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________________ minni ३२) विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा । . भर करके मस्तक झुकावें तो वह सब भक्ति व गुणानुवाद महावीर भगवानका ही समझा जायगा और उस भक्तके मनके भीतर यही असर पैदा होगा कि मुझे भी कुछ गुण श्री महावीर भगवानके समान अपनेमे जगाना चाहिये । यहतो आप जानते है कि महावीर भगवान गौतमवुद्धके समकालीन जैनियोंके चौवीस व अंतिम तीर्थंकर या महान धर्मप्रचारक थे और उन्होंने आत्मध्यानसे आत्माको पवित्र किया था, परमात्म पद पाया था। जैन लोग उनकी ध्यानमय मर्ति उसी आदर्शकी बनाते है जब वे अर्हत पदमे जीवन्मुक्त परमात्मा थे। उस समय उनका आत्मध्यान व आत्मामे एकाग्रता भाव. नमुनेदार होता है। वास्तवमे ध्यानमय मूर्ति द्वारा दोन, भजन, मनन या पूजन आत्मध्यान जगानेका व बनानेका एक प्रबल साधन है। और यह साधन वहा तक आवश्यक है जहातक ध्यानकी पूरी मिद्धि न होजावे जैसे-चित्र खींचनेवालेको सामने चित्रको बारबार देखते रहनेकी उस समय तक जरूरत है जहातक चित्र पूरा न खिच जावे। शिष्य-आपने बहुत अच्छा समझा दिया कि वैराग्यमई ध्यानका चित्र आत्मध्यानमे सहायक है । परन्तु यदि कोई मूतिका सम्बन्ध न करें तो क्या उसको ध्यानकी सिद्धि न होगी ? शिक्षक-प्रिय भाई ! मुख्य बात तो यह है कि हमारा मन आत्माके स्वरूपमे एकाग्र होजावे । यह बात सेबेरे या शाम थोड़ी देर अभ्यास करनेसे पैदा होगी। इस अभ्यासमे दूसरी तीनों बातें सहकारी हैं, इन्हींमे मूर्ति द्वारा पूज्यकी भक्ति भी है । यदि किसीको विना मूर्ति देखे,व मूर्तिद्वारा भक्ति किये ध्यान सिद्ध होजावे तो कोई बाधा नहीं है परन्तु गृहस्थोंका ध्यान बहुत कम देर होसक्ता है
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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