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विद्यार्थी जैनधर्म शित। (६) कायक्लेश--शरीरके मुखियापन मेटनेको कटिन २ स्थानोंपर तप करना।
छ: अंतरंग तप है (१) प्रायश्चित्त -प्रमादमे लगे हुए दोपोंका दंड गुरुसे लेकर शुद्धि करना । यह ठंड नौ प्रकारसे होता है-- (१) आलोचना-गुरुसे अपने दोपको कह देना । (२) प्रतिक्रमणमेरे दोष मिथ्या हों ऐसी भावना करनी । (३) तदुभय- पहली दोनों बातोंको करना। (४) विवेक-किसी अनुपान रस आदिका त्याग देना । (५) कायोत्सर्ग-नौ णमोकार मंत्रको सत्ताईस श्वासमे पढना ऐसे कायोत्सर्गोका दंड । (६) तप-उपवासादि । (७) छेद-दीक्षाके दिन कम करके दर्जा घटा देना। (८) परिहार--कुछ कालके लिये संघसे दूर रखना । (९) उपस्थापन-फिरसे दीक्षा देना। __ (२) विनय-चार प्रकार- (१) ज्ञानकी विनय, (२) सम्यक्दर्शनकी विनय, (३) चारित्रकी विनय, (४) उपचार या व्यवहार विनय-दंडवत् प्रणाम आदि, (३) वैय्यात्य--दश प्रकारके साधुओंकी सेवा करना, (१) आचार्य, (२) उपाध्याय. (३) तपस्वी, (४) शैक्ष-नए दीक्षित साधु, (५) ग्लान-रागी, (६) गण--एक परिपाटीके (७) कुल एक दीक्षादाता आचार्यके शिष्य, (८) मंघ--मुनि समूह, (९) साधु-दीर्घकालका दीक्षित, (१०) मनोज्ञ--लोकप्रसिद्ध । (४) -स्वाध्याय-इसके पाच भेद है-(१) वाचना, (२) प्रच्छना- पूछना, (३) अनुप्रेक्षा--बारवार चिन्तवन करना, (४) आम्नाय-शुद्ध पाठ व अर्थ कंठस्थ करना, (५) धर्मोपदेश। (५) व्युत्सर्ग--दो प्रकार--(१) बाह्य उपधि व्युत्सर्ग--बाहरी धन धान्यादि परिग्रहका त्याग। (२) अभ्यंतर उपधि व्युत्सर्ग--अंतरंगके क्रोधादि परिग्रहका त्याग । (६)