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________________ २३६ ] विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा | सुत्तनिपात धम्मिक सुत्त । पाणं न हाने न च घातयेय्य न चानुमन्याहनतं परेस । सव्वेसु भूतेसु निधाय दण्ड ये थावरा ये च तसंति लोके ॥ कतंहि नाम समणा सक्यपुत्तिया हेमंतंपि गिद्यति वस्सेपि । चरिक परिस्संति हरितानि तिनानि महतः एकेंद्रियजीये || विहेद्वितः वहु खुदके पाणे संघातं आपादयंतः । .. भा०- स्थावर व त्रस सर्व प्राणियामे से किसी प्राणीको न तो मारो न घात कराओ, न किसी हिसाकी अनुमोदना करो । कोईर शाक पुत्रके शिष्य हरे तृणोको मर्दन करते हुए चलते हैं, एकेन्द्रिय जीवोंको घात करने है, बहुत क्षुद्र जन्तुओंको मारते हे । विनय पिटक महावग्ग (३ - १ ) मे लेख है कि ऐकेंद्रियादि क्षुद्र प्राणियोंका घात न हो इसलिये साधुओको वर्षामे एक ही स्थानपर रहना चाहिये । लकावतार सूत्रमे हरएक बौद्धधर्मपर विश्वास लानेवालेक वास्ते मासाहारका निषेध है । कुछ वाक्य है - इस सृत्रके आठवें अध्यायमें मास खानेका ही निषेध है मद्यं मांसं पलाण्डुं च न भक्षयेयं महामुने । वोधिसत्वैर्महासत्वैर्भापटि भोजिनपुंगवैः ॥ १ ॥ लाभार्थं हन्यते सत्वो मांसार्थ दीयते धनम् । उभौ तौ पापकर्माणौ पच्येते रौरवादिपु ॥ ९ ॥ योऽतिक्रम्य मुनेर्वाक्यं मांस भक्षति दुर्मतिः । लोकयविनाशार्थं दीक्षितः शाक्यशासने ॥ १० ॥
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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