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भगवद्वता और जैनधर्म |
[ २५७ अंगमे मिल जाता है । साख्य प्रकृति ( जड) और पुरुष आत्मा ) - को अनादि मानता है। जैसे-जैन सिद्धांत पुल और जीवको अनादि मानता है । प्रकृति और पुरुपका संयोग ही संसार है । व प्रकृतिका पुरष ने छूट जाना ही साख्यमे मोक्ष है । इसी तरह जैनोमे कर्म पुलों का संयोग संसार ह, कर्म पुगलोंका छूट जाना मोक्ष है। गीता बहुता कथन साख्य दर्शनके अनुसार है । जैमा नचिके लोकों झलकता है
प्रकृतेः क्रियमाण नि गुणः कर्माणि सर्वशः । अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते २७-३ ॥ भावार्थ- सर्व कर्म प्रकृतिके गुणो द्वारा किये हुए है । तौभी अहंकार मोहित हुए अन्त करणवाला पुरुष मैं कर्ता हूं ऐसा मान देना है
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यत्सांख्यै प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।
एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥ ५-५ ।। भावार्थ- जो स्थान सांख्योंके द्वारा प्राप्त किया जाता है वही योगांक द्वारा प्राप्त किया जाता है इसलिये जो साख्य और योगको एक समझता है वही यथार्थ देखता है । यहां उल्थाकारने सांख्यको निष्काम कर्मयोग व योगको ज्ञानयोग कहा हैत्रिभिर्गुणमयैर्भावरेभिः सर्वमिदं जगत् ।
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मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ॥१३-७॥ भा०- सात्विक, राजस, तामस इन तीन प्रकारके भावोंसे अर्थात् रागद्वेष विकारोंसे यह सब जगत मोहित होरहा है इसलिये इन तीनोंसे परे अविनाशी आत्माको नहीं जानता है ।
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