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________________ - भगवद्गीता और जैनधर्म। [२४५ অহ ঞ্জাম্বত্ম। भगवद्गीता और जैनधर्म । शिक्षक-श्रीमद् भगवद्गीता हिन्दु धर्म माननेवालों का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है । गीता प्रेस गोरखपुरसे मुद्रित सटीक पुस्तकको पढ़कर जहां २ जैन धर्मसे साम्यता है व जहां २ नहीं है सो आपके जाननेके लिये कुछ बताता हूं। जैनसिद्धांतका यह रहस्य है कि वह जीव, पुद्गल, धर्म, अर्म, आकाश, काल इन छः द्रव्योंको सत् मानता है, इन्हींका समुदाय यह जगत् भी सत् है । सत् उसे ही कहते हैं जिसमें एक साथ उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य हों; द्रव्य व गुणोंकी अपेक्षा ध्रौव्य व पर्यायोंके पलटनेकी अपेक्षा उत्पाद व्यय होते है। इसलिये यह जगत् नित्य अनित्य उभयरूप है। जीव कर्म पुगलोंके अनादि संयोगसे संसारमें भ्रमण कर रहा है। यह जीव अज्ञानसे अपने स्वरूपको भूले हुए मिश्रित पर्यायको अपनी ही पर्याय मानकर संसारमें आसक्त होरहा है। जब यह जीव इस मिथ्या बुद्धिको त्यागता है और अपनेको पहचानता है कि मैं कर्मपदलोंसे भिन्न एक शुद्ध ज्ञाता दृष्टा वीतराग पदार्थ हूं-मेरा सच्चा सुख मेरे हीमें है। मैं स्वयं परमात्मा स्वरूप हूं तब इसकी आसक्ति संसासे दूर होजाती है और यह मोक्षका या अपने स्वरूपका प्रेमाल हो जाता है तब पूर्वकृत कर्मों के उदयके अनुसार यह जिस गतिमें रहता है अनासक्त हुआ रहता है। पाप व पुण्यका फल ज्ञातादृष्टा होकर भोगता है तब वे कर्म झड़ जाते है, नवीन बन्ध नहीं होते है।
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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