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जैन और बौद्ध धर्म ।
[२२९ सुत्तनिपात कप्पमानवपुक्खामें कहा हैंअकिंचनं अनादानं एतं दीपं अनापरं । निव्यानं इति तम् ब्रूमि जरा मिच्चु परिक्खयम् ॥
भा.-मैं उसे निर्वाण कहता हूं जो एक अनुपम द्वीप है। जहा न कुछ परपदार्थ है, न कुछ इच्छा ही है, जहा न जरा है, न मरण है।
इन वाक्योंसे सिद्ध है कि निर्वाण अस्ति रूप है। कोई वहां ऐसा है जो जन्मा नहीं है न मरेगा व जो अनुभवगम्य है व आनंदमय है। इससे यही मतलब निकलता है कि वह एक परमात्म पद है, आत्माका स्वाभाविक भाव है । सर्व संस्कारोंके छूट जानेपर जो कुछ शेष रह जाता है वही मोक्ष है । जो गुप्त था, बह प्रकाश होजाता है। ऐसा ही स्वरूप जैनाचार्योंने मोक्षका बतलाया है।
श्री समन्तभद्राचार्य रत्नकरंडमें कहते हैशिवमजरमरुजमक्षयमव्यावाधं विशोकभयशंकं । काष्ठागतसुखविद्याविभवं विमलं भजति दर्शनपूताः ॥४०॥
भा०-निर्मल सम्यक्ती जीव ऐसे निर्वाणको पाते है जो शिव है, अजर है, रोग रहित है, अक्षय है, अव्याबाध है, शोक, भय व शंकासे शन्य है, उत्कृष्ट सुख व ज्ञानकी विभृति सहित है व निर्मल है।
(२) आत्माका स्वरूप
निर्वाणका ऐसा स्वरूप मानते हुए यह स्वतः सिद्ध है कि आत्माका अस्तित्व माना गया है। जबतक कोई पदार्थ न होगा निर्वाण किसको होगा। मज्झिम निकायके प्रथम सूत्र मूल परि