Book Title: Vidyarthi Jain Dharm Shiksha
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Shitalprasad

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Page 281
________________ भगवद्गीता और जैनधर्म | [ २६१ लय हो जायगा । ( वेदांतदर्पण व्यासकृत सं० १९५९) ब्रह्मका लक्षण है "जन्माद्यस्य अत इति" (सूत्र १ अ० ८ ) अर्थात् जन्म, स्थिति, नाश उससे होता है । " आकाशस्तल्लिंगात् " ( सूत्र २२ अ० २ ) - आकाश भी ब्रह्म हैं, का चिह्न होनेसे । "( कार्यागधिरयं जीवः कारणोपाधिरीश्वरः " ( वेदात परिभाषा परि० ७ ) - यह जीव कार्यरूप उपाधि है, कारणरूप उपाधि ईश्वर है । वेदातका सिद्धांत यही प्रगट है कि वहां एक ब्रह्मकी ही वास्तविक सत्ता है । यह जगत् ब्रह्मका ही विकाश है वही सब कुछ है | अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् । प्रकृतिं स्वामाविष्टाय संभवाम्यात्ममाययाः ॥ ६-४ ॥ भा०- मै अविनाशी स्वरूप अजन्मा होनेपर भी तथा सर्व मृत प्राणियों का ईश्वर होनेपर भी अपनी प्रकृतिको आधीन करके अपनी मायासे प्रगट होता हूं । यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ ७४ ॥ भा०-- जब जब धर्म की हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है तब तब ही मैं अपने रूपको रचता हूं--प्रगट करता हूँ । परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥ ८-४ ॥ भा०- साधुओंकी रक्षा के लिये, द्रव्योंके नाशके लिये व धर्मके स्थापनके लिये मैं युग युगमें प्रगट होता हूँ (

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