SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 258
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३८] विद्यार्थी जनधर्म शिक्षा। हे जैसे जैनियोमे होती है । ये लोग केवल वस्त्रका चिन्ह दिवाने है. आगे पुष्प, दीप व धूपसे पूजन करने ह । दण्टवत् करके जनोंकी तरह नमस्कार करने हे । बहुया ये पढ़ने है ' बुद्धं सरण गच्छामि, धम्म शरण गच्छामि, मघ गणं गच्छामि ।" वर्मा, सीलोनमे इनके विशाल मदिरामे छडी २ अवगाहनाकी पशासन, कायोत्सर्ग व लेटे निर्वाण आमनकी मूर्तिये है । न बर्मा) मे एक मूर्ति निर्वाणकी १८१ फुट लम्बी है । ४५ फुटनककी बहुतमी मूर्तिया रंगूनमे हे जो वडी मुन्दर पद्मासन है । केवल हाप कभी हे। सीलोनकी एक पहाडीपर गुफाके भीतर ध्यानमय बडी मूर्तिया है । ये लोग नगे पैर विनयमे यात्रा करते है। शिष्य-तब तो जैन और बौद्धका बडा भारी घनिष्ट संबंध है। शिक्षक-दोनोंका तत्वज्ञान एकसा ही है । जैनोको उचित है कि बौद्धोंके ग्रन्थ देखें तथा बौद्धोंको उचित है कि जनोंके ग्रन्थ देखें । शिष्य-परन्तु मैने यह सुना है कि बौद्ध साधु व गृहस्थ दोनों मासाहारी है, तब अहिंसाका तो कुछ पालन हुआ ही नहीं। शिक्षक-सव तो नहीं है, बहुतसे साधु व गृहस्थ माम मछली __ नहीं खाते है, बहुतसे खाते भी है । जो खाते है उनको यह मिथ्या श्रद्धान है कि मास खरीदनेसे हिसाका दोष नहीं लगता है जबतक मासके लिये पशु घात किया न हो, कराया न हो, व पशु घात करनेकी अनुमोदना न की हो । इसीतरह साधुको जो भिक्षामे मिल जावेगा वह लेकर खालेगा। यदि वह मास मागे व यह भाव करे कि मांस मिले व किसी प्रकारकी मासकी प्रेरणा करे जिससे पशु घात हो तब तो उसको हिंप का दोप लगेगा, नहीं तो साधुको मास मात्र
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy