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विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। हम उसे सुख कहते है। यह सुख इसलिये नहीं है कि इस सुखाभाससे तृप्ति नहीं होती है, उलटी चाहकी दाह बढ़ जाती है, तृप्णा अधिक होजाती है। जितनी इच्छाएं हम रखते है उतनी ही बीमारिया हमारे पास है Desires are diseases यदि कोई विमारी कुछ कम होती है. हम सुख मान लेते है। हमे पाचो इन्द्रियोंकी बहुतसी इच्छाएं रहती है जिनमे बहुतमी पूरी ही नहीं होती है । हम आपको बताएंगे कि इन्द्रिय सुखके सिवाय भी कोई सुख है। अच्छा क्या आपने कभी स्वयंसेवकी की है ?
शिष्य-मैंने एक दफे जब मेरे यहा एक जैन मेला था तब स्वयंसेवकीका काम किया है।
शिक्षक-क्या उस कर्तव्यको पालन करते हुए कभी आपत्तियां या कष्ट तो नहीं आए थे ?
शिष्य-एक रातको मेरी ड्यूटी यह वाधी गई थी कि मैं डेरोंके आसपास पहरादू । कारणवश उस रातको पानी खूब वरसा। मैं पानी हीमें छतरी लगाकर अंधेरी रातमे लालटेन लिये घूमा किया। 'एक पहरेदारके समान सब कर्तव्य पाला।
शिक्षक-अच्छा बताओ। ऐसा कष्ट सहते हुए तुम्हें मनमें दुःखका अनुभव हुआ था या सुखका ?
शिष्य-क्या कहूं? मुझे तो बड़ा सुख मालूम पड़ा था।
शिक्षक-ऐसा क्यों मालूम पडा ? यदि आप घरमे आरामसे बैठे हों और कोई आज्ञा करे कि रातको पानी वरसतेमे घूमो तो आप इस आज्ञाको नहीं मानोगे; क्योंकि यह जानते हों कि पानीमे घूमेगे तो कष्ट होगा फिर इस स्वयंसेवकीका कर्तव्य पालते हुए