________________
क
जैनधर्म और हिंदू दर्शन ।
[ २६७ अपवर्ग या मोक्ष, ये सब बातें जैन दर्शनसे बहुत अंशमें मिल जाती है । अंतर यह है कि यह दर्शन एक ईश्वरको जगतका कर्ता और फलदाता मानता है। जगतका उपादान कारण परमाणु या प्रकृतिको मानकर निमित्त कारण ईश्वर है ऐसा मानता है। कहा है"ईश्वरः कारणं पुरुपकर्माफल्यदर्शनात्" (न्या० स० ४-१-१९)
भा०-ईश्वर पुपोंके कर्मोके फल देनेमें कारण है नहीं तो फल न हो। और भी कहा है
अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः। ईश्वरमेरितो गच्छेत् स्वर्गे वा बभ्रमेव वा ॥ ६ ॥
भा०-यह जंतु अज्ञानी है, इसका सुख दुःख स्वाधीनता रहित है। ईश्वरकी प्रेरणासे स्वर्ग या नर्कमें जाता है। जैन दर्शनमें जब मुक्तात्मा स्वाधीन होजाता है तब नैयायिक दर्शनमें एक परमात्माके आधीन रहते है । जैसा कहा है
मुक्तात्मना विद्येश्वरादीना च यद्यपि शिवत्वमस्ति तथापि परमेश्वरपारतंत्र्यात् स्वातंत्र्यं नास्ति ।
(सर्वदर्शनसंग्रह पृ० १३४-१३५) मा०-मुक्ति प्राप्त जीव विद्याके ईश्वर शिवरूप है तथापि परमेश्वरके का हैं, वे स्वतंत्र नहीं हैं।
जैन दर्शन आत्माको द्रव्य अपेक्षा नित्य व पर्यायकी अपेक्षा अनित्य तथा लोकाकाश व्यापी होके भी शरीर प्रमाण मानता है तब नैयायिक आत्माको नित्य व सर्वव्यापक मानते है। कहा है-~