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________________ २५६] विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा । योंको सुख दुःख देता है । जगतमे बहुतसे पदार्थोकी रचना स्वभावसे हुआ करती है । जैसे-मेघ बनना, पानी वरसना आदि । बहुतसे कामोंको संसारी प्राणी अपनी इच्छासे प्रयत्न करके करते है। जैसे-चिडियाका घोसला बनना, मकडीका जाला बनना, कपडा वुनना, मकान बनना आदि । तथा कर्मोका फल भी सभावसे उसी तरह होजाता है जैसे भोजन व औषधि पेटमे जाकर स्वय रुधिर वनाती है व वीर्यको उत्पन्न करता है जिसके फलसे हम काम करने है । गीतामें भी इसी तत्वको नीचेके लेकोंमे झलकाया है न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः । न कर्मफलसंयोग स्वभावस्तु प्रवर्तते ।। १४-५ ॥ नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः। अज्ञानेनाहतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥ १५-५॥ भा०-ईश्वर प्रमु लौकिक प्राणियोंके न कर्तापनेको न कर्मोको न कर्मोके फलके संयोगको वास्तवमे रचता है कितु स्वभावसे ही प्रवृत्ति होती है । परमात्मा न किसीके पाप कर्मको न किसीके पुण्य कमको ग्रहण करता है अज्ञानमे प्राणियोंका ज्ञान ढका हुआ है इससे जगतके प्राणी मोहित होरहे है। नोट-यहा भी आवृत शब्द किन्ही सुक्ष्म स्कंधोका बोधक है जो ज्ञानको ढकते है इसीको जैनसिद्धातमे ज्ञानावरण कर्म कहते है। शिष्य-तब क्या गीतामे जैनसिद्धात भरा है ? शिक्षक-जैन सिद्धातसे मिलता कथन तो अवश्य है । हिंदु__ ओमे साख्य सिद्धात एक ऐसा दर्शन है, जिसका कथन बहुत
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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