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________________ तत्वज्ञानका साधन। [९३ तुका स्वरूप है। यह तो जैन - . 'ना' है !* इसीको अनेकातवाढ कहते है । यह सिद्धांत ही हमको अपने जीव द्रव्यका सच्चा ज्ञान कगता है । हमारे जीवमे हमारे जीवपनेका भाव है उसी समय गरे जीव सिवाय अन्य सबका मेरेमे अभाव है । मेरा जीव अपने शुद्ध द्रव्यरूप व गुणरूप आप अकेला है। इसमें दुसरे कोई जीव नहीं है न इसमे पुद्गल आदि कोई पाच द्रव्य अजीव है । न इसमे राग, द्वेषादि है । इन सबका जीवमे अभाव है। मेरा जीव भावरूप भी है, अभावरूप भी है । इसीके सात भंग बन जायंगे। आत्माके आनंदका भोग करनेके लिये आत्माके शुद्ध स्वरूपका सञ्चा ज्ञान होना उचित है । वह भाव अभावरूप स्वभावो व धर्मोके ज्ञानसे ही होगा। हरएक वस्तु नित्य अनित्य दोनों रूप है यह हम आपको बता चुके है। इन्हीं वस्तु-स्वभावोंको समझानेवाला स्याद्वाद है। इसका संकेत संवत विक्रम इक्यासी ८१मे प्रसिद्ध श्री उमास्वामी महाराजने तत्वार्थसूत्रमे इस सूत्रसे किया है" अर्पितानर्पितसिद्धेः" अर्थात् जब नित्य व अनित्य दोनो स्वभाव व्यमे हों और उनको सिद्ध करके बताना हो तब एकको मुख्य करके समझाओ तब दूसरेको गौण करदो। शिष्य-मैं समझ गया। अच्छा अब कल हाजिर होऊंगा। 'परमागमस्य बीज निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधान | सकलनयविलसिताना विरोधमयन नमाम्यनेकान्तम् ॥ २ ॥ भा०-यह अनेकात परमागमका बीज है, एक २ अंगको हाथी माननेवालोंके विरोधको मेटनेवाला है, सर्व अपेक्षाओंके परस्पर अनमेलको हटानेवाला है। इसको नमस्कार हो ।
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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