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________________ जनोंके भेद | श्री पूज्यपादस्वामी इष्टोपदेश में कहते हैस्वसंवेदन सुव्यक्तस्तनुमात्रो निरत्ययः । अत्यंत सौवख्यवानात्मा लोकालोकविलोकनः ॥ २१ ॥ संयम्य करणग्राममेका प्रत्वेन चेतसः । आत्मानमात्मवान् ध्यायेद्वात्मन्येवात्मनि स्थितं ॥२२॥ भा०-- यह अपना आत्मा अपने शरीर प्रमाण आकारधारी निश्वयसे अविनाशी, अत्यन्त आनन्दमय, लोकालोकका ज्ञाता दृष्टा स्वानुभवगम्य है । इन्द्रियोके ग्रामोंको संयममे लाकर चित्तको एकाग्र करके आत्मज्ञानी आत्मामें ठहरे हुए अपने आत्माको अपने भीतर ही ध्यान में लावे | वध्यते सुच्यते जीवः सममो निर्ममः क्रमात् । तस्मात्सर्वप्रयत्नेन निर्ममत्वं विचितयेत् ॥ २६ ॥ [ २१५ भा०- ममता सहित जीव कर्मोसे बंधता है, ममता रहित जीव कर्मोंसे छूटता है। इसलिये सर्व प्रयत्न करके निर्ममत्वभावका ध्यान करे। आत्मानुष्टागनिष्टस्य व्यवहारवहिः स्थितेः । जायते परमानंदः कश्विद्योगेन योगिनः ॥ ४७ ॥ आनन्दो निर्दहत्युद्धं कर्मैधनमनारतं । न चासो खिद्यते योगीर्वहिर्दुःखेष्वचेतनः ॥ ४८ ॥ भा० - जो व्यवहारके बाहर जाकर आत्माके ध्यानमें लीन होता है उस योगीके ध्यानके बल से कोई परमानंद पैदा होता है यही आनन्द निरंतर कर्मोंके काठको बहुत अधिक जलाता है । ऐसा योगी बाहर दुःखोंके पड़नेपर भी उनसे बेखबर रहता हुआ
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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