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________________ श्रावकोंका आचार। (१०) अनुमति त्याग प्रतिमा-पिछली सब क्रियाओंको पालता हुआ सांसारिक कामोंमें किसीको सम्मति देनेका त्याग करदे। भोजनके समयपर बुलानेसे नावे, पहलेसे निमंत्रण न माने । (११) उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा-इस श्रेणीमें यह भिक्षावृतिमे भोजन करता है। यह उस भोजनको स्वीकार नहीं करता है जो उसके लिये किया गया हो। यह उसी भोजनको स्वीकार करता है जो भोजन गृहस्थने अपने कुटुम्बके लिये तैयार किया हो। इस ग्यारहवीं प्रतिमामें एक क्षुल्लक व दूसरे ऐलक होते है । पिछली क्रियाओंको पालते हुए क्षुल्लक एक लंगोट व एक खण्ड वस्त्र चादर ऐसी रखता है जिससे पूरा शरीर न ढके। यह जीवदयाके लिये मोरके पंखकी पीछी रखता है क्योंकि मोरपंख बहुत कोमल होते हैं। उप्ण जलके लिये कमंडल रखता है। क्षुल्लक भोजनके समय जाता है। इसकी भिक्षाकी दो रीतिये है-कोई शुल्लक एक भिक्षाका पात्र रखते है और कई घरोंसे थोडा २ भोजन संग्रह करके अंतिम घरमें भोजन करके पात्रको साफकर नगरके चाहर चले जाते है । जो एक ही घरमें भोजन करते है वे जब भक्ति करके स्वीकार किये जाते है तब वे दातारके घर थालीमें बैठकर आहार करते हैं। ये दिनमें एक ही दफे भोजनपान करते है। दूसरे ऐलक वे हे जो केवल एक लंगोट ही रखते है । यह पीछी सिवाय काठका कमण्डल रखते है । यह केशोंका लोच करते हैं अर्थात् स्वयं अपने हाथोंसे उखाड डालते हैं। भिक्षा वृत्तिसे एक ही घर बैठकर हाथपर ग्रास लेकर भोजन करते हैं । यह साधुके चारित्रका अभ्यास शुरू कर देते है। मैंने आपके लिये थोडासा श्रावकाचार कह दिया है, अधिक जानने के लिये श्रावकाचारोंको देखना उचित है।
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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