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________________ जैन और बौद्ध धर्म । [२३७. त्रिकोटिशुद्ध मांस वै अकल्पितमयाचितं । अचोदितं च नास्ति तस्मान्मांस न भक्षयेत् ॥ १२ ॥ यथैव रागो मोक्षस्य अन्तरायकरो भवेत् । तथैव मांसमद्याद्य अन्तरायकरो भवेत् ॥ २०॥ भावार्थ-जिनेन्द्रोंने कहा है कि मदिरा, मास, प्याज हे महामुनि ! किसी बौद्धको न खाना चाहिये । लाभके लिये पशु मारा जाता है, मांसके लिये धन दिया जाता है। दोनों ही पापकर्मी है। नरकमें दु.ख पाते है। जो कोई दुर्वद्धि मुनिके वाक्यको उल्लंघन करके मांस खाता है वह शाक्य शासनमें दोनों लोकके नागके लिये दीक्षित साधु हुआ है, विना कल्पना किया हुआ व विना मागा हुआ व विना प्रेरणा किया हुआ मास हो नहीं सक्ता इसलिये मांस न खाना चाहिये। जैसे राग मोक्षमे विघ्नकारक है वैसे मांस मदिराका खाना भी अंतराय करनेवाला है। साधुओंके लिये इतनी सुगमता दे दी है कि वे ब्रह्मचारीके समान वस्त्र पीले आवश्यक रख सक्ते हैं, सान भी कर सक्ते हैं । निमंत्रणसे या भिक्षासे दो प्रकारसे दिनमें १२ बजेसे पहले भोजन कर लेते हैं। पीछे भोजन नहीं करते हैं, पानी आदि लेते है। ___ अंगुत्तरनिकाय निकनिपात के (१९) रथकार पग्गमें हैभिक्षु प्रातःकाल, मध्याह्नकाल व सायंकाल भलेप्रकार आत्मध्यान करे। इसीके महावग्ग (७०) में कहा है-साधु रात्रिको नहीं खाते है व दिनमें एकवार भोजन करते है। जैसे जैन लोग जगतका कर्ता व फलदाता ईश्वरको नहीं मानते वैसे बौद्ध लोग भी नहीं मानते, बौ-- द्धोंके मन्दिरोंमें ध्यानमई मूर्तियां वेदीमें उसी तरह विराजमान होती.
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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