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________________ १६६] विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा। (१०) लोक भावना-यह लोक अनन्त आकागके मध्य जीवादि छह द्रव्योंसे सर्वत्र भरा है। ये द्रव्य नित्य है आकृतिम है । इससे यह लोक भी अकृतिम है। द्रव्योंमे पर्याय होती रहती है इससे द्रव्य अनित्य भी है, इससे लोक भी अनित्य है । इसका कोई कर्ता हर्ता नहीं है । हमे लोकमे राग न करके आत्म शुद्धि करनी चाहिये। ___ (११) बोधिदुर्लभ भावना- रत्नत्रय धर्मका लाभ बड़ी कठिनतासे होता है । मानव जन्म, दीर्घायु, उत्तम संयोग, सुबुद्धि मिलना ही दुर्लभ है । तिसपर भी सच्चा उपदेश मिलना, तत्वज्ञान मिलना व रत्नत्रयको समझना अतिशय कठिन है । अब मुझे जो इस रलत्रय धर्मका लाभ हो गया है, तो इसको भले प्रकार पालकर आत्मोद्धार करना चाहिये। (१२) धर्म भावना--सत्य धर्म आत्माका स्वभाव है, अहिंसामय है । उत्तम क्षमादि दश धर्म रूप है, मुनि व श्रावकके भेदसे दो प्रकार है। धर्म ही प्राणीका सच्चा मित्र है, यही उत्तम सुखको सदा देनेवाला है तथा आत्माको पवित्र करनेवाला है। इसलिये मुझे धर्मका साधन बड़े प्रेमसे करना चाहिये ।। (५) २२ परीषह जय-कर्मोंके उदयसे नीचे लिखी २२ परीषहोमेसे एक व अनेक कष्ट आन पड़े तो उनको समताभावसे सहना। ध्यानसे व सामायिक भावसे न हटना परीषह जय है। (१) क्षुधा (२) प्यास (३) शरदी (४) गरमी (५) डास मच्छर (६) नमपना (नम रहते हुए लज्जाभाव न आने देना) (७) अरति (८) स्त्री द्वारा मनन डिगाना (९) चलनेकी (१०) बैठनेकी(११)
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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