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________________ A २२६ ] विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा। सो तत्तो सो सीनो एको भिसनके बने । नग्गो न च अग्गि आसीनो एसनापसुतो मुनीति ॥ भावाथ- मैं वस्त्ररहित रहा। हाथपर भोजन करता था। न लाया हुआ खाता था, न उद्दिष्ट भोजन करता था, न निमत्रणसे खाता था । गर्भिणी स्त्री व दूध पिलानेवाली स्त्रीके हाथ नहीं खाता था। न जहा मक्विया भिन२ करती हो. न मछली न मास मदिग न घासका पानी पीना था। कभी एक घरमे एक ग्रास खाता था, कभी दो घर जाने का नियम रखकर दो ग्राम खाता था। इस तरह सात घर जानेका नियम रखके सात ग्रास तक खाता था। कभी एक दिन बाद, कभी दो दिन पीछे आहार लेता था. कभी पंद्रह दिन पीछे आहार करता था। इस तरह विहार करता था । सिरके केगोंका व डाढीके केशोंका हाथसे लोच करता था। एक जलकी बूंद भी न घात करूं एसी मेरेमे दया थी, मेरेसे कोई छोटा भी प्राणी घात न होजावे ऐसा ध्यान रखता था। गर्मी शर्टी सहता हुआ भयानक वनमे नम रहता था, आग नहीं तापता था, व्यानमें मग्न मुनि था। ये सब दिगम्बर मुनिका चारित्र श्री वोरस्वामी कृत मूलाचार दि० जैन ग्रंथसे मिलता है। जो कुछ सिंहनादसुत्तमें वर्णित है वह गौतमबुद्धने घर छोडनेके वाद बुद्ध होने के पहले पाला था। इसके सम्बन्धमे पूछनेपर एक विद्वान बौद्ध भिक्षु श्रीयुत नाग्न थेग वनागम आश्रम वजिरारोड वम्वलपिटिया (सीलोन ) से अपने पत्र ५ गई १९३३ मे लिखते है
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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