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________________ २७८ ] विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा मुक्त होजाता है | मुक्त होनेपर परब्रह्म के साथ मिल्ता नहीं है । यद्यपि उसके गुण ब्रह्मके समान होजाते है । लिखा है एवं गुणा समाना स्युर्मुक्तानामीश्वरस्य च सर्वकर्तृत्वमेवैकं देवे विशिप्यते - जगढ़ व्यापारवर्जनम् (सूत्र ४-४-१७ ) भा०- मुक्त पुरुषोंके गुण मव ईश्वर के समान होजाने है । परन्तु सर्वका कर्तापना गुण ईश्वर में ही रहता है, यही विशेषता है । मुक्तात्माओंका सम्बंध जगत्के व्यापार में नहीं रहता है | नोट - जैनदर्शन यही शंका करता है कि शुद्धब्रह्म जड व अशुद्ध जीवोंका उपादान कर्ता किस तरह होगा ? तथा निर्विकार ब्रह्ममे कर्तापने का भाव भी कैसे होगा ? विद्वानोंके लिये विचारणीय है । ( ६-३ ) शुद्धाद्वैत— इस दर्शनके प्रधान आचार्य श्री वल्लभाचार्य होगए हैं । इस दर्शन ब्रह्मका स्वरूप माया रहित माना है । " “ मायासंबन्धरहितं शुद्धमित्युच्यते बुधः । कार्यकारणरूपं हि शुद्ध न मायिकम् ।" भा०-मायाके सम्बन्घसे रहित शुद्ध ज्ञाता ब्रह्म कहाता है । वह शुद्ध ब्रह्म कार्यकारण रूप है । परन्तु माया सहित नहीं है । यह दर्शन दृश्य जगतको ब्रह्मका कार्य मानकर उसे भी शुद्ध त्र ही मानता है । यह जगत ईश्वरकी लीला है । जीवोंको यह ब्रह्मका अंग मानते है, जैसे सोनेके रज | जीन नित्य है और अणुरूप ब्रह्मका अंश है । सर्व दृध्य और अदृश्य जगतको शुद्ध ब्रह्म समझकर भक्ति द्वारा आत्म समर्पण करनेसे जीवकी मुक्ति होजाती है । •
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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