत्तम शौच--लोभमे परिणाम मैला न करके, पूर्ण संतोप पालना । लाम, अलाममें समभाव रखना उत्तर गौच है।
(५) उत्तम सत्य -धर्म वृद्धि के हेतु शास्त्रोक्त वचन कहना। कभी भी परमागमके विरुद्ध नही कहना उत्तम सत्य है ।
(६) उत्तम संयम--पाच इन्द्रिय मनको अपने आधीन रखना तथा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, व त्रस कायिक प्राणियोकी रक्षा करना उत्तम संयम है। (७) उत्तम तप-कर्मो के नाशके लिये
आत्माको ध्यानसे तपाकर शुद्ध करना उत्तम तप है। (८) उत्तम त्याग-परोपकारके लिये जान दान व अभय दान आदि देना उत्तम त्याग है । (९) उत्तम आकिंचन्य -सर्व पर पदार्थोमे ममता त्यागकर
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विद्यार्थी मैनधर्म विक्षा। निर्ममत्व भाव रखना उत्तम आकिचन्य है।
(१०) उत्तम ब्रह्मचर्य-काम भावको त्यागकर ब्रह्मचर्य पालकर ब्रह्म स्वरूप आत्माका मनन करना उत्तम ब्रह्मचर्य है। इन दश धर्मोके पालनेसे पाप कर्मोका बहुत अधिक मंवर होता है।
(४) वारह अनुप्रेक्षा या भावना--ऊपर कहे हुए दग धर्मोके पालनेके लिये बारह भावनाओंका चितवन बार बार करना जरूरी है । ये भावनाएं वैराग्यकी वृद्धिके लिये बहुत आवश्यक है
(१) अनित्य भावना-शरीर, भोग सामग्री, कुटुम्ब संयोग, जीवन सब जलके बुल्लेके समान या बिजलीके समान नागवंत है। इनको नाशवन्त मानकर मोह करना मूर्खता है।
(२) अशरण भावना-जीवोंको मरणसे व तीत्र कर्मोके उदयसे कोई बचा नहीं सक्ता ऐसा विचार कर निरन्तर निज आत्मा या अरहंत आदि पांच परमेष्टीकी शरण लेना अशरण भावना है।
(३) संसार भावना--संसारी जीव कर्मोके उदयसे चारों गतियोंमें भ्रमण करते हुए तृप्णाकी दाहको शमन नहीं कर पात है। इस लिये संसारासक्त अज्ञानीको कहीं भी सुख नहीं है। गारीरिक व मानसिक दु खोंसे संसारी जीव सदा पीडित रहते है । सुखशांति आत्माके ज्ञानसे ही होसक्ती है।
(४) एकस्व भावना--इस जीवको अकेले ही जन्मना, मरना व अपने वाधे हुए पाप पुण्य कर्मोका फल भोगना पड़ता है । यह आत्मा वास्तवमे सर्व कर्मोसे व रागादि भावोंसे रहित है । इस अपने एक स्वभावका मनन करना, अपनेको अपनी उन्नति व अवनतिका जिम्मेदार समझना एकत्व भावना है।
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संवर, निरा और मोक्ष।
[१६५ (५) अन्यत्व भावना-यह शरीर पुद्गलमय जड़ है, आत्मा मेरा चेतन है, उससे जब यह जुदा है तब शरीरके सम्बन्धी स्त्री पुत्रादिक धन राज्यादि मेरे कैसे होसक्ते है ? यह रागादि भावकर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म भी अन्य है। इनका सदा ही परिवर्तन होता रहता है-मैं अन्य हूं।
(६) अशुचि भावना-यह मेरा मानव देह वीर्य व रुधिरसे उत्पन्न मल, मूत्र, कीट रुधिर, अस्थि मांसादिका पिंड महान अपवित्र है। गंधमाला वस्त्रादि सर्व पदार्थों को मलीन करनेवाला है, आयु कर्मके आधीन क्षणमात्रमें छूट जानेवाला है। इसको नौकरके समान रखकर धर्म अर्थ काम मोक्ष चारों पुरुषार्थ साध लेना चाहिये। इसके मोहमें अंध हो पवित्रात्माको अपवित्र व कैदमें न रखना चाहिये।
(७) आस्रव भावना-मन वचन काय, विषय कषायोंके आधीन होकर जो क्रिया करने है उनसे कर्म आकर बंधते हैं, उन कर्मोके उढयसे जीव भव भवमें भटकता फिरता है। ये कर्मास्तव मिटाने लायक है।
(८) संवर भावना-जिन २ कारणोंसे कर्म आकर बंधने हैं उनको हमें रोक देना चाहिये । इसी उपायसे आत्मा अपनेको शुद्ध कर सकता है।
(९) निर्जरा भावना-सविपाक निर्जरा सर्व जीवोंके सदा हुआ करती है । उससे आत्मा शुद्ध नहीं होसक्ता । क्योंकि नवीन कर्म फिर बन्ध जाते है । संवर पूर्वक अविपाक निर्जरा करनेका उपाय वीतरागता सहित इच्छाको रोक कर तप साधन करना है सो मुझे करना चाहिये ।
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विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा। (१०) लोक भावना-यह लोक अनन्त आकागके मध्य जीवादि छह द्रव्योंसे सर्वत्र भरा है। ये द्रव्य नित्य है आकृतिम है । इससे यह लोक भी अकृतिम है। द्रव्योंमे पर्याय होती रहती है इससे द्रव्य अनित्य भी है, इससे लोक भी अनित्य है । इसका कोई कर्ता हर्ता नहीं है । हमे लोकमे राग न करके आत्म शुद्धि करनी चाहिये। ___ (११) बोधिदुर्लभ भावना- रत्नत्रय धर्मका लाभ बड़ी कठिनतासे होता है । मानव जन्म, दीर्घायु, उत्तम संयोग, सुबुद्धि मिलना ही दुर्लभ है । तिसपर भी सच्चा उपदेश मिलना, तत्वज्ञान मिलना व रत्नत्रयको समझना अतिशय कठिन है । अब मुझे जो इस रलत्रय धर्मका लाभ हो गया है, तो इसको भले प्रकार पालकर आत्मोद्धार करना चाहिये।
(१२) धर्म भावना--सत्य धर्म आत्माका स्वभाव है, अहिंसामय है । उत्तम क्षमादि दश धर्म रूप है, मुनि व श्रावकके भेदसे दो प्रकार है। धर्म ही प्राणीका सच्चा मित्र है, यही उत्तम सुखको सदा देनेवाला है तथा आत्माको पवित्र करनेवाला है। इसलिये मुझे धर्मका साधन बड़े प्रेमसे करना चाहिये ।।
(५) २२ परीषह जय-कर्मोंके उदयसे नीचे लिखी २२ परीषहोमेसे एक व अनेक कष्ट आन पड़े तो उनको समताभावसे सहना। ध्यानसे व सामायिक भावसे न हटना परीषह जय है।
(१) क्षुधा (२) प्यास (३) शरदी (४) गरमी (५) डास मच्छर (६) नमपना (नम रहते हुए लज्जाभाव न आने देना) (७) अरति (८) स्त्री द्वारा मनन डिगाना (९) चलनेकी (१०) बैठनेकी(११)
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संवर, निर्जरा और मोक्ष ।
[१६७ सोनेकी (१२) गाली सुननेकी (१३) वध या मारे जानेकी (१४), याचना (भोजनका अलाभ होनेपर भी मागनेका भाव न करना) (१५) अलाभ (में खेद न करना) (१६) रोग (१७) तृण स्पर्श (झाडियोंका कटिन स्पर्श) (१८) मल शरीरको मैला देखकर ग्लानि न लाना) (१९) आढरे निरादर (२०) ज्ञानका मद (२१) अज्ञान (पर खेद न करना) (२२) अदर्शन (विशेप लाभ तपादिसे न होनेपर श्रद्धान न बिगाडना)
(६) चारित्र पांच प्रकार है-(१) सामायिक--समताभावमें लीन रहना (२) छेदोपस्थापना--सामायिकके भावसे चलित होनेपर फिर अपनेको सामायिकमें स्थापित करना (३) परिहारविशुद्धिजहां प्राणियोंकी हिंसा विशेषरूपसे बचाई जावे। (४) सूक्ष्मसांपरायदेसवें गुणस्थानमें होनेवाला चारित्र (५) यथाख्यात-आदर्श वीतरागता जो ११वें गुणस्थानसे सिद्धों तक पाई जाती है। इस चारित्रसे विशेष कर्मोका संवर होता है।
(७) वारह प्रकार तप-छ: बाहरी तप हैं जो दूसरोंको प्रगट हों। (१) अनशन-रागको दूर करनेके लिये खाद्य, स्वाद्य, लेह्य, पेय चार प्रकार आहार त्यागकर उपवास करना । (२) अवमोदर्य-प्रमादके विजयके लिये भूखसे कम खाना। (३) वृत्तिपरिसंख्यानभिक्षाको जाते हुए एक दो चार गृह जानेकी व अन्य प्रतिज्ञा देश कालके अनुसार लेना जिससे गहस्थोंको विशेष आरम्भ न करना पड़े, प्रतिज्ञा पूर्ण होनेपर आहार लेना । (४) रसपरित्याग--धी, दूध, दही, तेल, मीठा, निमक इन छ: रसोंमेसे सबका या कुछका त्यागः, करना । (५) विविक्त शय्यासन-एकांतमें शयनासन करना।
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विद्यार्थी जैनधर्म शित। (६) कायक्लेश--शरीरके मुखियापन मेटनेको कटिन २ स्थानोंपर तप करना।
छ: अंतरंग तप है (१) प्रायश्चित्त -प्रमादमे लगे हुए दोपोंका दंड गुरुसे लेकर शुद्धि करना । यह ठंड नौ प्रकारसे होता है-- (१) आलोचना-गुरुसे अपने दोपको कह देना । (२) प्रतिक्रमणमेरे दोष मिथ्या हों ऐसी भावना करनी । (३) तदुभय- पहली दोनों बातोंको करना। (४) विवेक-किसी अनुपान रस आदिका त्याग देना । (५) कायोत्सर्ग-नौ णमोकार मंत्रको सत्ताईस श्वासमे पढना ऐसे कायोत्सर्गोका दंड । (६) तप-उपवासादि । (७) छेद-दीक्षाके दिन कम करके दर्जा घटा देना। (८) परिहार--कुछ कालके लिये संघसे दूर रखना । (९) उपस्थापन-फिरसे दीक्षा देना। __ (२) विनय-चार प्रकार- (१) ज्ञानकी विनय, (२) सम्यक्दर्शनकी विनय, (३) चारित्रकी विनय, (४) उपचार या व्यवहार विनय-दंडवत् प्रणाम आदि, (३) वैय्यात्य--दश प्रकारके साधुओंकी सेवा करना, (१) आचार्य, (२) उपाध्याय. (३) तपस्वी, (४) शैक्ष-नए दीक्षित साधु, (५) ग्लान-रागी, (६) गण--एक परिपाटीके (७) कुल एक दीक्षादाता आचार्यके शिष्य, (८) मंघ--मुनि समूह, (९) साधु-दीर्घकालका दीक्षित, (१०) मनोज्ञ--लोकप्रसिद्ध । (४) -स्वाध्याय-इसके पाच भेद है-(१) वाचना, (२) प्रच्छना- पूछना, (३) अनुप्रेक्षा--बारवार चिन्तवन करना, (४) आम्नाय-शुद्ध पाठ व अर्थ कंठस्थ करना, (५) धर्मोपदेश। (५) व्युत्सर्ग--दो प्रकार--(१) बाह्य उपधि व्युत्सर्ग--बाहरी धन धान्यादि परिग्रहका त्याग। (२) अभ्यंतर उपधि व्युत्सर्ग--अंतरंगके क्रोधादि परिग्रहका त्याग । (६)
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ध्यान- एक तरफ उपयोगका या चित्तका रोक देना। यह चार प्रकारका है । (१) आर्त्तध्यान, (२) रौद्र्ध्यान, (३) धर्मध्यान, (४) शुक्लध्यान | दो पहले ध्यान संसारके बढ़ानेवाले है, दो पिछले ध्यान -मोक्षके कारण है। आर्तध्यान चार प्रकार - दुःखित भावोंको रखना आर्तध्यान है। यह चार कारणोंसे होता है । (१) अनिष्ट वस्तुके संयोग होनेपर, उससे छूटने की चिन्तासे । (२) इष्ट वस्तु के वियोग होनेपर, उससे मिलनेकी चिंतासे, (३) रोगादि होने से, (४) आगामी भोगाभिलाप करनेसे । रौद्रध्यान दुष्ट भावोंको कहते हे । दुष्ट भाव चार कारसे होता है । (२) हिंसा में आनन्द माननेसे, (२) असत्यमें आनन्द माननेसे, (३) चोरीमें आनंद मानने से, (४) परिग्रहमें आनंद माननेमे ।
धर्म ध्यान चार प्रकारका है । (१) आज्ञा विचय--जिनागमके अनुसार तत्वोंका विचार करना. (२) अपाय विचय - अपने व दूसरोके राग, द्वेष, मोहके नागका उपाय विचारना, (३) विपाक विचयअपने व दूसरोंके दुःख सुख देखकर कर्मोकी पकृतिको विचारना जिनके उदयसे सुख या दुःख होरहा है, (४) संस्थान विचयलोकका स्वरूप विचारना कि यह छः द्रव्योका समुदाय है । मुख्यतासे आत्माका स्वरूप विचारना । इस ध्यानके चार भेद और हैपिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत ।
आत्माके स्वरूपका धारणाओंके जमा
(१) पिंडस्थ ध्यान - शरीर में स्थित विचार करना | इसके अभ्यासके लिये पांच नेका अभ्यास करना चाहिये । (१) पृथ्वी भारी निर्मल समुद्र मध्यलोकके समान विचारा जावे, उसके
धारणा -- एक बड़ा
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विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। मध्यमे जंबूद्वीपके समान एक लाख योजनका चौडा एक कमल ताए हुए सोनेके समान रंगका व एक हजार पत्र सहित विचाग जावे । कमलके वीचमे कर्णिकाके स्थानमे सुवर्ण रंगका पीला मेरु पर्वत एक लाख योजन ऊचा विचारा जावे । उस मेरु पर्वतके ऊपर पाङक वनमे एक पाक शिला विचारी जावे । उसपर एक स्फटिकमणिका सिहासन विचारा जावे। उस सिंहासनपर मैं आत्माको. शुद्ध करनेके लिये पद्मासन बैठा हूं ऐसा सोचा जावे । इतना ध्यान वारवार करना पृथ्वी धारणा है ।
(२) अग्नि धारणा-अपनेको वहीं बैठा हुआ विचारा जावे। फिर यह सोचा जावे कि मेरे नाभिकमलके स्थानपर भीतर ऊपरको उठा हुआ सोलह पत्रोंका एक सफेढ रंगका कमल है। उसपर पीत रंगके सोलह स्वर लिखे है-अ आ, इ ई, उ ऊ, ऋऋ, ल ल. ए ऐ, ओ औ, अं अ. वीचमें है अक्षर लिखा है। दूसरा कमल हृदय स्थानपर नामि कमलके ऊपर आठ पत्रोंका आधा विचास जावे । इस कमलको ज्ञानावरणादि आठ कर्मोका कमल माना जावे। फिर सोचें कि हैके रेफसे धुंआ निकला, फिर अग्निकी लौ निकली वह ऊपर उठकर आठ कर्मके कमलको जलाने लगी। कमलके बीचसे अग्निकी लौ फूटकर ऊपर मस्तकपर आगई, फिर उसकी एक लकीर शरीरके एक तरफ दूसरी लकीर शरीरकी दूसरी तरफ आगई नीचे दोनों कोने मिल गए। अग्निमय त्रिकोण शरीरको सब तरफ वेढ़ कर बन गया। इस त्रिकोणमे रररररर अक्षरोंको अग्निमय फैले हुए विचारे अर्थात् तीनों कोने अग्निमय रर अक्षरोंसे बने है। इस त्रिकोणके बाहरी तीनों कोनोंपर अमिमय साथिया विचारे व भीतर
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संवर, निर्जरा और मोक्ष।
[१७१ तीनों कोनोपर अग्निमय ऊँ र लिखा विचारे । फिर सोचे कि भीतरी अग्निकी ज्वाला कर्मोको व बाहरी अमिकी ज्वाला शरीरको जला रही है। जलतेर राख वन रही है। जब सव राख होगई तब अग्नि वुझ गई या पहलेके रेफमे समा गई, जहांसे वह आग उठी थी। इतना अभ्यास करना अग्नि धारणा है।
(३) वायु धारणा-फिर वहीं बैठा हुआ सोचे कि मेरे चारों तरफ बड़ी प्रचंड पवन चल रही है । पवनका एक गोल मंडल बन गया है। उस मंडलमें कई जगह स्वाय स्वाय लिखा है। यह पवन मंडल कमकी व शरीरकी रजको उडारहा है, आत्मा स्वच्छ होरहा है, ऐसा सोचे।
(४) जलधारणा--फिर वहीं बैठा हुआ यह सोचे कि मेघोकी घटाएं आगई, विजली कडकने लगी, बहुत जोरसे पानी वरसने लगा, पानीका अपने ऊपर एक अर्ध चंद्राकार मंडल बन गया जिसपर पपपप कई जगह लिखा है। यह पानीकी धाराएं आत्माके ऊपर लगी हुई रजको धोकर आत्माको साफ कर रही है ऐसा सोचे।
(५) तत्वरूपवती धारणा--फिर वही सोचे कि मेरा आत्मा सिद्ध सम शुद्ध है, अब इसमें न तो कर्म हैं न शरीर है। ऐसा अपनेको पुरुषाकार शुद्ध विचारके उसीमें जम जाना पिडस्थ ध्यान है।
इस ध्यानका अभ्यास साधकके लिये बहुत ही आवश्यक है।
(२) पदस्थ ध्यान -मंत्रपदोंके द्वारा अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय व साधुका तथा आत्माका स्वरूप विचारना पदस्य ध्यान है। इसके बहुतसे भेद हैं। ऊँ या है मंत्रको नाशिकाके अग्र भागमें या दोनों भौहोंके मध्यमें या हृदयकमलके ऊपर चमकता हुआ विचार कर ध्यान करे। कभी कभी पांच परमेष्ठीके गुण विचारे। कभी कभी
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विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा। अपने आत्माको पाच परमेष्ठीरूप विचारे। हृदयस्थानपर आठ पत्तोंका क्मल विचारे । पाच पत्तोंपर क्रमसे णमो अरहताणं, णमो सिद्धाण, गमो आइरियाणं, णमो उवज्ञायाणं, णमो लोग सव्वसाहणं लिखा विचारे, शेष तीन पत्तोंपर सम्यक्ढर्शनाय नम., सम्यग्ज्ञानाय नम , मम्यक्चारित्राय नम लिखा विचारे । फिर एक एक पत्तेपर लिग्व हुए मंत्रका ध्यान करे व उसके अर्थका मनन करे।
(३) रूपस्थ व्यान--अरहंत भगवानका स्वरूप विचारे कि वे समवशरणमे वारह सभाओंके मध्यमे ध्यानस्थ विराजमान है। वे अनंतचतुष्टय सहित है, परमवीतराग है । अथवा किसी जिनेन्द्रकी ध्यानमय मूर्तिको विचार कर उसका ध्यान करे, फिर उसके द्वारा शुद्धात्मापर मनको लेजावे।
(४) रूपातीत ध्यान--एढकमसे पुरुषाकार अमूर्तीक सिद्ध बुद्ध शुद्धात्माका व्यान करना रूपातीत व्यान है। धर्म ध्यान चौथे गुणस्थानसे लेकर सातवें तक होता है। आठवेंसे शुक्लध्यान शुरू होता है। इसके भी चार भेद हैं। पहला शुक्लध्यान ग्यारहवें तक व वारहवेके प्रारम्भमे, दूसरा शुक्लध्यान बारहवेमे. तीसरा तेरहवेके अंतमे. चौथा शुक्लध्यान चौदहवें गुणस्थानमे होता है।
(१) पृथक्त्व वितर्क वीचार-पहला शुक्लध्यान है। यहां अवुद्धिपूर्वक तीन प्रकारका परिवर्तन होता है। (१) मन वचन कायमेसे किसी योगका (२) एक शब्दसे दूसरे शब्दका (३) एक ध्येय पदार्थसे दूसरे ध्येय पदार्थका। जैसे आत्म द्रव्यसे आत्माके किमी गुण या पर्यायका ।
(२) एकत्ववितर्क अवीचार-किसी एक योगके द्वारा किसी
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[१७३ एक शब्दके द्वारा किसी एक ध्येय पदार्थपर उपयोगका रुक जाना।
(३) सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति-जब काययोग बहुत सूक्ष्मतामे चलता है। जब यह तीसरा शुक्लध्यान होता है।
(४) न्युपुरत क्रियानिवर्ति-इस चौये शुक्लध्यानमें योगोंका हलनचलन बन्द है। इसका काल इतना कम है जितनी देरमे अ.. इ, उ, ऋ, ल इन पांच लघु अक्षरोंका उच्चारण किया जासके। बस इस शुक्लध्यानके प्रतापसे यह जीव सर्व कर्मोसे व शरीरसे छूटकर मुक्त व सिद्ध होजाता है।
मोक्षतत्व-जब आस्रवके कारणभाव मिथ्यात्व, अविरत, प्रमाद, कपाय तथा योग धीरे धीरे मिट जाते हैं तब सयोगकेवली गुणस्थान तक कर्मोका आना होता है। अयोग गुणस्थानमें कर्म नहीं आते है। उधर शुक्लध्यानके प्रतापसे कौकी निर्जरा होती जाती है, बस यह आत्मा परम शुद्ध होकर मुक्त होजाता है तब इसको सिद्ध कहते है।
सिद्ध भगवानके आत्माका आकार अंतिम शरीरके प्रमाण ध्यानाकार रहता है। नख, केशोंमें आत्माके प्रदेश नहीं हैं, इतना ही आकार सिद्ध अघस्थामें कम होजाता है। जैसे अग्निकी लौ ऊपरको जाती है वैसे सिद्धका आत्मा ऊपरको लोकके अंततक चला जाता है । आगे धर्मास्तिकाय न रहनेसे वहीं ठहर जाता है । परमात्मा रूप होकर निजानंदको भोगता हुआ अनंत कालतक स्वरूपमम स्थित रहता है। फिर कर्मोंका वन्ध न होनेसे मुक्त जीव पीछे लौटकर नहीं आता है, न कभी अशुद्ध होता है।
शिप्य-आपने बहुत कुछ जरूरी कथन कर दिया है। मैं इसपर मनन करूंगा। कृपाकरके श्रावकोंका आचार विशेषरूपसे बता दीजिये।
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विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। नवमा अध्याय
श्रावकोंका आचार। शिक्षक-श्रावकोंका आचार यदि आप सुनना चाहते है तो ध्यानपूर्वक सुनें। जैन सिद्धान्तमे पाच बत मुग्न्य है. इन्हींको पूर्णपने जैन साधु पालने हे व इन्हींको अपनी शक्ति अनुसार थोडेपसे श्रावक पालते है।
वे पाच व्रत हे--अहिंसा सत्य. अस्तेय, बमचर्य, अपरिग्रह। इन बनोंकी पाच पाच भावनाएं हैं उनको विचारने हुए ब्रोंका पालन होता है । साधु इन भावनाओपर पूर्ण ध्यान रग्वन है नत्र श्रावक यथाशक्ति अपना ध्यान जमाते है। ____ अहिसावतकी पांच भावनाएं-१ वचनगुप्ति- वचनोंको सम्हालकर कहना जिससे हिमा न हो। २ गनोगुप्ति--मनमे विसीका बुग न विचाग्ना। ३ इर्यासमिति-भूमि देखकर चलना। ४ आठाननिरूपण समिति--वस्तुको देखकर उठाना रखना। ५ सालोकित पान भोजन--देखकर भोजन करना व पानी पीना व भोजनपानका प्रबन्ध करना । क्योंकि हिसाके कारण मन वचन काय हे. इसलिये इनकी सम्हाल रखना जरूरी है।
सत्य व्रतकी पांच भावनाएं-१ क्रोध स्वाग-क्रोधले न करनेकी सम्हाल, २ लोभ त्याग--लोभ न करनेका विचार, ३ भीरुत्व त्याग-भय न करनेका साहस, ४ हास्य त्याग-हंमी मस्करीका त्याग, ५ अनुवीचि भाषण -जिन आगमके अनुकूल वचन
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श्रावकोंका आचार |
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कहना । क्योंकि क्रोध, लोभ, भय व हास्यके वशीभूत होकर झूठ बोला जाता है, इससे इनके वेगसे बचना और यह ध्यान मे रखना उचित है कि कोई वचन जैन सिद्धातके प्रतिकूल न बोला जावे ।
अचौर्य व्रतकी ५ भावनाएं - १ शून्यागार - पर्वत, गुफा चनादि शून्य स्थानमें रहना, २ विमोचितावास - दूसरोंमे छोड़े हुए ऊजड मकान में रहना, ३ परोपरोधाकरण - दूसरोंको आने हुए नना न करना, या जहां दूसरे मना करें वहा न रहना, ४ भैक्षशुद्धिशास्त्रों के अनुसार भिक्षा या भोजन करना, अतिचार लगाकर भोजन -न करना, ५ सद्धर्माचिसंवाद - अपने सावर्मी जीवोंके साथ मेरा तेरा करके झगड़ा न करना । धार्मिक पढार्थको अपना न मान बैठना, किसी तरह दूसरे के द्वारा चोगेका दोप न लगे इस बातकी सम्हाल इन भावनाओमे अच्छी तरह होजाती है ।
ब्रह्मचर्य व्रतकी पांच भावनाएं ? - स्त्री रागकथा श्रवण त्यागत्रियोंमें राग बढ़ानेवाली कथा वार्ता करनेका व सुननेका त्याग । २ -- तन्मनोहरांग निरीक्षण व्याग उन खियाके मनोहर अंगोंके देखनेका त्याग | ३ - पूर्वरतानुस्तरण या पहले भोगोको याद करनेका त्याग । ४ -- वृप्यष्टग्स त्याग - कानोई पक इष्ट रस खानेका त्याग | ५ -- स्वशरीर संस्कार त्याग - अपने को शृंगारित करनेका त्याग | जो स्त्री व पुरुष पूर्ण ब्रह्मचर्य पाले उनको इन बातोंकी सम्हाल बहुत जरुरी है । जवनक निमित्तांको नचाया न जायगा ब्रह्मचर्यको पालना दुर्लभ है। श्रावकों को स्त्री के सिवाय परस्त्रियों के सम्बन्धमें इन भावनाओको विचारना चाहिये । भोग्नपान सादा शुद्ध संयममे रखने" वाला पौष्टिक करना चाहिये तथा वस्त्र भेप शातभाव प्रदर्शक व
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विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। शीलभाव वर्द्धक रखना चाहिये । भेष व वस्त्र व गरीरकी चेष्टाका बडा भारी असर पड़ता है।
अपरिग्रहव्रतकी पांच भावनाएं-स्पर्शन, रसना. घाण, चक्षु तथा कर्णके ग्रहणमें आनेवाले विषय यदि मनोज्ञ हों तो राग नहीं करना व अमनोज्ञ हों तो द्वेष नहीं करना चाहिये। संतोषके साथ जो आवश्यक योग्य वस्तु मिले उसको भोग लेना चाहिये । आकुलित न होना चाहिये।
शिष्य-इन भावनाओंको हमने समझ लिया, बहुत जरूरी है। कृपाकर अब इन व्रतोंका स्वरूप बता दीजिये ।
शिक्षक-इनका स्वरूप संक्षेपमे इस भाति है:
कषाय सहित होकर अपने या दूसरोंके भाव व द्रव्य प्राणोंका घात करना व उनको कष्ट देना हिंसा है । हिंसाका न होना अहिंसा है । आत्माका स्वभाव ज्ञान, शातभाव, क्षमा आदि भाव प्राण है ।। जबकि द्रव्यप्राण दस है-एकेन्द्रियके चार, द्वेन्द्रियके छः, तेद्रियके. सात, चौद्रियके आठ, असैनी पंचेंद्रियके नौ. सैनी पंचेंद्रियके दश। इनका वर्णन जीवतत्वके अध्यायमें कर चुके है।
जब कभी क्रोधादि कपाय होता है तब पहले उसीका ही बिगाड होता है, उसकी आत्माके ज्ञान शाति आदि भावोंका नाश होता है तथा उसके द्रव्य प्राणोंको भी निर्बलता प्राप्त होती है। फिर जब वह दूसरोपर दुर्वचन फेंके व प्रहार करे तो दूसरोके भी भाव व द्रव्यप्राणका घात होसक्ता है। यदि वह हिस्य प्राणी धर्मात्मा है व गाली आदिका खयाल नहीं करता है तो इसका भाव कुछ भी नहीं बिगडेगा । यदि वह मारा पीटा जायगा तो द्रव्य प्राण बिग
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श्रावकोंका आचार। डेंगे। तथापि जिसने दूसरोको कष्ट टनेका विचार किया व यत्न किया वह नो हिसाका अपराधी होगया चाहे दुसरा कष्ट पावे या न पावे ।
जितना अधिक कपायभाव होगा, उतना अधिक वह प्राणी हिंसाका अपराधी होगा। जितना अधिक प्राणधारी जीव होता है; उतना अधिक उसके घात करनेमें व कष्ट देने में कषाय करना पड़ता है । साधारण नियम यही है जैसे एक मानवको मारनेके लिये एक बकरेके मारनेकी अपेक्षा अधिक कार्य हो आता है।इसीसे मानव घातका पाप बकरके घातके पापसे अधिक है। एकेंद्रिय जीवोंके घातमें वेंद्रियादिके घातकी अपेक्षा कम कषाय होनेमे कम पाप है। वन्ध 'कपायकी मात्राके अनुसार अधिक' या कम पड़ेगा। जो सर्व रागादि भावोंका त्यागी होगा वह भावमें अहिंसाका पालनेवाला होगा | उससे द्रव्य प्राणोंकी भी हिंसा न होमी । अतएव वहीं पूर्ण अहिंसक होगा । हिसासे बचनेके लिये हमें रागादि भावोंको दूर करनेकी चेष्टा करनी चाहिये । भाव हिंसा ही द्रव्यहिंसाकी कारण है । कषाय सहित होकरके प्राणियोंको पीडाकारी अशुभ बचनोंको कहना असत्य है । असत्यका त्याग मत्य व्रत है।
कपाय सहित होकरके विना दी हुई वस्तुका लेना चोरी है । चारीका त्याग अचौर्य व्रत है । कपाय सहित होकरके राग भावसे म्री व पुरुषका स्पर्श सो मैथुन है । मैथुनका त्याग ब्रह्मचर्य है। जगतके चेतन व अचेतन पदार्थोंमें मूर्छा या ममत्व भाव रखना पग्ग्रिह है । परिग्रहसे वचनेके लिये परिग्रहके निमित्तभूत बाहरी क्षेत्र मकान स्त्री पुत्रादिका त्याग करना अपरिग्रह व्रत है । इन पांच व्रतोंको साधुगण पूर्णपने पालते है ।
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विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। '..शिष्य-कृपा करके आवकोंको कितना अंग हन व्रताको कमसे कम पालना चाहिये सो बताइये । . ....
शिक्षक-मै श्रावकोंकी अपेक्षा टन पाच. अणुवतीको व उनके रक्षक-मात गीलोको बताता हूं, आप समय लें। __ . पांच अणुवत-एक साधारण श्रावक अहिमा व्रतकी भावना रखता हुआ-प्रथम मंकल्पी हिंसाको मन वचन कायमे त्यागता है। आरम्भी हिंसाको त्यागका प्रयत्न अपनी अनरंग इच्छाके अनुमार करता है जिससे लौकिक व्यवहारमे हानि न आवे उस तरह आरंभादि कार्य गृहस्थी करता है।
संकल्पी हिंसा-वह है जो हिसाके संकल्प या दगदेमे की नावे और वह व्यर्थ ही हो । जैसे धर्मके नाममे पशुओंकी बलि चढाना. शिकार खेलके मृगादिको माग्ना, मांस के लिये पशु घात करना या कराना, मौजशौकके लिये हिमा कगना । __ आरंभी हिंसा-प्रयोनन भृत हिंसा है। उसके नीन भेढ हे -
(१) उद्यमी हिंसा-जो गृहस्थ योग्य छ आजीविकाके साधनोंमे की जाती है-(१) असिकर्म-सिपाहीका काम. (२) मसिकर्मलिखनेका काम, (३) कृषिकर्म-ग्वनी, (४) वाणिज्य व्यापार, (५), शिल्प-नाना प्रकारके उद्योग, (६) विद्यार्म-गाना, बजाना, चित्रकला आदि ।
(२) गृहारंभी हिंसा-जो गृहके कामकाजमे, भोजनपानके प्रबंधमें, मकान बनानेमे, कुआ खुदानेमे, बाग लगाने आदिमें कीजाती है।
(३) विरोधी हिंसा-कोई अन्यायी या दुष्ट पुरुष अपना सामना करे, अपनी जान लेना चाहे, अपना माल छीनना चाहे,
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श्रावकोंका आचार।
। १७९ अपने 'कुटुम्बका नाश करना चाहे, देशपर 'आक्रमण करके साधु पुम्पों व सज्जनोंको कष्ट देनी चाहे तो उससे अपनी रक्षार्थ, देश रक्षार्थ, माल जायदादके रक्षार्थ प्रयत्न करना। यदि कोई प्रयत्न न चल सके तो शस्त्र प्रयोगद्वारा उसको हटाना । 'इसमें जो प्राणियोंका चात होगा वह विरोधी हिसा है। . ' - :
एक साधारण श्रावकको संकल्सी हिंसाका त्याग होता है। आरंभी हिंसाका त्याग नहीं होता है । यही अहिंसा अणुव्रत है।
राज्य या पंच दंड योग्य अमत्य नहीं कहना। कर्कश. कठोरै, चुगलीके वचन न कहना. क्रोध, शोक, वैर, कलह कगनेवाले वचन न कहना, जो वस्तु हो उसको नहीं है ऐसा न करना, जो वस्तु नहीं है उसको है ऐसा न कहना । वस्तु कुछ है कहना कुछ है ऐसा नहीं कहना। ऐसा वचन भी न कहना जिससे दुमके प्राण चले जावें जैसे-किमी शिकारीने जानवरोंका हाल 'छां कि अमुक जंगलमें मृगादि हे या नहीं ? आप जानते हे नौ भी न बताना क्योंकि ऐसा मत्य वृथा ही प्राणोका घातक होगा । जिसमें अपना व दुसरोंका हित हो ऐसा वचन बहुत सम्हालकर कहना मत्य अणुव्रत है । कभी भी शास्त्र के विरुद्ध वचन न कहना, जिसमे अपना विश्वास जगतमें बढ़े ऐसा वचन कहना। स्तिमित मिष्ट वचन कहना। थोड़े गामे बहुत मतलब प्रगट करनेवाला हितकारी मीठा वचन कहना सत्य अणुव्रत है।
राज्य या पंच दंड योग्य चोरी न करना । दुसरेकी वस्तु मुली, पड़ी हुई, गिरी हुई नहीं उठाना । विश्वासघात करके किसीका धन न छीनना । न्यायसे द्रव्य कमाना। अन्यायमे द्रव्य
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विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा ।
कमानेका त्याग + रना अचौर्य अणुव्रत है। जो वस्तुएं सबके काममें
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आसकती है व जिसके लिये राज्यकी व अन्य किसीकी मनाई नहीं
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है उसको बिना ढिये यह श्रावक लेसक्ता है।
जैसे नही, कृपका
यदि मनाई हो तो
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पानी, मिट्टी, जंगलकी लकड़ी, बनके फलादि विना आज्ञाके न लेनी चाहिये। यह श्रावक न्यायके ऊपर चल करके परिणामोंको चोरीके भावसे बचाएगा ।
अपनी विवाहिता स्त्री संतोष रखके परस्त्री या वेश्या आदिका
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त्याग करना ब्रह्मचर्य अणुव्रत है। अपनी स्त्री भी नियमित काम
भोग करना जिससे शरीर निर्बल न हो, तथा धर्म, अर्थ, काम
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पुरुषार्थके साधनमें विघ्न न पड़े। बलवान योग्य सन्तानके भावसे स्त्री प्रसंग करना । मित्रवत् स्त्रीके साथ रहकर दोनों मिलकर धर्म साधन व परोपकार करना. एक दूसरेकी उन्नति चाइना व परस्पर सहाई होना ।
आजन्मके लिये तृष्णाके घटानेके लिये अपनी भावना के अनुसार सम्पत्तिका नियम कर लेना कि इतनी संपत्ति होजानेपर हम अधिक नहीं कमायेंगे - उसीके भीतर भीतर ही रखेंगे । जैसे- कोई दस हजार, पचास हजार, एक लाख, दस लाख, एक करोड़, दस करोड़ या अधिकका प्रमाण करले । फिर इस संपत्तिको तफसीलवार नीचे लिग्वे १० प्रकार परिग्रहका प्रमाण करके बांट लेवें ।
१ क्षेत्र - खेत कितना, २ वास्तु- मकान कितने, ३ हिरण्यचाढी कितनी या कितना रुपया, ४ सुवर्ण- सोना जवाहरात. ५ धन - गाय, भैंस, घोड़ आदि, ६ धान्य- अनाज इतने मनसे अधिक
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नहीं या एक महीने के खर्चके लायक, ७ दासी - इतनीसे अधिक
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श्रावकोंका आचार।
[ १८१ नौकर न रक्खूगा, ८ दसि-इतने दाससे अधिक न सखूगा, ९ कुप्य-कपड़े इतने जोड़से अधिक न रववृगा, १० भांड-वर्तन इतने चजनके व इतने जोड़से अधिक न रवलूँगा । जितनेसे काम चल सकें उतना रखले, शेपका त्याग करदे । परिग्रह प्रमाण संतोष भावको बढ़ानेवाला है व अधिक हिंसादि पापोंसे बचानेवाला है । ___चक्रवर्ती, राजा, धनिक, सेठ अपनीर योग्यतानुसार परिग्रहका प्रमाण कर सक्ते है।
तीन गुणव्रत-जिनसे अणुव्रतोंका मूल्य बढ़ जावे उनको गुणवत कहते है । जैसे ५ को ५ से गुणनेपर २५ होजाते है।
(१) दिग्विरति-पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर चार दिशाओंमें चार विदिशाओं या कोनोंमें या ऊपर व नीचे दश दिशाओंमें जहांतक जानका प्रयोजन मालम होता हो वहांतकके लिये जन्मभरके लिये प्रमाण करले कि इतनी दूरसे अधिक लौकिक कामके लिये जाऊंगा नहीं व इससे बाहरसे माल मंगाऊंगा नहीं व बाहर भेजना नहीं। इसप्रकार हज़ारो कोसका भी प्रमाण कर सक्ता है । यदि संतोष हो तो बहुत थोड़ा क्षेत्र रख सकता है। किसी नदी, पर्वत, समुद्रकी हदसे प्रमाण कर सक्ता है । उस व्रतसे पांच व्रतोंका मूल्य इसलिये बढ़ जाता है कि वह मर्यादाके भीतर ही प्रयोजन भूत आरम्भ करेगा, मर्यादाके बाहर बिलकुल आरम्भ हिंसा न करेगा।
(२) देशविरति-एक दिन, सप्ताह, पक्ष, मास' आदिकी मर्यादाके लिये जन्मपर्यंत किये हुए क्षेत्रके प्रमाणमेंसे घटाकर प्रयो जमभूत क्षेत्र आरम्भके लिये रख लेना, शेप क्षेत्रको उतने कालो' लिये त्याग देना देशविरति है। इससे यह और भी ब्रतोंका मूल्या, बढ़ा लेता है । कभी इस श्रावकको अपने ग्रामसे बाहर कुछ काम
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विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा +
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नहीं रहता है तब वह किसी दिन ग्रामकी हद्दमरको ही रख लेता है. बाकीका त्याग कर लेता है । कभी एक मुहल्ले व एक बाजारका ही नियम कर लेता है । कभी एक घरमे ही विश्राम करनेका नियम कर लेता है । इच्छाओके रोकनेका यह बढ़िया साधन हैं ।
(३) अनर्थदण्ड विरति - मर्यादा के भीतर भी प्रयोजनभृत आरम्भ करना वे मतलब आरम्भका त्याग देना अनर्थदण्ड विरति है । इससे तक मूल्य और बढ़ जाता है । वह बेमतलब पापोसे बच जाता है । अनर्थदण्डके पाच भेद है
(१) अपध्यान - दूसरोंकी हार जीत. वध, बन्धन, अंगछेद, घन हरण आदि विचारना, (२) पापोपदेश - जिससे पशुओं को दुख हो ऐसे व्यापारका व हिंसाकारी आरम्भका दूसरेको उपदेश देना कि जिससे वह पापमे लग जावे । (३) प्रमादचर्या - प्रयोजन विना आलस्यसे वृक्ष छेदना. पत्ते तोडना फल फूल नोचना, जमीन खोटना, पानी फेंकना. आग जलाना. हवा करना. व अन्य कोई काम करना । ( ४ ) हिसा दान - हिसाकारी विष, खड़ग, रस्सी. लकड़ी, अग्नि आदि मागे देना, (५) दु:श्रुति - हिसामे प्रवर्तानेवाली., रागभाव बढ़ानेवाली कथाओको सुनना पढ़ना बनाना । इन पाचोंसे-कुछ अपना मतलब नहीं होता है किन्तु वृथा ही संकल्प किये हुए भावोंमे व वचन व कायकी प्रवृत्तिसे पाप कर्मोका बन्ध होजाना है । एक श्रावक इन वृथाके पापोंको त्याग देता है क्योंकि वह ऐसा धर्म व्यापारी है जिससे अपनी वृथा हानि न उठाकर वह पुण्य कर्मोका संचय किया करता है ।
. (३) चार शिक्षाव्रत - इन बर्तोके पालनेसे मुनि धर्मकी शिक्ष
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श्रावकोंका आंचार।
[१८३ immmmmmmmmümin मिलती है । साधु 'अवस्थामें जिन कार्योंको विशेप करना होता है उनको अभ्यास करके शिक्षा लेना शिक्षावत हैं। ' • (१) सामायिक-समय आत्माको कहते है। आत्मा सम्बंधी वीतराग विज्ञानमय शुद्ध भावाकी या समता भावोंकी प्राप्ति करना मामायिक है। सामायिक ध्यानका साधन है, बहुत ही उपयोगी है. मनकी शुद्धिका उपाय है. पापोंको क्षय करनेवाला है। '
सामायिकी विधि-प्रात:काल, मध्यान्ह काल, सायंकाल तीन समय छ• छः घडी काल सामायिकका है। मध्यम चार घड़ी जघन्य दो घडी है। एक बड़ी २४ मिनटकी होती है। जितनी देर सामायिक करनी हो उसकी आधी देर पहले व आधी देर पीछे लेवे । जैसे-2८ मिनिट सामायिक करनी हो तो सूर्योदयसे २४ मिनट पहलेने २४ मिनट सूर्योदय तक करे । यदि कार्यवश न बन सके ना ७२ मिनट पहलेमे लेकर ७२ मिनट पीठतक १४४ मिनटके वीचमें कभी भी दो घड़ी या ४८ मिनट सामायिक करले । एकात स्थानमें बैठे, जहा मनको डिगानेवाले शब्द व काम न हों ।। चटाई, पाटा, पत्थरकी शिलापर करे । मनको उतनी देरके लिये सर्वः कामोंमे रोकले । गरीरपर जितनं कम बम्ब हों उतना ठीक है। ___ पूर्व या उत्तरको तरफ मुंह करके कायोत्सर्ग खडा होकर हाथ लटकाके नौटफे णमोकार मंत्र पढ़कर दंडवत करे। तव प्रतिज्ञा करले कि जबतक सामायिक करता हूं जो कुछ मेरे पास है व चारों तरफ थोड़ी जगहके
और सब मुझे त्याग है। फिर उसी दिशाकी तरफ खड़ा हो नौदफे या तीन दफे णमोकार मंत्र पढ़कर तीन आवर्त एक गिरोनति करे। जोड़े हुए हाथोंको वासे दाहने धुमानेको आवर्त कहते हैं व जोड़े हुए हाथोंपर
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विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा। मस्तक झुकाकर लगानेको गिरोननि कहते है। फिर खडे २ दाहने हाथकी तरफ मुड़ जावे । इवर भी नौदफे णमोकार मंत्र पढ़कर तीन आवर्त व एक शिरोनति करे। ऐसा ही दुसरी दो दिगाओंमें करके पूर्व या उत्तरको मुख करके पद्मासन या अर्द्धपद्मासन वैट जांव। पहले कोई सामायिक पाठ पढ़े फिर जप करे. फिर कुछ ध्यान करे। अंतमे फिर खडा होकर नौदफे णमोकार मंत्र पढ़कर दंडवत् करके सामायिक पूर्ण करे। चारों तरफ घूमकर तीन आवर्न व एक शिगेनति करनेका प्रयोजन यह है कि हरएक दिगामें जो तीर्थ स्थान मदिर मुनि आदि हों उनको नमन किया जावे। अभ्यास करने वाला एक या दो या तीन दफे व जितने समयके लिये कर नके सामायिक करे। उस समय सर्व प्राणी मात्रपर समता भाव रखले, अपने दोषका पछतावा करे व क्षमाभाव ग्वं । इस गाथाका भाव विचार
"खम्मामि सव्व जीवाणं सव्वे जीवा खमंतु मे । मिची मे सब भूदेसु वरं मज्झं न केणवि ।"
मैं सर्व जीवापर क्षमा करता है, सर्व जीव मुझपर क्षमा करे । मेरी मैत्री सर्व प्राणियोंमे हो । मेग वैर किसीसे भी न रहे ।
(२) प्रोपधोपवास-प्रोषव पर्वको कहते है । महीने में चार पर्व दिन प्रसिद्ध है-दो अष्टमी व दो चोढस । इन चार दिनोंमें चार प्रकार आहार छोड़कर उपवास करना चाहिये । अपना समय धर्मध्यानमे विताना चाहिये । धर्मस्थानमे बैठकर समय सामायिक,
सामायिक पाठ श्री अमितगति भाचार्य कृत भाषा छन्द व भाषा ठीका सहित ) में दिजैन पुस्तकालय-सुरतसे मिलता है।
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श्रावनेका आचार
[१५ imes स्वाध्यायधर्मचर्चा, पूजनादिमें बिताना चाहिये। उपवास करनेसे शरीर शुद्ध होता है. रोगोंके कारण मिटते है,- वचन व मन शुद्ध होता है, आत्मा पवित्र होता है। उत्कृष्ट प्रोषध सप्तमी व नौमीको एकासन, अष्टमीको उपवास करे, १६ पहर या ४८ घंटे धर्मध्यानमें लगावे। मध्यम प्रोषध सप्तमीकी सध्याये नौमीके प्रातःकालंतक १२ पहर धर्मध्यानमें गमावे। जघन्यं प्रोषध अष्टमीके ८ पहर धर्मध्यानमें वितावे। भोजन त्याग तो सप्तमीको भी रहेगा। दूसरी विधि मध्यम या जघन्यकी यह है कि १६ पहर धर्मसाधन करे । आवश्यक्तानुसार जल लेवे यह मध्यम है । जलके सिवाय अष्ठमीको एक भुक्त भी करले, परन्तु १६पहर धर्मध्यान करे । अभ्यास करनेवाला अनुप्रवास भी कर सक्ता है अर्थात १२ ,पहरके उपवासमें बीचमें एक दफे , जल भी लेवे अथवा १२ पहरके मध्यमें एकासन कर सक्ता है । शक्तिके अनुसार इस शिक्षाबतको पालना चाहिये।
(३) भोगोपभोग परिमाण-भोग और उपभोगके पदार्थोका आवश्यक्तानुसार रोज भवरे २४ घटेके लिये प्रमाण कर लेना। जो एक ही दफे काममें आम वह भोग है। जैसे भोजन, सुगंध । जो वास्र काममें आसके यो उपभोग है। पांचो इन्द्रियोंकी इच्छाओंको वा करनेके लिये अनावश्यक भांग और उपभोग पदार्थों का त्याग करदेश नी । प्रकार सत्रह १७ नियम लेनेसे यह शिक्षाबत मलेप्रकार पल जाता है
१ भोजन-भोजन के दफे करूंगा, २ पान-भोजनके सिवाय ! पानी के दफे पीऊँगा; ३ पटरस-दध, दही, घी, तेल, निमक, मीठा इनमेंसे अमुकर रसोंका त्याग, करता हूं, ४ कुंकुमादि विलेपन, चंदन तेलादि, लगाऊंगा या नहीं, ५ पुष्प-फूल सूंधूंगा- या: नहीं,
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ARJUNA
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा ६ ताम्बूल-खाउंगा या नहीं या कितने खाऊँगा, ७ लौकिक गाना" बजाना करूंगा या सूनूगा या नहीं, या के दफै।' ८ लौकिक नाच' नाटक देखेंगा या नहीं। • ब्रह्मचर्य पालंगा या नहीं ? १० स्नान कै दफे करूंगा ? ११ आभूषण कितने पहनूगा ? १३ वस्त्र कितने' जोड 'काममें लूंगा ? १४ वाहनपर चढंगा या नहीं या कौनरपर चढूंगा ११४ कितने प्रकारके आसनोंपर बैठगा ? १५ कितने प्रका-' रकी शय्यापर सोऊंगा । १६ हर फल तरकारी इतनी खाऊंगा। १७ कुल खानपानकी इतनी वस्तु लंगा जैसे ढाल, चावल कढ़ी आदि। ___ इस शिक्षावतके पालनेवालेका किन्हीं वस्तुओको यम रूप जन्मभग्के लिये त्याग करदेना चाहिये। जैसे-मास. मदिरा,मधुको व त्रस सहित फलोंको। जैसे-वड फल, पीपल फल. गूलर, पाकर, अंजीर, गोमी, केतकी आदिके फूलोको व आल. घुईया आदि कंदमूलोंको। फूलोंमें त्रस जंतु भी बैंठ रहने है। तथा कंदमूल या फूलोंमें साधारण कायका दोष आता है। एक शरीरके स्वामी अनेक एकेंद्रिय जीव हों, उनको साधारण काय कहते है। मक्खनको न खाकर उसको ४८ मिनटके भीतर गर्म करके घी बना लेवे ।।
(४) अतिथि संविभाग-जो संयमको पालने हुए प्रमण करने है उनको अतिथि या साधु कहते है । उनको अपने ही लिये बनाए हुये आहारमेंसे विभाग करके देना । साधुको नौ प्रकार भक्ति करके दान देवे।
१-प्रतिग्रह-यहा आहारपान शुद्ध है, ऐसा तीनवार हकर साधुको भीतर लेजाना । २. उच्चस्थान-विराजमान करवा, ३ . पाद-प्रक्षालन करना, ४ पूजन करना, " तीन प्रदक्षिणा दे नम
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श्रावकोंका आचार। .
[ १८७. स्कार करना,६ वचन शुद्धि रखना, ७ काय शुद्धि रखना, ८ मनः शुद्धि मना, -आहार शुद्ध देना। . . .
मुनि उत्तम पत्र है । श्रावक मध्यम पात्र है । वन रहित श्रद्धावान जैनी जघन्य पात्र है । उनको भक्ति पूर्वक आहार, ओपधि. आश्रय व शास्त्र या विद्या दान देना पात्र दान है । दुःखित भुक्षित किसी भी मानव या पशुको दयाभावसे आहारादि देना करुणादान है । दान देकर फिर भोजन करना यह चौथा शिक्षात है।
श्रावकोको मच्चा श्रद्धान या सम्यकदर्शन रखते हुए पाच अणुव्रतोंको, ईन गुणव्रत और चार शिक्षाबत ऐसे सात शीलोंके माथ बारह व्रत पालने चाहिये ।
सल्लेखना-बारह व्रतोंक मित्राय यह भावना भानी चाहिये कि हमारा मरण शातिपूर्वक हो । जब मरणकी संभावना हो तब धीरे२ आहारपान छोड़े व ध्यान व तत्वविचारमें शांतभावसे रहकर प्राण छोडे । प्राणाकी जोखम जब कभी दिखती हो तब समाधिमरणके साथ प्राण त्याग, धर्मध्यानसे मरे, जिससे भविष्यकी गति अच्छी हो।
एक श्रावक सम्यग्दर्शनके साथ बारहवन और सल्लेखना व्रतको पालता है । इन चौदह बातोंमे पाच पाच अतीचार या दोष प्रमाद या कपायके उदयसे लग जाना संभव है। उन दोषांको जानकर उनसे बचनेका उद्यम करना चाहिये ।
(१) सम्यग्दर्शनके पांच अतीचार-(१) शंका-किमी तत्वमें कभी शंका होजावे, (२) कांक्षा-भोगोंकी इच्छा होजावे, (३) विचिकित्सा-दुःखी रोगी दलिद्रीको देखकर घृणा पैदा होजावे,
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विद्यार्थी - जैनधर्म शिक्षा
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(४) अन्यदृष्टि प्रशंसा - अज्ञानी अश्रद्धालुकी अज्ञानमई धर्मकार्यकी मनसे सराहना करे, (५) अन्यदृष्टि संस्तव - अज्ञानी व अश्रद्धालु की अज्ञानमई धर्मक्रियाकी वचनसे प्रशसा करे ।
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(२) अहिंसा अणुव्रतके पांच अतीचार - कषाय के वश (१) बंध - किसीको बन्धनमे डालदे, (२) वध - लाटी चाबुकादिसे मांगे, (३) छेद--कान नाक अंगोपाग छेद डाले, (४) अतिभारारोपण - न्यायको उल्लंघन करके अधिक भार लाइ दे, (५) अन्नपाननिरोध-अपने आधीन मानव व पशुओंको समयपर भोजनपान न दे व कम दें। दयावानको उचित है कि वह क्रोध, मान, माया, लोभके वशीभूत होकर ऐसा काम प्राण पीडाकारी न करें । दण्ड व सुधार के अभिप्रायसे वध बन्धन आदि अनीचार न होगा ।
(३) सत्य अणुव्रत के पांच अतीचार -- (१) मिथ्योपदेश-धर्मसाधन आदिमे मिथ्या उपदेश देना. ( २ ) रहोभ्याग्य्यान -श्री पुरुपकी एकातमे की हुई क्रियाको प्रकाश कर देना. (३) कूटलेखक्रिया- मायाचारसे झूठा लेख लिखना. (४) न्यासापहार - अनामतका रुपया कोई भूलसे कम मागे तो उसे कम देदेना. (५) साकार मंत्रभेद-- किन्हींकी एकांतकी सलाहको उनके मुख आदिकी चेष्टा जानकर प्रगट कर देना |
(४) अचौर्य अणुव्रत के पांच अतीचार - (१) स्नेनप्रयोग - चोरीका उपाय बताना । (२) तदाहृतादान - चोरीका लाया हुआ माल लेलेना । (३) विरुद्ध राज्यातिक्रम - विरुद्ध राज्य या राज्यमें अप्रबन्ध होनेपर न्यायको उल्लंघन करके लेनदेन करना, अल्प मूल्यकी चीज बहुत दाममे वेचना । (४) हीनाधिक मानोन्मान - तौलने नापने के
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बाट गज आदि कमती से देना बढ़ती से लेना । ५) प्रतिरूपक व्यवहारबनावटी सिक्का चलाना व खरी खोटी मिलाकर खरी कहकर बेचना । (५) ब्रह्मचर्य अणुव्रत के पांच अतीचार -- (१) पर विवाह करण - अपने कुटुम्ब के सिवाय दूसरों के पुत्र पुत्रियोंकी सगाई मिलाना । . (२) इत्वरिका परिगृहीनागमन--विवाहिता व्यभिचारिणी, श्रीसे सम्बन्ध:रखना । ३ ) इत्वरिका अपरिगृहीता गमन- व्यभिचारिणी ' विना विवाहिता वेश्या आदि सम्बन्ध रखना । ( ४ ) अनंगक्रीडा- कामके नियत अंगोंके सिवाय अन्य अंगोंसे कामचेष्टा करना । ( ९ ) काम तीत्राभिनिवेश- अपनी श्री बहुत काम सेवना ।
(६) परिग्रहप्रमाणव्रतके पांच अतीचार - दस प्रकारके - परिग्रह में दोदोके पांच जोड़े करके हरएक जोड़े में एक वस्तुको घटाकर दूसरी वस्तु बढ़ा लेना । जैसे चांदी, सोनेकी मर्यादामें सोनेकी मर्यादा बढ़ाकर चांदी की कम कर देना ।
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७) दिग्विरतिके पांच अतीचार - प्रमाद या मोहसे (१) ऊर्ध्वातिक्रम - ऊपर की हद्दसे अधिक चले जाना, (२) अधोऽतिक्रमनीची हद्दको उल्लंघना, (३) तिर्यग्व्यतिक्रम --आठ दिशाओंकी हद्दको लांघ जाना, (४) क्षेत्रवृद्धि - एक तरफ मर्यादा घटाकर दूसरी तरफ बढ़ा लेना, (५) स्मृत्यन्तराधान - ली हुई मर्यादाको भूल जाना ।
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(८) देशविरतिके पांच अतीचार - (१) आनयन-मर्यादाके बाहर से मंगाना । ( २ ) प्रेप्य प्रयोग - मर्यादासे बाहर भेजना । (३) शब्दानुपात - मर्यादासे बाहर बात कर लेना । ( ४ ) रूपानुपात -मर्यादासे बाहर रूप दिखाकर बता देना । (५) पुगलक्षेप - मर्यादासे बाहर कंकड व पत्र फेंककर बता देना ।
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१९०]
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विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा। . ) अनर्थ दंड विरतिक पांचं अतीचार-(१) कंदर्प-रागकी तीव्रतासे भंड वैचन वकना, (२) कोय-मड बनाक साथ कायकी कुचेष्टा भी करनी, (३) मोग्वर्य -वृथा बहुत बकवाढ करना, (४) असमीय अधिकरण--प्रयोजन विना काम करना; (५) उपभोग परिभोगानर्थक्य--भोग व उपभोगके पदार्थों को वृथा एकत्र करना। - ___ (१०) सामायिकके पांच अतीचार-(१) कायदुष्प्रणिधानशरीरकी खोटी चेष्टा कानी, (२) वाम्दुष्प्रणिधान-सांसारिक दुष्ट वचन कहना (३) मनोदुष्प्रणिधान-मनका दुष्ट भावोंमें लेजाना, (४) स्मृत्यनुपस्थान-सामायिक पाठ जप आदि भूल जाना ।
.(११) प्रोपॉपवासके पांच अतींचार-अप्रत्यवेक्षित अं. मार्जित–विना देव विमा झाडे (१) उत्सर्ग- मलमुत्रादि कर देना, (२) आढान-आबादिको उठांना, (३ मंस्तरोपक्रमण-चटाई आदि विछा देना तथा (४) अनादरे-उत्माह न रखना (२) स्मृन्यनुवस्थान-धर्मक्रियाओंको मृल जाना । ' ' (१२) भौगोपभोग प्रमाणके पांचं अतिचार-११) मचित्त-- त्यागी हुई सचित्त वस्तुको प्रमाढमे खा लेना, (२) सचिन सम्बन्धत्यागी हुई मंचित्तमे छुई हुई वस्तुको खाना. (३) नचित्त मन्मिश्र-- स्यार्गी हुई मचित्तमे मिलाकर, किसीको खाना, (४) अभिषत्र--कामोदीपक पदार्थ खाना. (५) दु पकाहार -ठीक न पका हुआ जला या कच्चा भोजन करना, जो ठीक हजम न होसके उसे खाना । 1. (१३) अतिथि 'संविभागके पांच अतिचार-यं मुनिकी अपेक्षासे है । (१) सचित्त निक्षेप -सचिनपर रखी हुई वस्तु देना
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श्रावकका आचार- 4"
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(२) सचिचापिधान-सचित्तसे ढकी हुई वस्तु देना, (२) परव्यपदेश - दूसरे - दातारको दान के लिये कहकर आप चले जाना, (४) मात्सूर्य दूसरे दातार के साथ ईर्पा करके देना, (५) कालातिक्रम-इसके कालको टालके व समय देना ।
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- (१४) सल्लेखनाके पांच अतीचार - ( १ ) जीविताशंसा-
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. अधिक जीने की इच्छा करना, (२) मरणाशंसा-जल्दी मरण चाहना,
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(३) मित्रानुराग- पूर्व लौकिक मित्रोंसे प्रेम बताना, (४) सुखानु
बन्ध - पिछले इन्द्रिय सुखों का याद करना, (५) निदान - आगामी भोगोंकी चाहना कम्नी |
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साधारण राति चौदह बातें श्रावकों के लिये इन नोंको क्रम क्रमसे उन्नति करते हुए पालने की प्रतिमाएं या श्रावककी श्रेणियां बताई गई है । क्या 'पसन्द करेंगे 2
आवश्यक है ।
अपेक्षा, ग्यारह
आप जानना
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'शिष्य-मुझे श्रावकका चारित्र जानकर बहुत आनन्द हुआ । इसमें सन्देह नहीं कि जो गृहस्थ उनपर चलेगा वह नमुनेदार धर्मात्मा गृहस्थ होगा । वह किसी राज्य के अपराधमे कभी नहीं आसक्ता है, वह जगतमें प्रतिष्ठाका पात्र होगा। ग्यारह प्रतिमाएं भी समझा दीजिये । शिक्षक -ये ग्यारह श्रेणिया इस ढंगसे बताई गई है कि आगे २ की प्रतिमावाला नीचे के चारित्रको छोड़ता नहीं है किन्तु नई प्रतिमाना चारित्र पालता है । ये सब
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उसको पालता हुआ पांच गुणस्थान में है |
(१) दर्शन प्रतिमा इसमे सम्मानको ढोपरहित पालने का अभ्यास करना चाहिये | मन्यक पचीम दोपोको बचानेकी सम्हाल
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१९२]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। खनी चाहिये । (१) आठ 'मद जाति (नाना मामा आदि). कुल ( पिता आदि), रूप. बल. धन, अधिकार. विद्या. 'तप इन आट बातोका घमण्ड करना आठ मद दोष है । (२ तीन मूढताएं.. मूर्खतासे देखादेखी रागीद्वपी देव पृजना देव मृढता है। परिग्रहधारी गुरु मानना पाखडी मृढता है। लौकिक क्रियाओंको धर्म माननो लोक्मूढ़ता है । (३) छह अनायंतन कुदेव. कुंगुरू. कुंधर्म और इनके तीन सेवकाकी सी संगति करनी जिससे श्रद्धानमें कमी आजाय । । ४) आठ शकादि दोप- इनके विरोधी नीचे लिखे आठ गुणोंको या सम्यक्तके अंगोंको पालना ।
(२) निःशकते अग तत्वोंमे शंका न रखकर 'निर्भय होकर धर्म पालना, (२) नि कांक्षित अग -इन्द्रिय भोगोंमे मुखी श्रद्धान रखना, (३) निविचिकित्सित अग-रोगी दुखी दलिद्री आदिस घृणा न करनी, (१) अमृढदृष्टि अंग- मृढ़ताईसे देखादेखी कोई धर्मक्रिया न करनी, (५) उपवहन या उपगृहन अंग -अपने आत्मीक गुणों को बढ़ाना । परके दोषोको प्रकाश न करके उसके छुड़ानेका उद्यम करना, (६) स्थितिकरण अंग- अपनेको व दूसरोंको धर्ममें स्थिर करना, (७) वात्सल्य अग--सर्व सहधर्मी भाई बहनोंमे गौवसके समान प्रेम रखना, (८) प्रभावना अंग- जिस तरह बनें अज्ञान अंधकारको मेटकर सच्चे तत्वज्ञानका प्रचार करना । सम्यक्ती इन आठ अंगोंको पालकर उनके विरोधी दोषोंसे बचता है । इस तरह पच्चीस दोपोंको बचाता है। यह सम्यक्ती देवपूजा, गुरुभक्ति, शास्त्रस्वाध्याय, संयम, सामायिक (तप), दान इन छ. नित्य कर्मोंका रोज अभ्यास करता है । तथा आठ गुणोंको पालता है। १--मदिराका
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धावकोंका आचार।
[१९३ त्याग. २.-मांसका त्याग, ३..मधुका त्याग । मधुके लिये मक्खियोंका छत्ता नोडकर उनको काट दिया जाता है व छत्तसे एकत्रित मधुमें बहुतसी मक्खियां मर जाती हैं, ४ -सकल्पी-निरर्थक हिंसाका त्याग. ५ स्थूल अपत्यका त्याग, ६ -स्थल चोरीका त्याग, ७ -परस्त्रीका त्याग, ८--अतितृष्णाका त्याग या परिग्रह प्रमाण। ___(२) व्रत प्रतिमा-पहली सब क्रियाओंको पालता हुआ बारह बनोंको पालता है । पाच अणुव्रतोंके पच्चीस अतीचारोंको बचाकर पालना है। सात शीलके अनीचारोंके बचानेका उपाय रखता है। सामायिक जितनी देर होसके एक समय भी कर सक्ता है । अष्टमी चौदयको उपवास न होसके नो एकापन भी कर सक्ता है । कभी असमर्थ हो तो सामायिक व प्रोपधोपवास नहीं भी करे।
(३) सामायिक प्रतिमा--पहली सब क्रियाओको पालता हुआ नीन काल सवेरे दोपहर व साझको ४८ मिनट या दो घडी अतीचारोंको टालकर सामायिक करे। कभी ४८ मिनटसे कुछ कम अंतमुहूर्त भी कर सकता है।
(४) मोपधोपवास प्रतिमा- पिछली सब क्रियाओंको पालता हुआ महीनेमें चार दिन उत्तम. मध्यम, जघन्य प्रोषध शक्तिके अनुसार करे, पांच अनीचाराको टाले ।
(५) सचित्त त्याग प्रतिमा--पिछली सब क्रियाओंको पालता हुआ एकेन्द्रिय सहित सचित्त पानी न पीचे न पिलावे, सचित्त तरकारी फलादि न खाये न खिला। यह पानीको गर्म या प्राशुक कर सकता है व फलादिको प्राशुक कर सत्ता है । छिन्नभिन्न करनेसे, गर्म करनेसे फलादि सचित्तसे अचित्त होजाने है । यह दयावान है,
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१९४ ]
विद्यार्थी जनधर्म शिक्षा ।
बहुत कम वनस्पतिका व्यवहार करता है। इसको सचिन पानी आदिम नहाने आदिका त्याग नहीं है। लोग इलायची आदि करायला पदार्थ कुटकर डालने से पानी प्राशुक होजाता है जिनसे रंग बदल जाये |
(3) रात्रिभोजन त्याग प्रतिमा- पिछली व क्रियाओको पालता हुआ गत्रिको न तो स्वयं किसी प्रकारका भोजनपान को न दूसरों को करावे | यह श्रावक बहुत मनोपी होजाता है। रात्रिको गृहके कुटुम्बियों की सम्हाल दूसरोंके आधीन कर देना है। आप अधिकतर धर्मध्यानमें गत्रिका समय विताता है, भोजनानिकी चचां भी नहीं करता है।
(७) ब्रह्मचर्य प्रतिमा- पिछली मब क्रियाओंको पालना हुआ अपनी श्रीका भी राग छोडदेवें । घरमे रहे तो एकांत में सोधे, उदासीन वैराग्ययुक्त वस्त्र पहरे । यदि घर त्यागे तो उदासीन श्रावके रूपमें भ्रमण करके देशाटन करे -धर्मप्रचार करे | यह माया रख मक्ता है. सवारीपर चढ़ सक्ता है, अपने हाथसे भोजनपानका प्रबन्ध कर सक्ता है, निमंत्रण पानेपर भक्तिसहित दान दिये जानेपर ग्रहण करसक्ता है ।
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(८) आरंभ त्याग प्रतिमा- पिछली यत्र क्रियाओं को पालता हुआ खनी व्यापारादि रसोई, पानी आढिका सब आरम्भ छोडदे, संतोषमे रहे । घरमे रहे तो घरवाले जब भोजनको बुलावे नोपमे जीमले धार्मिक आरम्भ करमत्ता है। ध्यानका अधिक अभ्यास करता है। (९) परिग्रह त्याग प्रतिपा - पिछली सब क्रियाओं को करता हुआ अपनी जायदादको जिसको देना हो ढेढे या दानमे लगादे, आप रुपया पैसा सब त्यागदे, कुछ वस्त्र व एक दो वर्तन रखले. घर छोड़कर देशाटन करे या एकातमे बाग या नमियामे रहे । निमंत्रण पाने र भोजन करले |
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श्रावकोंका आचार।
(१०) अनुमति त्याग प्रतिमा-पिछली सब क्रियाओंको पालता हुआ सांसारिक कामोंमें किसीको सम्मति देनेका त्याग करदे। भोजनके समयपर बुलानेसे नावे, पहलेसे निमंत्रण न माने ।
(११) उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा-इस श्रेणीमें यह भिक्षावृतिमे भोजन करता है। यह उस भोजनको स्वीकार नहीं करता है जो उसके लिये किया गया हो। यह उसी भोजनको स्वीकार करता है जो भोजन गृहस्थने अपने कुटुम्बके लिये तैयार किया हो। इस ग्यारहवीं प्रतिमामें एक क्षुल्लक व दूसरे ऐलक होते है । पिछली क्रियाओंको पालते हुए क्षुल्लक एक लंगोट व एक खण्ड वस्त्र चादर ऐसी रखता है जिससे पूरा शरीर न ढके। यह जीवदयाके लिये मोरके पंखकी पीछी रखता है क्योंकि मोरपंख बहुत कोमल होते हैं। उप्ण जलके लिये कमंडल रखता है। क्षुल्लक भोजनके समय जाता है। इसकी भिक्षाकी दो रीतिये है-कोई शुल्लक एक भिक्षाका पात्र रखते है और कई घरोंसे थोडा २ भोजन संग्रह करके अंतिम घरमें भोजन करके पात्रको साफकर नगरके चाहर चले जाते है । जो एक ही घरमें भोजन करते है वे जब भक्ति करके स्वीकार किये जाते है तब वे दातारके घर थालीमें बैठकर आहार करते हैं। ये दिनमें एक ही दफे भोजनपान करते है। दूसरे ऐलक वे हे जो केवल एक लंगोट ही रखते है । यह पीछी सिवाय काठका कमण्डल रखते है । यह केशोंका लोच करते हैं अर्थात् स्वयं अपने हाथोंसे उखाड डालते हैं। भिक्षा वृत्तिसे एक ही घर बैठकर हाथपर ग्रास लेकर भोजन करते हैं । यह साधुके चारित्रका अभ्यास शुरू कर देते है। मैंने आपके लिये थोडासा श्रावकाचार कह दिया है, अधिक जानने के लिये श्रावकाचारोंको देखना उचित है।
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विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा इशावां अध्याय।
जैनोंके भेद। शिष्य-कृपा करके यह वताइये कि जैनोंमें भेद क्यों है ? क इनके सिद्धातमे क्या अन्तर है ?
शिक्षक-जैनोंमे व्यवहार क्रिया आचरणकी अपेक्षा ही दिगंबर श्वेतांबर आदि भेद है। यदि मूल सिद्धांतको लिया जाये तो सबका एक ही मत है । जैन धर्मका तत्व यह है कि आत्माको स्वाधीन किया जाये, शुद्ध किया जाये । इसके साथ जो कर्मोका बंध है वह दूर कर दिया जावे । आत्माके शुद्ध भावको मोक्ष सत्र जैनी मानते है । तथा मोक्षका निश्चय उपाय आत्माके ध्यानको सब मानते है । निश्चयसे आत्माके शुद्ध स्वरूपका ध्यान ही मोक्ष मार्ग है व शुद्ध भाव ही मोक्ष है । सात तत्व, नौ पदार्थ. छ द्रव्य, पांच अस्तिकाय, चौदह गुणस्थान, आदिमे कोई मतभेद नहीं है । अंतरंग स्वरूप सब एकसा मानते है। छ द्रव्योमे कोई २ श्वेतावर जैनाचार्य निश्चय काल द्रव्यको नहीं मानते है, केवल व्यवहार कालको मानने है, कोई श्वेताबराचार्य काल द्रव्यको मानते है । यह एक बहुत सूक्ष्म भेद है । कर्मोके बन्ध, उदय, सत्तामे एकमतपना है। कोई भी जैनी चाहे दिगम्बर हो या श्वेताम्बर हो वीतराग भावको ही धर्म मानेगा । राग, द्वेष मोहको संसार मानेगा। जैसा श्री कुंद्रकुंदाचार्यने समयसारमें कहा है । इसमे कोई मतभेद नहीं है।
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जैनोंके भेद ।
[१९७ रत्तो बंधदि कम्मं मुंचदि जीवो विरागसम्पत्तो। एसो जिणोवदेसो तह्मा कम्मेसु मा रज ॥ १५० ॥
भावार्थ-रागी जीव कर्मोको बांधता है परन्तु विरागी जीव कर्मोंसे मुक्त होता है, ऐमाश्री जिनेन्द्र भगवानका उपदेश है। इसलिये शुभ अशुभ कर्मोमें रंजायमान मत हो।
अप्पाणं झायंतो सणणाणमओ अणण्णमओ। लहइ अचिरेण अप्याणमेव सो कम्मपविमुक्कं ।। १८९॥
भावार्थ-जो कोई एकाग्र मनसे दर्शनज्ञानमई आत्माको व्याता है वह शीघ्रही कर्मोसे छूटकर मात्र आत्माको ही पाता है।
एदिमि रदो णिचं संतुहो होहि णिचमेटलि। एदेण होहि तित्तो तो होहदि उत्तम सोक्ख ॥२०६॥
भावार्थ -इसी आत्माके स्वरूपमें नित्य रत हो, इसी संतोषमान, इनीमे ही तृप्त रहो तो तुझे उत्तम सुख होगा। जैनियोंका एक मुख्य सिद्वांत आत्मोन्नति है व उसका उपाय आत्माका ध्यान है, इसमें कोई जैनी भिन्न सम्मति नहीं रखता है।
दसरा जैनोंका तत्व अहिंसा है। इसमें भी सब जैनोंका एक मत है । अहिंसाका एवरूप ऐसा ही सव मानते हैं जैसा श्री पुरुपार्थसिद्धयुपायमें श्री अमृतचन्द्राचार्य कहते है
यहवतु कपाययोगात् प्राणानां द्रव्यभावरूपाणाम् । व्यवरोपणस्यकरणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ॥४३॥ .
भावार्थ-जो क्रोधादि कयायोंके वश होकर भाव प्राण और अन्य प्राणोंका घात करना सो निश्चयसे हिसा है । भाव प्राण आ
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१९८]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा । स्माके गुण, ज्ञान, गाति आदि है । द्रव्यप्राण इन्द्रिय, वल, आयु. श्वासोछ्वास है, जिनका कथन किया जा चुका है।
शिष्य-तब सब जैनी एकता क्यों नहीं रखते है ? दिगम्बर व श्वेताबर ऐसे जुदे मालूम पडते है जैसे-हिंदू और मुसलमान |
शिक्षक-एकता न होनेका कारण यह है कि जैनोका ध्यान अधिकतर बाहरी क्रियाकाडपर है, जिसमे कुछ मतभेद है। परन्तु असली मोक्ष मार्गपर नहीं है । यदि असली मोक्ष मार्गपर हो तो कभी परस्पर अनमेल न हो, सब असली मोक्षमार्गको एक ही जाने । व्यवहारके तरीकोंपर मतभेद होनेपर भी उसी तरह प्रेम रमखें जैसे कपड़ोंके व भोजनपानके भीतर भेद होनेपर एक सभाके सभासद परस्पर एकता व मेलसे रहते है।
शिष्य-तब हरएक आम्नायके उपदेशक इधर जेनोका लक्ष्य क्यों नहीं दिलाते है।
शिक्षक-जो साधु, पण्डित, उपदेशक आदि है उनका भी अधिकतर लक्ष्य व्यवहार क्रियाकांडके ऊपर रहता है, वे भी बहुत कम असली जैनधर्मकी तरफ ध्यान देते है। यदि वे सच्चे जैनधर्मका अनुभव करें तो उनके परिणामोंमें साम्यता आजावे तब उनका उपदेश भी ऐसा ही हो।
शिष्य--इस समय जैनोंमे अपनी२ आम्नायके अनुसार बाहरी आचरण पालते हुए एकताकी बडी जरूरत है तब क्या इन विरकोंको. पण्डितोंको व उपदेशकोंको समझाया नहीं जासक्ता है ?
शिक्षक--यदि दिगंबर तथा श्वेताबर दोनोके परोपकारी विद्वान लेखक अध्यात्मिक साहित्य तैयार करें और साम्यभावसे सच्चे धर्मपर
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जनाके भेद ।
[१९९ लक्ष्य दिलायें तथा व्यवहार चारित्रमे एक दूसरेपर मध्यस्थ भाव रखनेका संकेत करे और ऐसे साहित्यका प्रचार उपदेशकर्ताओंमें किया जाये तो कुछ कालमे एकता अवश्य स्थापित होसक्ती है।
शिष्य-कृपाकर वताइये मतभेद क्या क्या है ?
शिक्षक-मै कुछ थोडेमे मतभेद बताता हूं उनको जानकर विचार करना हरएक बुद्धिमान जैनीका कर्तव्य है। दिगम्बर व श्वेताम्बरका मत इन मतभेदोंपर क्या है व हरएक उसकी पुष्टि कैसे करता है यह संक्षेपसे मुझे बता देना है। इसपर आप स्वयं विचार लेंगे कि आपकी बुद्धि क्या स्वीकार करती है।
(१) एक मतमंद तो यह है कि दिगम्बर कहते है कि जबतक वम्रोको बिलकुल त्यागकर नग्न बालकके समान न हुआ जायगा, नबतक परिग्रह त्याग महाव्रत नहीं होसक्ता है, जो एक साधुके लिये आवश्यक है। इसलिये साधु वही होसक्ता है जो वस्त्र रहित हो। जहांतक एक लंगोट भी है वहातक वह श्रावक माना जाना चाहिये। श्वेताम्बरोंका यह मानना है कि जितने वस्त्र रखनेसे गरीरकी रक्षा हो, सर्दी गर्मीकी बाधा न हो, लज्जा सध सके उतने वस्त्र साधुको रख लेना चाहिये। वस्त्र सहित साधु भी उन्नति करके मोक्षका साधन कर सक्ता है। दिगम्बरोंका कहना है कि वस्त्र रखना पीछी कमंडलके समान धर्मोपकरण नहीं है । शरीरके माहके कारणसे वस्त्र रवग्वा जाता है । जवतक माह न छोड़ा जायगा तबतक छठे गुणस्थान प्रमत्तविरत सम्बंधी वीतरागताके परिणाम न होगे। जहांतक लंगोट भी होगा वहांनक लज्जा कपायके न जीतनेसे पांचवें गुणस्थान सम्बंधी भाव होंगे। जो लज्जा व गरदी गर्मी आदि परीपहोंको नहीं
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विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा ।
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जीत सके उसको ग्यारहवी प्रतिमा व्रत श्रावकके व्रत पालने चाहिये, विना बालक सम प्राकृतिक पमें हुए मावुका चारित्र नहीं होमक्ता है । निग्रंथ उसे कहते हे जो सर्व परिग्रहका त्यागी नग्न माधु हो । श्वेताबरोंका कहना है कि जो नग्न रह सक्ता है वह नग्न रहे, उसे जिनकरूपी साधु करेंगे व जो नग्न नहीं रह सक्ता है वह ब रखखें, उमे स्थविरकल्पी साधु कहेंगे। यह भी उनका कहना है कि जैसे शरीर रक्षा के लिये भोजन आवश्यक वैसे वस्त्र भी अवश्यक है तथा जब साधुका व्यान अविक चढंगा तब उसका भाव जिस तरह शरीर से ममता हटा लेता है वैसे बासे भी ममता हटा लेगा । इसलिये व सहित होते हुए भी परिणामोंकी उन्नति होसक्ती है, छठा सातवा आदि गुणस्थान होसकता है तथा वह अरहंत भी होसकता है ।
शिष्य - श्री महावीर स्वामीने किम तरह दीक्षा ली थी ? शिक्षक - श्री महावीरस्वामीने नग्न होकर दीक्षा ली थी ऐसा दिगम्बर श्वेतावर दोना मानते हे । उ० इतना कहते है कि इन्द्रने एक देवदूण्य वस्त्र कवेपर डाल दिया था । वह एक वर्ष एक मास तक पड़ा रहा, फिर वह गिरगया । पीछे १३ मान कम बारह वर्ष तक महावीर स्वामीने नग्न ही तप किया ।
शिष्य - नया उनके ग्रथका कोई वाक्य आप बता सक्ते हे ? शिक्षक - उनके माननीय श्री आचारागसूत्रमे नीचे लिखे वाक्य आए है
संवच्छरं साहियमासं, जं न रिक्कासि वत्थगं भगवं । अचेलओ तभोचाई तं वोसिज्ज वन्थ मणगारे ॥ ४ ॥
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जैनोंके भेद।
[२०१ सं०-तत् इन्द्रोपाईतं वनं संवत्सरमेकं साधिकं मोचयन्नत्यक्तवान भगवान् तत् स्थितकल्प इति कृत्वा तत् ऊर्ध्वं तत्वस्त्रपरित्यागी व्युत्सृज्य च तद्रनगारो भगवान् अचेलोऽभूत । ( नौमा अ० पृ० ३०१ शीलांकाचार्य विहित विवरण युनं मुद्रित म्हेसाणा लल्लभाई किशोरदास सन् १९१६)।
शिष्य-क्या वे नग्नत्वको सवस्त्रधारीये अच्छा समझते हे ? क्या इसके भी कुछ शास्त्रीय प्रमाण है ?
शिक्षक-उमी आचारांगमें सूत्र २१६-२२६ अध्याय ८ पृ० २७७-२८६ में "जं भिक्खु अचेले परिव्रसिए तस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ चाएमि अहंतण कासं" अर्थात् जो भिक्षु नग्न रहेंगे उनको यह नहीं मालूम होगा कि मेरे तृण स्पर्श होरहे है वे तृण स्पशकी बाधा सहेगे।
प्रवचनसारोद्धार भाग ३ (छपी मंवत् १९३४) पृ०१३४ " आउरणवजिगणं विसुद्ध जिणकप्पियाणंतु" अर्थात् जो वस्त्र रहित हे वे विशुद्ध जिनकल्पी है ।
शिष्य-च्या सवन्त्र जैन साधुका चारित्र श्री महावीरस्वामीके समयमें या पहलेम ताम्बर जैन मानते है ?
शिक्षक-श्वेताम्बर जैन कल्पसूत्र आदि अपने ग्रन्थोंसे यह कहते है कि श्री पार्श्वनाथके समयमे वस्त्र सहित साधु होते थे, महावीरस्वामीने सुधार किया, नग्नत्वका प्रचार किया।
शिष्य-क्या कोई ऐतिहासिक प्रमाण इस बातकी पुष्टिका है? शिक्षक-जहांतक मुझे मालूम है अबतक कोई ऐतिहासिक
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विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा । प्रमाण इस बातका नहीं मिला है कि श्री महावीरस्वामीके पहले या उनके समयमे जैन साधु सवस्त्र थे।
शिष्य--इस कालमे वस्त्र रहित साधु होना बहुत कठिन मालम होता है, क्या इसीलिये नो श्वेताम्बरोंने सवस्त्र माधुका मार्ग नहीं चलाया ?
शिक्षक--यदि प्रतिमाओके द्वारा धीरे२ वस्त्र त्यागका अभ्यास किया जावे तो सावुपद नग्नावस्थामे ठीक पल सक्ता है, विना अभ्यासके तो वास्तवमे कठिन काम है। शरदी, गमी आदि सहना व लज्जा जीतना बहुत ही दुष्कर कार्य है, परन्तु अभ्याससे सरल है।
शिष्य-क्या श्वेताम्बर साधुकी क्रियाएं दिगम्बरोंकी किसी' प्रतिमासे मिल जाती है ?
शिक्षक-यदि हम क्षुल्लफोका मिलान करें तो, बहुत अंगमें मेल बैठ जाता है। दिगम्बर जैन शास्त्रोंमे अनेक घरोंसे भोजन पात्रमें एकत्र करके क्षुल्लकके लिये भोजन करनेका विधान है इसीको श्वेताम्बर साधु पालते है।
शिष्य-क्षुल्लक गन्द म्यारहवीं प्रतिमाधारीको क्यों दिया गया है ?
शिक्षक-क्षुल्लक छोटेको कहते है, वास्तवमें वे छोटे साधु ही है। वे भी साधुवत् व्यानादि करते है, भिक्षावृत्तिसे भोजन करते हैं, मोरपिच्छिका रखते है। ___ शिष्य-तब फिर दिगम्बर श्वेताम्बरोको वस्त्र रखने न रखनेपर मन मुटाव न रखना चाहिये । श्वेताम्बर शास्त्रमें उत्तम जिनकल्पी अचेल वस्त्र रहित कहे गए है। दिगम्बर साधुओंको इस दृष्टिसे श्वेताम्बरोंको देखना चाहिये तथा दिगम्बरोंको उचित है कि
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जैनोंक भेद। वे श्वेताम्बर साधुलोको भुलकवत देखकर इस विषयमें मध्यस्थ भाव ग्वखें । परस्पर उनका न कर. जिमसे जैसा सधे वह बाहरी चारित्र वैसा पाले । अपनीर श्रद्धानुकूल पाले | अंतग्न चारित्रमें तो आपने कहा है कि भेद कुछ नहीं है ।
शिक्षक--वास्तवमे अंतरङ्ग चारित्रमें एक ही मत है। दिगंबर जैन शास्त्र भी कहते है कि जबतक स्वात्म रमण न होगा तबतक मोक्षमार्ग यथार्थ नहीं है, केवल बाहरी भेप मोक्षमार्ग नहीं है। देखिये श्री कुंदकुंदाचार्य समयसारमे यही कहते है.--- गाथा--ण वि एस प्राक्खमग्गो पाखण्डीगिहिमयाणि लिंगाणि ।
दसणणाणचरित्ताणि मोक्खमग्गं जिणा विति ॥४१०॥
भावार्थ-साधु व गृहीके भेप मात्र मोक्षका मार्ग नहीं है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान. सम्यकचारित्रकी एकता जो आत्मानुभव रूप है. वही मोक्ष मार्ग है, ऐसा जिनेन्द्र कहते है।
यही बात ऊपर लिखीत श्वे० ग्रन्थ आचारांगमें कही है।
" बंधयमुक्खो अत्सत्यव इत्थविरए अणगारे दीहण्यं तितक्खए पमन बहिया पास अप्पमत्तो परिव्वए एवं मोणं सम्म अणुवासिज्जा सित्ति वेमि" (सू० १५० लोकसाराध्ययने द्वितीयोद्देश १५/२ )
भावार्थ-बन्ध या मोक्ष भीतरी परिणामोंमे है । विरक्त गृह रहित साधुको रातदिन परिपह सहना चाहिये । जो प्रमादी है उनको मोक्षमार्गके बाहर जानना चाहिये। अप्रमादी होकर वैराग्यमें रहे, ऐसे मुनिको भलेप्रकार मोक्षमार्ग पालना चाहिये ।
और भी वहीं कहा हैइह आणाकंखी पंडिए अणिहे राग मप्पाणं संवेहाए कमेहि
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२०४]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा । अप्पाणं जरहि अप्पाणं जहा जुन्नाई क्हार्ड हव्ववाहो पमराह एवं अत्तममाहिए अणिहे विगिंच कोहं अविकंपमाणो" स. १३५ पृ.१९०
भावार्थ--आज्ञाकारी, पंडित. नेहरहित अपनेको अकेला एक रूप देख करके अपनेको कृप करे, अपनेको नपसे जीर्ण कर। जैसे पुराने काठको आग जला देती हे वैसे म्नेहरहित होकर क्रोधको तज निष्कंप हो आत्माका ध्यान करनेमे कर्म गल जान है । टीकाकारने वहीं लिखा है कि ऐसी भावना करे
सदैकोहं न मे कश्चित् नाहमन्यस्य कस्यचित् । न तं पश्यामि यस्याहं नासौ भावी तियो मम ||
भावार्थ-मै सदा एक हं, मेरा कोई नहीं है मैं किसी अन्यका नहीं हूं। न मैं किसीको देखता हू जिसका मै हू. न भावी कालमे मेरा कोई होगा। और भी कहा है
जह खलु सुसिर कटं सुचिरं मुकं लहुं डहइ अगी। तह खलु खवंति कम्म सम्मचरणे ठिया साहू ॥ २३४ ॥
भावार्थ -जैसे गीला काठ जब दीर्घ कालमे सूख जाता है तब उसे अग्नि शीघ्र जला देती है वैसे ही जो साधु भले प्रकार स्वरूपाचरण चारित्रमे स्थित होते हे वे कर्मोको क्षय कर डालने है। प्रयोजन यह है कि सर्व जैनोको समताभाव रखकर अतरंग चरित्रपर लक्ष्य देना चाहिये । उस चारित्रका बाहरी साधन व्यवहार चारित्र है। उसके लिये दिगम्बरोंको अपनी श्रद्धाके अनुकूल व श्वेताम्बरोंको अपनी श्रद्धाके अनुकूल चलना चाहिये । माध्यस्थमाव रखना ही जिनेन्द्रकी आज्ञा है । परस्पर द्वेष न रखना चाहिये । जिसकी
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जनोंके भेद।
[ २०५ समअमें जैसा आये वैया वह बाहरी चारित्र पाले । अंतरङ्ग परिणामोंपर मुग्न्यतासे लक्ष्य देना चाहिये ।
शिष्य और कुछ जरूरी अंगरकी बातें बताइये ।
शिक्षक--दृमरी बात यह है कि दिगंबर जैन अपने शास्त्राधारसे ऐसा बनाने है कि बीके गरीर मोक्ष नहीं होमती है, पुरुषके शरीरसे ही मुक्ति होता है । इसका कारण वे यह बताते हैं कि जिस उच्च ध्यानके करनेसे कौका नाश होसके वैसा ध्यान शक्तिकी कमीसे स्त्री द्वारा नहीं किया जासक्ता है। बीके संहनन अर्थात् हड्डियोंकी शक्ति वज्रवृपमनाराच रूप नहीं है। पुरुषोंमें भी जिसके ऐसी शक्ति होगी वही मोक्षक साधनकी योग्यता रख सक्ता है । वज्रके समान हुन नसोक जाल, हड्डियोकी संधिये तथा हड्डी हो उसको वनवृषभनाराच संहनन कहते है। स्त्रिया उन्नति करके मोलह स्वर्ग तक व अवनति करके छठे नर्क तक जासक्ती है । श्वेतांबर मात्रकार स्त्रीक गरीरमे मुक्ति होना बताते है। उनके यहा उन्नीसवें तीर्थकर श्री मलिनाथको स्त्री तीर्थकर माना है । यद्यपि वे मोक्षका लाभ स्त्रीके शरीरमे मानने हे तथापि दिगंबरोके समान वे यह मानते है कि वह स्वर्गोग ऊपर ग्रैवेयिक आदिमे नहीं जाती, सातवें नर्क नहीं जाती, चक्रवती आदि नहीं होती है।
श्वेताम्वर ग्रन्थ प्रवचनसारोद्धार प्रकरणरत्नाकर भाग तीजा मंवत १९३४ छपा भीमसी माणक बम्बईमें कहा है
अरहंत चक्कि केसव बल संभिन्नेय चारणे पुव्वा । गणहर पुलाय आहारगं च नहु भक्यि महिलाणं ॥ ५२ ।।
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विद्यार्थी पोन धर्म शिक्षा । अर्थात् अरहत (तीर्थकर). चक्रवर्ती, नागयण, बलदेव. संमिनश्रोतृऋद्धि, चारणऋद्धि, पूर्वोका ज्ञान गण पर पुलाक सावुपना, आहारक शरीर ये दश बाते वीके शरीरमे नही हाती है । टीकाकार कहते है कि मल्लिनाथ स्त्री क्यों हुप ? यह एक सास बात हुई है। नियम नहीं है इसको अछेग कहते है।
दिगम्बरोके समान वे यह मानते है कि देवियोंकी उत्पत्ति दूसरे स्वर्गतक ही होती हे तथा वे वारहवे स्वर्गतक जासक्ती हे क्योंकि श्वेताम्बरी वारह स्वर्ग मानते है, दिगम्वरी ६ स्वर्ग मानते है ।
संग्रहणीसूत्र पन्ने ७८ मे कहा हैउववामो देवीणं कप्पदुगं जा परा महस्सारा । गमणागमणं नन्छी अञ्चय परऊ सुराणंपि ॥
भावार्थ-देवी दूसरे स्वर्ग तक उपजे परन्तु बारहवें सहस्रार तक जाय।
शिप्य-आजकल दिगम्बर या श्वेतावर नोन किसको होना मानते हे ?
शिक्षक-इस भरत क्षेत्रमे आजकल दानोंका यह मत है कि स्त्री व पुरुपको ऐसी शक्ति नहीं है, जिससे कोई भी मोक्ष जासके। इसी लिए इस अन्तरके रहते हुए भी मान्य नाव रखना चाहिये । बुद्धि बलमे विचारने हुए जो वात समझमे आये, सो मानना चाहिये। तीसरा अन्तर यह है कि दिगवरी ऐसा मानते है कि केवली अरहंत जिन गरीग्में रहते हुए ग्रासरूप भोजन जैसा साधु अवस्थामे करते थे वैसा नहीं करते। कितु उनके गरीरको पुष्टि टनेवाले पुद्गलके पिड (आहारक वर्गणाए ) स्वयं आकर उनके शरीरमे उसी तरह मिलने
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जैनोंके भेद |
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रहने हैं जैसे--वृक्षादि मिट्टी पानीको खींच लेते है । केवली वीतराग है, अनंत बनी है, उनके भूखकी इच्छाका क्लेश नहीं पैदा हो सकता है । उनके तीव्र पुण्योदयमे व लाभातराय कर्मके नाशसे उनकी योग शक्तिके द्वारा पुल पिs शरीर में मिल जाते हैं । तावर लोग कहते है कि वे साधुके समान भोजन करते है । इसमें भी मध्यस्थ भाव रखकर विचार लेना चाहिये | आहार का होना दोनो मानते है | दिगम्बरी वृक्षके लेपाहार के समान पुगलों का ग्रहण मानने है, श्वेतांबरी कवलाहार मानने हे ।
शिष्य-क्वा और भी अंतरकी बातें हैं 2
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शिक्षक --तीन मुख्य अंतरकी बातें आपको बताई है । और भी कुछ बातें बताता हू । दिगंबरी मानने हे कि केवलीको रोग व नीहार (मलनत्र ) नहीं होता है । श्वेतावरी रोग व नीहार होना भी मानते है। श्री महावीर भगवानने विवाह नहीं किया - कुमारकालमें दीक्षा ली ऐसा दिगंबरी मानते हे । श्वेतावरी मानते है कि विवाह किया, कन्या जन्मी, फिर दीक्षा ली ।
श्री महावीर स्वामी राजा सिद्धार्थकी रानी त्रिशलाके ही गर्भ में रहकर जन्मे ऐसा दिगंबरी मानने हे । श्वेतांबरी मानते है कि यह पहले एक ब्राह्मणके गर्भ में आए फिर इन्द्रने उनको बहासे लाकर त्रिशलाके गर्भमें रक्खा । इत्यादिक अतरकी ऐसी कुछ बाते है जो कोई महत्वशाली नहीं हैं ।
शिष्य - दिगंबर श्वेताम्बर भेट कसे हुआ ?
शिक्षक - दोनो मानते है कि ये भेट विक्रम संवत् १३४ या १३६ में पड़ा । दिगम्बर कहने है कि इताम्बर से तब स्थापित हुआ ।
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२०८ ]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा |
श्वेतावर कहते है कि दिगम्बर संघ तत्र स्थापित हुआ । यह बात. प्रसिद्ध है कि जैनधर्मी महाराज चन्द्रगुप्त मौर्य ( सन् ई० मे ३२० वर्ष पहले ) के समय में मन्य देशमे वारह वर्षका दुष्काल पड़ा उस समय श्री भद्रबाहु श्रुतकेबली २४००० मुनिमघ सहित बिगजित थे । श्रुतकेवलीन दुष्कालमे मुनिमंयम पलता हुआ कठिन जान कर सघको दक्षिणकी तरफ चलनेकी सम्मति दी । १२०००ने बात मानली । वे तो दक्षिण श्रवणबेलगोलाकी तरफ चलेगए। शिलालेखोंसे यह सिद्ध है कि भद्रबाहु दक्षिण गए, साथमे राजा चंद्रगुप्त भी मुनिरुपमे था । यहा जो १२००० नग्न मुनि रहे उनसे साधुका चारित्र न पल सका तत्र वे कंधेमे वन्त्र रखने लगे, अर्द्धफालक मत चला | दुष्कालके पीछे वे मुनि लौंट तत्र उनके उपदेश से बहुतोंने पुरानी चर्या धार ली । बहुतोंने वस्त्रका त्याग नहीं किया । यही होनेकी जड है ऐसा दिगम्बरोंके भद्रबाहुचरित्र लिखा है | शिष्य- क्या और कोई विशेष अंतर है? जिसे जानना
जरूरी है ?
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शिक्षक-दिगम्बरी लोग तीर्थकरों की मूर्तिया ध्यानाकार वस्त्र व अलंकार रहित स्थापित करने है । जबकि श्वेताम्बरी लोग मूर्ति तो ध्यानाकार बनाने हे परन्तु उसमे लंगोटका चिन्ह करते हैं. दिगम्बरी ऐसा नही करते है । तथा श्वेताम्बरी ऊपरसे नेत्र जडते हे. आभूषणादि पहनाके मूर्तिको सजाते है । श्वेताम्बरोमे एक स्थानक - वासी पंथ है जो मूर्तिको नहीं पूजने हे तथा उनके साधु श्वेताबरोंके समान वस्त्र रखते है व आहार लाते है परन्तु मुखपर पट्टी वाघते है । उनका ऐसा खयाल है कि कही कोई जंतु मुखमे न
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जैनोंके भेद ।
। २०९ चला जावे । मूर्तिपूजक श्वेताबरी ऐसा कहते हैं कि ये उनहीमेंसे १५ वीं शताब्दीसे हुए है। स्थानकवासी जैनोंका बहुतसा कथन मूर्तिपूजक श्वेतांवरोंसे मिलता है।
मैंने थोडासा मतभेद बता दिया है जिससे दिगंवर व श्वेतांघर परस्पर एक दूसरेको पहचान लेवें।
शिष्य स्थानकवासी जैन ग्रन्थोंके भीतर असली मोक्षमार्गका कैसा वर्णन है ? कुछ नमूना बताइये, जिससे दिगम्बर व मूर्तिपूजक व स्थानकवासी इनके कथनकी साम्यता मालम हो।
शिक्षक-आपका प्रश्न बहुत योग्य है । मुझे आज ही स्थानकवासी मुनि श्री चौथमलजी द्वारा संग्रहीत “निग्रंथ प्रवचन" नामकी पुस्तक प्राप्त हुई है । ( प्रकाशक जैनोंदय पुस्तक प्रकाशक ममिति रतलाम वीर सं० २४५९) उसमें से कुछ कथन वताता हूं।
अप्पाणमेव जुज्झाहि किं ते जुझेण वज्झओ। अप्याणमेव अप्पाणं जइत्ता सुहमेहए ॥८-१||
भावार्थ-आत्माके साथ ही युद्ध कर, बाहर युद्ध करनेसे क्या? आत्मा हीके द्वारा अपनेको जीतनेसे सुख प्राप्त होता है । रागोय दोसो वि य कम्मवीय कम्मं च मोहप्पगवं वयंति । कम्मं च जाई मरणस्स मूलं दुक्ख च जाईमरणं वयंति ॥२७-२
भा०-राग द्वेष कर्म बन्धके वीज है। यह कर्म मोहसे वंधते है। कर्म जन्म मरणके मूल हैं। जन्म-मरण ही दुख है । ऐसा ज्ञानी कहते हैं। दुख इयं जस्स न होइ मोहो, मोहो हओ जस्स न होइ तण्डा । तण्हा हया जस्स न होइ लोहो, लोहो हओ जस्स न किंचणाई ।।
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२१०]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा । भा०-जिपके मोह नहीं है उसने दुखको नष्ट कर डाला। जिसके तृष्णा नहीं है उसने मोहको नष्ट किया, जिसके लोभ नहीं है उसने तृप्णाको नष्ट किया। जिसके धनादिर ममन्त्र नहीं है उसने लोभको नष्ट किया ।
धम्मो मंगल मुक्किट हिसा सजमा नबो ।
देवा वि तं नर्मसंति जस्स धम्मे सया मणे ।।५-३॥ भा०-अहिंसा, संयम तप ये धर्म उत्कृष्ट मंगल है । जिसका मन सदा धर्ममें है उसको देव भी नमन करते है। थम्मे हरए वंभे सति तित्थे अणाविले अत्तपसनलेसे । जहिसि हाओ विमलो विसुद्धो सुसीति भूओपनहामिदोस ॥२४॥४
___ भा०-मिथ्यात्वरहित. आत्मानंदकारक धर्मरूपी द्रह और ब्रह्मचर्यरूपी शातिमय तीर्थ (नदी) है। जिसमे स्नान करनेसे यह आत्मा मलरहित शुद्ध व शात होनानी है। इसलिये मैं इसीसे आने मैलको छुडाता हूं।
निम्ममो निरहंकारो निस्संगो चत्त गारवा । समो अ सबभूएस तसेसु थावरेसु य ॥ ११-५॥
भा०-साधु वही है जो ममता रहित, अहंकार रहित, बाहरी भीतरी परिग्रह रहित, वडप्पन रहित हो तथा त्रस स्थावरादि सर्व प्राणियोंपर समता भाव सहित हो । नादसणिस्स नाण, नाणेण विणा न होति चरणगुणा । अगुणिस्स नस्थि मोक्खो, नत्थि अमुक्कस्प निवाण ॥७-६॥
भा०-सम्यकदर्शन रहितके सम्यकज्ञान नहीं है । सम्यक्
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जैनोंके भेद ।
[२११ ज्ञानके विना सम्यक्चारित्र नहीं है । चारित्र रहितके कर्मोंसे मुक्ति नहीं होती है । कर्मरहित हुए विना निर्वाण नहीं होमक्ता । जहा पउमं जले जाय, नोवलिप्पइ वारिणा। एवं अलितं कामहि, तं व्यं वूम माहणं ।। १७-७ ।।
भा०-जैसे कमल जलमें पैदा होता है तो भी जलसे लिप्त नहीं होता है, वैसे जो काम भोगोंसे लिप्त नहीं होता है उसे हम ब्राह्मग कहते है।
समयाए समणो होइ, वंभचेरेण वंभणो। नाणेणय मुणी होई, तवेण होइ तावणे ॥ १९-७ ।।
भा०-समतासे श्रमण साधु होता है, ब्रह्मचर्यमे ब्राह्मण होता है, ज्ञानसे मुनि होता है, तपसे तपस्त्री होता है।
कम्मुणा भणो होइ कम्मुणा होइ खित्तिो। कम्मुणा वइसो होइ सुदो होइ कम्मुणा ।। २०-७॥
भा०-कर्मसे या क्रिया आचरणसे ही ब्राह्मण होता है। क्षत्रियकी क्रियासे क्षत्रिय होता है। वैश्य कर्ममे वैश्य होता है। शुद्ग कर्मसे शूद्र होता है।
सचे जीवा वि इच्छति जीविउं न मरिज्ज। तम्हा पाणिवहं घोरं निग्गंथा बजयंति णं ॥ १-९ ॥
भा०-सर्व जीव जीना चाहते है मरना नहीं चाहते हैं। इसलिये निग्रंथ साधु प्राणीवधरूपी घोर कर्मको नहीं करते हैं। न कम्मणा कम्म ग्वति वाला अम्मणा कम्प ग्वति धीरो। मेधाविणो लोभमयावतीता संतोसिणोनोपकरेंति पावं ॥१८-१४
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___ २१२]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। भा०-अज्ञानी कर्मोको करते हुए कर्मका भय नहीं करने है। धीर पुरुष क्रियारहित आत्मानुभवके द्वारा कर्मोको क्षय करने है । लोभरहित संतोषी पण्डितजन पाप नहीं करते है । नाणस्स सव्वस्स पगासणाय अण्णाण मोहस्स विवजणाए । रागस्स दोसस्स यतखएणं एगंतसविखं समुवेड मोक्ख ॥२१-१८
भा०-सर्व ज्ञानके प्रकाश होनम, जान व मोहके छूट __ जानेसे, रागद्वेषके क्षय हो जानसे परम सुखरूप मोक्षकी प्राप्ति होती है। आत्मध्यान व अहिंसाकी पुष्टि इन गाथाओंमे है।
शिष्य-क्या दिगम्बर जैन शास्त्रोंसे कुछ ऐसा साहित्य बतायेंगे?
शिक्षक-यदि आपकी इच्छा है तो कुछ उपयोगी साहित्य नीचे दिया जाता है
योगसारमें श्री योगेंद्राचार्य कहते हैजो णिम्मल अप्पा मुणइ वयसंजमुजुत्तु । तउ लहु पावइ सिद्ध सुहु इउ निणणाहह बुत्तु ॥ ३०॥
भावार्थ-जो व्रत व संयमको पालते हुए निर्मल आत्माको अनुभव करता है सो शीघ्र ही सिद्धके सुखको पाता है ऐसा जिनेन्द्र कहते है।
धम्मरसायणमें श्री पद्मनंदि मुनि कहते हैजियकोहो जियमाणो जियमायालोहमोह जियमयओ। जियमच्छरो य जम्हा तम्हा णाम जिणो उत्तो ॥ १३५॥
भावार्थ-जो क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदिको जीतता है वही जिन है।
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जैनोंके भेद ।
[२१३ श्री कुलभद्राचार्य सारसमुच्चयमें कहते हैंसम्यक्तज्ञानसम्पन्नो जैनभक्त जितेन्द्रियः । लोभमोहमदैस्त्यक्तो मोक्षभागी न संशयः ॥ २५ ॥
भावार्थ-जो सम्यकदर्शन व सम्यक्ज्ञान सहित है, जिनेन्द्रके मार्गका भक्त है, इन्द्रियोंको विजय करनेवाला है, लोभ, मोह, मदसे रहित है वह मंशय रहित मोक्षका भागी है। वहीं कहा है
समता सर्वभूतेषु यः करोति सुमानसः । ममत्वभावनिर्मुक्तो यात्यसौ पदमव्ययं ॥ २१३ ॥
भा०-जो बुद्धिमान सर्व प्राणियोंमे समता भाव करता है तथा ममताभाव त्यागता है, वही अविनाशी पदको पाता है ।
निर्ममत्वं परं तत्वं निर्ममत्वं परं सुखं । निर्ममत्वं परं वीज मोक्षस्य कथितं बुधैः ॥३४॥ निर्ममत्वे सदा सौख्य, संसारस्थितिच्छेदनम् । जायते परमोत्कृष्टमात्मनः, संस्थिते सति ॥२३५॥
भा०-ममता गहतपना परम तत्व है। यही परम सुख है। यही मोक्षका परम वीज है, ऐसा बुद्धिमानोंने कहा है। संसारकी स्थितिको छेदनेवाला परमोत्कृष्ट सुरव परसे ममता त्यागनेपर तथा आत्माके भीतर स्थिति करनेसे उत्पन्न होता है।
यः सन्तोषामृतं पीतं तृष्णातृट्प्रणाशनं । तैश्च निर्वाणसौख्यस्य, कारणं समुपार्जितं ॥२४७॥
भा०-जिन्होंने तृष्णाकी प्यास बुझानेके लिये संतोषामृतका पान किया है उन्होंने निर्वाणके सुखका मार्ग पालिया है ।
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२१४ ]
विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा ।
ज्ञानदर्शनस पन आत्मा चैको ध्रुवो मम ।
शेपा भावाच मे वह्या सर्व सयोगलक्षणाः || १४९ ॥
भा० - ज्ञान दर्शन सहित एक अविनाशी आत्मा ही मेरा है बाकी सर्व रागादि भाव मेरे नहीं है कर्म संयोग से उत्पन्न हुए ᄒ आत्मान स्त्रापयेन्नित्यं ज्ञानवीरेण चारुणा ।
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येन निर्मलतां याति जीवो जन्मान्तरेग्वपि ॥ ३१४ ॥ भा० - आत्माको सदा पवित्र ज्ञानरूपी जल्में स्नान कराओ जिससे यह जीव जन्म जन्म के पापोसे छूटकर निर्मल होजाता है । श्री नागसेन मुनि तत्वानुशासन मे कहते है
स्वाध्यायाद्ध्यानमध्यास्तां ध्यानात्स्वाध्यायमामनेत् । ध्यानस्वाध्याय संपत्त्या परमात्मा प्रकाशते ॥ ८१ ॥ भा०- स्वाध्याय करने २ ध्यानमे आजाओ । भ्यानमे छूटो तब शास्त्र मनन करो । ध्यान स्वाध्यायकी प्राप्ति ही परमात्माका पद प्रगट होजाता है ।
स्वयमिष्टं न च द्विष्ट किन्तूपेक्ष्यमिदं जगत् । नाऽहमेष्टा न च द्वेष्टा किन्तु स्वयमुपेक्षिता ॥ १५७ ॥ भा०- यह जगत है न इष्ट है न अनिष्ट है, किन्तु वैराग्यके योग्य है। मैं न रागी हूं, न द्वेपी हूं. किन्तु स्वयं वीतरागी हूं ऐसा भावै ।
आत्मायतं निराबाधमतीन्द्रियमनश्वरं ।
घातिकर्मक्षयोद्भूतं यत्तन्मोक्षसुखं विदुः ॥ २४२ ॥ भा०--स्वाधीन, बाधारहित, अतीन्द्रिय, अविनाशी जो मोक्ष सुख कहा गया है वह ज्ञानावरणादि घातिकमोंके क्षय से पढ़ा होता है ।
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जनोंके भेद |
श्री पूज्यपादस्वामी इष्टोपदेश में कहते हैस्वसंवेदन सुव्यक्तस्तनुमात्रो निरत्ययः । अत्यंत सौवख्यवानात्मा लोकालोकविलोकनः ॥ २१ ॥ संयम्य करणग्राममेका प्रत्वेन चेतसः । आत्मानमात्मवान् ध्यायेद्वात्मन्येवात्मनि स्थितं ॥२२॥ भा०-- यह अपना आत्मा अपने शरीर प्रमाण आकारधारी निश्वयसे अविनाशी, अत्यन्त आनन्दमय, लोकालोकका ज्ञाता दृष्टा स्वानुभवगम्य है । इन्द्रियोके ग्रामोंको संयममे लाकर चित्तको एकाग्र करके आत्मज्ञानी आत्मामें ठहरे हुए अपने आत्माको अपने भीतर ही ध्यान में लावे |
वध्यते सुच्यते जीवः सममो निर्ममः क्रमात् । तस्मात्सर्वप्रयत्नेन निर्ममत्वं विचितयेत् ॥ २६ ॥
[ २१५
भा०- ममता सहित जीव कर्मोसे बंधता है, ममता रहित जीव कर्मोंसे छूटता है। इसलिये सर्व प्रयत्न करके निर्ममत्वभावका ध्यान करे।
आत्मानुष्टागनिष्टस्य व्यवहारवहिः स्थितेः ।
जायते परमानंदः कश्विद्योगेन योगिनः ॥ ४७ ॥ आनन्दो निर्दहत्युद्धं कर्मैधनमनारतं । न चासो खिद्यते योगीर्वहिर्दुःखेष्वचेतनः ॥ ४८ ॥ भा० - जो व्यवहारके बाहर जाकर आत्माके ध्यानमें लीन होता है उस योगीके ध्यानके बल से कोई परमानंद पैदा होता है यही आनन्द निरंतर कर्मोंके काठको बहुत अधिक जलाता है । ऐसा योगी बाहर दुःखोंके पड़नेपर भी उनसे बेखबर रहता हुआ
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२१६]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। खेदको नहीं पाता है। श्री अमितगति सामायिकगठमें कहते हैसर्व निराकृत्य विकल्प जालं संसारकान्तारनिपातहेतुम् । विविक्तमात्मानमवेक्ष्यमाणो निलीयसे वं परमात्मतत्वे ॥२१॥ ___ मा०-संसारवनमें गिरानेवाले सर्व विकल्पोंके जालको दूर करके अपने आत्माको सर्वसे भिन्न२ अनुभव करता हुआ तु एक परमात्माके स्वरूपमे लीन हो।
वैराग्यमणिमालामे श्रीचंद्रजी कहत हैंमुंच परिग्रहहन्दमशेपं चारित्रं पालय सविशेष । कामक्रोशनिपीलनयंत्रं ध्यानं कुरु रे जीव! पवित्रं ॥२१॥
भावार्थ-हे जीव ' सर्व परिग्रह समूहको त्याग यथार्य चारित्रको पाल। काम, क्रोधके दूर करनेको यंत्रके समान पवित्र व्यानको कर। विरमविरम वाह्यादि पद ये रम रम मोअपदे च हितार्थे । कुरु कुरु निज कार्य च वितंद्रः भवभव केवलबोध यतींद्रः ।। मुंच मुंच विपयामिपभोग लुप लुप निजतृष्णारोग । रुंध रुंध मानस मातंगं धर धर जीवविमलतरयोग ॥६९॥ ___ भावार्थ-बाहरी मन पदार्थोसे विरक्त हो, विरक्त हो. परम हितकारी मोक्ष पढमे रमणकर रमणकर. आलस्य त्यागकर आत्मीक कार्यको करले करले, केवलज्ञानका धारी अरहंत होजा होजा, इन्द्रियोंकी अभिलाषारूपी मासके भागको छोड छोड, अपने भीतरके तृष्णामई रोगको दूरकर दूरकर, मनरूपी हाथीको रोक रोक, अत्यंत विमल योगाभ्यासको धार धार।
श्री देवसेनाचार्य तत्त्वसारमे कहने हे
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जैनोंके भेद ।
[२१७ झाणेण कुणउ भेय पुग्गल नीवाण तह य कम्माणं । घेत्तन्वो णियअप्पा सिद्धसरुवो परो वंभो ॥ २५ ॥
भा०--ध्यानके द्वाग पुद्गलसे नथा कर्मोसे अपने जीवको भिन्न करके अपने ही सिद्ध स्वरूपी परम ब्रह्मरूप आत्माको ग्रहण करना चाहिये।
सयलवियणे थक्के उपजह का वि सासआ भावो । जो अप्पणो सहावो मोक्खस्स कारणं सोह ॥६१॥
भा०--मनके सर्व विकल्पोंके रुक जानेपर कोई एक अविनागी भाव पैदा होता है। जो आत्माका म्वभाव है वही मोक्षका कारण है।
ढाढसी गाथामे एक आचार्य कहते है---- मण गेहेण य रुद्ध करणसुहं सुहविणा य णिग्गयो। णिग्गंणे अकसाआ अकसाआ हिंसओ पत्थि ॥ ७ ॥
मा० मनको रोकनेस टन्द्रियमुख रुक जाता है। निग्रंथ ही सुखी है। जो कवाय रहित है वही निग्रंथ है, जो कपाय रहित है वह हिंसक नहीं होता है।
जो जाणइ अरहती दव्यत्य गुणन्य बज्ज यत्थेहिं । सोजाणई अप्पाणं माहो खलु जाइ तस्स लयं ॥ ३८॥
मा०--जो श्री अरहंत भगवानको द्रव्य, गुण, पर्यायोंके द्वारा समझता है वह अपने आपको समझता है, उमीका मोह अवश्य दूर होजाता है।
श्री पद्मनंदि मुनि ज्ञानमारमे कहते हैझाणेण विणा जाई असमत्थो होई कम्मणिड्डहणे । दाढाणहरिविहीणो जह सीहो वरगयंदाणं ॥ ७ ॥
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२१८]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। भा०-योगी व्यानके विना कर्माको जलानेके लिये उसी तरह असमर्थ है जैसे दाढ व नखरहित सिह बडे२ हाथियोंको वश नहीं कर सक्ता । आत्मानुशासनमे श्री गुणभद्राचार्य कहते है
ज्ञानस्वभावः स्यादात्मा स्वभावावाप्तिरच्युतिः । तस्मादच्युतिमाकांक्षन् भावयेज् ज्ञानभावनाम् ॥१७४॥
भा०-आत्मा शुद्ध ज्ञानस्वभावी है। अपने स्वभावकी प्राप्ति मोक्ष है इसलिये मोक्षके अथीको ज्ञानभावना भानी चाहिये।
रागद्वेषो प्रवृत्तिः स्यान्नित्तिस्तनिषेधनम् । तौ च वाह्यार्थसम्बद्धौ तस्मात्तांश्च परित्यजेत् ।। २३७ ।।
भा - रागद्वेष ही प्रवृत्ति है । उसका छोडना निवृत्ति है। वे रागद्वेष बाहरी पदार्थोके सम्बन्धमे होते है इसलिये इनको भी त्यागदे।
श्री अमृतचन्द्र आचार्य समयसार कलशमे कहते हैव्यवहारविमूहदृष्टयः परमार्थ कलयति नो जनाः। तुपयोधाविमुग्यबुद्धयः कलयन्तीह तुषंन तंदुलम् ॥४९-१०॥
भा०-जो जन व्यवहार हीमे मूढतासे मगन है वे निश्चय तत्वको अनुभव नहीं करते है । जो भूसीके लेनेमे मूढ़ हैं वे तुषको ही तंदुल जानरहे है। तंदुलको तंदुल नहीं जानते है । क्लश्यता स्वयमेत्र दुपकरतरै मोक्षीन्मुखैः कर्मभिः । क्लश्यतां च यरे महावत तमेवमारेण भग्नांश्चिरं ।। साक्षान्मोक्ष इदं निरामयपदं संवेद्यमानं स्वयं । ज्ञानं ज्ञानगुणं विना कयमपि प्राप्तुं क्षमन्ते न हि ॥१०७॥
मा०-कोई मोक्ष विरोधी कठिन क्रियाकाडसे स्वयं क्लेश
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जैनोंके भेद।
[-१९ उठावें तो उठावे, या दूसरे कोई महाव्रत व तपके भारसे चिरकाल बंद करते हुए क्लेश उठावें तो उठावें । यह मोक्ष तो साक्षात् अपना ही एक अविनाशी पद है व अपने ही द्वारा अपने अनुभवमें आनेवाला है तथा शुद्ध ज्ञानमई है सो कोई भी आत्मज्ञानरूपी गुणके विना प्राप्त करनेको समर्थ नहीं होसक्त है।
वे ही अमृतचंद्राचार्य पुरुषार्थसिद्धयुपायमें कहते है-- अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिहिंसात जिनागमस्य संक्षेपः ॥ ४४ ॥
भा-रागद्वेषादि भावोंका प्रगट न होना ही अहिंसा है तथा उनहीका प्रगट होना हिसा है। यही जिन आगमका संक्षेप है। __ श्री पूज्यपादस्वामी समाधिशतकमें कहते हैंस्वबुद्धया यावद् गृह्णीयात् कायवाक् चेतसां त्रयम् । संसारस्तावदेतेपां भेदाभ्यासे तु निर्वृतिः ।। ६२ ।।
भार--जबतक मन, वचन, काय इन तीनोंको आत्माका स्वभाव माना जायगा या अपना माना जायगा वहीतक ही संसार है। इन तीनोंके भेदविज्ञानके अभ्याससे ही मोक्ष होजाती है ।
श्री पद्मनंदि मुनि निश्चयपञ्चाशतमें कहते हैशुद्धाच्छुद्धमशुद्धं ध्यायन्नाप्नोत्यशुद्धमेव स्वम् । जनयति हेन्नो हैमें लोहाल्लोहं नरः कटकम् ॥ १८ ॥
भा०-जो मानव शुद्धात्माका ध्यान करता है वह अपनेको शुद्ध स्वरूपमें कर देता है । जो अशुद्ध स्वरूपका ध्यान करता है
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२२०]
विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा। वह अशुद्ध ही आत्माको पाता है। जैसे सुवर्णमे सुवर्णके कडे व लोहेसे लोहेके कडे बनते है।
अहमेव चित्स्वरूपश्चिद्रूपम्याश्रयो मम स एव । नान्यत् किमपि जडत्वात् प्रीतिः सदृशेषु कल्याणी ॥४१॥
मा०-मै ही चैतन्य स्वरूप ह, मुझ चैतन्य स्वरूपके वही एक आश्रय है और कोई उसके सिवाय आश्रय योग्य नहीं है। क्योंकि और सव जड है। चेतनको चेतन हीमे प्रीति करनी चाहिये । बराबरवालों हीमे प्रीति सुग्वदाई होती है।
शिष्य-क्या ये सब मतभेर दर नहीं होसक्ते? क्या एक प्रकारका जैन वर्म नहीं होसक्ता है।
शिक्षक -मै आपको बता चुका हूं कि दिगम्बर श्वेताम्बर सबका निश्चय मोक्ष मार्ग एकसा ही है। सर्व ही आत्मध्यानम व निर्विकल्प समाधिसे ही मोक्ष मानते है। सर्व ही अहिंसाको ही धर्म मानते है, व्यवहारमे बहुत थोडा मतभेद है। यदि दिगम्बर, मूर्तिपुजक व स्थानकवासी श्वेताम्बर तीनोंके विद्वान व माननीय गुरु पक्ष. आग्रह व परम्पराको त्यागकर साम्यभावसे सम्मति करे और यह विचारें कि निश्चय मोक्षमार्गका साधक कितना व्यवहार मार्ग रक्खा जावे तो यह तय होसक्ता है और एक ही प्रकारका व्यवहारमार्ग भी रह सक्ता है-बहुत शीघ्र निर्णय क्षेसक्ता है। निप्पक्ष विद्वानोंके सम्मेलनकी जरूरत है। परन्तु जबतक ऐसा न हो, हम सब पढ़े लिखे भाइयोंको निश्चयधर्म समझकर व्यवहार धर्म उसके साधनरूप जो अपना अंत करण गवाही दे उसे पालना चाहिये व जिस व्यवहार
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जैनोंके भेद |
। २२१
धर्मम अपनी सम्मति न मिले उसपर माध्यस्थ भाव या रागद्वेष रहित भाव रखना चाहिये क्योंकि अल्पज्ञानवालोंकी बुद्धि सब ही विषयों में एकसी नहीं होती है । नाना अपेक्षाओंसे भिन्नर विचार किये जासक्ते है । इसीलिये श्री अमितगति महाराजने तथा श्री उमास्वामी महाराजने चार भावनाओको रखनेकी आज्ञा दी है। जिनसे सम्मति न मिले उनपर मयस्थ रखनेकी आज्ञा है, द्वेष भाव करनेकी नहीं है | देखिये कहा है -
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सत्त्रेषु मैत्रीं गुणिषु प्रमोदम्, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव ॥ १ ॥ अर्थात- हे भगवन | मेरा भ्रात्मा सर्व प्राणी मात्रपर मैत्रीभाव रखे, गुणवानोंपर प्रमोद भाव रक्खे, दु.खी जीवों पर दया रक्वे व विपरीत स्वभाववालों पर माध्यस्थ भाव रक्खे |
1
शिष्य - मुझे आपके द्वारा बहुत ही लाभ हुआ है । मैं आपको कहांतक धन्यवाद दूं । अव कृपाकर यह बताइये कि जैनधर्म और बौद्ध धर्ममें क्या साम्यता है व क्या अंतर है ? बौद्धोंकी संख्या संसार में बहुत है तथा वे प्रसिद्ध भी बहुत है ।
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२२२]
विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा। श्यारहवां अध्याय ।
जैन और बौद्ध धर्म। शिक्षक-मैने बौद्धोंकी कुछ पाली भाषाकी पुस्तकाको ढंग्रेजी द्वारा तथा उनके इग्रेजी उत्थाओको पढा है। उसमे मैं इस निर्णयपर आया हूं कि गौतम बुद्धने कोई नया मत नहीं चलाया। जैनमतको ही एक ऐसी सरल व प्रचलित पद्धतिसे उपदेश किया कि जिसमे दुनियाके लोगोंने बहुत जल्दी समझ लिया । जैनधर्म ही असलमे बौद्ध धर्मके रूपमें प्रचलित हुआ। गौतम बुद्धके भावामे जैन तत्वज्ञान ही भरा था जिसे उन्होने दूसरे ढगसे प्रकाश किया । गौतम बुद्ध घर छोड़नेके पीछे अपनी २९ वर्षकी आयुसे ३५ वर्षकी आयु तक ६ वर्षके वीचमें जैन मुनि भी रहें। जैन मुनिकी क्रियाएं पाली। ३५ वर्षकी आयुमें गयाजीमे जाकर इन्होंने जैन मुनिकी क्रियाको कठिन समझकर सरल और मध्यम मार्ग प्रचलित किया। ढि०जैनोंके दर्शनसार ग्रन्थसे प्रगट है कि श्री पार्श्वनाथस्वामीकी परम्परा संप्रदायमें श्री पिहिताश्रव मुनि होगये है उनके शिष्य गौतम बुद्ध हुए और नग्न रहकर तपस्या की। पिहितात्रय मुनि बहुत प्रसिद्ध थे । यूनानदेशमे प्रसिद्ध एक तत्वज्ञानी पैथागोरस Pythagoras पिथागुरु व पिहितगुरु होगए है। यह पक्के शाकाहारी थे। जैनगजट अंग्रेजी जुलाई १९३३मे एक लेख डाक्टर काज Dr Charlotte Kause द्वारा लिखित है । उससे मालूम हुआ कि यह तत्वज्ञानी सन् ई० मे ५९० वर्ष पहले यूनियन मीके सोयासट्टीपमे जन्मे थे
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जैन और बौद्ध धर्म।
[२२३ व इन्होंने जगतकी यात्रा की थी व भारतमें भी आए थे। फिर लौटकर दक्षिण इटलीके क्रोटोना नगरमे स्थिर रहे । वहांका राजा नूमा पोम्पिलियस उनका शिष्य हुआ है। लेटिन भाषाका कवि ओविद सन् १८ मे हुआ है। उसने इस पिथागुम्का चरित्र व उनकी शिक्षाएं Tulamorphores नामकी पुस्तकमें दी गई है यह (Samiun suge ) समियाके साधु प्रसिद्ध थे। एक व्याख्यानका इंग्रेजी में उल्था इस जैनगजटमें दिया हुआ है जो पिथागुरुने इटलीके राजा नूमाको दिया था। उसके पढ़नेसे इसमें संदेह नहीं रह जाता कि उनका तत्वज्ञान वही था जो जैनोका था। इसके कुछ वाक्य नीचे दिये जाते है । बहुत संभव है कि यह पियागुरु ही पिहितास्रव मुनि हों।
(१) मरनेपर शरीर नष्ट होजायगा परन्तु आत्माएं कभी नहीं मर सक्तो है। आत्माओको पुराना घर छोडकर नए घरोंमें जाना पड़ता है।
(२) सर्व वस्तुएं परिणमनगील है, किसीका सर्वथा नाश नहीं होता हैं All tihunya chaye, there is no death anywhere आत्मा पशुमे मानव व मानवसे पशु हो जाता है । यह कभी मरता नहीं। जैसे मोम भिन्नर शकलोमें बदला जासक्ता है । तथापि वह उतना ही मोम बना रहता है। इसी तरह आत्मा भिन्नर पर्याओंमें भिन्नर शकलोंको रखता हुआ सदा वही बना रहता है।
नोट-इन वाक्योंसे साफ प्रगट है कि पिथागुरु द्रव्यको नित्य व अनित्य मानते थे, उत्पाढव्ययध्रौव्यरूप मानते थे तथा अनेक आत्माओंको मानते थे व आत्माको एक प्रकारक अकाग्वारी होकर
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२२४]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। सकोच विस्तार करनेवाला मामके ममान जानने थे. यही जैनोंका विशेष सिद्धात है।
(३) अपने जिहाके लोभमे धर्मका लोप मन करो, अपने साथी प्राणियोकी हिंसा मत करो, रुधिर रेकर बसर मत करो।
(४) माम खाना हिंसाकारक है । इससे अपने शरीरको आ. चित्र मत करो, वृक्षास फलादि मिलने हे. दृध मिलता है। इस पृथ्वीपर बहुत अधिक पवित्र भोज्य पदार्थ है जो विना रुधिर वहाण मिल सक्ते है । जो मास खाते हैं वे पशुतुल्य है । बहुतसे पशु माग नहीं खाते है। घोडे, भेड. गाय भैम घासपर वसर करते है। पिथागुरुका जन्म सन् ई० से ५०० वर्ष पहले हुआ था, जब कि श्री महावीरस्वामीका जन्म सन ई० से ५९९ वर्ष पहले हुआ। महावीर स्वामीने ४२ वर्षकी आयुमे शिक्षा देना प्रारम्भ की तव पियागुरु ३३ वर्षके थे। इससे मालम पडता है कि पियागुरु बीस वर्षके अनुमानमें ही भारतमे आए होंगे और श्री पार्श्वनाथकी सप्रदायके आचार्योसे ही शिक्षा दीक्षा ली होगी। तथा वे यहा कई वर्पतक साधुपदमे रहे होंगे। बौद्ध सावु महापण्डित त्रिपिटकाचार्य राहुल साकृत्यायन द्वारा सपादित 'बुद्धचर्या हिंदी पुस्तकसे प्रगट है कि गौतमबुद्ध जब ७६-७७ वर्षके थे तब पावापुरीमे श्री महावीर भगवानका निर्वाण हुआ था अर्थात् गौतमबुद्ध जव ४ वर्षके थे तब श्री महावीर भगवानका जन्म हुआ था। श्री महावीरकी आयु ७२ वर्षकी थी। गौतमबुद्धने २९ वर्षकी आयुमे घर छोडा तव महावीर भगवान घर ही मे थे। ६ वर्षतक गौतम बुद्ध भिन्न भिन्न प्रकारका तप करने रहें । उसीके मव्यमे
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जैन और बौद्ध धर्म ।
[२२५ जैन मुनिका तप भी पाला, ऐसा वैद्ध ग्रन्थोंमे प्रगट है। पिथा गुरु तब यहा मुनिपदमें २०.-२१ वर्षकी आयुमे होगे, यदि जन्म ५९० वर्ष पूर्व माना जावे । इसलिये पिहिताश्रव मुनि व पिथा गुरुका सम्बन्ध बहुत कुछ मिल जाता है। पिथा गुरु अल्पवयहीमें भारतमे आप होगे ऐसा झलकता है। जब ३५ वर्षाके गौतम बुद्ध थे तब श्री महावीर भगवान ३१ वर्षके थे । और तप अवस्थामें थे क्योकि ३० वर्षकी आयुमें दीक्षा ली थी। और १२ वर्षतक तप साधा फिर उपदेश शुरू किया। इससे सिद्ध है कि गौतम बुद्धका उपदेश श्री महावीरस्वामीके उपदेशसे १२ वर्ष पूर्व शुरू होगया था। तब गौतम बुद्ध ४७ वर्षके थे।
शिप्य-यों पाली ग्रन्थोंमे यह कथन मिलता है कि गौतम बुद्धन जैन मुनिकी तपस्या घर छोड़नेके वाद पाली थी !
शिक्षक- मज्झिमनिकाय पाली ग्राथ के बारहवें महासीह नाद, मुत्तमे नीचे लिखे वाक्योंसे दिगंबर जैन मुनि होना सिद्ध है।
"अचेलको होमि हत्थापले खनो ..नाभिहतं न उद्दिस्सकत न निमत्तंनं सादियामि. नगमनिया न पायमानया न पय मक्षिका संड संड चारिनी। न मच्छे न मांसं न सुरं न भेयिं न पुसोढकं पियामि । सो एकागारिको वा हामि एकालोपिका, द्वागारिको होमि, द्वालोपिको, सत्तागारिको वा होमि सत्तालोपिको, एकाहपि आहारं आहारेमि, द्वीहिकंपि आहारं आहारेमि, सत्ताहिकं पि आहारं आहारेमि। इति एयरूपं अद्धमासिकंपि परिमायभन भोजनानुयोगं अनुयुत्तो विहरामि. केस्समस्सुलोचकोपिहोमि याव उदुबिन्दुम्हि पि मे दया पच्चुपहिताहोति माहं खुद्दके पाणे पि समगते संवाते अप्पादेस्संति ।
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२२६ ]
विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा। सो तत्तो सो सीनो एको भिसनके बने । नग्गो न च अग्गि आसीनो एसनापसुतो मुनीति ॥
भावाथ- मैं वस्त्ररहित रहा। हाथपर भोजन करता था। न लाया हुआ खाता था, न उद्दिष्ट भोजन करता था, न निमत्रणसे खाता था । गर्भिणी स्त्री व दूध पिलानेवाली स्त्रीके हाथ नहीं खाता था। न जहा मक्विया भिन२ करती हो. न मछली न मास मदिग न घासका पानी पीना था। कभी एक घरमे एक ग्रास खाता था, कभी दो घर जाने का नियम रखकर दो ग्राम खाता था। इस तरह सात घर जानेका नियम रखके सात ग्रास तक खाता था। कभी एक दिन बाद, कभी दो दिन पीछे आहार लेता था. कभी पंद्रह दिन पीछे आहार करता था। इस तरह विहार करता था । सिरके केगोंका व डाढीके केशोंका हाथसे लोच करता था। एक जलकी बूंद भी न घात करूं एसी मेरेमे दया थी, मेरेसे कोई छोटा भी प्राणी घात न होजावे ऐसा ध्यान रखता था। गर्मी शर्टी सहता हुआ भयानक वनमे नम रहता था, आग नहीं तापता था, व्यानमें मग्न मुनि था।
ये सब दिगम्बर मुनिका चारित्र श्री वोरस्वामी कृत मूलाचार दि० जैन ग्रंथसे मिलता है।
जो कुछ सिंहनादसुत्तमें वर्णित है वह गौतमबुद्धने घर छोडनेके वाद बुद्ध होने के पहले पाला था। इसके सम्बन्धमे पूछनेपर एक विद्वान बौद्ध भिक्षु श्रीयुत नाग्न थेग वनागम आश्रम वजिरारोड वम्वलपिटिया (सीलोन ) से अपने पत्र ५ गई १९३३ मे लिखते है
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| २२७
1 referred to the Sihanada Sutaa. I am inclined to agree that these abservances were gone through after the Bodhisatta had left his home In another place it is stated "Aham Bodhistato simano which clearly shows that he practiced these austerities, whilst he was struggling for Buddhahood
33
भावार्थ मैने सिंहनाद सून देखा, मै इस बात से सहमत हूं कि ये सब क्रियाएं बोधिसत्वने घर छोडनेपर की थीं । दूसरे स्थानपर लिखा है "मैं बोधिसत्व श्रमण " इससे साफर प्रगट है कि उन्होंने इन तपस्याओको उसी समय अभ्यास किया था जब वे बुद्धत्व के लिये उद्यम कर रहे थे ।
ऐसा अनुमान किया जाता है कि गौतमबुद्धने शक्तिसे अधिक तप कर लिया था । जैन शास्त्रोंकी आज्ञा है कि शक्तिके अनुसार T उतना बाहरी तप करे जिससे आत्मामें आनन्द वर्ते, क्लेशभाव न पैदा | आत्मध्यानकी सिद्धिके लिये बाहरी तप किया जाता है । जैसा श्री अमृतचंद्र आचार्य पुरुषार्थसिद्धयुपायमें लिखते है - चारित्रान्तर्भावात् तपोऽपि मोक्षगमागमे गढितम् । अनिगूहित निजवीर्यैस्तदपि निषेव्यं समा हितस्यान्तैः ॥ १९७
भा०-तप भी चारित्र के भीतर गर्भित है । आगममें इसे भी मोक्षमार्ग कहा है। अपने मनको समताभावमें रखनेवालों को अपनी शक्तिके अनुसार उसे पालना चाहिये ।
अधिक तप करने से गौतमबुद्धकी समझमें इस बाहरी कठिन तपस्या से आकुलता होगईं। उनकी समझमें यही आया कि वस रखके बाहरी सुगम मार्गपर चलते हुए भी आत्माका ध्यान किया जासक्ता है । इसीसे गौ मबुद्धकी पाली पुस्तकोंमें भी लिन है कि बुद्धने
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२२८ ]
विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा। अपनी ३५ वर्षकी आयुमे मध्यम मार्गका उपदेश सबसे पहले बनारस सारनाथ पर दिया, जहा श्री श्रेयासनाथ ग्यारहवें जैन तीर्थकरकी जन्मभूमि है । बुद्धके अंतरंगमें जैन तत्वज्ञान भरा था उसीको वे स्वयं पालते थे व उसीका उपदेश उन्होने इतनी सुगम रीतिसे दिया कि जनताने सुगम समझकर शीघ्र ग्रहण कर लिया । और बहुमतका प्रचार भारतमे व विदेशोंमे बहुत अधिक फैल गया। आज इस मतके माननेवाले ४० या ५० करोड इस जानी हुई दुनियामे होंगे। इनके सबसे पुराने ग्रंथ पाली भाषाके हे जो प्रथम शताब्दीमे सीलोनमें लिखे गए थे। उनसे जो बौद्ध धर्म झलकता है उसका तत्वज्ञान जैन तत्वज्ञानसे मिलता है।
(१) मोक्षका स्वरूपमज्झिम निकाय अरिय परिएसन सुत्त २६ में वाक्य है -
" निव्वानं परि येसमानं अजातं अनुत्तरं योगक्खेमं निन्वानं अज्झगमं । अजरं अव्याघि अमतं असोकं असकिएं । अधिगमो खो मे अयं धम्मो गंभीरो दुद्दसो, दुरनुवोधो, संतो, पणीतो अतक्कावचरो निपुणो पंडितवेदनीयो ।"
भावार्थ-जो निर्वाण खोजनेयोग्य है वह किसीसे उत्पन्न नहीं है अजन्मा है अर्थात् स्वाभाविक है, उससे बढ़कर कोई नहीं है इसलिये अनुत्तर है, योग अर्थात् ध्यानद्वारा अनुभव गम्य है इसलिये योगक्षेम है, जरारहित है, व्याधिरहित है, मरणरहित है, शोकरहित है, क्लेशरहित है । मैंने वास्तवमे इस धर्मको जान लिया । यह धर्म गंभीर है, कठिनतासे जानने योग्य है, शांत है, उत्तम है, तर्कके गोचर नहीं है, निपुण है तथा पंडितोंके द्वारा अनुभव करने योग्य है।
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जैन और बौद्ध धर्म ।
[२२९ सुत्तनिपात कप्पमानवपुक्खामें कहा हैंअकिंचनं अनादानं एतं दीपं अनापरं । निव्यानं इति तम् ब्रूमि जरा मिच्चु परिक्खयम् ॥
भा.-मैं उसे निर्वाण कहता हूं जो एक अनुपम द्वीप है। जहा न कुछ परपदार्थ है, न कुछ इच्छा ही है, जहा न जरा है, न मरण है।
इन वाक्योंसे सिद्ध है कि निर्वाण अस्ति रूप है। कोई वहां ऐसा है जो जन्मा नहीं है न मरेगा व जो अनुभवगम्य है व आनंदमय है। इससे यही मतलब निकलता है कि वह एक परमात्म पद है, आत्माका स्वाभाविक भाव है । सर्व संस्कारोंके छूट जानेपर जो कुछ शेष रह जाता है वही मोक्ष है । जो गुप्त था, बह प्रकाश होजाता है। ऐसा ही स्वरूप जैनाचार्योंने मोक्षका बतलाया है।
श्री समन्तभद्राचार्य रत्नकरंडमें कहते हैशिवमजरमरुजमक्षयमव्यावाधं विशोकभयशंकं । काष्ठागतसुखविद्याविभवं विमलं भजति दर्शनपूताः ॥४०॥
भा०-निर्मल सम्यक्ती जीव ऐसे निर्वाणको पाते है जो शिव है, अजर है, रोग रहित है, अक्षय है, अव्याबाध है, शोक, भय व शंकासे शन्य है, उत्कृष्ट सुख व ज्ञानकी विभृति सहित है व निर्मल है।
(२) आत्माका स्वरूप
निर्वाणका ऐसा स्वरूप मानते हुए यह स्वतः सिद्ध है कि आत्माका अस्तित्व माना गया है। जबतक कोई पदार्थ न होगा निर्वाण किसको होगा। मज्झिम निकायके प्रथम सूत्र मूल परि
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२३०]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा । यायके पढनसे विदित होगा कि सर्व पृथ्वी आदि पदार्थोसे 3 क्षणिक ज्ञान, सुख आदिसे रहित जो है उसीपर लक्ष्य दिलाया है। उसके कुछ वाक्य है
____ “अरियधम्मस्स अकोविदो पथवी पथवितो संजानाति . ___ पथवि मे ति मण्णति अपरिज्ञात तस्स योपि सो अरहं खीण
सवो चुसितवा कतकरणीयो सम्मढअज्ञाविमुत्तो पथवि मेति न मण्णति ।"
भावार्थ-जो आर्यधर्मको नहीं जानता है वह पृवीको पृथ्वी जानता है । पृथ्वीको अपनी मान लेता है, क्योंकि उसको ज्ञान नहीं है । जो कोई अर्हन् क्षीण आम्रव है, ब्रह्मचारी है, कृतकृत्य है. सम्यक्ज्ञानी है, वैरागी है, वह पृथ्वी आदि मेरी है ऐसा नहीं मानता है। _संयुक्तनिकाय (चुंदो १३) मे ये पाली वाक्य हैतस्मादिह आनंद अत्तढीपा विहरथ अत्तसरणा। अनण्णसरणा धम्मदीपा धम्मसरणा अनण्णसरणा॥
भा०-इसलिये हे आनन्द ! आत्मारूपी दीपमे विहार कर. आत्मा ही शरण है, दूसरा कोई शरण नहीं है। धर्म ही द्वीप है। धर्म ही शरण है । अन्य कोई शरण नहीं है।
वुद्ध पाली साहित्यमे स्पष्ट आत्माका वर्णन करके सर्व संस्कारोंको अनित्य वताकर व निर्वाणको अजात, अजर, अमर बताकर मिद्ध कर दिया है कि जो निर्वाणरूप है वही आत्मा है। ऐसा ही
जैन सिद्धात मानता है कि आत्मा व निर्वाण एक अनुभवगोचर पदार्थ है, आत्मा निर्विकल्प है।
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जैन और बौद्ध धर्म ।
[ २३१ समाधिगतकमे पूज्यपादस्वामी कहने हे-- यत्परः प्रतिपाद्योऽहं यत्परान् प्रतिपादये । उन्मत्तचेष्टितं तन्मे यदहं निर्विकल्पकः ॥ १९ ॥
भा०-मै दूसरोंके द्वारा समझाया जाऊं या मैं दूसरोंको समआऊं यह मेरी उन्मन चेष्टा है, क्योंकि मै (आत्मा) निर्विकल्प हूं। गौतमबुद्धने भी संयुक्तनिकाय अन्याकत मुत्त नं० १० मे बच्छ गोत्र परिवाजकके आत्मा सम्बन्धी प्रश्नपर मौन धारण किया है। उन पाली वाक्योका हिन्दी भाव यह है-एक दफे वच्छगोत्र परित्राजकने भगवान् गौतमसे प्रश्न किया कि क्या आत्मा है ? भगवान मौन रहे, फिर उसने पूछा क्या आत्मा नहीं है ? फिर भी भगवान मौन रहे। आनन्दने जब मोनका कारण पूछा तब भगवान ने कहाकि यदि मै आत्मा है ऐसा कहता तो नित्यवादीका साथी होता। यदि आत्मा नहीं है ऐसा कहता नो अनित्यवादीका साथी होता। इस कथनसे बिलकुल साफ प्रगट है कि जैसे जैनी आत्माको नित्य तथा अनित्य उभयरूप भिन्न २ अपेक्षासे मानते है उसी तरहकी मान्यता गौतमबुद्धकी थी। यदि वह जडवादी होता तो ऐसा कभी नहीं कहता । मौन रहनेसे बुद्धने बता दिया था कि आत्मा बचनोका विषय नहीं है, अनुभवका विषय है।
(३) मोक्षका मार्ग
जैन सिद्धांतने सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्रको मोक्षमार्ग माना है। उसी तरह बौद्ध पाली साहित्यमें आठ तरहका मोक्षमार्ग माना है जो जैनोंके रत्नत्रयमें गर्भित होजाता है।
मज्झिमनिकायके नौमें सम्मादितिसुत्तमें कहा है
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२३२ ]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा ।
" अयमेव अरियो अटुंगिको मग्गो आसवनिशेधगामिनी पटिपदा सेय्यचिद- सम्मादिट्ठि, सम्माकप्पो, सम्मावाचा, सम्मकम्मंतो, -सम्माआजीवो, सम्मावायामो, सम्मामति, सम्मा समाधि । "
भा०-हे आर्यो । आसव के रोकनेका उपाय यह आठ प्रकारका -मार्ग है । (१) सम्यष्टि (२) सम्यक् मंकल्प ( ३ ) सम्यकवचन, (४) सम्यक्कर्म, (५) सम्यक् आजीविका, (६) सम्यक् व्यायाम. (७) सम्यक् स्मृति, (८) सम्यक् समाधि ।
जैनों द्वारा माना हुआ सम्यक्दर्शन सम्यक् दृष्टिके साथ सम्यक्ज्ञान सम्यक् संकल्प के साथ व शेष छहों सम्यक् चारित्रके साथ मिल जाते है ।
वात एक ही है। चाहे रत्नत्रय मोक्षमार्ग कहो या अष्टाग मोक्षमार्ग कहो । जब निर्वाण स्वरूप आत्मावर श्रद्धान लाया जायगा उसीका ज्ञान होगा, व उसीकी तरफ चेष्टा या व्यायाम होगा । उसीका ही स्मरण होगा, उसीको समाधिभावमे घ्याया जायगा तब ही मोक्षमार्ग होगा । व्यवहारमे वर्तने हुए वचनयोग्य, कायकी क्रिया योग्य व भोजन शुद्ध होजाना चाहिये । जैन और बौद्ध दोनांका एक ही कहना है । जैसे जैनोंमे आत्मध्यानको भेद विज्ञानके द्वारा करके मोक्षका साधन बताया है ऐसा ही बौद्ध ग्रंथोंमे है ।
I
मज्झिमनिकाय (2) महामालुम्बसुत्तं चतुत्थं (६४) ' सोयदेव तत्थ होति वेदानागतं, संज्ञागतं, संखारागतं विज्ञानागतं ते धम्मे अनि तो दुक्खतो रोगतो गडतो सल्लतो अप्पतो आवाधतो परतो पलोकतो सुन्नतो अनत्तत्तो समनुपस्सति, सोतेहि धम्मेहि चिंत्त परियायेति, सोतेहि धम्मेहि चिंतं पटिवायेत्वा अमताय धातुया चिंत्तं
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जैन और बौद्ध धर्म ।
[२३३ उपसंहतिः । एतं सतं एतं पणीतं यदितं सब्बसंखार समयो सनुपाधि 'पटिनिस्सग्गो तहखयो विरागो निरोधो निव्यानति-सो तत्थहितो आसवानं वयं पायुनाति ॥३॥
भा० -जिसके भीतर ऐसा होवे कि वेदना, संज्ञा, संस्कार विज्ञान ( अशुद्ध, ज्ञान ) संबंधी विभाव धर्म नित्य है, दुःख है, रोग है, घाव है, शल्य हे, पाप है, बाधा है, पर है, देखनेयोग्य नहीं हैं, शून्य है, अनात्मा है, जो ऐसा समझता है वह उन विभावोंसे चित्तको हटाता है । इन धर्मोसे चित्तको हटाकर व अमरधातु अर्थात् मोक्षपदकी तरफ चित्तको लगाता है। यह निर्वाण ही गात है, उत्तम है, जहा सर्व संस्कार शात होजाते है, सर्व उपाधि दूर होजाती है. तृष्णाका क्षय होजाता है, वीतगगता होती है, आस्रवोका विरोध हो जाता है. इस तरह वह इस भावमें ठहरा हुआ आम्रवोंका क्षय कर डालता है।
दिग्बनिकाय (३) ३३ संगीत सुनंत ।
इसमे कथन है कि एक धर्म ब्रह्मचर्य है। दो धर्म स्मृति व समाधि वल है. या विद्या और विमुक्ति हैं, या इन्द्रियोंका निग्रह
और भोजनमे मात्रारुप संयम है । या अविद्या, तृष्णाका क्षय है या नाम-रूपका वियोग है । तीन धर्म है मोह, लोभ, द्वेषका क्षय । चार धर्म हैं-गील, समाधि, प्रज्ञा, विमुक्ति। दश विभाव धर्म हैंप्राणातिपात, दनादान, ( चोरी), कामेसुमिथ्याचार (कामभाव), मृपावाद, पिमन वचन (चुगली), फरुसावाचन (कठोर वचन), सम्यक आलाप (वृथा वकवक), अभिज्ञा (लोभ), व्यापाद (क्रोध) मिथ्यादृष्टि । इनसे विरक्त रहना चाहिये।
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VAN
२३४]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। (४) कर्म बंध
जैसे जैनियोंमे कर्मोके आम्रव अर्थात् आनेके भावोंका वर्णन है वैसे बौद्धोंके पाली सूत्रोंमे है। मज्झिमनिकायका पहला मूत्र ही आस्रव सूत्र है। जिसमे यह वर्णन है कि काम भाव और अविद्याके भाव आस्रव है । मिथ्यादृष्टि आस्रव है, अर्थात अपनेको निर्वाणरूप न मानकर और रूप मानना, पाच इन्द्रियोमे आसक्तपना, क्रोधादि भाव आस्रव है । आमवको रोकने के लिये जैसे संवर शब्द जैन शास्त्रोंमे आता है वैसे इसी आस्रव सत्रमे सवरका वैसा ही कथन है । नमूना-" इध भिक्खवे भिक्खु परिसखा योनिसो चघुद्रिय सवर सज्जतो विहरति । यं हिस्स भिखवे चकावुदिय संवर असंवृत्तस्स विहरतो उप्पजेय्युं आसवा विघात परिलाहा चक्खुन्दिय संवरं संयुतम्स विहरतो एवं सने आसवा विधात परिलाहा न होति ।"
भावार्थ-हे भिक्षुओ । जो भिक्षु आश्रवके कारणोंको ध्यानमें लेता हुआ चक्षु इन्द्रियको रोककर विहार करता है उस साधुके चक्षुइन्द्रियको न रोककर विहार करनेसे जो घातक आश्रव होते वे नहीं होते है उनका संवर होजाता है । भावोकी अपेक्षा कोके आस्रव व बंधका कथन बिलकुल मिलता है । कर्मोंके पिड है या कर्म वर्गणाएं है जो आकर बन्धती है, वे रूक जाती है । इनका यद्यपि क्रमवार साफ २ कथन अभीतक नहीं देखनेमे आया तथापि कुछ वाक्य ऐसे मिले है जिनसे सिद्ध होता है कि कर्मोंका बन्ध भी जैनकी तरह बौद्धमतमें स्वीकार था। उसका पीछे विपाक होना, पकना यह सब स्वीकार था। नीचे लिखे शब्दोंसे प्रगट होगा।
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जैन और बौद्ध धर्म ।
[२३५ (१) दिग्धनिकाय आगन्ना सुनंत २७ ।
" खत्तियोपि खोवासेठ, कायेन दुच्चरितं चरित्वा, वाचाय दुच्चरितं चरित्वा, मनसा दुचरितं चरित्वा मिच्छादिष्टिको।"
मिच्छा दिठिकमा समादान हेतु कायस्सभेडा परं मरणा अपाय दुग्गति निरयं उप्पज्जति। .
मा०-हे वशिष्ट ! क्षत्री भी यदि मिश्यादृष्टि हो व मन वचन कायसे दुष्ट आचरण करें तो मिथ्याष्टि कर्मको लिये हुए शरीर छूटनेपर मरणके पीछे दुर्गतिमें जाता है, नर्कमे उपजता है !
(२) दिग्बनिकाय ३ संगीत सुतंत
जैसे जैन शास्त्रोंमें दर्शनमाहकर्मके तीन भेद है वैसे वौद्धोंमें भी तीन ऐसे नाम मिलते है " तयोरासि-मिच्छत्त नियती रासि, सम्मत्त नियतो रासि, अनियतो रासि-यहां रासि शब्द प्रगट करता है कि कोई समूह है-जिसे कर्म समूह ही मानना उपयुक्त होगा। अर्थात् मिथ्यादर्शन कर्मराशि, सम्यक्त कर्मराशि, मिश्र कर्मराशि ।
(३) मंस्कृतमें अयरिमितायु सूत्र है-“य इदम् सत्रं लिखिष्यति तस्य पञ्चान्तरायाणि कर्मावरणानि परिक्षयं गच्छन्ति।"(पृ०२८९ Manuscript remaios of Budhist literature in East Turkastan by Hoernle 1916) अर्थात् जो इस सूत्रको लिखेगा उसके पाच अंतराय कर्मावरण नाश होजायगे। उन वाक्योंसे जैनोंके समान पाच अंतराय कर्मोके ही संबंधका कथन है ।
(५) अहिंसा-जैसे जैनियोंमें कहा है कि स्थावर व त्रसकी रक्षा करो ऐसा ही बौद्ध पाली ग्रंथोंमें है।
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२३६ ]
विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा |
सुत्तनिपात धम्मिक सुत्त ।
पाणं न हाने न च घातयेय्य न चानुमन्याहनतं परेस । सव्वेसु भूतेसु निधाय दण्ड ये थावरा ये च तसंति लोके ॥ कतंहि नाम समणा सक्यपुत्तिया हेमंतंपि गिद्यति वस्सेपि । चरिक परिस्संति हरितानि तिनानि महतः एकेंद्रियजीये || विहेद्वितः वहु खुदके पाणे संघातं आपादयंतः ।
..
भा०- स्थावर व त्रस सर्व प्राणियामे से किसी प्राणीको न तो मारो न घात कराओ, न किसी हिसाकी अनुमोदना करो । कोईर शाक पुत्रके शिष्य हरे तृणोको मर्दन करते हुए चलते हैं, एकेन्द्रिय जीवोंको घात करने है, बहुत क्षुद्र जन्तुओंको मारते हे ।
विनय पिटक महावग्ग (३ - १ ) मे लेख है कि ऐकेंद्रियादि क्षुद्र प्राणियोंका घात न हो इसलिये साधुओको वर्षामे एक ही स्थानपर रहना चाहिये ।
लकावतार सूत्रमे हरएक बौद्धधर्मपर विश्वास लानेवालेक वास्ते मासाहारका निषेध है । कुछ वाक्य है - इस सृत्रके आठवें अध्यायमें मास खानेका ही निषेध है
मद्यं मांसं पलाण्डुं च न भक्षयेयं महामुने । वोधिसत्वैर्महासत्वैर्भापटि भोजिनपुंगवैः ॥ १ ॥ लाभार्थं हन्यते सत्वो मांसार्थ दीयते धनम् । उभौ तौ पापकर्माणौ पच्येते रौरवादिपु ॥ ९ ॥ योऽतिक्रम्य मुनेर्वाक्यं मांस भक्षति दुर्मतिः । लोकयविनाशार्थं दीक्षितः शाक्यशासने ॥ १० ॥
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जैन और बौद्ध धर्म ।
[२३७. त्रिकोटिशुद्ध मांस वै अकल्पितमयाचितं । अचोदितं च नास्ति तस्मान्मांस न भक्षयेत् ॥ १२ ॥ यथैव रागो मोक्षस्य अन्तरायकरो भवेत् । तथैव मांसमद्याद्य अन्तरायकरो भवेत् ॥ २०॥
भावार्थ-जिनेन्द्रोंने कहा है कि मदिरा, मास, प्याज हे महामुनि ! किसी बौद्धको न खाना चाहिये । लाभके लिये पशु मारा जाता है, मांसके लिये धन दिया जाता है। दोनों ही पापकर्मी है। नरकमें दु.ख पाते है। जो कोई दुर्वद्धि मुनिके वाक्यको उल्लंघन करके मांस खाता है वह शाक्य शासनमें दोनों लोकके नागके लिये दीक्षित साधु हुआ है, विना कल्पना किया हुआ व विना मागा हुआ व विना प्रेरणा किया हुआ मास हो नहीं सक्ता इसलिये मांस न खाना चाहिये। जैसे राग मोक्षमे विघ्नकारक है वैसे मांस मदिराका खाना भी अंतराय करनेवाला है। साधुओंके लिये इतनी सुगमता दे दी है कि वे ब्रह्मचारीके समान वस्त्र पीले आवश्यक रख सक्ते हैं, सान भी कर सक्ते हैं । निमंत्रणसे या भिक्षासे दो प्रकारसे दिनमें १२ बजेसे पहले भोजन कर लेते हैं। पीछे भोजन नहीं करते हैं, पानी आदि लेते है।
___ अंगुत्तरनिकाय निकनिपात के (१९) रथकार पग्गमें हैभिक्षु प्रातःकाल, मध्याह्नकाल व सायंकाल भलेप्रकार आत्मध्यान करे। इसीके महावग्ग (७०) में कहा है-साधु रात्रिको नहीं खाते है व दिनमें एकवार भोजन करते है। जैसे जैन लोग जगतका कर्ता व फलदाता ईश्वरको नहीं मानते वैसे बौद्ध लोग भी नहीं मानते, बौ-- द्धोंके मन्दिरोंमें ध्यानमई मूर्तियां वेदीमें उसी तरह विराजमान होती.
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२३८]
विद्यार्थी जनधर्म शिक्षा। हे जैसे जैनियोमे होती है । ये लोग केवल वस्त्रका चिन्ह दिवाने है. आगे पुष्प, दीप व धूपसे पूजन करने ह । दण्टवत् करके जनोंकी तरह नमस्कार करने हे । बहुया ये पढ़ने है ' बुद्धं सरण गच्छामि, धम्म शरण गच्छामि, मघ गणं गच्छामि ।" वर्मा, सीलोनमे इनके विशाल मदिरामे छडी २ अवगाहनाकी पशासन, कायोत्सर्ग व लेटे निर्वाण आमनकी मूर्तिये है । न बर्मा) मे एक मूर्ति निर्वाणकी १८१ फुट लम्बी है । ४५ फुटनककी बहुतमी मूर्तिया रंगूनमे हे जो वडी मुन्दर पद्मासन है । केवल हाप कभी
हे। सीलोनकी एक पहाडीपर गुफाके भीतर ध्यानमय बडी मूर्तिया है । ये लोग नगे पैर विनयमे यात्रा करते है।
शिष्य-तब तो जैन और बौद्धका बडा भारी घनिष्ट संबंध है।
शिक्षक-दोनोंका तत्वज्ञान एकसा ही है । जैनोको उचित है कि बौद्धोंके ग्रन्थ देखें तथा बौद्धोंको उचित है कि जनोंके ग्रन्थ देखें ।
शिष्य-परन्तु मैने यह सुना है कि बौद्ध साधु व गृहस्थ दोनों मासाहारी है, तब अहिंसाका तो कुछ पालन हुआ ही नहीं।
शिक्षक-सव तो नहीं है, बहुतसे साधु व गृहस्थ माम मछली __ नहीं खाते है, बहुतसे खाते भी है । जो खाते है उनको यह मिथ्या
श्रद्धान है कि मास खरीदनेसे हिसाका दोष नहीं लगता है जबतक मासके लिये पशु घात किया न हो, कराया न हो, व पशु घात करनेकी अनुमोदना न की हो । इसीतरह साधुको जो भिक्षामे मिल जावेगा वह लेकर खालेगा। यदि वह मास मागे व यह भाव करे कि मांस मिले व किसी प्रकारकी मासकी प्रेरणा करे जिससे पशु घात हो तब तो उसको हिंप का दोप लगेगा, नहीं तो साधुको मास मात्र
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जैन और बौद्ध धर्म ।
[ २३९
मिक्षामें लेनेपर पशु घातका दोष नहीं लगेगा । वे कहते है कि यदि Į साधुने पशु घात होते देखा हो वा सुना हो या यह कल्पना की हो कि उसके लिये पशुघात किया गया हो तो उसे मांस मछली न खाना चाहिये, अन्यथा टोप नहीं है। इन सर्व कल्पनाओका जवाब यह है । जैसे संस्कृत लंकावतार सूत्रमे ही बौद्ध ग्रन्थकर्ता ने भलेप्रकार समझा दिया है - जो बाजारमे माम खरीदेगा, धन देगा, मांस लेगा, वह जानता है कि इस कसाईने कसाईखाने मे पशु घात कराया है या किया है । वह यह भी जानता है कि मास खानेवाले मास न खरीदें तो वह मासकी दूकान न रखें तथा धन दिया जावेगा तौ फिर दूसरे दिन पशु घात करके मांस बाजारमे लावेगा । ऐसा जानते हुए भी यदि वह मास खरीदता है तो वह पशु घात कराने के या पशुघातकी अनुमोदनाके दोपमे मुक्त नहीं होता ।
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इसी तरह साधु भी यह जानते है कि पशु घातके बिना मांस नहीं आता है। गृहस्थीका मांस खाना पशु घातकी उतेजना देना है । तथा यदि भिक्षामे मैं मांस स्वीकार वरूंगा तब अवश्य गृहस्थको यही उत्तेजना मिगी कि माम खाने में व लेनेमे जैसे साधुको दोप नहीं है, वैसे गृहस्थको भी बाजार से खरीदने व खाने में दोप नहीं है । इसलिये साधुको हिंसा के करुण रूप मामको स्वीकार करते हुए हिसाकी पसंदगी (approv. ) का दोप अवश्य लगता है । जैसे कोई देश हितैषी यह संकल्प को कि मै स्वदेशी वस्त्र पहनूंगा, जिससे मेरे देशकी कारीगरीको उत्तेजना मिले | तब वह यदि विदेशी वस्त्रको जो खास उसके लिये नहीं है, न उससे बनवाया है, स्वीकार करता है तो वह अपने संकल्पको खण्डन करता है व म्प
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२४०]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। देश हितसे बाहर जाता है व विदेशी वस्त्र व्यवहारकी उत्तेजना देता है। ऐसेको स्वदेश भक्त नहीं कहा जायगा कितु स्वदेश द्रोही माना आयगा। इसी तरह जब मास बहुधा पशु घातके विना नहीं आता है, इसलिये जगह २ कसाईखाने खुले है। पशु निर्दयतासे मारे जाते है।
यदि मासाहारी मास न खावे तौ पशु कभी भी न मारे जावे ऐसा गृहस्थ व साधु दोनों जानते है । जानने हुए भी यदि मास स्वीकार करते है तो उनके मनके भीतर मासकी पसढगी होनेसे हिसा करानेकी उत्तेजनाका दोष अवश्य आयगा । यदि कोई माल बाजारमें बिक रहा है और हमारे मनमे यह शंका होती है कि यह माल चोरीका मालम होता है क्योंकि बहुत ही अल्प दाममे यह बेच रहा है, ऐसी शंका होनेपर यदि हम उसको खरीद लेने हे तो हम अवश्य चोरीको उत्तेजना देनेके भागी होनेसे चोरीके दोपसे विलकुल मुक्त नहीं होसक्ते। ___ जो कोई मन, वचन, काय व स्त कारित अनुमोदनासे चोरीका त्यागी होगा वह कठापि चोरीका माल नहीं खरीदेगा। इसी तरह जो मन, वचन, काय व कृत कारित अनुमोदनासे हिंसाका त्यागी होगा वह कदापि मांस स्वीकार न करेगा , न खायेगा । यदि यह कहा जावे कि स्वयं मरे हुए पशुका मांस गृहस्थ लोग खावे व साधुको भिक्षामें मिले तो तो कोई पशु घात करने, कराने व पशु घातकी पसंदगीका दोष नहीं आता है । तो इसका उत्तर यह है कि मासाहारकी आदत न पडने पावे । इसलिये ऐसा मांस भी नहीं स्वीस्वीकार करना चाहिये।
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जैन और बौद्ध धर्म ।
[२४१ जो आदत पड़ जायगी तो उसे पशुघातसे लाया हुआ भी मास स्वीकार करना पड़ेगा। तथा बाजारमें खरीदते हुए व भिक्षामें लेते हुए यह जानना कठिन है कि यह मांस स्वयं मरे हुए प्राणीका है । शंका अवश्य रहेगी। जिसमें शंका रहे उसको नहीं ही स्वीकार करना चाहिये । जैसे मदिराको किसी भी तरहसे मिले स्वीकार न करना चाहिये क्योंकि मदिराकी आदत अच्छी नहीं है उसी तरह मांसको किसी भी तरहसे मिले स्वीकार न करना चाहिये, क्योंकि मासाहारकी आदत हिसाकी उत्तेजनाका कारण होनेसे अच्छी नहीं है। स्वयं मरे हुए प्राणीके मांससे कभी दुर्गव नहीं जाती है। इसका कारण यह है कि उसमे सडान पैदा होजाती है, जिससे बहुतसे कीड उसमे पैदा होते है। जो मांस खाएगा वह उन कीड़ोंकी हिंसासे वच नहीं सक्ता है। जैनाचार्य श्री अमृतचंद्रने पुरावार्थ सिद्धयुपायमें मासाहार निधार नीचे प्रकार लिखा है-- न विना प्राणविघातान्मांसस्योत्पत्तिरिष्यते यामात । मां भजनस्तस्मान प्रसरत्यनिवारिता हिंसा ॥६५॥ यपि किल भवाते मां स्वयमेव मृतस्य महिपटपभादेः । तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रितानिगादनिर्मथनात ॥६६॥ आमास्त्राप पक्यापि विपच्यमानासु मांसपेशीषु । सातत्येनोत्पादस्तजातीनां निगोतानाम् ॥ ६७ ॥ आमां वा पकां वा खादति यः राति वा पिशितपेशीम् । स निहन्ति सततनिचित पिंड बहुजीवकोटीनाम् ॥ ६८॥
भ.याथ-पयोंकि पशुवातके विना मासकी उत्सत्ति देखनेमे
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२४२]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। नहीं आती है। इसलिये जो मांस ग्वाएगा उसको अवश्य हिसाका दोष आयगा। य दे कोई कहे कि स्वयं मरे हुए बैल व भैस आदिका मास खाया जावे तौभी उचित नहीं है क्योंकि उस मासमे पैदा होनेवाले अनेक कीटोंका घात करना पडेगा। मासकी दली चाहे कच्ची हो या पकी हो या पक रही हो, उसमें हरसमय उसी पशुकी जातिके जंतु पैदा होते रहते है जिसका वह मास है। इसलिये जो कोई ऐसे मामको भी खाता है व उसका स्पर्श करता है वह करोडों जंतुओकी हिंसा करता है जो उसमे निरंतर पैदा होकर एकत्र हुए है।
___ अन्नादि फलादि स्वयं वृक्षोंसे फलने है, ये ही मानवोंका खाद्य होना चाहिये। गोवंश प्रचुर दूध देता है, दूध भी खाद्य होसक्ता है। दूधके लेनेमे पशुका धान नहीं करना पड़ता है। जैसे अपनी माताका दूध पीना है वैसे गो भैसका दूध पीना है। गो भैसको घास दाना देकर पालना, उनके बच्चोंकी रक्षा करना फिर जो विशेप दूध मिले सो मानवजाति काममे लेसक्ती है। मासाहार प्रकृति विरुद्ध है, रोगोंको उत्पन्न करनेवाला है, शरीरको पुष्टि देनेवाला भी नहीं है। अन्नादि मिलते हुए मास लेना वृथा ही पशुधातको करानेका मार्ग चलाना है। जैसे मानवोंको अपने प्राण प्यारे है वैसे पशुओको भी अपने प्राण प्यारे है।
शिष्य-बौद्धोंमे तो बडे बडे विद्वान साधु है वे क्या इतना भी नहीं समझते है कि मास हार पशु घातका कारण है फिर वे इसके त्यागका उपदेश क्यों नहीं करने हे ?
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जैन और बौद्ध धर्म।
[.४३ शिक्षक-जो बौद्ध भिक्षु म्वयं मांसाहार नहीं करते है वे तो मांसाहारके त्यागका उपदेश देने है । परन्तु जो स्वयं खाने है उनसे ऐसा उपदेश हो ही नहीं सक्ता है। वे अपने कृत्यकी पुष्टि करते है कि गौतम बुद्धने मांस खानेकी मनाई नहीं की है- केवल प्राणातिधातकी मनाई की है व गौतमबुद्धने स्वयं मांस स्वीकार किया है। पालीनत्र सीलोनमें रचे गए थे, समुद्रका मध्य द्वीप होनेसे यहांके निवासी मछली खाते है। इसलिये सत्रोंके लिखनेवालोंने दो तीन सूत्रोंमें ऐसा झलका दिया है कि गौतम बुद्धने स्वयं मांस लिया व मांसका निषेध नहीं किया है। इन सूत्रोंका आधार लेकर वे मांसाहारी साधु अपने मनको समझा लेते है और मांसाहारको स्वयं भी नहीं छोडने हे और न दूसरोंसे छुड़वाते हे। लंकावतार सूत्रमे तो बिलकुल स्पष्ट कहा है कि जो कहने है कि गौतमबुद्धने मांस खाया व मांस खानेकी प्रेरणा की है वे बौद्ध शासनकी अवज्ञा करते हे । वहा कहा है " भविष्यनि अनागतेऽध्वनि ममैव शासने प्रवजित्वा शश्य पुत्रीयत्वं प्रति जानाना रस तृष्णा यवमिता तां तां मांसभक्षणहेत्वाभामां ग्रन्थयिष्यन्ति मम च अभूताख्यानं दातत्पं मन्स्यन्ते तत्तदर्थोत्पत्ति निदानं पलायित्वा वक्ष्यन्ति इयं अर्थात्पत्तिररिमन्निटानं भगवता मांसं भोजन मनुणतं क्लामिनि, प्रणीत भोजनेषु चोक्तं स्वयं च किल तथागतेन परिमुक्तिमिति-न च महामने कुत्रचित मूत्र प्रतिमेवितव्यमित्युनुनातं प्रणीतभोजनेषु वा देशिनं कल्प्यमिति ।"
भावार्य-मेरे ही गासनमे भविष्यमे शाक्य संप्रदायी ऐसे साधु होंगे जो मांसरसकी तृष्णाके कारण मामाहाकी पुष्टिमे मिया
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२४४]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। हेतुओंको गूंथकर कहेंगे। मेरे न हुए कथनोंको मानके यह कहेंगे कि भगवानने मास भोजनकी आज्ञा दी है, स्वयं मास भोजन किया है व खाने योग्य भोजनोंमे बताया है। हे महामते ! मैने किसी भी सूत्रमे मास खानेकी आज्ञा नहीं दी है न इसे भक्ष्य पदार्थों में कहा है।
शिष्य-यह ग्रन्थ कितना पुराना है व कहां मिलता है ?
शिक्षक-यह ग्रन्थ पुराना है, इसकी संस्कृतसे चीनी भाषामें टीका मालवाके गुणभद्रने सन् ४४३ में की थी। इसको ओटनी यूनि० क्युटो ( Orani Uuver ny Kyoto Jpan ) ने संस्कृत मूल सन् १९२३ मे छपाया है। सम्पादक Bunyin Nanjid M A है।
यदि बौद्ध देशोंमे मांस मत्स्यका आहार निकल जाये और वे पाली ग्रंथोंके अनुसार चलने लगे तो श्वेताम्बर जैनोंमे और बौद्धोंमे कोई अन्तर नहीं दिखलाई पडेगा। दोनों साधु वसा रखते, वस्त्र सहित प्रतिमा बनाते, उसी प्रकार भिक्षासे एकत्र कर भोजन करते है। जैनोपदेशकोका वर्तव्य है कि बौद्ध देशोंमे जाकर उनहींक ग्रन्थोंसे उनको मास मछली निषेधका उपदेश देकर इसका प्रचार बन्द करावें । हमने जैन बौद्ध तत्वज्ञान हिन्दीमे और Jainism and Budhiom इंग्रेजीमे छपवाई है। इसको पढ़नेसे आपको और भी अधिक जैन और बौद्धकी साम्यता मालूम पडेगी।
शिष्य-कृपा करके अब यह बताइये कि हिंदू धर्म और जैनधर्ममें क्या साम्यता है व क्या मतभेद है ?
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भगवद्गीता और जैनधर्म।
[२४५ অহ ঞ্জাম্বত্ম। भगवद्गीता और जैनधर्म ।
शिक्षक-श्रीमद् भगवद्गीता हिन्दु धर्म माननेवालों का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है । गीता प्रेस गोरखपुरसे मुद्रित सटीक पुस्तकको पढ़कर जहां २ जैन धर्मसे साम्यता है व जहां २ नहीं है सो आपके जाननेके लिये कुछ बताता हूं।
जैनसिद्धांतका यह रहस्य है कि वह जीव, पुद्गल, धर्म, अर्म, आकाश, काल इन छः द्रव्योंको सत् मानता है, इन्हींका समुदाय यह जगत् भी सत् है । सत् उसे ही कहते हैं जिसमें एक साथ उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य हों; द्रव्य व गुणोंकी अपेक्षा ध्रौव्य व पर्यायोंके पलटनेकी अपेक्षा उत्पाद व्यय होते है। इसलिये यह जगत् नित्य अनित्य उभयरूप है। जीव कर्म पुगलोंके अनादि संयोगसे संसारमें भ्रमण कर रहा है। यह जीव अज्ञानसे अपने स्वरूपको भूले हुए मिश्रित पर्यायको अपनी ही पर्याय मानकर संसारमें आसक्त होरहा है। जब यह जीव इस मिथ्या बुद्धिको त्यागता है और अपनेको पहचानता है कि मैं कर्मपदलोंसे भिन्न एक शुद्ध ज्ञाता दृष्टा वीतराग पदार्थ हूं-मेरा सच्चा सुख मेरे हीमें है। मैं स्वयं परमात्मा स्वरूप हूं तब इसकी आसक्ति संसासे दूर होजाती है और यह मोक्षका या अपने स्वरूपका प्रेमाल हो जाता है तब पूर्वकृत कर्मों के उदयके अनुसार यह जिस गतिमें रहता है अनासक्त हुआ रहता है। पाप व पुण्यका फल ज्ञातादृष्टा होकर भोगता है तब वे कर्म झड़ जाते है, नवीन बन्ध नहीं होते है।
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२४६ ]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा |
जितना अंश राग होता है उतना अंश कुछ कर्मबन्ध होता भी है परन्तु वह ज्ञानी सम्यग्दृष्टी जीव उस कर्मबन्धसे भी आसक्त नहीं होता है । इसलिये जितना उसका योगाभ्यास या आत्मानुभव बढ़ता जाता है उतना अधिक झड़ता है व अल्प कर्म वन्धता है। जबतक गृहस्थ मे रहता है वह जलमे कमलवत् अनासक्त रहता हुआ गृहस्थ योग्य सर्व कार्य करता हुआ भी मोक्षमार्गपर ही बढ़ता चला जाता है, क्योंकि उसका प्रेम निज तत्वपर है-पर तत्वसे वैराग्यवान है । उस ज्ञानीका सर्व कर्म निष्काम कर्म कहलाता है । वह परोपकार दान धर्म करता हुआ उससे किसी लौकिक व पारलौकिक फलकी कामना नहीं रखता है । वह तो एक शुद्ध स्वभावका ही प्रेमी रहता है । वह केवल एक स्वतंत्रता या स्वाधीनताकी ही भावना रखता है । जब उसका राग बहुत क्षीण होजाता है, वह विरक्त साधु होजाता है और परिग्रह त्यागकर आत्मध्यानका विशेष अभ्यास करता है । जब ऐसा आत्मानुभव रूप समाधिभाव पुष्ट होजाता है कि दुर्वचनोंका सुनना द्वेष नहीं पैदा करता है | शरीरपर वध बन्धनादि व उपसर्ग पडते हुए भी क्रोधभाव नहीं आता है | शरीरके कुचलनेपर भी आत्मस्थ दृढ़ रहता है ऐसा समाधिभाव में स्थित मुनि बहुत अधिक कर्मोंको दूर करता है । वीतरागताका पूर्ण अंश होनेपर नवीन कर्म - बन्ध नहीं करता है । क्योंकि बन्धका कारण राग, द्वेप, मोह है तब यह जीवन्मुक्त परमात्मा या अर्हत् होजाता है । फिर शरीर की आयुप्रमाण रहकर आयु क्षयके पीछे शुद्ध सिद्ध परमात्मा मोक्षरूप हो जाता है । अपने से ही अपना उद्धार होजाता है, अपनेसे ही अपना विगाड़ होता है । यह जैन सिद्धांतका मर्म है ।
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भगवद्गीता और जैनधर्म ।
[२४७ गीताके नीचे लिखे श्लोकोंसे जैनधर्मके रहस्यसे साम्यता. झलकती है:---
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः । उभयोरपि दृष्टोन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥ १६-२॥
भा०-असत् वस्तुका तो अस्तित्व नहीं है । सत्का अभाव नहीं होता है । तत्वज्ञानियोंने इन दोनोका ही सार जाना है।
नोट-इससे सिद्ध है कि इस जगतमे जो कुछ है वह सत् रूप है, कभी अभाव नहीं था, न कभी होगा। इससे अनादि अनंत जगत सिद्ध होता है। न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥२०१२
भा०-ग्रह आत्मा न कभी जन्मा है, न कभी मरा है, न यह आत्मा होकरके फिर होनेवाला है । क्योंकि यह अजन्मा है, नित्यः है, शाश्चत् है, पुरातन है । शरीरके नाश होनेपर भी वह नाश, नहीं होता है।
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । वीतरागभयकोधः स्थितधीर्मनिरुच्यते ॥५६॥२॥ यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् । नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ५७।२ ।। यदा संहरते चाय कूर्मोऽगानीव सर्वशः। इन्द्रियाणींद्रियार्थभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ५८.२ ॥
भा०--जिसका मन दुःखोके पड़नेपर घबड़ाता नहीं; सुखोंकी प्राप्तिकी इच्छा नहीं करता है, जिसने राग, भय व क्रोधको नष्ट कर
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२४८]
विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा। दिया है वही मुनि स्थिरबुद्धि कहलाता है। जो सर्वसे स्नेह छोडकर अच्छी बुरी वस्तुआको प्राप्त करके न प्रसन्न होता है, न टेप करता है, उसीके भीतर प्रज्ञा अर्थात् भेदबुद्धि (भेदविज्ञान) स्थिर है। जैसे कछुआ अपने अंगोंको सब ओरसे समेट लेता है, उनी तरह जो अपनी इन्द्रियोंको इन्द्रियों के विषयोंमे समेट लेता है उसीकी प्रजा स्थिर है !
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागति संयमी । यस्यां जाग्रति भूतानि सा निगा पश्यतो मुनेः ॥६९।।
भा०-जो सर्व प्राणियोंको रात्रि है उसमे संयमी जागता है अर्थात् शुद्ध आत्मज्ञानमे मग्न रहता है। जिस क्षणिक विषयसुखमे प्राणी जागते हैं उसमे मुनि रात्रिको ही देखते है।
विहाय कामान्यः सर्वान् पुमांश्चरति नि:स्पृहः । निर्ममो निरहंकारः स शांतिमधिगन्छति ॥ ७१-२॥
भा०-जो पुरुष सर्व कामनाओंको त्यागकर इच्छारहित, ममतारहित, अहंकार रहित आचरण करता है वही गातिका दाता है।
तस्मादसक्तः सततं कार्य कर्म समाचर । असक्तो ह्याचरन् कर्म परमाप्नोति पूरुषः ॥१९-३॥
भा०-इसलिये अनासक्त होकर तृ निरंतर कर्तव्यकमको कर क्योंकि जो अनासक्त हो कर्म करता है वह पुरुष परमात्मा पठको पाता है।
न मा कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा । इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बद्धयते ॥१४-४॥ भा०-मुझे कर्मोंके फलकी इच्छा नहीं है इसलिये मुझे कर्म
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भगवद्गीता और जैनधर्म।
[२४९ नहीं लिपते है। इस तरह जो आत्माको जानता है वह कर्मोंसे नहीं बंधता है।
यहच्छालोभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः। समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वाऽपि न निवद्धयते ॥२२-४॥
भा०-अपने आप जो कुछ प्राप्त हो उसमें ही संतुष्ट रहनेवाला हर्ष शोक द्वन्दसे रहित, ईरहित, सिद्धि व असिद्धि में समभाव रखनेवाला पुरुप कर्मोको करके भी नहीं बंधता है।
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात् कुरुतेऽर्जुन । ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते तथा ॥३७-४॥
भा०-हे अर्जुन ! जैसे जलती हुई आग ईन्धनको भस्म कर देती है, वैसे ही आत्मज्ञानकी अमि सर्व कर्मोको भस्म कर देती है।
श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः । ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिमाचिरेणाधिगच्छति ।३९४।।
भा०-श्रद्धावान आत्मज्ञानको पाता है। आत्मज्ञानमें लीन इन्द्रियोंको संयममें रखता है फिर वही पूर्ण ज्ञानको पाकर परमशांतिको शीघ्र ही पालेता है।
उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत् । आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ।। ५-६ ॥
भा०-अपने आत्माका उद्धार अपनेसे करे, अपने आत्माको दुःखित न रक्खे, आत्मा ही आत्माका मित्र है तथा आत्मा ही अपना शत्रु है।
योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः । एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥ १०-६ ॥
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२५० ]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा |
तत्रैकाय्यं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः । उपविश्यासने युंज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥ १२-६ ॥ समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः । संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्वानवलोकयन् ॥ १३-६ ॥ प्रशांतात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारित्रते स्थितः । मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥ १४-६॥ युंजनेवं सदाऽऽत्मानं योगी नियतमानसः । शांति निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ॥ १५-६ ॥ भा०-- योगी मनका विजयी वासनारहित व परिग्रहरहित एकातमे अकेला ही बैठा हुआ निरंतर आत्माका ध्यान करे । वहा मनको एकाग्र करके इन्द्रियोंको व मनको वश रखता हुआ आसनपर बैठकर आत्माकी शुद्धिके लिये योगका अभ्यास करे । काय, मस्तक व गलेको समान व निश्चल धारकर, दृढ़ होकर अपने नाकके अग्रभागको देखता हुआ, अन्य दिशाएं न देखता हुआ - - शातचित्त हो, भयरहित हो, ब्रह्मचर्यत्रतमे स्थित हो, मनको संयम करके आत्मा मे उसे जोड़कर आत्मामें लीन रक्खे । इस तरह योगी मनको निश्चल रखता हुआ सदा अपने आत्माका ध्यान करे । जिससे वह आत्मामें स्थितिरूप निर्वाणकी उत्कृष्ट शातिको प्राप्त करेगा । सुखमात्यन्तिकं यत्तद् बुद्धिग्राह्यमतींद्रियं ।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ॥ २१-६ ॥ भा० - जहा वह योगी इन्द्रियोंसे परे ज्ञानगम्य परम सुखको अनुभव करता है, फिर वह निजतत्वमे स्थित हुआ उससे चलायमान नहीं होता है ।
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भगवद्गीता और जैनधर्म ।
[२५१ अव्यक्तोऽार इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम् । यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥२१-८॥
भा०-जो अप्रगट अविनाशी कही गई है उसे ही परमगति (मोक्ष) कहने है। उसे पाकर कोई पीछे नहीं होते हैं, वही आत्माका परम धाम है।
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासान्जानाद्धयानं विशिष्यते। ध्यानाकर्मफलत्यागस्त्यागाच्छांतिरनन्तरम ॥ १२-१२ ॥
भा०-वानशून्य अभ्याससे ज्ञान प्राप्त करना अच्छा है। ज्ञानसे आत्मध्यान श्रेष्ठ है, ध्यानसे कर्मों के फलका त्याग श्रेष्ठ हैत्यागसे तत्काल परमगाति होती है।
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मंत्र: करुण एव च। निर्ममो निरहंकारः समःखसुखः क्षमी ॥ १३-१२ ॥
यस्मानोद्विजते लोको लोकानोद्विजते च यः। हमर्पभयोवगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः ॥ १५-१६॥
अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः । सर्वारंभपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥१६-१२ ॥ यो न हप्यति न दृष्टि न शोचति न कांक्षति । शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ॥१७-१२१ समः शत्रौ च मित्रै च तथा मानापमानयोः । शीतोष्णसुखदुःखेषु समः संगविवर्जितः ॥ १८-१२॥
भा०-जो सर्व प्राणियोंपर उपरहित हो, सबसे मैत्रीभाव रक्खे, दयावान हो, ममता व अहंकारसे रहित हो, दुःख व सुखमै समान हो, क्षमावान हो, जिससे कोईको भय न हो च जो स्वयं भी भय
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२५२]
विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा । रहित हो। जो हर्ष, ईर्षा, भय, उद्वेगसे रहित हो वही मेरेको प्रिय है अर्थात् वही आत्मप्रेमी है। जो इच्छा रहित हो, पवित्र हो, चतुर हो, उदासीन हो, दुःख भावरहित हो, सर्व आरम्भका त्यागी हो, आत्मामे भक्त हो वही आत्मप्रेमी है। जो कभी न हर्म करता हे न द्वेष करता है, न शोक करता है न कामना करता है, जो शुभ या अशुभ भावोंका या फलोंका त्यागी है वही भक्त है, वही आत्मप्रेमी है । जो शत्रु मित्रमें, मान अपमानमें, शीत व उष्णमें, सुख व दुःखमें समान हो व परिग्रहरहित हो (वही आत्मरमी है)।
भा०-अहिंसा, सत्य, क्रोधका अभाव, त्याग, शाति, परनिदाका त्याग, प्राणियोंपर दया, लोलुपतारहितपना, मार्दवभाव, लज्जा व चपलताका अभाव, प्रभाव, क्षमा, धैर्य, पवित्रता, वैर रहितपना, अभिमान रहितपना ये सब संपत्तिया पुण्यवान पुरुषके होती है।
नोट-ऊपर लिखित जो श्लोक दिये गए हे इनका सव तात्पर्य जैन सिद्धांतसे मिल जाता है। जैन सिद्धातमें सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान व सम्यकूचारित्रकी एकताको मोक्षमार्ग कहा है, जो निश्चयसे एक आत्मध्यान ही है, जहा आत्मामें परमात्मारूपकी श्रद्धा हो, इसीका ज्ञान हो व उसीमें आचरण हो या लीनता हो। इसी मोक्षमार्गके प्रेमीको सम्यग्दृष्टी कहते हैं। सम्यग्दृष्टि परम तत्वको जानता हुआ आत्माके अतीन्द्रिय आनंदका आसक्त होता है। उसकी तृप्णा इन्द्रियोके नाशवन्त अतृप्तिकारी पराधीन सुखसे छूट जाती है। वह इस लाककी कोई संपत्तिको नहीं चाहता है । केवल आत्मानंदकी भावना करता है जो उसको आत्मध्यानसे आप ही प्राप्त हो जाती है । ऐसा तत्वज्ञानी गृहस्थमें रहते हुए जो कुछ पूर्व कर्मके उदयसे सुख
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भगवद्गीता और जैनधर्म ।
[२५३ या दुःख होता है उसमे समान भाव रखता है। क्षणिक सुखके होनेपर उन्मत्त नहीं होता है। दुःखोंके पड़नेपर घबराता नहीं। वह लौकिक व पारलौकिक कार्योको विना इच्छाके विना बदलेमें उसका फल चाहे हुए करता है। इससे वह तीव्र कोंमे नहीं वन्धता है। उसको मंगारके भ्रमण करानेवाले कर्मोंका बंध नहीं होता है। जितना अंश रागादिका अंश होता है उतना कर्मका बन्ध होता है। गाढ चिकना बन्ध नहीं पड़ता है क्योंकि वह संसारमे अलिप्त है। एने तत्वज्ञानी सम्यक्तीकी क्रियाको निष्काम कर्म कहते है। क्योंकि वह फलको नहीं चाहता है। वह भीतरसे सर्व कामनाओका त्यागी है।
यदि ऐसे सम्यक्तीके पूर्वमे बाधा हुआ मोह कर्म न हो तब नो यह दो घड़ी ही आत्मध्यानमें परिग्रह रहित व मनको सर्व आरम्भासे रोक करके जोड दे तो देवलज्ञानको प्राप्त करके जीवन्मुक्त या अरहंत होजावे । परन्तु पूर्वबद्ध मोहके विपाकसे यह पूर्ण वैराग्यवान जबतक नहीं पाता है गृहस्थावस्थामें जलमे कमलवत् रहता है। जब आत्मानुभवके अभ्याससे मोह घट जाता है तब स्वयं माधु होजाता है। साधु मदमें वह अकर्मण्य नहीं होता है । जिस समय या जितनी देरतक आत्मव्यानमें उपयोग लगता है, ध्यान करता है । जैन शास्त्रानुसार कोई भी ध्याता एक ध्येयपर ४८ मिनिटमे अधिक नहीं जमसक्ता हैं। ध्यान अति सूक्ष्म तत्व है। यदि कोई साधु ४८ मिनिट के अनुमान जमा रहे तो उसे केवलजान होकावे । शक्तिके अभावसे नहीं जमा सक्ता है। इसलिये रात दिनमे बहुतसा समय साधुको आत्मानुभवसे बाहर मन, वचन, कायकी क्रियामें विताना पडता है। तब ज्ञानी साधुको उचित है
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२५४ ]
विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा ।
कि जगतके उपकार में मन, वचन, कायको लगाकर सफल करता रहे। कभी भी आलसी न होवे, कर्मयोग व ज्ञानयोग साथ ही चलने है, निर्विकल्प समाधि ज्ञानयोग है, सविकल्प विचार व कार्य कर्मयोग है । एकके पीछे दूसरा हुआ करता है । अंतमे ज्ञान योगने मुक्ति होती है । सम्यग्दृष्टि तत्वज्ञानीके भोग कर्मोके छूटनेके लिये है ऐसा श्री कुंदकुंदार्य समप्रसारमे कहते है -
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उवभोज मिंदियेहिय व्त्राणमचेदणाणमिदराणं । जं कुणदि सम्मदिट्टी तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं ॥ २०२॥
भा० - सम्यक्दृष्टी सुमुक्षु तत्वज्ञानी जो कुछ इन्द्रियोंक द्वारा अचेतन तथा चेतन पदार्थों का भोग करता है वह सब कर्मों की निर्जराके लिये है । ( क्योंकि वह उनमे रंजायमान नहीं है । जैसेरोगी कडवी दवा खाने हुए उसमे रागी नहीं है | )
सेवतोवि ण सेवदि असेवमाणोवि सेवगो कोवि । पगरणचेहा कस्सवि णयपायरणोति सो होदि ॥ २०६ ॥
भा०—तत्वज्ञ नी भीतर से वैरागी भोगोको भोगता हुआ भी
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भोगता नहीं है। अज्ञानी भोगासक्त भोगोको न भोगन हुए. भी भोगने वाला है । कोई किसीके यहा विवाहादि कामके लिये जाकर काम करता है परन्तु उस कामका स्वामी नहीं होता है जब कि न काम करनेवाला घरका स्वामी उसमे तीत्र रागी है ।
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श्री अमृतचन्द्राचार्य समयसार कलशमे कहते हैनाश्नुते विषयसेवनेऽपि यत् स्वं फलं विपयसेवनस्य ना । ज्ञानवैभव विरागता वलात्सेवकोऽपि तदसावसेवकः ॥ ३-७ ॥
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भगवद्गीता और जैनधर्म।
[२५५ मा०-सभ्यदृष्टी ज्ञानी विषयोंको सेवते हुए भी विषयसेवनका फल कर्मबन्धको नहीं पाता है क्योंकि उसके भीतर ज्ञानकी विभूति है व वैराग्यका बल है इसलिये वह सेवता हुआ भी नहीं सेवनेवाला है।
जिस आसनसे ध्यान जैन शास्त्रोंमें बताया है वही यहा गीतामें अध्याय ६ में श्लोक १०, १२, १३, १४, १५से बताया है। इसी ध्यानमई आकारको दिखलानेवाली मूर्ति भी जैन लोग बनाते है व उसके ध्यानकी सिद्धिमें मदद लेने है । ऊपर दिये हुए गीताके श्लोक नं० १४१४, २११४, ३६।४ से यह प्रगट है कि कर्मोका बन्ध होता है व कोको भस्म किया जाता है । यहां कर्मसे प्रयोजन वही झलकता है जैसा जैनसिद्धातने सात तत्वोंमे आसव, अन्ध, संवर व निर्जरातत्वमें बताया है। बंध शब्द व भस्म शब्द 'प्रगट करता है कि कोई सूक्ष्म स्कंध है जिनसे कारण शरीर बनता है, इसीको जैन लोग कार्मण शरीर कहते है। उन सूक्ष्म स्कंधोंको कार्मण वर्गणाएं कहते हैं । हमारे तत्वप्रेमी अजैन बंधुओंको उचित है कि कर्मबंधके सिद्धांतका गहरा विवेचन जैन शास्त्रोंकी सहायतासे जाने । मुख्य ग्रन्थ श्री नेमिचन्द सिद्धांत चक्रवर्ती कृत श्री गोमटसार कर्मकांड है इसका हिंदी व इंग्रजी दोनोंमें उल्था मिलता है, बहुत उपयोगी है। यदि जैन सिद्ध तका मनन किया जायगा तो गीताके ऊपर लिखित श्लोकोंका भाव और भी स्पष्ट सत्य-खोजीको झलक जायगा।
जैन सिद्धांत यह मानना है कि परमात्मा शुद्ध कृतकृत्य परमानंदमय है, वह जगतको न बनाना है और न वह जगतके प्राणि.
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२५६]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा । योंको सुख दुःख देता है । जगतमे बहुतसे पदार्थोकी रचना स्वभावसे हुआ करती है । जैसे-मेघ बनना, पानी वरसना आदि । बहुतसे कामोंको संसारी प्राणी अपनी इच्छासे प्रयत्न करके करते है। जैसे-चिडियाका घोसला बनना, मकडीका जाला बनना, कपडा वुनना, मकान बनना आदि । तथा कर्मोका फल भी सभावसे उसी तरह होजाता है जैसे भोजन व औषधि पेटमे जाकर स्वय रुधिर वनाती है व वीर्यको उत्पन्न करता है जिसके फलसे हम काम करने है । गीतामें भी इसी तत्वको नीचेके लेकोंमे झलकाया है
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः । न कर्मफलसंयोग स्वभावस्तु प्रवर्तते ।। १४-५ ॥ नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः। अज्ञानेनाहतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥ १५-५॥
भा०-ईश्वर प्रमु लौकिक प्राणियोंके न कर्तापनेको न कर्मोको न कर्मोके फलके संयोगको वास्तवमे रचता है कितु स्वभावसे ही प्रवृत्ति होती है । परमात्मा न किसीके पाप कर्मको न किसीके पुण्य कमको ग्रहण करता है अज्ञानमे प्राणियोंका ज्ञान ढका हुआ है इससे जगतके प्राणी मोहित होरहे है।
नोट-यहा भी आवृत शब्द किन्ही सुक्ष्म स्कंधोका बोधक है जो ज्ञानको ढकते है इसीको जैनसिद्धातमे ज्ञानावरण कर्म कहते है।
शिष्य-तब क्या गीतामे जैनसिद्धात भरा है ?
शिक्षक-जैन सिद्धातसे मिलता कथन तो अवश्य है । हिंदु__ ओमे साख्य सिद्धात एक ऐसा दर्शन है, जिसका कथन बहुत
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भगवद्वता और जैनधर्म |
[ २५७ अंगमे मिल जाता है । साख्य प्रकृति ( जड) और पुरुष आत्मा ) - को अनादि मानता है। जैसे-जैन सिद्धांत पुल और जीवको अनादि मानता है । प्रकृति और पुरुपका संयोग ही संसार है । व प्रकृतिका पुरष ने छूट जाना ही साख्यमे मोक्ष है । इसी तरह जैनोमे कर्म पुलों का संयोग संसार ह, कर्म पुगलोंका छूट जाना मोक्ष है। गीता बहुता कथन साख्य दर्शनके अनुसार है । जैमा नचिके लोकों झलकता है
प्रकृतेः क्रियमाण नि गुणः कर्माणि सर्वशः । अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते २७-३ ॥ भावार्थ- सर्व कर्म प्रकृतिके गुणो द्वारा किये हुए है । तौभी अहंकार मोहित हुए अन्त करणवाला पुरुष मैं कर्ता हूं ऐसा मान देना है
"
यत्सांख्यै प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।
एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥ ५-५ ।। भावार्थ- जो स्थान सांख्योंके द्वारा प्राप्त किया जाता है वही योगांक द्वारा प्राप्त किया जाता है इसलिये जो साख्य और योगको एक समझता है वही यथार्थ देखता है । यहां उल्थाकारने सांख्यको निष्काम कर्मयोग व योगको ज्ञानयोग कहा हैत्रिभिर्गुणमयैर्भावरेभिः सर्वमिदं जगत् ।
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मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ॥१३-७॥ भा०- सात्विक, राजस, तामस इन तीन प्रकारके भावोंसे अर्थात् रागद्वेष विकारोंसे यह सब जगत मोहित होरहा है इसलिये इन तीनोंसे परे अविनाशी आत्माको नहीं जानता है ।
१७
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२५८ ]
विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा /
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्धयनादी उभावपि । विकाराच गुणांचैव विद्धि प्रकृतिभवान् ॥ २०-१३ ॥ भावार्थ - प्रकृति और पुरुष दोनों को ही अनादि जान रागादि विकारोको व सत्व, रज, तम गुणोंके प्रकृतिमे ही उत्पन्न हुआ जान |
कार्यकारणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते ।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ।। २१-१३ ॥ भावार्थ - कार्य कारण उत्पन्न करनेमे हेतु प्रकृति कही गई है । जीव सुख दुखोके भागने मे हेतु कहा जाता है ।
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शिष्य - जैन दर्शन और साख्य दर्शनमे अंतर क्या है ? शिक्षक - सूक्ष्म अंतर यह है कि जैनदर्शनमे आत्माको परि गमनशील माना है । क्योंकि वह द्रव्य हे । जोर द्रव्य होना है वह उत्पाद व्यय धौव्य रूप होता है । उसमे पर्याय होती है । इसलिये परिणमनशील है । जब एक पर्याय उत्पन्न होती है पुरानी पर्यायका व्यय होता है तथापि आत्मद्रव्य वही है । मोहनीय कर्मके निमित्तसे आत्मा रागद्वेष भाव मे परिणमन कर जाता है उस समय उसमें "शात व वीतराग भाव नहीं होता है । जब रागद्वेष भाव नाग होता है तब वीतराग भाव पैदा होता है | साख्य सिद्धातमे पुरुष या आत्माको अपरिणामी तथा अकर्ता माना है । सर्व कार्यमे प्रवृत्ति ही कर्ता माना है । जैसे कहा है
पुरुपस्यापरिणामित्वात् " ( १८ पाठ ४ योगदर्शन पाताजल १९०७ मे छ ) अर्थात् आत्मा परिणमन रहित है' - रपि फलोपभोगी अन्नादिवत् " ( साख्य दर्शन छ सं० १० ५७ )
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भगवद्गीता और जैनधर्म ।
[३५९ अर्थात् अकर्ता पुरुप है तोभी फल भोगता है। जैसे किसान अन्न पैदा करता है राजा भोगता है । जैन सिद्धात कहता है कि यदि
न्य दृष्टिसे वस्तुके स्वभावकी अपेक्षा विचार करो तो यह आत्मा नित्य अपने स्वभावमे रहनेवाला न राग द्वेका कर्ता है और न सुख दुखका भोक्ता है । परन्तु जब क्रम संयोगकी अपेक्षा विचार किया जायगा तब जैसे यह राग द्वेषादि भावोंका कर्ता है वैमे मै सुखी, मैं दुःखी इन भावांका भोक्ता भी है। कर्मका फल भोगे और का कोई और हो यह नहीं बन सक्ता है। किसान ग्वती करके उसका फल अपना पालन फल भोगता है। राजा प्रजाकी रक्षा करता है इसलिये किसान द्वारा दिया हआ कर लेकर उसे भोगता है। जिस दृष्टिसे भोक्ता है उस दृष्टिमे कर्ता भी है। जिस दृष्टिसे 'अकर्ता है उस दृष्टिसे अभोक्ता भी है। यदि पुरूषके परिणमन न माना जावे तो वह संसारमें मोही हो ही नहीं सक्ता है । परिणमन माननेसे ही संसार और मोक्ष दोनों बन सक्ते हैं। अकेली जड़ प्रकृतिमें ज्ञानमई रागादि नहीं होसक्ते है । जब मोह कर्मका विपाक होता है, तब आत्माका चारित्रभाव ढक जाता है व रागद्वेप भाव होजाता है। जैसे स्फटिकमणिमें लाल रङ्गकी उपाधि लगनेपर स्फटिकमणिका निर्मलपना ढक जाता है लालपना प्रगट होजाता है-स्फटिकके विना केवल लाल रङ्गके क्रांतिका होना असंभव है। इसी तरह पुम्पके विना केवल प्रकृतिके रागद्वेष होना असंभव है। प्रकृतिके संयोगवश आत्माके ज्ञानमें विकार होते है। यदि पुरुप या आत्माको परिणाम रहित मानेंगे तो वह सदा एकरूप ही रहना चाहिये । सो ऐसा प्रत्यक्षमें दीखता नहीं। जीवकी अवस्था एकरूप
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विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। नहीं दीखती। कभी क्रोधी होता है, कभी शांत होता है। दोनों बातें __ एक साथ पुरुषमें नहीं दीखती है। क्योंकि यह ज्ञानकी एक पर्याय
है । अवस्था एक प्रकारकी एक समय रहती है । जब वह अवस्था मिटती है, तब दुमरी पैदा होती है। इसीलिये जैनसिद्धांतने आत्मा व पुदल प्रकृति सबको नित्य व अनित्य उभयरूप माना है. द्रव्य अपेक्षा नित्य है, पर्यायकी अपेक्षा अनित्य है। सर्वथा नित्य माननेसे . क्या दोष आयगा उसे श्री समन्तभद्राचार्यने आप्तमीमासामें कहा है
नित्यत्वकांतपक्षेऽपि विक्रिया नोपपद्यते । प्रागेव कारकामाव. क प्रमाणं क तत्फलं ॥ ३७॥
मा. पदार्थको यदि एक ही अपेक्षामे नित्य ही माना जावेगा तो उसमे कोई विकार या परिणाम या अवस्थाएं नहीं होसक्ती है। जव कर्ता, कर्म, करण आदि कारक न होंगे तब न उसमें मिथ्याज्ञान हटकर यथार्थ ज्ञान होगा और न उसके ज्ञानका फल होगा कि यह त्याग करो व यह ग्रहण करो। अनेकांतमय स्वभाव वस्तुका माननेवाला जैनदर्शन है । एक ही अपेक्षा जीवको अकर्ता माननेसे उसके संसारका अभाव आता है । व्यवहारकी अपेक्षा कर्ता है, निश्चयकी अपेक्षा अर्ता है, इसी सूक्ष्म अंतरसे जैनदर्शन व सांस्य दर्शनका मतभेद है । वैसे बहुत अंशमे एकता है ।
शिष्य-क्या गीतामे काई और दर्शन भी झलकता है ?
शिक्षक- गीताके नीचे लिखे श्लोकोंसे वेदात दर्शन भी झलकता है जिसका यह सिद्धांत प्रगट है यह श्य जगत व दर्शक दोनों एक है । ब्रह्मरूप जगत है, ब्रह्म हीसे पैदा हुआ है, ब्रह्म हीमे
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भगवद्गीता और जैनधर्म |
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लय हो जायगा । ( वेदांतदर्पण व्यासकृत सं० १९५९) ब्रह्मका लक्षण है "जन्माद्यस्य अत इति" (सूत्र १ अ० ८ ) अर्थात् जन्म, स्थिति, नाश उससे होता है ।
" आकाशस्तल्लिंगात् " ( सूत्र २२ अ० २ ) - आकाश भी ब्रह्म हैं, का चिह्न होनेसे ।
"(
कार्यागधिरयं जीवः कारणोपाधिरीश्वरः " ( वेदात परिभाषा परि० ७ ) - यह जीव कार्यरूप उपाधि है, कारणरूप उपाधि ईश्वर है । वेदातका सिद्धांत यही प्रगट है कि वहां एक ब्रह्मकी ही वास्तविक सत्ता है । यह जगत् ब्रह्मका ही विकाश है वही सब कुछ है |
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् । प्रकृतिं स्वामाविष्टाय संभवाम्यात्ममाययाः ॥ ६-४ ॥ भा०- मै अविनाशी स्वरूप अजन्मा होनेपर भी तथा सर्व मृत प्राणियों का ईश्वर होनेपर भी अपनी प्रकृतिको आधीन करके अपनी मायासे प्रगट होता हूं ।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ ७४ ॥ भा०-- जब जब धर्म की हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है तब तब ही मैं अपने रूपको रचता हूं--प्रगट करता हूँ ।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥ ८-४ ॥ भा०- साधुओंकी रक्षा के लिये, द्रव्योंके नाशके लिये व धर्मके
स्थापनके लिये मैं युग युगमें प्रगट होता हूँ
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२६२ ]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा
सर्वभूतानि कौंतेय प्रकृति यांति मामिकाम् । कल्पश्ये पुनस्तानि कल्पादों विसृजाम्यहं ॥ ७-९ ॥ प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः । भूवग्राममिमं कृत्स्त्रमवशं प्रकृतेर्वशात् ॥ ८-९ ॥ भा०-हे अर्जुन | कल्पके अंतमें सब भृत मेरी प्रकृतिको प्राप्त होजाते है । और कल्पकी आदिमे उनको मै फिर रचता हूं। अपनी प्रकृतिको अंगीकार करके मै परतंत्र इस सर्व प्राणी समुद्रायको वारवार उनकी प्रकृतिके अनुसार रचता हूं-यच्चापि सर्वभूतानां वीजं तदहमर्जुन ।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् ॥३९-१०॥ भा०-हे अर्जुन । जो सर्वभृतोंकी उत्पत्तिका कारण है वह भी मैं ही हूं। क्योंकि ऐसा वह चर व अचर कोई भी भूत नहीं है कि जो मेरेसे रहित होवे । इसलिये सब कुछ मेरा ही स्वरूप है।
यतः प्रवृत्तिभूतानां येन सर्वमिदं ततम् |
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विंदति मानवः ॥ ४६-९८ ॥ भा०-- जिससे सर्व भूतोंकी उत्पत्ति हुई है और जिससे यह सर्व जगत व्याप्त है उस परमेश्वरको अपने स्वाभाविक कर्म द्वारा पूजकर मनुष्य परम सिद्धिको प्राप्त होता है ।
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।
भ्रामयन् सर्वभूतानि यंत्राद्वानि मायया ॥ ६१-१८ ॥ भा०- शरीररूपी यंत्र में आरूढ़ हुए सर्व प्राणियोंको ईश्वर अपनी मायासे भ्रमाता हुआ सर्व भूत प्राणियोंके हृदयस्थान में विराजित है । -
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भगवद्गीता और जैनधर्म ।
[२६३ शिप्य-साग्न्य और वेदातसे अन्तर मालूम पडता है। साख्य नो ईश्वरको कर्ता व फलदाता नहीं मानता है । वेदात तो ईश्वरको ही कर्ता मानता है व जगतको ईश्वररूप ही मानता है। ऐसे दो मिद्धात एक पुस्तकमे क्यो'
शिक्षक -वक्ताकी इच्छा अनुसार दो प्रकारके सिद्धातोंसे ही ईश्वरको बनाया गया है। जिसको जो मचे सो माने। जैन वेढांतका इस सम्बन्धमे बहुत अंतर है क्योकि जैन द्वैनसिद्धांत है। छ• द्रव्योकी मूल सत्ता मानता है जब कि वेदात एक ब्रह्मको ही मानता है । वेदांतकी अपेक्षा साग्व्यमे जैन दर्शनका साम्य अधिक है।
शिष्य--क्या कोई अपेक्षा है जिससे वेढांतका और जैनका माम्य होसक्ता है ?
शिक्षक--शुद्ध निश्चय नयसे सर्व जीव एक जातिमय शुद्ध है। तथा सर्व लोक जीवोंसे व्याप्त है, इस अपेक्षा यह विश्व जीवरूप है या ब्रह्मरूप है । एक तत्वज्ञानी अपनी दृष्टि सर्व अजीवोंसे हटाकर समताभाव लानेके लिये एक ब्रह्ममय जगतको अनुभव करता है तब उसे एक ब्रह्म ही दिखता है। अथवा जब ध्याता ध्यानमें लीन होकर आत्मानुभवमें जम जाता है तब वहा उसके अनुभवमें कोई तर्क वितर्क विचारांकी तरंगें नहीं होती है, एक अद्वैत आत्मभाव ही स्वादमे आता है। ध्याताकी अपेक्षा मानो सिवाय एक अद्वैतके और कुछ है ही नहीं ऐसा झलकता है। यदि वेदातके अद्वैत सिद्धातका यह भाव हो जो जैन सिद्धातसे एकता होजाती' है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि पदार्थोकी सत्ता ही मिट जाती
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२६४]
विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा । है, पदार्थ रहते हे, जड व अन्य चेतन पढार्थ रहने हे परन्तु ध्याताके स्वानुभवमे एक आत्मीक आनन्दके स्वादके और कुछ नहीं भास रहा है। यदि वेदातका यह मत हो कि विश्वमे और पदार्थकी सत्ता ही नहीं है, सत्ता मानना ही भ्रम है, केवल एक ब्रह्मकी ही सत्ता है वही विश्वरूप होता है, वही विश्वरूप समेट लेता है. वही नाना अवतार धारण करता है, उसीकी सब माया है तो तो जैन सिद्धातसे अंतर पडता है । क्योंकि जैन दर्शन छ. द्रव्योकी व उनमे भी अनंतानंत आत्माओकी व पुद्गलोंकी सत्ता सदा मानता है । मोक्ष प्राप्त आत्माएं भी भिन्न सत्ताको रखती हई म्वात्मानंदमे मगन रहती है। स्वात्मानुभवीकी ओक्षा एक अद्वैतभाव ही स्वानुभवमें झलकता है ऐसा श्री अमृतचंद्र आचार्यने समयसार कलशमे कहा है.
उदयन्ति न नयश्रीरस्तमेत प्रमाणं । कचिदपि च न विघ्नो याति निक्षेपचक्रं ॥ किमपरमभिदध्मो धान्नि सर्वकोऽस्मि-1
ननुभवमुपयाते भाति न द्वैतमेव ॥ ९-१॥
भा०-जब स्वात्मानुभव प्रकाशमान होता है जो अनुभव सर्व तेजोंको मन्द करनेवाला है तब नयोंकी या अपेक्षाओंकी लक्ष्मी उदय नहीं होती है। प्रमाण प्रमेय प्रमितिका विचार नहीं आता है। नाम स्थापनादि निक्षेप मालम नहीं कहा विख्य होजाता है और अधिक क्या कहे, वहा कोई द्वैत ही नहीं भासता है । एक अद्वैत आत्मरस ही स्वादमे आता है।
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भगवद्गीता और जैनधर्म ।
[२६५ जयति सहजतेजापुंजमज्जत् त्रिलोकी। स्खलदखिलविकल्पोऽप्येक एव वरूपः ॥ स्वरसविसरपूर्णाच्छिन्नतत्वोपलम्भः ।
प्रसनियमितार्चिश्चिचमत्कार एषः ॥२९-११॥
माः-स्वानुभवके समय सहज आत्मतेजके पुंजमें मानों तीन लोक इव गये है, सर्व विकल्प दूर होगये है, एक ही स्वरूप झलक रहा है । आत्मिक रसके विस्तारके पूर्ण अखण्ड एक तत्वका लाभ होगया है । वहां अत्यंत निश्चल आत्मज्योतिका ही चमत्कार होरहा है । यही वेदांत है, ज्ञानका अन्त है, ज्ञानका सार है । जहां आपको आपका ही स्वाद आवे वही सिद्धातका सार है । जैनधमका यह विवेचन स्वानुभवशी दगाका है । यदि वही ध्याता ध्यानसे हटे व विचारोंमें लगनावे तो उसे फिर यह छहों द्रव्य भेद प्रभेद सव दिखलाई पडेंगे । फिर जब वह स्वानुभवमें लय होगा, एक अद्वैत आत्मरसका ही पान करेगा।
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२६६]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा । হক্কী জুম্ভহ্বার্থ । जैनधर्म और हिंदू दर्शन ।
शिष्य-हिंदुओके मुख्यर दर्शनोंका और जैनदर्शनका क्या साम्य है व क्या असाम्य है थोडासा बता दीजिये जिससे मुझे मुकाबला करनेपर सुभीता हो।
शिक्षक-यदि तुम्हारी ऐसी इच्छा है तो मैं संक्षेपसे बताता हूं और इस विवेचनमें डाक्टर शिवाजी गणेश पटवर्धन एम० वी० (होमियो) अमरावती (बरार) लिखित हिदुधर्म-मीमांसा ( छपी सन् १९२४ ) पुस्तकका सहारा लेकर कुछ कहता हूं(१) न्यायदर्शन
न्यायदर्शनके प्रवर्तक गौतम ऋपि है । इनका यह मत है कि संसार दुःखमय है । इससे छूटनेका उपाय तत्वज्ञान है । जब रागद्वेष मोह नष्ट होजावेंगे तब मोक्ष होजायगी। कहा है-"दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानाना उत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्ग: " (न्या० सू० १।१।२१)। इसकी व्याख्या यह है कि जब तत्वज्ञानसे मिथ्याज्ञान चला जाता है तब दोष मिट जाते हैं फिर _प्रवृत्ति मिटती है उससे जन्म मिटता है फिर दुःखोंका क्षय होनेसे ___ मोक्ष होजाती है। बारह प्रकारके पदार्थोका ज्ञान प्राप्त करना चाहिये।
(१) आत्मा, (२) शरीर, (३) इन्द्रिय, (४) इन्द्रियों के विषय, (५) बुद्धि, (६) मन, (७) प्रकृति, (८) दोष ( राग द्वेष मोह ), (९) पुनजन्म, (१०) कर्मफल, (११) दुःख, (१२)
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जैनधर्म और हिंदू दर्शन ।
[ २६७ अपवर्ग या मोक्ष, ये सब बातें जैन दर्शनसे बहुत अंशमें मिल जाती है । अंतर यह है कि यह दर्शन एक ईश्वरको जगतका कर्ता और फलदाता मानता है। जगतका उपादान कारण परमाणु या प्रकृतिको मानकर निमित्त कारण ईश्वर है ऐसा मानता है। कहा है"ईश्वरः कारणं पुरुपकर्माफल्यदर्शनात्" (न्या० स० ४-१-१९)
भा०-ईश्वर पुपोंके कर्मोके फल देनेमें कारण है नहीं तो फल न हो। और भी कहा है
अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः। ईश्वरमेरितो गच्छेत् स्वर्गे वा बभ्रमेव वा ॥ ६ ॥
भा०-यह जंतु अज्ञानी है, इसका सुख दुःख स्वाधीनता रहित है। ईश्वरकी प्रेरणासे स्वर्ग या नर्कमें जाता है। जैन दर्शनमें जब मुक्तात्मा स्वाधीन होजाता है तब नैयायिक दर्शनमें एक परमात्माके आधीन रहते है । जैसा कहा है
मुक्तात्मना विद्येश्वरादीना च यद्यपि शिवत्वमस्ति तथापि परमेश्वरपारतंत्र्यात् स्वातंत्र्यं नास्ति ।
(सर्वदर्शनसंग्रह पृ० १३४-१३५) मा०-मुक्ति प्राप्त जीव विद्याके ईश्वर शिवरूप है तथापि परमेश्वरके का हैं, वे स्वतंत्र नहीं हैं।
जैन दर्शन आत्माको द्रव्य अपेक्षा नित्य व पर्यायकी अपेक्षा अनित्य तथा लोकाकाश व्यापी होके भी शरीर प्रमाण मानता है तब नैयायिक आत्माको नित्य व सर्वव्यापक मानते है। कहा है-~
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२६८]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। अनच्छिन्नसद्भावं वस्तु यद्देशकालतः । तन्नित्यं विभु चेच्छन्तीत्यात्माना विभु नित्यतेति ॥
(सर्वदर्शनसंग्रह पृ० १३९) मा०-किसी देश व कालमे आत्मा निरोध रूप नहीं है । आत्मा व्यापक है और नित्य है। (२) वैशेपिक दर्शन
वैशेषिक दर्शन सूत्र है। इसके कता महर्षि कणाद होगए ह। यह दर्शन भी संसारको दुःखमय मानता है और मोक्षकी प्रामि तत्वज्ञानसे कहता है । इस दर्शनमे द्रव्य नौ माने है
(१) पृथ्वी (२) जल (३) अमि (४) वायु (५) आकाम (६) काल (७) दिशा (८) आत्मा (९) मन ।
पृथ्वी. जल, तेज, वायु इनके परमाणु भिन्नर होते है। इसलिये ये चारों परमाणुओंकी अपेक्षा नित्य है परन्तु स्कंधके वननेकी अपेक्षा अनित्य है। शेष पाच द्रव्य भी नित्य है, मनको अणु मानता है। आत्मा व्यापक है परन्तु अनेक है । हर गरीरमें मिन्न२ आत्मा है । आत्मा ज्ञानका आश्रय है । जैनदर्शनमें पृथ्वी आदिके भिन्नर परमाणु नहीं माने गए है। किंतु एक पुद्गल द्रव्य परमाणु रूप माना गया है, उन परमाणुओंके मिलनेसे व नानाप्रकार परिणमन होनेसे पृथ्वी जल आदिके स्कंध बनते है । ___ न्यायदर्शनकी तरह यह भी ईश्वरको जगतके बननेमे निमित्त कारण व कर्मके फलका दाता मानता है। यद्यपि न्याय व वैशेषिक दोनों जैनदर्शनके समान, यह मानते है कि यह आत्मा स्वयं अपने
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जैनधर्म और हिंदू दर्शन।
[ २६९ तत्वज्ञानसे मोक्षको प्राप्त होता है । तथापि ईश्वरके समान स्वतंत्र नहीं होता है। (३) सांख्य दशन
गीताके अध्यायमें कुछ वर्णन सांख्यका आगया है तथापि, कुछ विशेष जाननेके लिये कहा जाता है कि सांख्यदर्शनके प्रवर्तक महर्षि कपिल होगाए है । सांख्य सूत्रसे विदित है "ज्ञानान्मुक्ति." ज्ञानसे मुक्ति होती है ( सांव्यसूत्र ३-२३ ) प्रकृति और पुरुषका भेद ज्ञान ही मुक्तिका कारण है । जैन सिद्धातमे भी कहा है कि जीव और अजीवका भेद ज्ञान हो मोक्षका कारण है।
सांख्यकारिकामें कहा है-- ___ " एवं तत्वाभ्यासान्नाऽस्मि न मे 'नाहमित्त्यपरिशेषम् । अविपर्याद्विशुद्धं केवलमुत्पद्यते ज्ञानम् ॥
भा०-पुरुष प्रकृतिसे भिन्न ऐसे तत्वके अभ्यास करनेसे निमल ज्ञान उत्पन्न होता है कि मैं प्रकृति नहीं हूं न प्रकृति मेरी है, न प्रकृति मुज रूप है, मैं प्रकृतिसे बिलकुल अलग निष्क्रिय ज्ञान रूप हूं।
सांख्यदर्शनमें नीचे लिखे २५ तत्व माने गए हैं
" सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः । प्रकृतेर्महान्, महतो अहंकारः अहंकारात् पंचतन्मात्रारायुमिद्रियं तन्मात्रेभ्यः स्थूलभूतानि पुरुष इति पंचविशतिर्गणः । " ( सांख्य सूत्र १-६१)
भा०.(१) सत्व, रजस और तमोगुणकी साम्यावस्था रूप मूल प्रकृति, (२) उससे उत्पन्न महान् तत्व, (३) उससे उत्पन्न
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२७०]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। अहंकार, (४) अहंकारसे उत्पन्न पाच तन्मात्रा और ग्यारह इंद्रिया१६ (५) पाच तन्मात्रासे उत्पन्न पंचमहाभूत, (६) पुम्प=२५ तत्व।
पाच तन्मात्रा--शब्द, रस, रूप, गंध, स्पर्ग । __ ग्यारह इद्रिया--स्पर्शनादि पाच ज्ञानेन्द्रिय, पाच कर्मेन्द्रिय जैसे हाथ, पाव, वाक्, लिंग, गुदा।
पंचमहाभूत- पृथ्वी, जल, तेन. वायु, आकाश ।
मूल प्रकृतिका लक्षण नीचे प्रकार हैअशब्दमस्पर्शमरूपमद्वयं तथा च नित्यं रसगजितम् । अनादिमध्यं महतः परं ध्रुवं प्रधानमेतत् प्रवदन्ति मूरयः ।।
भा०-प्रकृति शब्द रहित, स्पर्श रहित, स्प रहित, अविनाशी तथा नित्य, रस रहित, गंध रहित, अनादि मध्य रहित, महान तत्वसे परे, ध्रुव इसीसे आचार्य प्रधान कहते है--- ___ जैनियोंके माने हुये पुद्गल द्रव्यसे प्रकृतिका मिलान नहीं होता है। पुद्गल स्पर्श, रस, गंध, वर्णमय है । प्रकृति इन गुणोंसे " रहित है तौभी प्रकृतिसे स्पर्शादि व, पृथ्वी आदि बन जाते है, यही बात एक जैनदर्शनके ज्ञाताके समझमे नहीं आती है क्योंकि उपादान कारणके समान कार्य होता है, जब उपादान या मूल कारणमें ‘स्पर्शादि गुण नहीं तब उससे स्पर्शादि गुणवाली वस्तु कैसे उपजेगी? विद्वानोके लिये विचारने योग्य है। पुरुषका लक्षण है
पुरुषोऽनादिः सूक्ष्मः सर्वगतश्चेतनाऽगुणो। ___दृष्टा भोक्ता अकर्ता क्षेत्रविदमलोऽपसवधर्मीति ॥
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जैनधर्म और हिंदू दर्शन |
[ २७१
भा० - पुरुष अनादि है, सूक्ष्म है, सर्वव्यापी है, चेतन है, सत्व रजादि गुणोंसे रहित है, देखनेवाला है, भोगनेवाला है, कर्ता नहीं है, क्षेत्रका ज्ञाता है, निर्मल है, असंग है अर्थात् पुरुष कूटस्थ, केवल, सुखदुःखसे अतीत नित्य मुक्त और असंग है ।
स्वरूप तो
बहुत अंशसे मिल
जैनदर्शन मे जीवका शुद्ध जाता हैं परन्तु पुरुष कूटस्थ व अकर्ता होने से उसका संसारी व रागी, द्वेषी होना नहीं बन सक्ता है । न वह सामारिक दुःख मुखका भोक्ता होता है, यह अंतर पडता है
।
।
जैनों के समान सांख्य भी पुरुषोंको अनेक मानते हे ।
CC
पुरुषबहुत्वम् अवस्थात् " ( सांख्य सूत्र ६ -- ४५ ) भा०- पुरुष बहुत न माननेसे जन्म आदिकी अवस्था नहीं चन सक्ती है ।
जन्ममरणकरणानां प्रतिनियमादयुगपत् प्रवृत्तेश्च । पुरुषत्वं सिद्धिं त्रैगुण्यं विपर्ययाच्च ॥
( सांख्यकारिका १८ ) भा०- सत्र जीवोंका एक ही साथ जन्म, मरण, या इन्द्रि - की प्रवृत्ति नहीं दिखलाई पडती है । एकमें एक गुण प्रबल है दूसरेमे उसका विपरीतपना है इसलिये पुरुष अनेक हैं ।
सांख्यवादी ईश्वरको मानते ही नहीं है। सांख्य प्रवचन सूत्रमें साफर ईश्वरका प्रतिषेध किया है। यहां यही भाव है कि वे ईश्वरको कर्मकर्ता व फलदाता नहीं मानते हैं, मुक्त पुरुषको ही ईश्वर स्वरूप मानते हे जैसे जैन लोग मानते हैं । भगवद्गीता १२ वें
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२७२]
विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा। अध्यायसे प्रगट है कि सत्वगुण सहित होना राग, द्वेष रहित, विचारगील ज्ञानी होना है। रजोकण सहित ससारमे लीन भाव है परन्तु अन्यायी नहीं है । तमोगुण सहित हिसक है। तीनोंके रक्षण ये है--
नियतं संगरहितमरागद्वेषतः कृतम् । अफलपेप्सुना कर्म यत्तत सात्विकमुच्यते ॥ २३ ॥ यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंक रेण या पुनः । क्रियते बहुलायासं तद्रान्समुदाहृतम् ॥ २४ ॥ अनुवन्ध क्षयं हिसामनवेश्य च पाहाम्। मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते ॥ २५ ॥
भा०-जो कर्म नियमित. ममता रहिन, राग द्वेष रहित. फलकी इच्छा विना किया जाये यह सात्विक कर्म कहा जाता है। जो कर्म इच्छा पूर्वक, अहंकारके साथ बहुत परिश्रमसे किया जाता है वह राजस कर्म कहाता है । जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा
और सामर्यको न विचारकर मोहवश किया जाता है वह तामस कहाता है।
नोट-जैनदर्शनकी अपेक्षा एक सम्यक्दृष्टि गृहस्थ या साधुका भाव सात्विक है । सरल परिणामी मिथ्यात्वीका भाव राजस है। कठोर परिणामी मिथ्यात्वीका भाव तामस है । केवल प्रकृतिका ही तीन रूप परिणमन होता है. जीव कूटस्थ नित्य अक्रिय रहता है यही बात जैन दर्शनसे नहीं मिलती है । शुद्ध निश्चयनयसे जीवका स्वरूप एकसा रहता है परन्तु व्यवहार नयसे जब कर्मोका सम्बंध है तब जीव ही ज्ञानरूप व अज्ञानरूप, वीतराग रूप व रागद्वेषरुप परिणमन करता है । चेतता रहित केवल जड़में ये बातें नहीं होसकी है।
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जैनधर्म और हिंदू दर्शन।
[ २७३ (४) योगदर्शन
योगदर्शनके प्रणेता महर्षि पाताजलि होगये है । यह साख्यदर्शनसे मिलता है । सांख्यके समान यह दर्शन भी २५ तत्व मानता है. केवल एक तत्व और मानता है वह तत्व है-एक पुरुष विशेष अर्थात ईश्वर ।
ईश्वरका स्वरूप है--
क्लेगकर्मविकाशयैरपरामृष्ट. पुरुषविशेष ईश्वरः । तच्च निरतिशयं सर्वज्ञवीजम् । स एव पूर्वेषामपि गुरु. कालेनानवच्छेदात् ।
(१।२४--२६ योगसूत्र ) ___ भा०-जो पुरुष विशेष क्लेश, कर्मविपाक और आशयके संपर्कसे शून्य है वह ईश्वर है। वह परम अनिशयरूप सर्वज्ञ है। वही सर्व ब्रह्मा आदिका गुरु हे, सदा काल रहता है । मोक्षका उपाय योग साधन बताया है। उसके आठ अंग हे
" यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टां__गानि ।"
(२-२९) (१) यम-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और परिग्रहत्याग। (२) नियम-शौच, सन्तोप, तप, स्वाध्याय और ईश्वर ध्यान।
(३) आसन-पद्मासन, वीरासन आदि ८४ आसन, जिससे __ शरीर स्थिर रहे, कोई भी आसन ।
(४) प्राणायाम-श्वासके रोकनेका विधान । (५) प्रत्याहार-इन्द्रियोंका निरोध करना । (६) धारणा-एक जगह मनको रोकना । ७) ध्यान-चित्त निरोधका प्रवाह होना ।
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-२७४]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा । (८) समाधि-ध्यान पककर जब ध्येयके साथ तन्मय होजावे। कहा है- तदेवार्थनिर्भासस्वरूपशून्यमिव समाधिः । (३-३) ___भा०-जहा आत्मा पदार्थका ही अनुभव हो, स्वरूपमे शून्य हो वही समावि है। निर्विकल्प भावको समावि कहते है। यही मोक्षमार्ग है। इसीसे केवलज्ञान होकर मुक्ति होती है । कहा है
" तस्मिन्निवृत्तेः पुरुष स्वरूपप्रतिष्ठः अतः शुद्धो मुक्त इत्युच्यते (१-५)-उप समाविकी पूर्णनापर आत्मा अपने स्वरूपमे तिष्ठता हुआ शुद्ध या भुक्त वहाता है। __ योग साधनका विषय जैन सिद्धातसे बहुत कुछ मिलजाता है(५)-पूर्व (कर्म) मीमांसा दर्शन
इस दर्शनके प्रवर्तक महर्षि जैमिनि होगए है।
इस दर्शनका ध्येय स्वर्ग प्राप्ति है । इसका साधन यज्ञ __ करना है । स्वर्ग सुखका लक्षण बताया है
यन्न दुःखेन संभिन्न न च ग्रस्तमनन्तरम् । अभिलाषोपनीतं च तत्सुखं स्वः पदास्पदम् ॥
भावार्थ-जिस सुखके साथ दु ख नहीं मिला है, जिसके अन्तमे दु ख नहीं है, जो इच्छा या उसे प्राप्त होता है वही सुख स्वर्गमे मिलता है। स्वर्गकामो यजने ' स्वर्गका इच्छुक यज्ञमे होम करता है। इसमे क्रियाकाड दान पृजाकी ही मुख्यता है। ___ यह दर्शन साख्यकी तरह किसी पुरुष विशेषको ईश्वर नहीं मानता है। वेदको ही नित्य और अभ्रात मानता है। वेढ ईश्वर वावय है ऐसा स्वीकार नहीं करता है । जगतका कोई बनानेवाला
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जैनधर्म और हिंदू दर्शन |
[ २७५ व रक्षा करनेवाला नहीं मानता है । उसके मत में जीव अपने कर्मोके अनुसार फल भोगता है, उसमें ईश्वरका कोई सम्पर्क नहीं है । यज्ञयागादि कर्म ही सबकुछ हैं । किन्हीं के मतमें पशुलि करना, पशुओं को यज्ञमे होमना, ऐसा मत इस दर्शनका है । वे अश्वमेध यज्ञ, अजमेध यज्ञ आदिसे स्वर्गफल बताते हे । भारतमें कभी ऐसे यज्ञोंका बहुत प्रचार था । श्री महावीर भगवान व गौतमबुद्ध के समय इन यज्ञों के प्रचारको इन महान आत्माओने अपने उपदेशसे बंद कराया । यदि पूजा पाठ भक्तिमे गृहस्थलोग मनके आलम्बनको अन्नादि योग्य पदार्थोसे काम लें व शुद्धात्मापर लक्ष देकर क्रिया करें तो जीव पुन्य बाधकर स्वर्ग जाते है, यह मत जैन दर्शनका भी है। परन्तु स्वर्ग अन्तिम ध्येय नहीं है, अंतिम ध्येय मुक्ति है ।
(६) - उत्तर मीमांसा वेदांत दर्शन
वेदांत दर्शनके प्रवर्तक महर्षि बादरायण होगये हैं, ब्रह्मसूत्रमें इसका वर्णन है। इसके चार मुख्य भेद है—
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(१) अद्वैत, (२) शुद्धाद्वैत, (३) विशिष्टाद्वैत, (४) द्वैत । (६- १) अद्वैत दर्शन |
अद्वैत दर्शनके प्रधान आचार्य श्री शंकराचार्य होगए है | यह दर्शन केवल एक ब्रह्मको ही सत्य मानता है, ब्रह्मके सिवाय और सब मिथ्या है। जीवको ब्रह्मसे अलग नहीं मानता 1
" जीवो ब्रह्मैव नापरः, नित्यशुद्धबुद्धमुक्तसत्यम्वभावं प्रत्यक् चैतन्यमेव आत्मतत्वम् " ( वेदांतसार ) ।
भा० - जीव ब्रह्म ही है । दूसरा नहीं । नित्य शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, सत्य स्वभावी, वीतराग चैतन्यरूप ही आत्मतत्व' है ।
"
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२७६]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। ब्रह्मस्वरूपी जीव मायाके साथ होकर संसारी जीव नाम पाता हैमाहेश्वरी तु या माया तस्या निर्माणशक्तिवत् । विद्यते मोहशक्तिश्च तं जीवं मोहयत्यसो ॥ मोहादनीशतां प्राप्य मग्नो वपुषि शोचति । (पञ्चदशी)
भा०-महेश्वरकी जो माया है उसमे निर्माण होनेकी शक्ति है। उससे मोह शक्ति होती है। वह जीवको मोहित कर लेती है। मोहसे जीव ईश्वरताको भूलकर गरीरमे मग्न हो शोच करता रहता है।
अनादिमायया सुप्तो यढा जीवः प्रबुध्यते । अजमानन्द्रमस्वप्नमदत वुध्यते तदा ॥
(माक्यकारिका १-१६) भा०-अनादि मायाके कारण सोया हुआ जीव जब जागता _है तब वह जानता है कि वह स्वयं ही जन्म रहित. निद्रा रहित, स्वप्न रहित एक अद्वैत ब्रह्म वस्तु है।
मायाको भी यह दर्शन ब्रह्मकी शक्ति मानता है । कहा है___“शक्तिगक्तिमतोरभेदात् " माया और ब्रह्म अभिन्न है। क्योंकि माया ब्रह्मकी ही शक्ति है।
भ्रमसे जगत नानारूप दीखता है. संसार भ्रम मात्र है। केवल एक बल ही ब्रह्म है।
जैन दर्शन द्वैत सिद्धात है, इस अद्वैतसे नहीं मिलता है। __ शुद्ध ब्रह्मसे माया कैसे होती है व वही क्यो मायासे मिलकर जीव
होजाता है। और संसारमें कष्ट भोगता है। ब्रह्मका संसाररूप होना भी शुद्ध ब्रह्मके लिये शोभनीक नहीं होता है। ऐसी शंकाएं एक जैन दर्शनको माननेवाले के चित्तमें पैदा होती है।
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जैनधर्म और हिंदू दर्शन।
[३७७ ___ जैसा पहले गीताके अध्यायमें कहा जाचुका है कि यदि स्वानुभवके समयकी अपेक्षा अद्वैतभाव लिया जावे तो जैन दर्शनसे अद्वैत मिल जाता है। परन्तु सत् पदार्थकी अपेक्षा नहीं मिलता है, क्योंकि जैन दर्शन छ:द्रव्य सत् मानता है। जीवोंको भिन्नर सत्तावान अनेक मानता है । परमाणुओंको अनेक भेदरूप मानता है।
(६-२) विशिष्टाद्वैत___ इस विशिष्टाद्वैतके प्रधान आचार्य रामानुजाचार्य होगए हैं । इस दर्शनने ब्रह्मका स्वरूप माना है
वासुदेवः परं ब्रह्म कल्याणगुणसंयुतः । भुवनानामुपादानं कर्ता जीव नियामकः॥
भा०-कल्याण गुणसे युक्त वासुदेव ही परब्रह्म है, वह ही सर्व भुवनोंके उपादान कर्ता है और जीवोंके नियामक है।
उसीसे सृष्टि, स्थिति व प्रलय होती है। इस दर्शनके मतमें यद्यपि ईश्वर, जीव, अजीव ये तीन पदार्थ हैं तथापि जीव व जड़ ईश्वराधीन है। ईश्वर ही भोक्ता और भोग्य ( जीव और जड़) दोनोंमें अन्तर्यामी रूपसे विराज रहे हैं।
तदेतत् कार्यावस्थस्य च कारणावस्थस्य च चिदचित् । वस्तुनः सकलस्य स्थूलस्य सूक्ष्मस्य च परब्रह्मशरीरत्वम् ॥
(२-१-१५) भाष्य । भा०-कार्यावस्थापन्न, कारणावस्थापन्न, चित् अचित् , स्थूल, सूक्ष्म सभी वस्तुएं परब्रह्मके शरीर हैं।
यह जीव परमात्माको भक्तिसे व अपनेको ईश्वरार्पण करदेनेसे
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२७८ ]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा
मुक्त होजाता है | मुक्त होनेपर परब्रह्म के साथ मिल्ता नहीं है । यद्यपि उसके गुण ब्रह्मके समान होजाते है । लिखा है
एवं गुणा समाना स्युर्मुक्तानामीश्वरस्य च सर्वकर्तृत्वमेवैकं देवे विशिप्यते - जगढ़ व्यापारवर्जनम् (सूत्र ४-४-१७ )
भा०- मुक्त पुरुषोंके गुण मव ईश्वर के समान होजाने है । परन्तु सर्वका कर्तापना गुण ईश्वर में ही रहता है, यही विशेषता है । मुक्तात्माओंका सम्बंध जगत्के व्यापार में नहीं रहता है |
नोट - जैनदर्शन यही शंका करता है कि शुद्धब्रह्म जड व अशुद्ध जीवोंका उपादान कर्ता किस तरह होगा ? तथा निर्विकार ब्रह्ममे कर्तापने का भाव भी कैसे होगा ? विद्वानोंके लिये विचारणीय है ।
( ६-३ ) शुद्धाद्वैत—
इस
दर्शनके प्रधान आचार्य श्री वल्लभाचार्य होगए हैं ।
इस
दर्शन ब्रह्मका स्वरूप माया रहित माना है ।
"
“ मायासंबन्धरहितं शुद्धमित्युच्यते बुधः । कार्यकारणरूपं हि शुद्ध न मायिकम् ।" भा०-मायाके सम्बन्घसे रहित शुद्ध ज्ञाता ब्रह्म कहाता है । वह शुद्ध ब्रह्म कार्यकारण रूप है । परन्तु माया सहित नहीं है । यह दर्शन दृश्य जगतको ब्रह्मका कार्य मानकर उसे भी शुद्ध त्र ही मानता है । यह जगत ईश्वरकी लीला है ।
जीवोंको यह ब्रह्मका अंग मानते है, जैसे सोनेके रज | जीन नित्य है और अणुरूप ब्रह्मका अंश है ।
सर्व दृध्य और अदृश्य जगतको शुद्ध ब्रह्म समझकर भक्ति द्वारा आत्म समर्पण करनेसे जीवकी मुक्ति होजाती है ।
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जैनधर्म ओर हिंद दर्शन।
[२७९ (६-४)द्वैत
इस द्वैतके प्रधान आचार्य मध्याचार्य है। इस दर्शनके अनुसार दो तत्व हे-एक स्वतंत्र दृमग अग्वतत्र
स्वतंत्रमरवतंत्रं च द्विविध तत्वमिष्यते । स्वतंत्रो भगवानविष्णुर्निदोषोऽशेपसद्गुणः ॥
भा०-दो तत्वोमेसे स्वतंत्र तत्व भगवान विष्णु दोप रहित व सर्व गुण सहित है।
अस्तंत्रतत्वमे भिन्नर अनेक जीव है और जड है । जगतमें जीव. जड व विष्णु तीनो पदार्थोको ये सत्य मानते है ।
नोट-हिदू-धर्ममीमासा पुरतकके आधाग्यो । हिंदूधर्मके ६ मुख्य दर्शनोंका कुछ हाल पाठकोंके ज्ञान हेतु बताया गया है।
शिष्य--छः दर्शनोका कुछ हाल जाना। विशेष तो उनको पुस्तकोंके पढ़नेसे ज्ञात होगा । यह तो बताइये कि थियोसोफी भी क्या कोई हिदूमत है ?
थियोसोफी। शिक्षक--यह हिंदु मतमे मान लिया गया है। परन्तु छः दर्शनोंसे मिरता नहीं है । क्योकि इसका मत है कि एक मूल जड पढार्थ है, उसीसे उन्नति करते २ जीव होता है। वह जीव उन्नति करने२ मानव होता है। अनुभव प्राप्त करके फिर वह मुक्त होजाता है।
देखो पुस्तक-Frist Principles of Theosophy by C Jinaraydas M. A_1921 Adyer, Madras लिखा है
The Great Nebula-It is a chastic mass of matter in its Intensely heated condition millians and mill.ans of miles in diameter. It is a Vague cloudy mass full of energy. It revolves into another Nebula. Then solar system, then hydrozen, iron
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२८० ]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा ।
and others wil be there They will enter into certain combinations and then will come the frist appearance of life. We shall have a protoplasm, first form of life, then it takes form of n vegetable. Then animals and lastly man A soul once become human cannot reincarnate in animal or vegetable forms ( 42 )
भा०- एक बहुत बड़ा जड पिंड हे जो बहुत ही उष्ण है । व करोडों मीलका उसका व्यास है । वह एक मेघ समूह महा शक्तियोंका समूह है । यह घूमने २ दूसरा समूह होकर फिर सूर्यका परिकर हो जाता है । फिर उमीमे हैड्रोजन वायु लोहा व दूसरे पदार्थ होजाते है । फिर कुछ मिलाप होने २ थम जीवनशक्ति प्रगट होजाती है। इसको प्रोटोप्लैडम कहते है । इसीसे वनस्पतिकाय बनती है । फिर उन्नति करते २ वही पशु, फिर वही मनुष्य होजाता है ।
1
आत्मा मनुष्यकी दशा मे पशु या वनस्पतिकी अवस्थामे कभी नहीं गिरता है। यह एक विकाश वाढका सिद्धात है । जडसे चेतन बन जाता है । यह बात ऊपर लिखित छ दर्शनोंमे नही है । यह एक
अनोखी बात है। जैन दर्शन से तो बिल्कुल मिस्ती नहीं है । जडसे जड ही बन सक्ता है, चेतन नहीं। तथा जीवोंकी उन्नति तथा अबनति दोनों बातें मभव हे । पशु भी मानव होसक्ता है तथा मानव भी अशुभ भावोंसे पाप वाधकर पशु होमक्ता है ।
शिक्षक - आर्यसमाजका बहुत प्रचार है । इसका जैन धर्मसे क्या अन्तर है ?
आर्यसमाज |
शिक्षक - यह दर्शन बहुत अंगमे नैयायिकसे मिलता है । यह ईश्वरको जगतका बनानेवाला कर्ता व सुख दुखका फलढाता
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जैनधर्म और हिंदू दशन |
[ २८१
मानता है । मुक्ति होनेपर भी जीव अल्पज्ञ रहता है । वह परमात्माके समान नहीं होता है ।
सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ९ में नीचे लिखे वाक्यसे आप इनका मत समझ जायगे । यह परमात्मा, जीव व प्रकृति तीन पदार्थोंको अनादि मानते हैं ।
" मुक्ति में जीव विद्यमान रहता है । जो ब्रह्म सर्वत्र पूर्ण है उसीमें मुक्त जीव विना रुकावट के विज्ञान आनन्द पूर्वक स्वतंत्र विचरता है । ( २५२ - पृष्ठ ) "जीव मुक्ति पाकर पुनः संसारमें आता है ।" (२५४-पृष्ठ) "परमात्मा हमें मुक्ति आनंद भुगाकर फिर पृथ्वीपर माता पिताके दर्शन कराता है ।"
" महाकल्पके पीछे फिर संसारमें आने है। परिमित है । जीव अनंत सुख नहीं भोग सक्ते ।"
1
२६२ पृष्ठ )
" जीव अल्पज्ञ है ।" "परमेश्वर के आधार मे मुक्तिके आनंदको जीवात्मा, भोगता है । मुक्ति में आत्मा निर्मल होनेसे पूर्ण ज्ञानी होकर उसको सर्व सन्निहित पदार्थों का ज्ञान यथावत् होता है ।" ( २६७ पृष्ठ ) नोट - जैन दर्शनकी मान्यता है कि जीव स्वभावसे परमात्मारूप है । कर्मबन्ध छूटने के पीछे यह स्वयं परमात्मा होजाता है । मुक्त होनेपर विना कारणके अशुद्ध नहीं होता है ।
( २५५ पृष्ठ )
जीवकी सामर्थ्य
(२५६ पृष्ठ)
ईसाई मत ।
शिष्य - यह तो बताये कि ईसाई मतसे भी जैन दर्शनकी कुछ बातें मिलती हैं ?
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२८२]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा । शिक्षक-ईसाई मतकी न्यू टेस्टामेन्ट New Testamentका मैंने पढ़ा है जिसको सन् १९१६ मे British Foreign bible society 146 Queen Victoria stront Loudou ने प्रकाश किया है। इसमे बहुतसे वाक्योंमे यह सिद्ध होता है कि यह जीव स्वयं परमात्मापनेकी शक्ति रखना है तथा यह स्वय अपने पुरुषार्थसे पूर्ण परमात्मा बन सक्ता है। यह बात जैन सिद्धातसे मिलती है। इसको सूचित करनेवाले जो वाइविलमे ईमाई साधुओंके वाक्य है वे नीचे दिये जाने हे
(१) सेन्ट मैथ्य ( St M.ither) अध्याय सातवेंमें कहते है
7--Ask, and it shall be given you, sech, and ye shall find, knock, and it shall be opened unto you
8-For Every man that asketh receneth, and he that seeketh findeth, and to him thal Knocheth it shall be opened
भा०-इच्छा करो और तुम प्राप्त कर लोगे। खोजो और तुमको मिल जायगा । खटखटाओ और तुम्हारे लिये दरवाजा खुल जायगा क्योंकि जो चाहता हे वह पासक्ता है, जो खोजता है वह लेसक्ता है । जो खटखटायगा उसके लिये द्वार खुल जायगा। इसका भाव यही है कि मुक्ति तुम्हारे ही पास है, जो खोजता है वह पाता है। और अध्याय १९ उन्नीसवेमे भी कहा है।
16-And behold, one came & said unto him, Good Master, What good thing shall I do, that I may have cternal life
18-He said unto him which Jesus said "hon shalt do no murder, thou shall not commit adultory, thou shalt not steal, thou shalt not bear false fitness 19 Honour thy father & th mother and thou shalt
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जैनधर्म और हिंदू दर्शन |
[ २८३
said unto him, If thou wilt be perfect, g, and sell that thou hast" and give to the poor and thou shalt have treasure in heaven and come and follow me,
भावार्थ और देखो, एक मानव आया और उनसे कहने लगाअविनाशी जीवन पानेके लिये मैं क्या करूँ ! तव जो कुछ इसाने कहाथा वह उसने कहा । (१) हिसा न करो, (२) व्यभिचार न करो, (३) चोरी न करो, (३) झूठी गवाही न दो, (५) अपने माता-पिता का सन्मान करो, (६) अपने पडोसीको अपने समान समझकर प्यार करो । इसने उसको कहा था कि यदि तुम पूर्ण होना चाहते हो तो जाओ, जो कुछ तुम्हारे पास है उसको बेचडालो, गरीबों को देदो, तुम्हें मुक्ति में भंडार प्राप्त होगा । आओ और मेरे साथ चलो ।
T
(२) सेन्ट मार्क St. mark ने कहा-
-
अध्याय १०
17. What shall I do that I may inherit eternal life. 18. and Jesus said unto hin, why callest thou me good, there is none good but one God. 19. Thou knowest the commandments. Dont commit adaltory, dont kill, dont steal
2
भावार्थ - अविनाशी जीवनके लिये मैं क्या करू ? तब ईसाने कहा कि तू मुझे क्यो उत्तम कहता है ? परमात्मा के सिवाय कोई श्रेष्ठ नहीं है। तू आज्ञाओं को जानता ही है कि व्यभिचार न करो, हिंसा न करो, चोरी न करो ।
(१) सेन्ट ल्यूक St. Luke ने कहा है-
Ch. 35 - Take heed therefore that the light which is in thee be not darkness ch. 12-29. And seek not ye what ye shall eat and what ye shall drink, neither be ye of doubtful mind.
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२८४]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा । भा०-खयाल रक्खो कि जो प्रकाश तुम्हारे भीतर है उसमे अन्धकार न आने पावे (अज्ञानको न होने दो) खानेपीनेकी चिंता न करो, न मनमें कोई शंका रक्खो।
31 But rather seek ye the kingdon of God, and all these things shall be added unto you
किन्तु तुम मात्र परमात्माके राज्य या प्रातिक स्वतंत्रताकी खोज करो अन्य वस्तुएं अपने आप प्राप्त होजायगी ।
Ch 17-21-Neither shall they say, lo here and lo there, for behold, the kingdom of God is within you,
भा०-वे यह न कहेंगे कि इधर देखो या उधर देखो क्योंकि देखो, परमात्माका राज्य तुम्हारे भीतर ही है ।
(४) सेन्ट जान St John ने कहा हैCh 3-15-That whatsoever believeth in him should not perish but have eternal life Ch 4-14--But whatsoever drinketh of the nater that I shall give him shall nerer thirst, but the water that I shall give him shall be in him a well of water springing up into ever-lasting life 21 God is a spirit and they that worship lum must worship him in spirit and in truth Ch 6-27 Labour not for the meat which perisheth, but for that meat which endureth unto everlasting life Ch 8-32 and ye shall know the truth and the truth shall make you free Ch 10-30 I and my father are one
Ch 14--6 Jesus said unto him, I am the way, the truth and the life 10 Believest thou not that I am in the faith and the father in me
भावार्थ-जो कोई उसका ( परमात्म स्वरूप आत्माका) विश्वास करता है वह नष्ट न होगा किंतु अविनाशी जीवन प्राप्त करेगा । जो कोई उस जल (आत्मानंदरूपी जल)को पीएगा, जो मैं
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जैनधर्म और हिंदू दर्शन |
[ २८५
वे
उसको अपनी
परिश्रम न करो
उसको दूंगा, सदा के लिये प्याससे मुक्त होजायगा । किंतु वह मेरा दिया हुआ जल उसके भीतर नित्य जीवनके लिये एक जलका श्रांत होजाएगा ( सदा ही आनंद लाभ करेगा ) परमात्मा आत्मा एक समान हैं । जो उस परमात्माकी भक्ति करें आत्मामे और सत्यमें करे । उस आहारके लिये जो नष्ट हो जायगा किंतु ऐसे आहार ( आत्मानंद ) के लिए मिहनत करो जो नित्य जीवन में बना रहेगा। तुम सत्यको जब पहचानोगे तब सत्य तुम्धीन कर देगा । मैं और मेरे पिता परमात्मा एक समान है । ईसाने उससे कहा- मैं ही मार्ग हूं, सत्य हूं, हूं, क्या तू विश्वास नहीं करता है कि मै श्रद्धामे हूं और परमात्मा पिता मेरे में है ।
जीव
(4) Cornithians-Ch, 3-16 Know ye not that ye are the temple of God and that the spirit of God dwelleth in you. 17. If any man defile the temple of God, him shall God destory, for the temple of God is holy which temple ye are. Ch 5-26-The last enemy that shall be destroyed is death. 50- Now this I say, brethren, that flesh and blood cannot inherit the kingdom of God. 51 -- Behold, we shall not all sleeps but we shall all be changed.
मा० - कोरनिथियंस कहते है, क्या तुम नहीं जानते हो कि तुम ही परमात्मा मन्दिर हो । परमात्मा रूप ही आत्मा तुम्हारेमें है । यदि कोई आदमी इस परमात्मा के मंदिरको अपवित्र करेगा तो उसे परमात्मा नष्ट कर देगा ( वह अपवित्र होजायगा ) क्योंकि परमात्माका मंदिर पवित्र होता है और तुम ही वह मंदिर हो ।
अंतिम शत्रु मौत है जिसे नष्ट करना होगा । ऐ भाइयो, मैं
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२८६ ]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा |
तुममे कहता हूं, मास व रक्त परमात्मा के राज्यको नहीं के सक्ते । वास्तवमे हम सब सोएंगे नहीं कितु बदल जावेगे ।
(6) Cornithians 11 Ch 217 dou the Lord is that spirit and where the spirit of the Lord is There is liberty, 18 But we all, with open face beholding as in a glass the glory of the Lord, are changed into the same image from glory to glory, even by the spirit of the Lord Ch 13-11 be perfect, be of good comfort, be of one mind, live in the peace and the God of love and peace shall be with you
भावाथ कोरनिथियंस ( २ ) कहते है,
परमात्मा वही वह आत्मा है जहा परमात्मा रूप आत्मा है, वहीं स्वाधीनता हे | कितु हम सब जब खुले हुए मुखमे दर्पणकी तरह परमात्माके ऐश्वर्यका दर्शन करते रहते है, उसी रूपमे बदल जाते है । परमात्मामई आत्माके द्वारा ज्योतिसे ज्योति रूप होजाते है- पूर्ण हो, उत्तम सुखी हो, एकाग्र हो, शातिमे रहो, प्रेम व शातिमई परमात्मा तुम्हारे साथ रहेगा ।
(7) Galatians Ch 5 - 21 - Envying, murder, drunkenness, etc that they which do such things shall not inherit the kingdom of God 5 For every mass shall bear his own burden गैलेशियन्स - कहते है । ईर्पा, हिसा, मद्यपानादि जो ऐमे । काम करते हे वे परमात्मा के राज्यको नहीं प्राप्त करसक्ते । क्योकि हरएक मानवको अपना ही भार स्वय सहना होगा ।
शिष्य इन पापोसे तो यही सिद्ध होता है कि आत्मध्यान ही मोक्षका उपाय है व अहिंसा ही धर्म है । यही बात जैन सिद्धातने बताई है, फिर ईसाइयोंका ध्यान इस तत्वपर क्यों नहीं है ?
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जैनधर्म और हिंदू दर्शन।
[ २८७ शिक्षक-जो ज्ञानी होगे उनका ध्यान होसक्ता है परन्तु इनका विस्तारसे कथन नहीं है। जैनसिद्धात विस्तारमे बताता है। जैन सिद्धांतके जाननेसे इन वाइबिलके वाक्योंका यथार्थ अर्थ समझमे आएगा।
शिप्य-अहिसा व मांसाहार त्यागके सम्बन्धमें कुछ बाईबलके वाक्य बताइये।
शिक्षक-मुनिये(1) St Vathcu ch 7--12 Therefore all things whatsoever ye vould that man should do to you, do you even so to them, for this is the law of the prophets
भा०-सेंट मैथू कहते हैं-इस लिये जो कुछ चाहते है कि मानव तुम्हारे साथ करें तुम्हे भी उनके साथ ऐसा ही वर्ताव करना चाहिये। क्योंकि यह महान पुरुषोंका नियम है।।
(2) Romans ch 14--20 For meat destroy not the work of God. All things indeed are pure; but it is evil for that man who eateth with offence 21. It is good neither to eat flesh, nor to drink winc, nor anything whereby thy brother stumbleth or is offended or is made werk"
भावार्थ-रोमन्स कहते है-मांसके लिये परमात्माके कामको मत विगाडो । सब वस्तुएं वास्तवमे पवित्र है । यह पाप है जो आपको हानि पहुंचाकर भोजन का है। यही उत्तम है कि कभी मांस मत खाओ, मदिरा न पिओ, न ऐसी चीज खाओ जिससे तेरा भाई दुःखी हो या निर्बल हो।
(3) Heberws ch. 9-12 Neither by the blood of goats and calves, but by his own blocd he entered alonce into the holy place, having obtaind holy icdemption. Ch, 10-4. Por it is not possible that the blood of bull and of goats should take away sins,
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२८८]
विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा । भावार्थ-हेबरयू कहते है- बकरों व बछडोंके रक्तसे नहीं कितु अपने ही परिश्रमसे पवित्र स्थानमे वह गया है। पवित्र मुक्तिको उसने प्राप्ति कर लिया है । क्योकि यह संभव नहीं है कि बैलों और बकरोंका रुधिर पापोंको धोसकेगा।
(4) James ch 2-II For he that said-do not commit adultory, said also-donot hill Now if thou commit no adultory, yet if thou kill, thou art become a transgrassor of the las: 26 For as the body without the spint is dead, so faith without work is dead also
भावार्थ-जेम्स कहते है -उसने जैसे कहा है कि व्यभिचार न करो वैसे यह भी कहा है कि हिसा मत करो । जो कोई व्यभि___ चार न करे किंतु हिसा करे वह भी नियमका खण्डन करनेवाला
होगा। जिस तरह आत्माके विना शरीर मुरदा है, वैमे चारित्रके विना श्रद्धान मुरदा है।
शिष्य-गुरुजी ! तब तो यह जरूरी है कि ईसाई दुनियामे जैनधर्म फैलाया जावे । कर्तावाद तो वाइवलमे होगा ही।
शिक्षक-कर्तावाढ तो बहुत थोडे वाक्योंमे हे मुख्य नहीं है । मुख्य बात वाइबलकी यही है कि अपनेको शुद्धात्माके ध्यानसे शुद्ध करो, पवित्र करो, तथा अहिंसाको पालो, किसीको कष्ट देकर भोजनपान न करो। मास न खाओ, वास्तवमे जैनधर्मकी शिक्षाके प्रचारकी बहुत ही जरूरत है
पारसी धर्म। शिष्य-पारसियोंकी धर्मपुस्तकोंमे भी क्या कुछ समानता है ?
है
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।२८९
जैनधर्म और हिंद दर्शन
शिक्षक- मैंने यह पुस्तक इंग्रेजीमें देखी है
--
Gatha or finns » Atharva Zrthurashtra by J N. Chaterji M A and Ardishur N. Billimorna Cherag office Navsar. Surat 1933
इसमें यह बात सिद्ध होती है कि हरएक मानवको सुख, शांति नथा त्यागके लिये अपने आत्मामें तिष्ठनेका उद्यम करना चाहिये । तथा प्रेममई जीवन बिताना चाहिये । कुछ वाक्य बताये जाने है
Ch 33 Gatha y-let absolute conscience, 6 Mrzda, gue me that spirit, viz, Truth which is the ideal of all ideals for my guidance and for the attaniment of vatitude 7 hereby I shall acheive realisition which way the soul inclines
Ch 33 G 10-On a/c of conscience, give us nonchallence, reclitude and Higher Soul.
Cn. 34 G 4-Now we would with sectitude adore you Fire, Ahura, which is resplendent, purest, strong. everdelightful and wonderfully beneficent.
Ch 34 G 6-O Mazda, teach me the mark of the perfect Ideal of life, so that with prayers and hymns for you I can proceed on the way to self rcalizuuion
भावार्थ-ऐ परमात्मा ! मेरी अन्तरंग विवेक बुद्धि मुझे वह सत्य बतावे जो मेरी रक्षार्थ व शांतिके लाभार्थ सर्व सिद्धांतोंमें उत्तम सिद्धांत है। इसीसे मैं आत्माको इष्ट जो स्वानुभव है, उसे प्राप्त करूंगा । विवेक बुद्धिके प्रतापसे हमें त्यागभाव, गांति व उच्चतर आत्माका भाव प्रदान कर । अब हम शांतिसे तुम्हारी अग्नि
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२९० ]
विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा -
परम
( आत्मध्यानकी आग ) भेजें। यह अनि ज्योनिमय है. पवित्र है, बलिष्ट है, मद्रा ही आनंदमय है और अश्चर्यक लाभकारी है ।
हे परमात्मा ! जीवन के पूर्ण सिद्वातका चिह्न मुझे बता जिनमें मैं तेरा भजन करता हुआ स्वात्मानुभवको प्राप्त कर मक ।
Ch. 48 G. 3 - Let me nor learn the best of all le30073, hat which is the secret wisdom and the which for the sik→ of Rectitude the holy wise beneficient hun teaches by he deed of conscience one becomes like you, O Maria.
भा०-मव पाठोंसे उत्तम उपदेश अ मुझे मीखना चाहिये । यही गुप्त ज्ञान है । इसीको अहरा पवित्र, ज्ञानमय, लाभदायक गातिके लिये सिखाता है कि विवेक से ही हरएक तेरे समान होजाता
है | ऐ परमात्मा !
शिप्य -यहां भी सुखगातिका मार्ग स्वानुभवको ही बनाया है । कृपाकर यह बताइये कि अहिंसा और मामाहार त्यागके भी कुछ वाक्य पारसियोंकी धर्म पुस्तक में है ।
शिक्षक - सुनिये, कुछ वाक्य बताता हूं।
Z3rtusht—Namah P. 495 - He will not be acceptable to God who shall thus kill any animal Angel Asfundarmad says "O holy man, such is the commsnd of God that the fice of the earth be kept clean from blood, filth and carmor. Angel Amardad says about Vegetable "It is not right to destroy it u-lessly or to remove it without purpose.'
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जैनधर्म और हिंदु दर्शन।
[२९१ __ भावार्थ-इस तरह जो कोई किसी पशुको मारेगा उसको परमात्मा स्वीकार नहीं करेगा। पैगम्बर ऐस्कन्दरमढ़ने कहा है-ए पवित्र मानव ! परमात्माकी यह आज्ञा है कि पृथ्वीका मुख रुधिर, मैल तथा माससे पवित्र रक्खा जावे । अमरदाद पैगम्वर वनस्पतिके लिये कहा है कि इसे वृथा नष्ट करना न चाहिये. न वृथा हटाना चाहिये।
शिष्य-पासी धर्ममें भी अहिंमा व मांसाहार विरोधका सिद्धात जानकर बडा हर्ष हुआ। अब आप वह बताइये कि मुसलमानोंके कुरानमे जैन धर्मसे मिलती क्या २ बातें हैं।
मुसलिम धर्म। शिक्षक-मैंने कुरानका ढंग्रेजी उल्या पढा है जिस पुस्तकका नाम है
'The Koran translated from the Arctic by the Rev, Jom Roincil. M. A London 1924
उसमेंके कुछ वाक्य बताता हूं-,
(59) S. 38--follow not thy passisons, lest they cause thuc 10 err from the way of God.
भावार्थ-अपने क्रोधादि कषायोंको वश करो, नहीं तो तुम परमात्माके मार्गसे पतित होजाओगे।
(67) S, 27-If ye do well, to your own behalf will ye de well and if ye do cvil, against yourselves will ge do it Verily this Koran guided 10 what 18 most upright, and it announces to believers, who do the things that one right, that
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२९२]
विद्याथा जनधम शिक्षा । or them is a greit te card and foes the ho believe not in life to come, we have got rends a puntul punishment or )
भावार्थ-यदि तुम भलाई करोगे तो अपने ही लिये भलाई करोगे । यदि तुम बुग करोगे तो अपन हीर लिय वुग गंग। वास्तवमे यह कुनान बहुत ही भला मार्ग बताता है। यह कुरान श्रद्धालुओंको सूचित करता है कि जो भल काम करेंगे उनके लिये बड़ा इनाम मिलेगा परन्तु जो भावी जीवनका विश्वास न करेंगे उनको दु खपूर्ण ठण्ड मिलेगा।
Observe prayer and say -Truth is come and fil choco !s vanished
भक्ति प्रार्थना करो तब कहो कि सत्य आगया, असत्य नाश होगया।
(82)S 31-0 my son, obsene prayer and enjoin the night and forbid the trong, and be palieni under whatesco shall betade thee, for this is a bouned duis Ana distort not thy face at men, nor walk there loftils on the earth, for God loseth no arrogant Vap-glonous one.
__ भावार्थ-ऐ मेरे पुत्र ! प्रार्थना पढ़ने रहो। भले काम करो. बुरोंमे बचो । जो दया हो उसमे सन्तोष मानो ! यही नियमित कर्तव्य है। मानवोंपर घमंड मुखमे न देखो, न पृथ्वीपर ऊंचा मुख करके चलो, क्योंकि परमात्मा घमण्डी आदमीको प्यार नहीं करता है।
(86) S 35-And who ever shall keep himself pure, he purifieth himself to his own behalf, for anto God shall be the final gathering (ro-20) Tenly they who recite the book of
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जैनधर्म और हिंदू दर्शन ।
[ २९३
God and observe prayer and give alms in public and in private from what we have bestowed upon them, may hope for a merchandize that shall not perish ( 20-30 ) .
भा० - जो कोई अपनेको पवित्र रखेगा वह अपने ही को पवित्र करता है । परमात्मा के पास अंतिम सबको एकत्र होना होगा। वास्तव में जो परमात्मा की पुस्तक पढ़ेंगे, प्रार्थना करेंगे व जो कुछ हमने उनको दिया है, उसमेंमे सर्व साधारणको व गुप्त रीतिसे दान करेंगे उनको ऐसा सौदा मिलेगा जो कभी नष्ट नहीं होगा ।
(6) )S 6 – May Lord embraceth all things in knowledge भावार्थ- परमात्मा सर्व बातोंको जाननेवाला है ।
1713 ( S 6 ) - Those who turn to God, and those who serve, who praise, who fast, who bow down, who protect themselves, who enjoin what is just and forbid what is evil and keep to the bounds of God-wherfore bear these good traings to the faithful (110)
भावार्थ - जो परमात्मा परभक्तियुक्त है, जो सेवाधर्म पालते हे, जो स्तुति करते हैं, उपवास करते है, झुकते है व स्वयं दण्डवत करते हैं, जो कुछ न्याय हैं उसपर चलते हैं, बुराईका निषेध करते है, परमात्मा की मर्यादामें रहते हैं। ईमानदारोंको यही अच्छी खबर देना चाहिये ।
शिष्य- इससे यद्यपि गूढ आत्मध्यानका पाठ नहीं झलकता है तथा भक्तिमार्ग व शुभ काम करनेकी प्रेरणा मिलती है तथा जीवन
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२९४]
विद्यार्थी जनधर्म शिक्षा अमर प्रगट होता है । ऐमा भी भला काम है जिसमें जीवन पवित्र व अमर होजायगा । अच्छा, यह तो बनाइये कि अहिंसा व खानणन संबंध क्या वाक्य है ?
शिक्षक-मुनिये कुछ वाक्य बताता हूं--
other sud
.:(18) S. 90-Erjoin sterd fastress on each enjoin compassion on each other.
भावार्थ-हरएकके साथ चिन्ताले साथ बनाय कंग, हरएक पर दया रक्खो।
(24)s 80-Let msn look at his food : was re who ruined dorm the copions rans, ...and caused the upgrowth of grain, and grapes and healing herbs and the alive and the palm and enclosed gamiers tr ci rich trees, fruts dod herbage For the serice of yourselves and your calle (20-40)
भावार्थ-मानवको अपने भोजनपर ध्यान देना चाहिये । हमने बहुत पानी वाया। अनान. अंगूर औषधिय. खजूर आदि उगवाए । उनके चारों तरफ वृक्षोंमे. फलोंसे व वनम्पतिसे घने भंग हुए बाग लगवाए । तुम्हारी और तुम्हारे पशुओंकी सेवाके लिये ।
(54) S 50_And ne send doto the rain from heaven with its blessings, by which we cause gardens to spring forth and the grair of the barrest and the tal palm trees fith date barring brasches Ode over the other for man's touristneni
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जैनधर्म और हिंदु न ।
भा०-हमने आशीर्वाद के साथ पानी बर्साया है जिससे बाग फलें, अन्नकी फसल हो । लम्बे २ खजूरके वृक्ष खजूरोंसे भरे रहें। ये सब मानवके पोषणके लिये।
(55) S. 20-He h sth spread the earth as a bed and path traced out paths for you therein and hath sent down rains from heaven and by it we bring forth the kinds of various herbs - eat ye and feed your cattle.
भा०-उसने पृथ्वीको बिछानेके समान विछाया है । तुम्हारे लिये मार्गक चिह्न वताए है । पानी वाया है कि जिससे नाना प्रकारकी वनस्पति पैदा हो, तुम खाओ और अपने पशुओंको खिलाओ।
(94) S. 23-~-Eut of things that are good and do what is right
भा - जो अच्छे पदार्थ है उनको खाओ और जो कुछ , उत्तम काम है उनको करो।
(67) S. 17-Neither shy any one whom God hath forbi dden you to obey unless for " just cause
भावार्थ-जिनको मैंने वध करनेसे मना किया है उनको मत मारो, सिवाय किसी न्याययुक्त कामके लिये ।
(107) S 22-By no means can this flesh reach unto d, neither their blow; but peity on your part reacheth them.
भावार्थ-किसी भी तरह बलि किये हुए ऊंटोंका मांस पर
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विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा । मात्माके न पहुंचता है न उनका रुधिर, परन्तु जो कुछ धर्म पालने हो वही वहां पहुंचता है।
शिप्य-इनमे तो फलादि खानेकी आज्ञापं कही है, इनपर मानवोंको चलना चाहिये। ___ 'शिक्षक-ठीक है, जगतके मानव किसी कारणसे अपनी आढने जैसी बना लेते है वैसा चलने हे । मानवका खाद्य आजकल सागादि ही है। अब मैंने कुछ धर्मका विवेचन तुम्हारे हितके लिये किया है, उनपर नित्य मनन करो। और यह उपदेश लाभकारी हो तो दूसरोंको भी इसका लाभ देओ।
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