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विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा। अध्यायसे प्रगट है कि सत्वगुण सहित होना राग, द्वेष रहित, विचारगील ज्ञानी होना है। रजोकण सहित ससारमे लीन भाव है परन्तु अन्यायी नहीं है । तमोगुण सहित हिसक है। तीनोंके रक्षण ये है--
नियतं संगरहितमरागद्वेषतः कृतम् । अफलपेप्सुना कर्म यत्तत सात्विकमुच्यते ॥ २३ ॥ यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंक रेण या पुनः । क्रियते बहुलायासं तद्रान्समुदाहृतम् ॥ २४ ॥ अनुवन्ध क्षयं हिसामनवेश्य च पाहाम्। मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते ॥ २५ ॥
भा०-जो कर्म नियमित. ममता रहिन, राग द्वेष रहित. फलकी इच्छा विना किया जाये यह सात्विक कर्म कहा जाता है। जो कर्म इच्छा पूर्वक, अहंकारके साथ बहुत परिश्रमसे किया जाता है वह राजस कर्म कहाता है । जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा
और सामर्यको न विचारकर मोहवश किया जाता है वह तामस कहाता है।
नोट-जैनदर्शनकी अपेक्षा एक सम्यक्दृष्टि गृहस्थ या साधुका भाव सात्विक है । सरल परिणामी मिथ्यात्वीका भाव राजस है। कठोर परिणामी मिथ्यात्वीका भाव तामस है । केवल प्रकृतिका ही तीन रूप परिणमन होता है. जीव कूटस्थ नित्य अक्रिय रहता है यही बात जैन दर्शनसे नहीं मिलती है । शुद्ध निश्चयनयसे जीवका स्वरूप एकसा रहता है परन्तु व्यवहार नयसे जब कर्मोका सम्बंध है तब जीव ही ज्ञानरूप व अज्ञानरूप, वीतराग रूप व रागद्वेषरुप परिणमन करता है । चेतता रहित केवल जड़में ये बातें नहीं होसकी है।