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________________ तत्वज्ञानका साधन । [७१ कपड़ेसे अलग है. इसको दूर किया जासक्ता है। तब हम मसाला लेकर कपडेको घोडालेंगे। यदि हम एक ही दृष्टि से देखें तो कपड़ा कभी साफ नहीं होसक्ता है। यदि हम मैले कपड़ेको मैला ही देखें या हम उसे सफेद ही देखें तब हम कभी उसे साफ नहीं कर सक्ते है। इसीतरह हम आत्माको निश्चयनयसे शुद्ध व व्यवहारनयसे कर्म मैलसे मिला अशुद्ध जानेंगे तब ही यह बुद्धि हमारेमें पैदा होगी कि हम इस कर्म मैलको जो अशुद्ध है दूर कर सक्ते है। एक मिट्टीका घड़ा हमारे सामने है यह निश्चयनयसे पुद्गल द्रव्य है, व्यवहारसे मिट्टीका घडा है। एक वृक्षको हम व्यवहारनयसे वृक्ष कहते है, निश्चयनयसे देखेंगे तो उस वृक्षमें जितना पुद्गल है उसको पुद्गल देखेंगे । और उसके सिवाय जो शुद्ध जीव है उसे शुद्ध जीव देखेंगे। इन दोनों नयोंसे जाननेकी रीति ही हमारे मोहको या रागद्वेषको घटा सक्ती है। हमारे कुटुम्बमें स्त्री पुत्रादि है। हम व्यवहारनयसे उनको शरीरसे हमारा सम्बन्ध होनेके कारणसे स्त्री, पुत्रादि कहेंगे परन्तु निश्चयनयसे वे सब हमे जीव और पुद्गल दो रूप दिखलाई पड़ेंगे। उनमे चेतनालक्षणधारी जीव अलग एक शुद्ध स्वभावमें दीख पडेगा। शेप स्थूल व सूक्ष्म शरीर सब पुद्गल दीख पड़ेगा। हम स्त्री पुत्रादिको व्यवहार में ऐसा कहते हुए भी यह जानेंगे कि ये मूलमें हमारे स्त्री पुत्रादि नहीं है। ये तो सब शुद्ध आत्मा है। जैसा निश्चयनयसे मेरा आत्मा शुद्ध है वैसा इनका आत्मा शुद्ध है। हम सब एकरूप है, यह ज्ञान हमारे भीतर समताभाव पैदा कर देगा, रागद्वेषको मिटा देगा। निश्चयनयसे देखते हुए जगतमें न कोई मित्र या बंध दिखलाई पड़ेगा और न कोई शत्रु दीख
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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