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आस्रव और बंध तत्व।
[१४९ (१३) प्रवचन भक्ति-जिनशास्त्रोंके पठन पाठनका विशेष अनुराग रखना।
(१४) आवश्यकापरिहाणि-नित्यके छः कर्मोको न छोड़नारोज पालना। साधुके छ. कर्म है-सामायिक, वंदना, स्तुति, प्रतिक्रमण (पिछला दोप हटाना), प्रत्याख्यान ( आगामी दोष न करनेकी प्रतिज्ञा), कायोत्सर्ग (ध्यान ) । गृहस्थके छः कर्म है:देवपूजा, गुरुभक्ति, स्वाध्याय, संयम, तप ( सामायिक ) तथा दान।
(१५) मार्ग प्रभावना--ज्ञानप्रचार, विशेष तप, जिनपूजा, आदिके द्वारा धर्मका प्रकाश करके प्रभाव जमाना ।
(१६) प्रवचन वत्सलत्व-धर्मात्माओंके प्रति गौवत्सके समान प्रेम रखना।
(१३) नीच गोत्रके वन्धके विशेष भावः
(१) परनिंदा-परके दोष कहनेकी इच्छा करना, (२) आत्म प्रशंसा-अपने गुणोंकी- प्रशंसा करना, (३) परसद्गुणोच्छादनदुसरोंमें पाए जानेवाले गुणोंको छिपाना, (४) आत्मअसद्गुणोद्भावन--अपनेमें न होते हुए गुणोंका प्रकाश करना-शेखी मारना।
(१४) ऊंच गोत्रके बंधके विशेष भाव-(१) आत्मनिन्दा, (२) पर प्रशंसा, (३) आत्म सद्गुणोच्छादन--अपने गुणोंका ढकना, (४) पर सद्गुणोदभावन-दूसरेके गुणोंको प्रगट करना, (५) नीचेदृत्ति-विनयसे वर्ताव करना, (६) अनुत्सेक-विद्या, धन
आदिमें महान होनेपर भी अहंकार न करना । (१५) अन्तराय कर्मके बंधके विशेष भाव