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________________ जनाके भेद । [१९९ लक्ष्य दिलायें तथा व्यवहार चारित्रमे एक दूसरेपर मध्यस्थ भाव रखनेका संकेत करे और ऐसे साहित्यका प्रचार उपदेशकर्ताओंमें किया जाये तो कुछ कालमे एकता अवश्य स्थापित होसक्ती है। शिष्य-कृपाकर वताइये मतभेद क्या क्या है ? शिक्षक-मै कुछ थोडेमे मतभेद बताता हूं उनको जानकर विचार करना हरएक बुद्धिमान जैनीका कर्तव्य है। दिगम्बर व श्वेताम्बरका मत इन मतभेदोंपर क्या है व हरएक उसकी पुष्टि कैसे करता है यह संक्षेपसे मुझे बता देना है। इसपर आप स्वयं विचार लेंगे कि आपकी बुद्धि क्या स्वीकार करती है। (१) एक मतमंद तो यह है कि दिगम्बर कहते है कि जबतक वम्रोको बिलकुल त्यागकर नग्न बालकके समान न हुआ जायगा, नबतक परिग्रह त्याग महाव्रत नहीं होसक्ता है, जो एक साधुके लिये आवश्यक है। इसलिये साधु वही होसक्ता है जो वस्त्र रहित हो। जहांतक एक लंगोट भी है वहातक वह श्रावक माना जाना चाहिये। श्वेताम्बरोंका यह मानना है कि जितने वस्त्र रखनेसे गरीरकी रक्षा हो, सर्दी गर्मीकी बाधा न हो, लज्जा सध सके उतने वस्त्र साधुको रख लेना चाहिये। वस्त्र सहित साधु भी उन्नति करके मोक्षका साधन कर सक्ता है। दिगम्बरोंका कहना है कि वस्त्र रखना पीछी कमंडलके समान धर्मोपकरण नहीं है । शरीरके माहके कारणसे वस्त्र रवग्वा जाता है । जवतक माह न छोड़ा जायगा तबतक छठे गुणस्थान प्रमत्तविरत सम्बंधी वीतरागताके परिणाम न होगे। जहांतक लंगोट भी होगा वहांनक लज्जा कपायके न जीतनेसे पांचवें गुणस्थान सम्बंधी भाव होंगे। जो लज्जा व गरदी गर्मी आदि परीपहोंको नहीं
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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