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विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा |
तत्रैकाय्यं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः । उपविश्यासने युंज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥ १२-६ ॥ समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः । संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्वानवलोकयन् ॥ १३-६ ॥ प्रशांतात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारित्रते स्थितः । मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥ १४-६॥ युंजनेवं सदाऽऽत्मानं योगी नियतमानसः । शांति निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ॥ १५-६ ॥ भा०-- योगी मनका विजयी वासनारहित व परिग्रहरहित एकातमे अकेला ही बैठा हुआ निरंतर आत्माका ध्यान करे । वहा मनको एकाग्र करके इन्द्रियोंको व मनको वश रखता हुआ आसनपर बैठकर आत्माकी शुद्धिके लिये योगका अभ्यास करे । काय, मस्तक व गलेको समान व निश्चल धारकर, दृढ़ होकर अपने नाकके अग्रभागको देखता हुआ, अन्य दिशाएं न देखता हुआ - - शातचित्त हो, भयरहित हो, ब्रह्मचर्यत्रतमे स्थित हो, मनको संयम करके आत्मा मे उसे जोड़कर आत्मामें लीन रक्खे । इस तरह योगी मनको निश्चल रखता हुआ सदा अपने आत्माका ध्यान करे । जिससे वह आत्मामें स्थितिरूप निर्वाणकी उत्कृष्ट शातिको प्राप्त करेगा । सुखमात्यन्तिकं यत्तद् बुद्धिग्राह्यमतींद्रियं ।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ॥ २१-६ ॥ भा० - जहा वह योगी इन्द्रियोंसे परे ज्ञानगम्य परम सुखको अनुभव करता है, फिर वह निजतत्वमे स्थित हुआ उससे चलायमान नहीं होता है ।