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विधा निर्म भिका। न माननेसे अवश्य कुछ कठिनता होगी तथा देवभक्तिमे जो आत्मध्यान होकर सुखशाति मिरती है उस लाभसे उनको वंचित सहना पड़ेगा।
शिष्य-यदि ऐसे लोग मात्र गुणानुवाद गावें तो क्या भाव 'निर्मल न होगा?
शिक्षक-अवश्य भाव निर्मल होगा परन्तुध्यानमय मूर्तिके द्वारा जो चित्रकी एकाग्रतामें सहायता मिलती उसकी कमी अवश्य रहेगी।
शिष्य-तो ऐसे फिरकेवाले मूर्ति स्थापनका प्रचार क्यों नहीं करते हैं ?
शिक्षक-जगतका ऐसा नियम है कि चली आई प्रथाको बदलना बडा दुर्लभ काम है । यदि कोई इतना प्रबल सुधारक हो जो अपना असर उस फिरकेके भाई बहनोंपर पूरे तौरसे कर सके 'तम ही एक प्रथा बदलकर दूसरी चल सक्ती है अन्यथा नहीं। उस फिरकेवालोंमें जो यथार्थ विचार करनेवाले है वह अवश्य वीर पूजाके (Hexo worship) समान मूर्तिपूजाको समझते है परन्तु पिछली प्रथाको बदलना कठिन होता है । तथापि हमको उन लोगोंके साथ एकता ब प्रेम रखनेमे कोई कमी न करनी चाहिये। उनका भी असली भाव वही है जो हमारा है कि आत्मध्यानसे आत्माको लाभ होगा, सुखशांति मिलेगी, आत्मोन्नति होगी। तब उसके साधनोंमें यदि हम तीन साधन बताते है व वे दो ही बताते है इतनेसे बाहरी फर्कके कारण जैनत्वके नातेसे अप्रेम न करना चाहिये। जो विशेष ज्ञानी हैं उनके विचारों में अवश्य एकता होसक्ती है। विशेष ज्ञानी सब जैनी परस्पर एक भावपर पहुंच सक्ते है। भिन्नर फिरकोंके भाई यदि