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भगवद्गीता और जैनधर्म।
[२५५ मा०-सभ्यदृष्टी ज्ञानी विषयोंको सेवते हुए भी विषयसेवनका फल कर्मबन्धको नहीं पाता है क्योंकि उसके भीतर ज्ञानकी विभूति है व वैराग्यका बल है इसलिये वह सेवता हुआ भी नहीं सेवनेवाला है।
जिस आसनसे ध्यान जैन शास्त्रोंमें बताया है वही यहा गीतामें अध्याय ६ में श्लोक १०, १२, १३, १४, १५से बताया है। इसी ध्यानमई आकारको दिखलानेवाली मूर्ति भी जैन लोग बनाते है व उसके ध्यानकी सिद्धिमें मदद लेने है । ऊपर दिये हुए गीताके श्लोक नं० १४१४, २११४, ३६।४ से यह प्रगट है कि कर्मोका बन्ध होता है व कोको भस्म किया जाता है । यहां कर्मसे प्रयोजन वही झलकता है जैसा जैनसिद्धातने सात तत्वोंमे आसव, अन्ध, संवर व निर्जरातत्वमें बताया है। बंध शब्द व भस्म शब्द 'प्रगट करता है कि कोई सूक्ष्म स्कंध है जिनसे कारण शरीर बनता है, इसीको जैन लोग कार्मण शरीर कहते है। उन सूक्ष्म स्कंधोंको कार्मण वर्गणाएं कहते हैं । हमारे तत्वप्रेमी अजैन बंधुओंको उचित है कि कर्मबंधके सिद्धांतका गहरा विवेचन जैन शास्त्रोंकी सहायतासे जाने । मुख्य ग्रन्थ श्री नेमिचन्द सिद्धांत चक्रवर्ती कृत श्री गोमटसार कर्मकांड है इसका हिंदी व इंग्रजी दोनोंमें उल्था मिलता है, बहुत उपयोगी है। यदि जैन सिद्ध तका मनन किया जायगा तो गीताके ऊपर लिखित श्लोकोंका भाव और भी स्पष्ट सत्य-खोजीको झलक जायगा।
जैन सिद्धांत यह मानना है कि परमात्मा शुद्ध कृतकृत्य परमानंदमय है, वह जगतको न बनाना है और न वह जगतके प्राणि.