Book Title: Vidyarthi Jain Dharm Shiksha
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Shitalprasad

View full book text
Previous | Next

Page 294
________________ -२७४] विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा । (८) समाधि-ध्यान पककर जब ध्येयके साथ तन्मय होजावे। कहा है- तदेवार्थनिर्भासस्वरूपशून्यमिव समाधिः । (३-३) ___भा०-जहा आत्मा पदार्थका ही अनुभव हो, स्वरूपमे शून्य हो वही समावि है। निर्विकल्प भावको समावि कहते है। यही मोक्षमार्ग है। इसीसे केवलज्ञान होकर मुक्ति होती है । कहा है " तस्मिन्निवृत्तेः पुरुष स्वरूपप्रतिष्ठः अतः शुद्धो मुक्त इत्युच्यते (१-५)-उप समाविकी पूर्णनापर आत्मा अपने स्वरूपमे तिष्ठता हुआ शुद्ध या भुक्त वहाता है। __ योग साधनका विषय जैन सिद्धातसे बहुत कुछ मिलजाता है(५)-पूर्व (कर्म) मीमांसा दर्शन इस दर्शनके प्रवर्तक महर्षि जैमिनि होगए है। इस दर्शनका ध्येय स्वर्ग प्राप्ति है । इसका साधन यज्ञ __ करना है । स्वर्ग सुखका लक्षण बताया है यन्न दुःखेन संभिन्न न च ग्रस्तमनन्तरम् । अभिलाषोपनीतं च तत्सुखं स्वः पदास्पदम् ॥ भावार्थ-जिस सुखके साथ दु ख नहीं मिला है, जिसके अन्तमे दु ख नहीं है, जो इच्छा या उसे प्राप्त होता है वही सुख स्वर्गमे मिलता है। स्वर्गकामो यजने ' स्वर्गका इच्छुक यज्ञमे होम करता है। इसमे क्रियाकाड दान पृजाकी ही मुख्यता है। ___ यह दर्शन साख्यकी तरह किसी पुरुष विशेषको ईश्वर नहीं मानता है। वेदको ही नित्य और अभ्रात मानता है। वेढ ईश्वर वावय है ऐसा स्वीकार नहीं करता है । जगतका कोई बनानेवाला

Loading...

Page Navigation
1 ... 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317