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विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। है। वादर रुक भी जात हे व घाते भी जान है व परम्पर भी वे घात करते है।
इस तरह आपको यह मालम होना चाहिये कि इस सर्व लोकमे सात तरहके संसारी जीव हे-एकेन्द्रिय सक्षम, एकेन्द्रिय बादर, द्वेन्द्रिय, तेन्द्रिय, चौन्द्रिय, पंचेंद्रिय अपैनी, पचेन्द्रिय सैनी । इनके भीतर दो २ भेद होते हे-पर्याप्त developable अपर्याप्त pon-developable
शिष्य-पर्याप्त अपर्याप्तको समझा दीजिये ।
शिक्षक-पर्याप्त उनको कहते है जो गरीरादि बननेकी शक्तिको पूर्ण करते है। अपर्याप्त उनको कहते है जो शरीरादि बननेकी शक्तिको विना पूर्ण किये ही एक श्वासके अठारहवें भाग समयमे अवश्य मरजाते है। यहा श्वास एक तन्दुरुस्त मानवकी नाडी चलनेको कहते है। ४८ मिनट या एक मुहूतेमें ऐसे ३७७३ श्वास होते है। जब कोई जीव कहीं जन्मता है तब जो पुद्गल स्थूल शरीरके बननेके लिये ग्रहण करता है उनमें शरीरादि बननेकी शक्ति पडती है। जैसे बीज खेतमे डालनेपर जो बीज जम जाता है उसमे वृक्ष होनेकी शक्ति बन गई ऐसा मानना होगा। ऐसी पर्याप्तिया छ• होती है-आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोछवास, भाषा व मन । एकेन्द्रियोंके पहली चार. द्वेन्द्रियसे पंचेन्द्रिय असैनीतक भाषाको लेकर पाच, सैनी पंचेन्द्रियोंके छहों पर्याप्ति होती है। जो पुद्गल शरीर बननेके लिये लेता है उसको स्थूल व तरलरूप करनेकी शक्तिकी प्राप्तिको आहारपर्याप्ति कहते है, इसी तरह और पाचोंको भी समझ लेना चाहिये। जैसे शरीररूप करनेकी शक्तिकी प्राप्ति शरीरपर्याप्ति है।