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________________ २६२ ] विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा सर्वभूतानि कौंतेय प्रकृति यांति मामिकाम् । कल्पश्ये पुनस्तानि कल्पादों विसृजाम्यहं ॥ ७-९ ॥ प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः । भूवग्राममिमं कृत्स्त्रमवशं प्रकृतेर्वशात् ॥ ८-९ ॥ भा०-हे अर्जुन | कल्पके अंतमें सब भृत मेरी प्रकृतिको प्राप्त होजाते है । और कल्पकी आदिमे उनको मै फिर रचता हूं। अपनी प्रकृतिको अंगीकार करके मै परतंत्र इस सर्व प्राणी समुद्रायको वारवार उनकी प्रकृतिके अनुसार रचता हूं-यच्चापि सर्वभूतानां वीजं तदहमर्जुन । न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् ॥३९-१०॥ भा०-हे अर्जुन । जो सर्वभृतोंकी उत्पत्तिका कारण है वह भी मैं ही हूं। क्योंकि ऐसा वह चर व अचर कोई भी भूत नहीं है कि जो मेरेसे रहित होवे । इसलिये सब कुछ मेरा ही स्वरूप है। यतः प्रवृत्तिभूतानां येन सर्वमिदं ततम् | स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विंदति मानवः ॥ ४६-९८ ॥ भा०-- जिससे सर्व भूतोंकी उत्पत्ति हुई है और जिससे यह सर्व जगत व्याप्त है उस परमेश्वरको अपने स्वाभाविक कर्म द्वारा पूजकर मनुष्य परम सिद्धिको प्राप्त होता है । ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति । भ्रामयन् सर्वभूतानि यंत्राद्वानि मायया ॥ ६१-१८ ॥ भा०- शरीररूपी यंत्र में आरूढ़ हुए सर्व प्राणियोंको ईश्वर अपनी मायासे भ्रमाता हुआ सर्व भूत प्राणियोंके हृदयस्थान में विराजित है । -
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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