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जैनोंके भेद |
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धर्मम अपनी सम्मति न मिले उसपर माध्यस्थ भाव या रागद्वेष रहित भाव रखना चाहिये क्योंकि अल्पज्ञानवालोंकी बुद्धि सब ही विषयों में एकसी नहीं होती है । नाना अपेक्षाओंसे भिन्नर विचार किये जासक्ते है । इसीलिये श्री अमितगति महाराजने तथा श्री उमास्वामी महाराजने चार भावनाओको रखनेकी आज्ञा दी है। जिनसे सम्मति न मिले उनपर मयस्थ रखनेकी आज्ञा है, द्वेष भाव करनेकी नहीं है | देखिये कहा है -
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सत्त्रेषु मैत्रीं गुणिषु प्रमोदम्, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव ॥ १ ॥ अर्थात- हे भगवन | मेरा भ्रात्मा सर्व प्राणी मात्रपर मैत्रीभाव रखे, गुणवानोंपर प्रमोद भाव रक्खे, दु.खी जीवों पर दया रक्वे व विपरीत स्वभाववालों पर माध्यस्थ भाव रक्खे |
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शिष्य - मुझे आपके द्वारा बहुत ही लाभ हुआ है । मैं आपको कहांतक धन्यवाद दूं । अव कृपाकर यह बताइये कि जैनधर्म और बौद्ध धर्ममें क्या साम्यता है व क्या अंतर है ? बौद्धोंकी संख्या संसार में बहुत है तथा वे प्रसिद्ध भी बहुत है ।