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________________ N जीव तत्व। [१०१ मोह, १२ -क्षीणमोह, १३--सयोगकेवली, १४--अयोगकेवली !* मानव जीवनकी उन्नतिकी तीन अवस्थाएं होती हैं--१--गृहस्थ, २. साधु, ३--अरहंत (पूज्य)। इन चौदह गुणस्थानों से पहलेसे लेकर देशविरत गुणस्थान तक अर्थात पांच गुणस्थान गृहोंके होते है। प्रमत्तविरत छठेसे लेकर क्षीणमोह बारहवें गुणस्थानतक सात गुणस्थान साधुओंके होते है। दो अंतके गुणस्थान अर्हतोंके होते है। इन गुणस्थानोंका सम्बन्ध मोहनीयकर्म तथा योगोंसे है। मोह और मन, वचन, कायके योग ही संसारके मूल है। जितना जितना मोहका असर घटता जाता है उतना उतना गुणस्थानका दरजा बढ़ता जाता है। जब ये दोनों मोह और योग बिलकुल नहीं रहते है तब आत्मा परमात्मा, मुक्त मा सिद्ध होजाता है । मोहनीय कर्म आठी कोंमें बडा ही बलवान है, इस कर्मके अट्ठाइस (२८) भेद समझनेकी जरूरत है, आप लिखलें। शिप्य-आप कहिये मै बराबर लिखता जारहा हूं। शिक्षक-मोहनीय कर्मके मूल दो भेद हे-(१) दर्शन मोहनीय जो आत्माके सम्यग्दर्शन गुणको या आत्म प्रतीतिको बिगाडे । (२) चारित्र मोहनीय जो आत्माके गांत भावको या वीतरागता रूप चारित्र गुणको विगाड़े। दर्शन मोहनीयके तीन भेद है-(१) मिथ्यात्व कर्म । जिसके *-मिध्याहक्सासनो मिश्रो संयतो देशसयतः । प्रमत्तइतरोऽपूर्वानिवृत्तिकरणों तथा ॥ १६ ॥ सूक्ष्मोपशातसंक्षीणकषाया योग्ययोगिनौ । गुणस्थानविकल्पाः स्युरितिसर्वे चतुर्दश ॥१७॥२॥त. सार । -
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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