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जैन और बौद्ध धर्म ।
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मिक्षामें लेनेपर पशु घातका दोष नहीं लगेगा । वे कहते है कि यदि Į साधुने पशु घात होते देखा हो वा सुना हो या यह कल्पना की हो कि उसके लिये पशुघात किया गया हो तो उसे मांस मछली न खाना चाहिये, अन्यथा टोप नहीं है। इन सर्व कल्पनाओका जवाब यह है । जैसे संस्कृत लंकावतार सूत्रमे ही बौद्ध ग्रन्थकर्ता ने भलेप्रकार समझा दिया है - जो बाजारमे माम खरीदेगा, धन देगा, मांस लेगा, वह जानता है कि इस कसाईने कसाईखाने मे पशु घात कराया है या किया है । वह यह भी जानता है कि मास खानेवाले मास न खरीदें तो वह मासकी दूकान न रखें तथा धन दिया जावेगा तौ फिर दूसरे दिन पशु घात करके मांस बाजारमे लावेगा । ऐसा जानते हुए भी यदि वह मास खरीदता है तो वह पशु घात कराने के या पशुघातकी अनुमोदनाके दोपमे मुक्त नहीं होता ।
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इसी तरह साधु भी यह जानते है कि पशु घातके बिना मांस नहीं आता है। गृहस्थीका मांस खाना पशु घातकी उतेजना देना है । तथा यदि भिक्षामे मैं मांस स्वीकार वरूंगा तब अवश्य गृहस्थको यही उत्तेजना मिगी कि माम खाने में व लेनेमे जैसे साधुको दोप नहीं है, वैसे गृहस्थको भी बाजार से खरीदने व खाने में दोप नहीं है । इसलिये साधुको हिंसा के करुण रूप मामको स्वीकार करते हुए हिसाकी पसंदगी (approv. ) का दोप अवश्य लगता है । जैसे कोई देश हितैषी यह संकल्प को कि मै स्वदेशी वस्त्र पहनूंगा, जिससे मेरे देशकी कारीगरीको उत्तेजना मिले | तब वह यदि विदेशी वस्त्रको जो खास उसके लिये नहीं है, न उससे बनवाया है, स्वीकार करता है तो वह अपने संकल्पको खण्डन करता है व म्प