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________________ जीव तत्व। [१०५ देव, गाल, गुरु धर्मका श्रद्धान होता है। यहां आत्माकी सच्ची प्रतीति होती है। इस दरजेमे जीव स्वाधीनताका प्रेमी होजाता है। आत्मीक आनन्दका रोचक होजाता है । संसारका सुख विरस दीखता है । यद्यपि यह अहिंसादि पाच अणुव्रतोंको नहीं स्वीकारता है उससे अविरत है तथापि इसके भावोंमें चार गुण पैदा हो जाने हैं। (१) प्रशम- शांतभाव, (२) मंवेग -धर्मानुराग व संसारसे वैराग, (३) अनुकम्पा--प्राणी मात्रपर ढया, (४) आरितक्य -नास्तिकताका अभाव, परलोकमे श्रद्धा । यहागे मोक्षमार्गका चलनवाला होनाता है। यहांसे धर्मध्यानका प्रारम्भ होजाता है। यहासे तत्वज्ञानी, अंतरात्मा या महात्मा कहाने योग्य होजाता है । यह तत्वज्ञानी सुखदःख पडनेपर समभाव रखता है। स्वार्थ त्याग करके जगतकी मेवा करता है। यह गृहस्थके योग्य सर्व लौकिक काम कर सक्ता है। राज्यप्रबन्ध, मेनाप्रबन्ध, देशरक्षार्थ युद्ध, व्यापार, शिल्पकार्य आदि। देशपरदेश भ्रमणादि। उपगम सम्यग्दर्शनधारी अंतर्मुहर्न व क्षयोपगम सम्यग्दर्शनधारी दीर्घकालतक ठहर सक्ता है । यदि कोई दर्शनमोहनीयके तीनों कर्मोको और चार अनंतानुवधी कपायाको सर्वथा क्षय कर डाले तो वह इस दरजेमें क्षायिक सम्यक्तीधारी होनाता है जो फिर कभी छूटता नहीं, मोक्षावस्थामें भी रहता है। __५ देशविरत--जब श्रावकके एक देश त्यागको रोकनेवाले अप्रत्याख्यानावरण कपार्योंका उपशम होजाता है तब पांचमा दर्जा प्रारम्भ होता है। यहां श्रावकका चारित्र शुरू होजाता है। हिसा, असत्य, चोरी, कुशील, परिग्रह इन पांच पापोंको त्यागकर अहिंसादि पांच अणुव्रत धार लेता है और साधुके चारित्रकी योग्यता बढ़ानेके
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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