SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 262
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४२] विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। नहीं आती है। इसलिये जो मांस ग्वाएगा उसको अवश्य हिसाका दोष आयगा। य दे कोई कहे कि स्वयं मरे हुए बैल व भैस आदिका मास खाया जावे तौभी उचित नहीं है क्योंकि उस मासमे पैदा होनेवाले अनेक कीटोंका घात करना पडेगा। मासकी दली चाहे कच्ची हो या पकी हो या पक रही हो, उसमें हरसमय उसी पशुकी जातिके जंतु पैदा होते रहते है जिसका वह मास है। इसलिये जो कोई ऐसे मामको भी खाता है व उसका स्पर्श करता है वह करोडों जंतुओकी हिंसा करता है जो उसमे निरंतर पैदा होकर एकत्र हुए है। ___ अन्नादि फलादि स्वयं वृक्षोंसे फलने है, ये ही मानवोंका खाद्य होना चाहिये। गोवंश प्रचुर दूध देता है, दूध भी खाद्य होसक्ता है। दूधके लेनेमे पशुका धान नहीं करना पड़ता है। जैसे अपनी माताका दूध पीना है वैसे गो भैसका दूध पीना है। गो भैसको घास दाना देकर पालना, उनके बच्चोंकी रक्षा करना फिर जो विशेप दूध मिले सो मानवजाति काममे लेसक्ती है। मासाहार प्रकृति विरुद्ध है, रोगोंको उत्पन्न करनेवाला है, शरीरको पुष्टि देनेवाला भी नहीं है। अन्नादि मिलते हुए मास लेना वृथा ही पशुधातको करानेका मार्ग चलाना है। जैसे मानवोंको अपने प्राण प्यारे है वैसे पशुओको भी अपने प्राण प्यारे है। शिष्य-बौद्धोंमे तो बडे बडे विद्वान साधु है वे क्या इतना भी नहीं समझते है कि मास हार पशु घातका कारण है फिर वे इसके त्यागका उपदेश क्यों नहीं करने हे ?
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy