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भगवद्गीता और जैनधर्म ।
[२६३ शिप्य-साग्न्य और वेदातसे अन्तर मालूम पडता है। साख्य नो ईश्वरको कर्ता व फलदाता नहीं मानता है । वेदात तो ईश्वरको ही कर्ता मानता है व जगतको ईश्वररूप ही मानता है। ऐसे दो मिद्धात एक पुस्तकमे क्यो'
शिक्षक -वक्ताकी इच्छा अनुसार दो प्रकारके सिद्धातोंसे ही ईश्वरको बनाया गया है। जिसको जो मचे सो माने। जैन वेढांतका इस सम्बन्धमे बहुत अंतर है क्योकि जैन द्वैनसिद्धांत है। छ• द्रव्योकी मूल सत्ता मानता है जब कि वेदात एक ब्रह्मको ही मानता है । वेदांतकी अपेक्षा साग्व्यमे जैन दर्शनका साम्य अधिक है।
शिष्य--क्या कोई अपेक्षा है जिससे वेढांतका और जैनका माम्य होसक्ता है ?
शिक्षक--शुद्ध निश्चय नयसे सर्व जीव एक जातिमय शुद्ध है। तथा सर्व लोक जीवोंसे व्याप्त है, इस अपेक्षा यह विश्व जीवरूप है या ब्रह्मरूप है । एक तत्वज्ञानी अपनी दृष्टि सर्व अजीवोंसे हटाकर समताभाव लानेके लिये एक ब्रह्ममय जगतको अनुभव करता है तब उसे एक ब्रह्म ही दिखता है। अथवा जब ध्याता ध्यानमें लीन होकर आत्मानुभवमें जम जाता है तब वहा उसके अनुभवमें कोई तर्क वितर्क विचारांकी तरंगें नहीं होती है, एक अद्वैत आत्मभाव ही स्वादमे आता है। ध्याताकी अपेक्षा मानो सिवाय एक अद्वैतके और कुछ है ही नहीं ऐसा झलकता है। यदि वेदातके अद्वैत सिद्धातका यह भाव हो जो जैन सिद्धातसे एकता होजाती' है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि पदार्थोकी सत्ता ही मिट जाती