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जैनोंके भेद ।
। २०९ चला जावे । मूर्तिपूजक श्वेताबरी ऐसा कहते हैं कि ये उनहीमेंसे १५ वीं शताब्दीसे हुए है। स्थानकवासी जैनोंका बहुतसा कथन मूर्तिपूजक श्वेतांवरोंसे मिलता है।
मैंने थोडासा मतभेद बता दिया है जिससे दिगंवर व श्वेतांघर परस्पर एक दूसरेको पहचान लेवें।
शिष्य स्थानकवासी जैन ग्रन्थोंके भीतर असली मोक्षमार्गका कैसा वर्णन है ? कुछ नमूना बताइये, जिससे दिगम्बर व मूर्तिपूजक व स्थानकवासी इनके कथनकी साम्यता मालम हो।
शिक्षक-आपका प्रश्न बहुत योग्य है । मुझे आज ही स्थानकवासी मुनि श्री चौथमलजी द्वारा संग्रहीत “निग्रंथ प्रवचन" नामकी पुस्तक प्राप्त हुई है । ( प्रकाशक जैनोंदय पुस्तक प्रकाशक ममिति रतलाम वीर सं० २४५९) उसमें से कुछ कथन वताता हूं।
अप्पाणमेव जुज्झाहि किं ते जुझेण वज्झओ। अप्याणमेव अप्पाणं जइत्ता सुहमेहए ॥८-१||
भावार्थ-आत्माके साथ ही युद्ध कर, बाहर युद्ध करनेसे क्या? आत्मा हीके द्वारा अपनेको जीतनेसे सुख प्राप्त होता है । रागोय दोसो वि य कम्मवीय कम्मं च मोहप्पगवं वयंति । कम्मं च जाई मरणस्स मूलं दुक्ख च जाईमरणं वयंति ॥२७-२
भा०-राग द्वेष कर्म बन्धके वीज है। यह कर्म मोहसे वंधते है। कर्म जन्म मरणके मूल हैं। जन्म-मरण ही दुख है । ऐसा ज्ञानी कहते हैं। दुख इयं जस्स न होइ मोहो, मोहो हओ जस्स न होइ तण्डा । तण्हा हया जस्स न होइ लोहो, लोहो हओ जस्स न किंचणाई ।।