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________________ १७० ] विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। मध्यमे जंबूद्वीपके समान एक लाख योजनका चौडा एक कमल ताए हुए सोनेके समान रंगका व एक हजार पत्र सहित विचाग जावे । कमलके वीचमे कर्णिकाके स्थानमे सुवर्ण रंगका पीला मेरु पर्वत एक लाख योजन ऊचा विचारा जावे । उस मेरु पर्वतके ऊपर पाङक वनमे एक पाक शिला विचारी जावे । उसपर एक स्फटिकमणिका सिहासन विचारा जावे। उस सिंहासनपर मैं आत्माको. शुद्ध करनेके लिये पद्मासन बैठा हूं ऐसा सोचा जावे । इतना ध्यान वारवार करना पृथ्वी धारणा है । (२) अग्नि धारणा-अपनेको वहीं बैठा हुआ विचारा जावे। फिर यह सोचा जावे कि मेरे नाभिकमलके स्थानपर भीतर ऊपरको उठा हुआ सोलह पत्रोंका एक सफेढ रंगका कमल है। उसपर पीत रंगके सोलह स्वर लिखे है-अ आ, इ ई, उ ऊ, ऋऋ, ल ल. ए ऐ, ओ औ, अं अ. वीचमें है अक्षर लिखा है। दूसरा कमल हृदय स्थानपर नामि कमलके ऊपर आठ पत्रोंका आधा विचास जावे । इस कमलको ज्ञानावरणादि आठ कर्मोका कमल माना जावे। फिर सोचें कि हैके रेफसे धुंआ निकला, फिर अग्निकी लौ निकली वह ऊपर उठकर आठ कर्मके कमलको जलाने लगी। कमलके बीचसे अग्निकी लौ फूटकर ऊपर मस्तकपर आगई, फिर उसकी एक लकीर शरीरके एक तरफ दूसरी लकीर शरीरकी दूसरी तरफ आगई नीचे दोनों कोने मिल गए। अग्निमय त्रिकोण शरीरको सब तरफ वेढ़ कर बन गया। इस त्रिकोणमे रररररर अक्षरोंको अग्निमय फैले हुए विचारे अर्थात् तीनों कोने अग्निमय रर अक्षरोंसे बने है। इस त्रिकोणके बाहरी तीनों कोनोंपर अमिमय साथिया विचारे व भीतर
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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