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आस्रव और बंध तत्व।
[१४५ यमे तप करना (८) योग- समाधि या ध्यानमें प्रेमी होना (९) शान्ति--क्रोधको जीतकर क्षमाभाव रखना। (१०) शौच-लोभको मन्द करके संतोष रखना।
इत्यादि परहितकारी कार्योंसे साता वेदनीय कर्मका विशेष बन्ध होता है।
(४) दर्शन मोहनीय कर्मके बन्धके विशेष भावः
(१) केवलि अवर्णवाद-केवली अरहन्त भगवानकी निंदा करके मिथ्या दोष लगाना, (२) श्रुतअवर्णवाद-अर्हत भगवान प्रणीत आगमकी कुभक्तिसे निन्दा करना, (३) संघ अवर्णवादमुनि संघको मिथ्या दोष लगाना, ( ४ ) धर्म अवर्णवाद-रत्नत्रयमई मोक्षमार्ग रूप सच्चे धर्मकी मिथ्या निदा करना, (५) देव अवर्णवाद-देवगतिके जीवोंको मिथ्या दोष लगाना जैसे कहना कि देव शराब पीते है या मांस खाते है।
(५) चरित्र मोहनीयके वन्धके विशेप भाव-कषायोंके उदयसे जो तीव्र कषायरूप भाव होते हे उनसे चारित्रमोहनीयका बन्ध होता है। जैसे--अपने भीतर व दूसरोके भीतर कपाय पैदा करना, तपस्वी जनोंके चारित्रमें झूठा टोप लगाना,दुखी होकर साधु होजाना व व्रत धारना। नौ नो कपायोंके बन्धके विशेप भाव नोच प्रकार है--(१) दीनोंकी व सत्य धर्मकी हंसी उडाना, वहुत बकवाद सहित हंसी करनेका स्वभाव रखना, हास्यके बन्धका कारण है, (२) बहुत खेल कृदमें रति करना व गील व व्रतोंसे अरुचि करना, रतिके बन्धका कारण है, (३) दुसरेको अरति पैदा कर देना, पापोंमे
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