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________________ अजीव तल। [१२९ लोकाकाश कहते है। लोकाकाग एक मर्यादाके भीतर है इस मर्यादा कारण धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय है । ये दोनों द्रव्य लोकाकाश व्यापी है। जहांतक धर्म द्रव्य है वहांतक ही जीव तथा पुनलोंका गमन हो सकता है व वहींतक पदार्थ ठहर सक्ते है । इस जगतमें कोई भी स्थान नहीं है जहां पाचो द्रव्य न पाए जावें ।। पुल परमाणु तथा स्कन्ध रूपसे सर्वत्र भरे है, सूक्ष्म जातिके एकेन्द्रिय जीव भी सर्वत्र भरे है, बादर जीव कहीं कहीं है । धर्म और अधर्म द्रव्य व्यापक है ही, कालाणु भी सर्व तरफ रत्नोंके ढरके समान फैल हे । उनकी गणना असंख्यात है क्योंकि लोकाकाशके प्रदेश भी असंख्यात है। हरएक प्रदेशपर एक एक कालाणु व्यापक है। शिप्य-प्रदेशका मतलब बताइये तथा असंख्यातसे क्या मतलब है। शिक्षक -जितने आकागके सष्टम भागको वह परमाणु जिसका भाग नहीं होसकता है रोकता है उसको प्रदेश (poin ) या (epatitl unit ) कहते हे | जैनसिद्धांतमें तीन प्रकारकी गणना. बताई गई है--संख्यात, असंख्यात और अनंत । हम मानवोंकी समझमे जहातक गिनति आसके वह सख्यात है। उससे अधिक असंख्यात है। उससे भी बहुत अधिक अनंत है। प्रदेश एक तरहका गज है जिससे द्रव्योंके आकारको मापा जाता है । यदि लोकाकागको इस प्रदेश रूपी गजसे मापा जावे तो उसके असंग्च्यात प्रदेश होंगे। इतने ही प्रदेश धर्मास्तिकायके ___ वरतने हा अधर्मास्तिकायके होंगे । व इतने ही प्रदेश एक जीवके
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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