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________________ श्रावकका आचार- 4" [ 88१ • (२) सचिचापिधान-सचित्तसे ढकी हुई वस्तु देना, (२) परव्यपदेश - दूसरे - दातारको दान के लिये कहकर आप चले जाना, (४) मात्सूर्य दूसरे दातार के साथ ईर्पा करके देना, (५) कालातिक्रम-इसके कालको टालके व समय देना । -- " - (१४) सल्लेखनाके पांच अतीचार - ( १ ) जीविताशंसा- 1: . अधिक जीने की इच्छा करना, (२) मरणाशंसा-जल्दी मरण चाहना, T 1 f 1 (३) मित्रानुराग- पूर्व लौकिक मित्रोंसे प्रेम बताना, (४) सुखानु बन्ध - पिछले इन्द्रिय सुखों का याद करना, (५) निदान - आगामी भोगोंकी चाहना कम्नी | · + साधारण राति चौदह बातें श्रावकों के लिये इन नोंको क्रम क्रमसे उन्नति करते हुए पालने की प्रतिमाएं या श्रावककी श्रेणियां बताई गई है । क्या 'पसन्द करेंगे 2 आवश्यक है । अपेक्षा, ग्यारह आप जानना / " 'शिष्य-मुझे श्रावकका चारित्र जानकर बहुत आनन्द हुआ । इसमें सन्देह नहीं कि जो गृहस्थ उनपर चलेगा वह नमुनेदार धर्मात्मा गृहस्थ होगा । वह किसी राज्य के अपराधमे कभी नहीं आसक्ता है, वह जगतमें प्रतिष्ठाका पात्र होगा। ग्यारह प्रतिमाएं भी समझा दीजिये । शिक्षक -ये ग्यारह श्रेणिया इस ढंगसे बताई गई है कि आगे २ की प्रतिमावाला नीचे के चारित्रको छोड़ता नहीं है किन्तु नई प्रतिमाना चारित्र पालता है । ये सब " " उसको पालता हुआ पांच गुणस्थान में है | (१) दर्शन प्रतिमा इसमे सम्मानको ढोपरहित पालने का अभ्यास करना चाहिये | मन्यक पचीम दोपोको बचानेकी सम्हाल 1 1 "
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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