Book Title: Vidyarthi Jain Dharm Shiksha
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Shitalprasad

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Page 280
________________ २६०] विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। नहीं दीखती। कभी क्रोधी होता है, कभी शांत होता है। दोनों बातें __ एक साथ पुरुषमें नहीं दीखती है। क्योंकि यह ज्ञानकी एक पर्याय है । अवस्था एक प्रकारकी एक समय रहती है । जब वह अवस्था मिटती है, तब दुमरी पैदा होती है। इसीलिये जैनसिद्धांतने आत्मा व पुदल प्रकृति सबको नित्य व अनित्य उभयरूप माना है. द्रव्य अपेक्षा नित्य है, पर्यायकी अपेक्षा अनित्य है। सर्वथा नित्य माननेसे . क्या दोष आयगा उसे श्री समन्तभद्राचार्यने आप्तमीमासामें कहा है नित्यत्वकांतपक्षेऽपि विक्रिया नोपपद्यते । प्रागेव कारकामाव. क प्रमाणं क तत्फलं ॥ ३७॥ मा. पदार्थको यदि एक ही अपेक्षामे नित्य ही माना जावेगा तो उसमे कोई विकार या परिणाम या अवस्थाएं नहीं होसक्ती है। जव कर्ता, कर्म, करण आदि कारक न होंगे तब न उसमें मिथ्याज्ञान हटकर यथार्थ ज्ञान होगा और न उसके ज्ञानका फल होगा कि यह त्याग करो व यह ग्रहण करो। अनेकांतमय स्वभाव वस्तुका माननेवाला जैनदर्शन है । एक ही अपेक्षा जीवको अकर्ता माननेसे उसके संसारका अभाव आता है । व्यवहारकी अपेक्षा कर्ता है, निश्चयकी अपेक्षा अर्ता है, इसी सूक्ष्म अंतरसे जैनदर्शन व सांस्य दर्शनका मतभेद है । वैसे बहुत अंशमे एकता है । शिष्य-क्या गीतामे काई और दर्शन भी झलकता है ? शिक्षक- गीताके नीचे लिखे श्लोकोंसे वेदात दर्शन भी झलकता है जिसका यह सिद्धांत प्रगट है यह श्य जगत व दर्शक दोनों एक है । ब्रह्मरूप जगत है, ब्रह्म हीसे पैदा हुआ है, ब्रह्म हीमे

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